मीडिया में दलित आ भी जाये तो करेंगे क्या ?
मीडिया में दलितों की भागीदारी और उनके सरोकरों की क्या स्थिति है सब जानते हैं। किस तरह उन्हें आने नहीं दिया जाता या उनके लिए दरवाजे बंद कर दिये जाते हैं । फॉरवर्ड प्रेस के मई13 के अंक में 'जातीय पैकेजिंग के टी.वी. चैनल' में वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने दलितों के मीडिया में आने और उनके प्रवेश पर अघोषित रोक पर लिखा है कि,'हर साल एक अच्छी-खासी संख्या में पिछड़े, दलित, आदिवासी लड़के-लड़कियां भारतीय जनसंचार संस्थान से डिग्री लेकर निकलते हैं। आईआईएमसी, भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रवेश लेने के लिए इस वर्ग के लड़के-लड़कियां परीक्षा देते हैं। फिर कई परीक्षाएं पास करने के बाद वे डिग्री लेती हैं। लेकिन, उसके मीडिया संस्थानों में फिर उनकी योगता की परीक्षा शुरू होती है। वह मीडिया संस्थान चाहे सरकारी हों या पूंजीपति के। हर जगह इस वर्ग के युवा अयोग्य करार दिए जाते हैं दरअसल, समाजिक प्रतिनिधित्व की अपनी एक सीमा है और उस पर पूरा समाज आश्रित नहीं हो सकता।' इस सवाल के साथ कई और सवाल उठते रहते हैं। आखिर क्या वजह है, मीडिया में दलितों के साथ दलित समस्याएं भी अनुपस्थित है ? अगर मीडिया में दलित आ भी जाये तो करेंगे क्या ? दलित मीडिया में आना नहीं चाहते? दलितों का हो अपना मीडिया यानी वैकल्पिक मीडिया बने ? मुख्य धारा की मीडिया को जनतांत्रिक कैसे बनाया जाय ? सहित कई सवाल, लखनउ में 31मार्च2013, को'मीडिया में दलित ढूंढ़ते रह जाओगे' पुस्तक लोकार्पण व परिसंवाद में भी उठे। देष के जाने माने चिंतकों-आलोचकों-पत्रकारों ने चर्चा कर सवाल उठाये और जवाब भी ढूंढने की कोशिश की। आइये चर्चा पर डालते हैं एक नजर।
मीडिया में दलित और उनके सरोकार ढूंढ़ने पड़ते हैं फिर भी दोनों नहीं मिलते हैं। मिलते भी है तो नगण्यता की तरह। आलोचक वीरेंद्र यादव ने 'मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे' को लेकर कई सवाल उठाये। भारतीय मीडिया के चरित्र को पर्दाफाश करते हुए कहा कि कैसा है हमारा मीडिया ? इस मीडिया में मुकम्मल भारत की तस्वीर नही हैं, गांव नहीं है, हाशिये का समाज नहीं है। मीडिया में दलितों के साथ दलित समस्याएं भी अनुपस्थित हैं। आज समाज को समग्र नजरिये से देखने की जरूरत है। दलितों की उपस्थिति के साथ, दलित समाज के आलोचना की जरूरत के लिए भी मीडिया में दलितों की आवश्यकता है। राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिली पर सामाजिक जनतंत्र ? एक बड़ी चुनौती हमारे सामने है । वह है सामाजिक जनतांत्रिकीकरण का। इसके लिए भारत में सामाजिक जनतंत्र स्थापित करना ही होगा। इसके बिना जनतंत्र का क्या अर्थ ?
मीडिया में दलित का मुद्दा इन सारे से प्रश्नों से जुड़ा हुआ है। यह महज आरक्षण का या प्रतिनिधित्व का सवाल नहीं है या जनतंत्र को लेकर मीडिया का यह मुद्दा पहली बार नहीं उठा है। संजय कुमार की इस किताब में रॉबिन जाफरी का जिक्र आया है। वे वाशिंगटन पोस्ट के नई दिल्ली में संवाददाता रहे थे और अपनी एक स्टोरी के सिलसिले में वे चाहते थे कि किसी दलित पत्रकार से बात करें। इस सम्बन्ध में उन्होंने पीआईबी से सम्पर्क किया और दलित पत्रकारों का विवरण मांगा। लेकिन एक भी दलित पत्रकार पीआईबी की लिस्ट में उन्हें नहीं मिला। सैकड़ों मान्यता प्राप्त पत्रकार पीआईबी की लिस्ट में है लेकिन देश के एक भी दलित का नाम सूची में नहीं मिलना चैकानें वाली बात थी। उन्होंने इस पर वाशिंगटन पोस्ट में एक लेख किहा और अपने दिल्ली के पत्रकार मित्र बी.एन.उनियाल से बात की। उनियाल ने दि पॉयनियरमें एक खबरनुमा स्टोरी लिखकर इस समूचे प्रकरणका जिक्र किया। इसके बाद योगेन्द्र यादव ने अपनी सी एस डी एस की टीम के सर्वेक्षण द्वारा इस बात का खुलासा किया कि देश की राजधानी दिल्ली में जो प्रिंट और मीडिया हाउस है वहां निर्णय लेने वाले पदों पर 90 प्रतिशत द्विज समाज के लोग काबिज है। बाकी 10 प्रतिशत में दूसरे लोग है और किसी भी निर्णायक पद पर दलित या शूद्र नहीं है। इस तथ्य के खुलासा होने से इस पर लंबी बहस शुरू हो गयी, उस वक्त दैनिक हिन्दुस्तान की संपादक मृणाल पाण्डेय ने सर्वे पर श्जाति श्तलाशने का आरोप मढ़ते हुए एक लेख लिखा 'जाति न पूछो साधो की…….।
मीडिया में दलित उपस्थित नहीं है और जब मीडिया में गैरद्विजों की उपस्थिति या दलितों की उपस्थिति का सवाल उठाया गया तो मीडिया के वर्चस्वशाली लोगों द्वारा उसका एक प्रतिकार और प्रतिरोध किया गया। यह तर्क भी दिया गया कि मीडिया मालिकों का किसी तरह का निर्देश नहीं है कि हम दलितों या निम्न वर्गों से आये लोगों की नियुक्ति न करें। अगर योग्य नहीं मिलते है तो हम क्या करें ? लेकिन एक उदाहरण मौजूद है सिद्धार्थ वर्द्धराजन का जो, आज 'हिन्दू' के संपादक हैं। वे जब रिर्पोटिंग करते थे तब चेन्नई की एक घटना का हवाला दिया। जिससे इस बात का अंदाजा लगता है कि दलितों की समस्याओं को लेकर अखबारों में कितनी शोचनीय स्थिति है। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा कि एक मेडिकल कॉलेज के दलित छात्रों ने भेदभाव का आरोप लगाते हुए आंदोलन किया और हड़ताल पर चले गये। इसकी खबर एक भी समाचार पत्र में नहीं छपी। दलित छात्रों का प्रतिनिधि अखबारों में गया और उन्हें बताया भी, फिर भी खबर नहीं आयी। वे सिद्धार्थ वर्द्धराजन से मिले, अपनी बातें बतायी। वर्द्धराजन ने शहर के संस्करण प्रभारी को खबर छापने को लेकर चर्चा की । प्रभारी ने रिपोर्टर भेजने की बात कही। लेकिन रिपोर्टर को नहीं भेजा गया। कई दिन बीत गये लेकिन खबर नहीं आयी। तब उन्होंने ने अपने सीनियर से रिपोर्टर भेजकर समाचार कवरेज के लिए कहा, इसके बावजूद भी कुछ नहीं हुआ। स्वयं सिद्धार्थ वर्द्धराजन मेडिकल कॉलेज गये और दलित छात्रों के साथ भेदभाव पर पूरी रिपोर्ट तैयार की और छपने के लिए अखबार को दे दिया। वह स्टोरी एक हफ्ते तक नहीं छपी। जब स्टोरी नहीं छपी तो उन्होंने संपादक से कहा। कई दिनों के बाद जब दलित छात्रों का आंदोलन समाप्त हो गया तो वह स्टोरी छपी। सिद्धार्थ वर्द्धराजन ने इस तथ्य की ओर इशारा किया कि स्थिति यह है कि अखबारों में दलित की उपस्थिति तो है ही नहीं और दलितों की अनुपस्थिति के साथ-साथ दलित समस्याएं भी इस तरह से अनुपस्थित है।
तमिलनाडु के ही एक अंग्रेजी में जब एक दलित साक्षात्कार देने गया तो उससे सवाल समाज-देश-पत्रकारिता के बारे में न पूछकर यह पूछा गया कि आप किस इलाके से आते हैं ? जब उस दलित उम्मीदवार ने अपने निवास के इलाके का नाम बताया तो कहा गया वहां तो अमुक जाति के लोग हैं तो क्या तुम उस जाति के हो ! जब दलित उम्मीदवार ने कहा नहीं तो वे जान गये कि ये दलित है। सामने वाला किस जाति- समाज का है ? इस तरह से नियुक्ति जात के बारे में सवाल जवाब किया गया। कहा जा सकता है कि यह एक प्रभुत्वशाली प्रवृति व् मनोदशा है। यानी जो माईंडसेट है, माहौल है, वह दलित विरोधी है। जो अपने आप एक दर्द है। 1975 के आसपास अमेरिका की पत्रकारिता में ब्लैक की स्थिति बहुत कम थी। इसे लेकर कुछ लोग आगे आये। मीडिया में अश्वेतों की कम उपस्थिति पर चर्चा की गयी। संपादकों की बैठकें हुई। एक आयोग गठित किया गया और तीन साल में उनके अनुपात को बढ़ाना तय किया गया । इसके लिए उन्होंने एक प्रक्रिया अपनाई। कुछ लोगों को विधिवत प्रशिक्षित किये जाने का फैसला हुआ। और फिर एक जर्नलिस्ट टैलेंट सर्च हुआ, यानी मीडिया में ब्लैक के प्रतिनिधित्व के लिए कार्यक्रम बना और नतीजा यह हुआ कि आज कई अखबारों के प्रभारी ब्लैक हैं। लेकिन भारतीय समाज में यह आज भी दिवास्वप्न सरीखा है ।
भारतीय मीडिया में दलित है ही नहीं तो करेंगे क्या ? जब सिद्धार्थ वर्द्धराजन दलितों की समस्याओं के लिए स्टोरी करते है और छपती नहीं है तो एकाध दलित को नौकरी मिल भी जाय तो इस तरह का जो मीडिया का व्यवहार है उसका क्या करेंगे? सवाल है कि मीडिया में व्यवस्थागत परिवर्तन का। वैकल्पिक मीडिया की बात होती रहती है, होती रहनी चाहिए और चलती रहनी चाहिए। लेकिन जो मुख्यधारा का मीडिया है उसे हम जनतांत्रिक कैसे बनाये, यह एक बड़ा सवाल है। इस मुख्यधारा के मीडिया में दलित समाज के लोगों की कैसे सम्मानजनक व प्रभावकारी उपस्थति दर्ज की जाये , यह भी एक बड़ा सवाल है। ग्राउंड लेबल पर यह स्थिति बनी हुई है कि दलित और आदिवासी हाशिये के समाज के लोग हैं। हाशिये के समाज के लोग इन माध्यमों में आते हैं तो उनके साथ भेदभाव किया जाता है। और सबसे बड़ा सवाल यही है कि आ भी जायेंगे तो करेंगे क्या ?
हाल ही में एक पुस्तक आयी है 'अनटचेबिलिटी इन रूरल इंडिया' जो भारत के ग्यारह राज्यों के सर्वे पर आधारित है। सर्वे में कहा गया है कि भारतीय समाज में किस-किस तरह से दलितों के साथ आज भी भेदभाव किया जाता है। सर्वे बताता है कि आज भी भारत के 80 प्रतिशत गांव में किसी न किसी रूप में दलितों के साथ अछूत सा व्यवहार किया जाता है। पंचायत में नीचे बैठने को कहा जाता है। मीड डे मील को लेकर भेदभाव किया जाता है। चार में से एक गांव आज भी ऐसे है जिनमें नये कपड़े, छाता लेकर चलने और चश्मा लगाने, जूता पहनकर चलने पर दलितों को रोक है। शहर के दलितों के साथ शायद ऐसा नहीं हो! लेकिन आज भी यह हो रहा है। भारतीय समाज में खासकर दक्षिण भारत में कई ऐसे जगह है जहां पर ढाबों में दलितों के लिए अलग से बर्तन रखे जाते हैं। यह कहा जाता है कि आज ग्लोबलाइजेशन हुआ है मार्केट तंत्र आया है इससे कुछ सामाजिक समानता आई है द्य लेकिन जमीनी सच यह है कि आज भी गाँव के बाजार में जब दलित जाता है तो उसके साथ उसकी जातिगत पहचान बनी रहते है द्य दूसरे लोगों की तरह वह सामानों को अपने हाथ में उठा-उ कर देखकर खरीद नहीं सकता, उसे दूर से ही दुकानदार को बताना होता है। सर्वे आधारित ये जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे आज के ग्रामीण भारत के रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है।यह सच हमारे अखबारों में नहीं छपता। हिन्दी अखबारों में तो बिल्कुल नहीं। हिन्दी अखबारों में दलित तब उपस्थित होता है जब कोई बस्ती या गांव जला दिया जाता है। आज सांप्रदायिकता को तो बड़े खतरे के रूप में पहचाना गया लेकिन उससे भी बड़ा खतरा है दलितों के साथ भेदभाव । यह भारतीय समाज का सच है। अंधेरे भारत का सच है, जो हमारे भारतीय मीडिया में अनुपस्थित है ।
दलित की उपस्थिति होगी तो कुछ संवेदनशीलता आयेगी। कल्पना कीजिए कि न्यूज रूम में 10 में से 9 द्विज समाज के लोग है। अगर 10 में से 9 दलित और शूद्र समाज के लोग हो, तो दलितों के मुद्दे सामने आयेंगे। यह मात्र दलित उपस्थिति का मुद्दा नहीं है बल्कि भारतीय समाज के जन्तान्त्रीकरन और समाजीकरण का भी मुद्दा है।
परिसंवाद में बहस को आगे बढ़ाते हुए चर्चित दलित चिंतक अरूण खोटे ने दलितों को मीडिया का जनक बताया। इतिहास का हवाले देते हुए उन्होंने कहा कि दलितों की कई उपजातियां भांट/ढोलकची आदि ही सूचनाओं का प्रचार-प्रसार करते थे। इसके बावजूद शिक्षा और संसाधनों से वंचित यह वर्ग अब मीडिया से गायब हो गया है। बात सिर्फ मीडिया में दलितों के प्रतिनिधित्व की नहीं है, बल्कि दलितों के मुद्दों के लिए भी है। आज मीडिया में दलित नदारत हैं सवाल यह है कि मीडिया में दलितों को ढूंढ भी लिया जाये तो क्या कर करेंगे। क्योंकि मैने ढूंढे हैं। मिले भी हैं। 80 के दशक को देखें तो उस वक्त का मीडिया सामाजिक सारोकारों का भारतीय मीडिया था। उसमें समाज रहता था। 90 के दशक तक वह बहुत व्यवसायी हो जाता है। दो हजार दशक में आते-आते व्यवसायिक हो जाता है और आज जब हम 2013 में यह बात करते हैं तो वह बाजार हो जाता है। सामाजिक सारोकार और व्यवसायिक सारोकार में मीडिया की बात करते हैं तब समरस्ता, दर्शन, पाठक और मीडिया दिखता है। आज जो वह रिश्ता है वह, उपभोक्ता और बाजार का है। ऐसी स्थिति में हम क्या बात करें। आज हम यहां बैठे हैं तो लगभग देश के सभी प्रमुख न्यूज चैनलों में एक समाचार चैनल जो इस बीच बता रहा है कि हरियाणा के रोहतक में दो दलितो की बर्बरता से हत्या कर दी गयी। सिर्फ एक चैनल इसे दिखाता है। डी.एन.ए अखबार में होली के दूसरे दिन एक खबर छपती है, होली की पूजा करने गये दलितों पर हमला किया गया।
श्री खोटे ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि अमेरिका में जब अश्वेत लोगों को मीडिया में शामिल करने की बातचीत हुई और उसे लेकर व्यापक चर्चा हुयी। सवाल यह है कि हिन्दुस्तान का मीडिया होता तो क्या वह पहल करता। सवाल यह भी है कि फैसले ले भी ले तो क्या होगा। अगर दलित को कोई बड़ा अखबार नौकरी दे भी दे तो वहां जा कर वह करेगा क्या। मीडिया में सिर्फ प्रतिनिधित्व से क्या होगा। सवाल यह है कि मीडिया में दलितो के मुद्दों के लिए जगह है। दुर्भाग्य की बात यह है कि मीडिया में जो भी दलित हैं वे अपनी पहचान छुपाते हैं। अगर वे पहचान सामने रखते हैं तो वे मीडिया में ज्यादा दिन टिक नहीं पाते हैं। देखा जाये तो यह एक गम्भीर मुद्दा है दलितो के मुद्दों के प्रति पैंसठ साल में एक योगेन्द्र यादव की 2006 में सर्वे आती है और आज यह किताब आयी है। पैंसठ साल में मात्र दो अध्ययन अभी तक यह नहीं तय हो पाया है कि कम से कम ये भी अध्ययन होने चाहिए कि आखिर मीडिया में दलितों की जगह भी है। मैं जानता हूं आप लोग भी जानते हैं कि लखनउ के बड़े अखबार ने कई मेधावी पत्रकार खासकर आई.आई.एम.सी से निकले पत्रकार को मौका दिया। लेकिन मैंने अब तक दस साल में नहीं देखा की उन्होंने दलित मुद्दो को मौका दिया हो। आज के संदर्भ में मीडिया को देखे तो पूरा बाजार हो चुका है। बड़ी संभावनाये हैं और इसमें एक बड़ी संभावना की भी जरूरत है। दुर्भाग्य की बात यह है कि इस संभावना के दरवाजे में ज्यादा कीलें ठुकती जा रही है और यही कारण है कि वह पल सामने नहीं आ रहा है जिसकी हमें जरूरत है। यदि बाजार है तो खरीदार होंगे। जेब में पैसा है तो खरीद सकते हैं। लखनउ के अन्दर यह तय किया जाये कितने दलित अखबार खरीदते हैं। एक अखबार को लिया जाये और तय कर लिया जाये कितने प्रतिशत दलित अखबार खरीदते हैं तब उन्हें बाध्य किया जा सकता है, कम-स-कम इतना स्पेस हमारा होना ही चाहिए।
लगभग चार साल पहले एक अध्ययन आया था हिन्दुस्तान के अमीर लोगों को लगा की सबसे ज्यादा टैक्स हम देते हैं। एक अध्ययन आया योजना आयोग का उसमें था कि सबसे ज्यादा टैक्स अदा करने वालों में बीपीएल वाले हैं। जो माचिस की टिकिया से लेकर चावल-दाल खरीदने पर टैक्स देते हैं। आज स्थिति यह है कि अखबार में जो खबर छपती है उसकी कीमत तय होती है जो विज्ञापन के स्तर पर तय होती है। खबर तभी छपती है जब तक उसकी कीमत अखबार को मिल नहीं जाती है। मतबल, बाजार के हिसाब से खबरों को छापा और बेचा जाता है।
वैकल्पिक मीडिया पर सवाल उठाते हुए अरूण खोटे जी ने कहा कि इसका हम करेंगे क्या? अरविंद केजरीवाल आज हड़ताल पर हैं तो अखबार में उनकी छोटी सी खबर पांचवे-छठे पेज पर छप रही है। यही केजरीवाल जब अन्ना के साथ आंदोलन कर रहे थे तब पहले पेज पर छपते थे। यदि टीआरपी और प्रसार संख्या से चीजें तय होती हैं। बाजार तय कर रहा है कि क्या छपेगा, क्या नहीं। देश में आज भी 140 तरह की छुआछूत की प्रथाएं चल रही है। शहर में लगभग 35 प्रतिशत यह कायम है। मीडिया में पत्रकार बनने वालों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि 80 के दशक तक जो लोग पत्रकार बनने की प्रक्रिया में थे वे मीडिया में प्रवेश किये और 90 तथा दो हजार के दशक में आज कौन लोग आ रहे हैं। पत्रकार बनने की जो पुरानी शैली थी। जिससे हम लोग भी निकलकर आये हैं। कहीं-न-कहीं सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन से निकलकर आये या जो लोग राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन के हिस्सेदार थे। या वे लोग जो संवदेनशील थे। जिन्हें अपनी बात रखने की जरूरत महसूस हुई। लोगों के बीच अपनी बात रखने की जरूरत हुई। उनलोगों ने लिखना शुरू किया। यह जो सामाजिक सरोकार की बात थी, लेकिन जब मीडिया व्यवसायिकता के दौर में पहुंचा तब मीडिया व्यवसायिक होने लगा, डिग्री और डिप्लोमा की बात आने लगी, आज कितने पत्रकारों से उम्मीद करते हैं कि वह सामाजिक संवेदना का साथ दें। वे भागते जाते हैं, अपनी गाड़ी ठीक से स्टैंड पर लगाते भी नहीं है। कार्यक्रम के शुरू होने के पहले ही प्रेस रिलीज मांग लेते हैं। ऐसे लोगों से हम कैसे उम्मीद करेंगे कि वे सामाजिक सरोकार के साथ न्याय करें और पूरे देश के साथ खड़े हो जाये। स्थिति खतरनाक भी है, लेकिन संभावना भी है। एक बात आज स्पष्ट है कि आप संपादक-पत्रकार की जितनी भी आलोचना कर लें, लेकिन कई संदर्भों में यह बेकार किस्म का मामला बनता है। क्योंकि आज कॉर्मिशयल विभाग तय करता है कि अखबार में कितना और क्या छपना चाहिए। अगर कॉर्मिशयल विभाग तय कर रहा है कि क्या होगा तो ऐसे में हमें आज की मीडिया को नये संदर्भों में समझने की जरूरत है।
तमाम तरह की पत्रिकाएं निकल रही है। महाराष्ट्र में एक सफल दलित अखबार महानायक आज भी निकल रहा है। अनेक प्रयासों को देखने की आवश्यकता है। दलित संदर्भों से तमाम पत्रिकाएं साथी निकाल रहे हैं, लेकिन कहीं-न-कहीं संसाधनों के अभाव में या अन्य कारणों से लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, इसलिए जब वैकल्पिक मीडिया की बात आती है, तब हमें लगता है कि मुख्य धारा का विकल्प कैसे बना जाये। उनके सरोकार अलग है, मेरे सरोकार अलग हैं। मैं उनका विकल्प कैसे बन जाउ। यह जरूर हो सकता है कि जिस वर्ग को हम संबोधित करना चाहते हैं, उस वर्ग को बाजार के रूप में मुख्यधारा से जोड़ दें और इसमें बहुत जरूरी होता है कि हमें वैकल्पिक मीडिया से एक कदम आगे समानांतर मीडिया को खड़ा करना। इन सभी चीजों को बेहतर ढंग से देखने की जरूरत है। मीडिया के उपर एक गंभीर बहस की जरूरत है। आज की तारीख में हालत यह है कि सामाजिक-राजनीतिक कार्यकत्ता अखबार के दफ्तर में रिलीज छोड़ते हैं। लेकिन अखबार के अंदर के मैकेनिज्म को नहीं जानते हैं। खबर छपा तो क्यों, नहीं छपा तो क्यों, और जो दिया था वह क्यों नहीं छपा, जैसा हमने कहा था, वैसा क्यों नहीं छपा। अगर जवाबदेही तय किया जाये तो वह कौन तय करेगा। यह एक महत्वपूर्ण सवाल है और खतरा भी। यह खतरा जनतंत्र के लिए नहीं बल्कि मीडिया के लिए है जो मीडिया के लिए भी आत्मघाती दौर है। अगर मीडिया के साथी सही समय पर नहीं चेते तो शायद आने वाला दौर मीडिया को बद-से-बदतर स्थिति में ले जायेगा, क्योंकि बाजार हावी हो चुका है, और आपका मन-मस्तिष्क पूरी तरह गुलामी की स्थिति में है।
वहीं दलित चिंतक एस आर दारापुरी ने कहा कि दलितों के साथ अब भी भेदभाव बरकरार है। लेकिन यह सब मीडिया में खबर नहीं बनती है, क्योंकि मीडिया भी उसी द्विज वर्चस्व को बरकरार रखना चाहता है। उन्होंने कहा कि मीडिया में दलित नहीं है यह सच्चाई है। तो सवाल यह है कि हम क्या करें। ऐसे में दलित मीडिया को आगे लाने की जरुरत है। जहां तक मीडिया में दलित का सवाल है, तो मीडिया में दलित नहीं है। इस पर राॅबिन जी की पुस्तक पढ़ी है। उस पर एक पूरा चैप्टर मीडिया में दलित क्यों नहीं है के उपर है। काफी विस्तार से लिखा गया है। सच है कि मीडिया को लोकतंत्र का चैथा खभ्भा कहा जाता है, उसमें दलित नदारत है, अदृश्य हैं, उनका प्रतिनिधित्व नहीं है, उनकी अपेक्षाएं, दुःख-दर्द मीडिया में नहीं आते हैं। मीडिया द्विजों के हाथ में हैं। वे जैसा चाहते है, लोगों को परोसते हैं और हमलोग उसे पढ़ने के लिए बाध्य हैं, क्योंकि हमारे सामने दूसरा पक्ष देखने-सुनने को मिलता ही नहीं। आजादी के पहले के मीडिया को देखें तो पाते हैं कि थोड़ी जगह दलितों के लिए थी, लेकिन आजादी के बाद दलित एक प्रतिद्वंदी के रूप में खड़े होने लग गये तो उन्हें मीडिया से अदृश्य करने की कोशिश होने लगी है। सच्चाई यह है कि मीडिया में दलित नहीं है, इसके ऐतिहासिक कारण है। वर्तमान में स्पष्ट कारण है मीडिया जिनके हाथ में रहा है और आज जिनके हाथ में हैं, वे किसी भी कीमत में दलितों को अपनी मीडिया में जगह देने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि मीडिया का अपना वर्ग चरित्र होता है, वह अपने वर्ग हित को स्वीकाराना चाहता है, बढ़ाना चाहता है। मीडिया के अंदर कुछ भूले-भटके आ भी गये तो दिखावे के लिए उनको जो काम दिया जाना चाहिए वह नहीं दिया जाता है। दलितों की जो खबरें छपती हैं, जब तक बलात्कार नहीं हो जाता, आगजनी नहीं हो जाती, तब तक मीडिया में खबर नहीं बनती है। हर रोज दलितों के साथ भेदभाव हो रहा है, उत्पीड़न हो रहा है, वह खबर नहीं बनती। बुंदेलखंड में आज भी दलित जाति के लोग जूते पहन कर ब्राह्मणों के घर के आगे से नहीं निकल सकते। सार्वजनिक कुएं से पानी नही भर सकते। सरकारी हैंडपाईप से पानी नहीं ले सकते। ये सब मीडिया में खबर नहीं बनती और न ही खबर बनेगी, क्योंकि मीडिया पर द्विज व्यवस्था को सरकार भी बरकरार रखना चाहती है। इसकी उपज मीडिया है। दलितों के साथ मीडिया का सरोकार है, क्योंकि इसमें भी कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता, क्योंकि जाति भेद मजबूती से खड़ा है। गांव में चले जाय वहां साफ दिखेगा। शहरों में छुपे रूप में दिखेगा। सवाल यह है कि दलित मीडिया में नहीं है तो क्या किया जाना चाहिए। एक बात तो यह है कि जो जगह वैकल्पिक मीडिया की है वह निर्धारित किया जाना चाहिए। बड़े-बड़े निजी अस्पताल-स्कूल आदि बनते हैं, तब सबको अनुदानित दर पर जमीन दी जाती है और शत्र्तें होती है कि अस्पताल बनता है, तो उसमें बीपीएल परिवारांे के लिए चिकित्सा व्यवस्था मुफ्त दी जाये। इसी तरह से मीडिया को प्रिंट पेपर और विज्ञापन सरकार देती है। इन सब को देखा जाय तो सरकार के समक्ष इसे रखा जाय कि ये हमारी खबर नहीं छापते हैं। आप इनको विज्ञापन आदि की सुविधा देना बंद कर दीजिए। दलितों को इस पर सोचना पड़ेगा कि कैसे मीडिया को मजबूर करें, कि हम भी देश में हैं, हम भी टैक्स देते हैं। हम यह भी कर सकते हैं जो अखबार हमारी खबरें नहीं छापती हैं तो उनका बहिष्कार करें। एक सर्वे होना चाहिए कि कौन पेपर दलित विरोधी है फिर उसका खुलेआम बहिष्कार कर देना चाहिए। वैकल्पिक मीडिया का सवाल है तो इस पर ईमानदारी से विचार करना चाहिए। हमारा मीडिया कैसे आएं इस पर चिंतन की जरूरत है। यह जरूरी नहीं कि दूसरे लोग हमारी बात पढ़े। हम इस समय 18-20 करोड़ दलित है। उत्तरप्रदेश में तीन-से-चार करोड़ दलित है। क्या एक पत्रिका नहीं चल सकती है एक अखबार नहीं चल सकता। मीडिया में दलित क्यों नहीं हैं। इसे बाहरी और अंदरूनी कारणों को हमें ईमानदारी से ढूंढ़ने की जरूरत है।
बहस को आगे बढ़ाते हुए प्रगतिशील महिला एसोसिएशन, लखनउ की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन कहती है कि हमें लड़ाई लड़नी होगी और यह लड़ाई दलित के साथ मिलकर लड़नी होगी। सवाल खड़ा करना होगा। दलितों के प्रति जो व्यवहार हो रहा है उसे लेकर विरोध के स्वर उठने चाहिए मुसलमानों के प्रति, अलपसंख्यकों के प्रति, जो भी कुछ हो रहा है इसके खिलाफ हम कैसे लड़ेंगे- यह हमें तय करना होगा और यह सवाल भी हमें अपने आप से करना होगा कि यह जो मीडिया में सवाल खड़ा हो रहा है। क्या उनके नेतृत्व में हम उनकी तरह भोकल हो कर लड़ सकेंगे। हमें यह भी सवाल खड़ा करना है और दलितों के लिए मीडिया में आने के लिए लामबंद तरीके से पहल शुरू करनी चाहिए। हमें मिलकर लड़ना होगा एक वैकल्पिक मीडिया भी होनी चाहिए लेकिन यह नेषनल मीडिया कौन हो यह भी सवाल खड़ा करने की जरूरत है।
जन संस्कृति मंच,लखनउ के संयोजक कौशल किशोर कहते है कि मीडिया के चरित्र के सवाल पर, दलित आंदोलन के सवाल पर, यह सवाल दलितों के लिए नहीं है। हमारे समाज में कई सवाल है-शेषित उत्पीड़ित जनता के सवाल है और मूलतः मीडिया के जो सवाल है वो अंततः जाकर इस व्यवस्था से कहीं बड़ा सवाल है। जब तक किसी समाज का लोकतांत्रिकरण नहीं होगा तब तक इस तरह के सवालों के हल नहीं मिलेंगे। श्री किशोर ने कहा कि कहने को तो लोकतांत्रिक व्यवस्था है लेकिन समाजिक बराबरी आज भी दुर्लभ है। कहने को तो मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी, चैथा खंभा, मजबूत स्तंभ का ढांचा कहा जाता है परन्तु इसकी बनावट जातिवादी तथा दलित विरोधी है। निचले तबके, पिछड़े, दलितों को आगे कैसे लाया जाए। आज मीडिया की आंतरिक संरचना कैाी है? आज मीडिया का वास्तविक चरित्र देखा है। हिन्दी मीडिया को मनुवादी, हिन्दू मीडिया बनते देखा है।दलित मीडिया से जुड़ना तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें जान-बूझकर इससे दूर रखा जाता है। यदि कोई प्रतिभाशाली और योग्य दलित मीडिया में प्रवेश भी पा लेता है तो उसे शीर्ष तक पहुंचने नहीं दिया जाता, बल्कि उसे बाहर का रास्ता दिखाने के लगातार उपाय ढंढेू जाते हैं।उन्होंने एक समानांतर मीडिया लाने के लिए मुहिम चलाने की जरूरत पर भी बल दिया जो, जनता के प्रतिरोध के स्वर के साथ सक्रिय हो सके।
——-
संजय कुमार
303,दिगम्बर प्लेस,डौक्टर्सक कालोनी,
लोहियानगर,कंकड़बाग,पटना-800020,बिहार
मो-9934293148
No comments:
Post a Comment