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Wednesday, July 10, 2013

हिमालय की छवियां

हिमालय की छवियां


पलाश विश्वास


1


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो


फेसबुकिया दीवाल की आभासी दुनिया में आजकल हिमालय के मुखातिब होता रोज मैं

कभी राजीवदाज्यू, कभी युवा चंद्रशेखर करगेती,कभी पुरातन राजीवनयन

फिर कभी देवेन मेवाढ़ी या अपने शाश्वत नेता शमशेरदा

या तेजतर्रार पत्रकार विदुषी सुनीता भास्कर

या अपने खास डीएसबी के डा.बटरोही

या हमेशा हमारी निगरानी करते जीआईसी के

ताराचंद्र त्रिपाठी

या फिर हिमालय बचाओ, हल्द्वानी आन लाइन, उत्तराखंड,म्यर उत्तराखंड, बेड़ू पाको, नैनीताल लवर्स,हिमालयान व्यावस,हमरु गढ़वाल

या उत्तराखंड शिक्षक संघ बजरिये

अपने पीसी पर बैठे बैठे रात दिन

अपने हिमालय के मुखातिब होता मैं


दर्द का वह महासैलाब, आपबीती की गगन घटा गहरानी

मेरे कटे हुए वजूद को आवाज देती पल प्रतिपल

और फूटते हुए ग्लेशियरों के बीचोंबीच

मरीचझांपी में तब्दील मैं स्वयं

अपने पहाड़ को मरीचझांपी में तब्दील देखता


देखता धुआं धुआं पहाड़

रेडियोएक्टिव विकिरण की पीड़ा

धमनियों और शिराओं में तब

पिता की रीढ़ में तब्दील

और बजबजाते हुए कैंसर के मारे

खूब जोर चिल्लाने को जी होता

और तभी

मेरे एकदम सामने प्रकट हो जाते हुड़काधारी

गिराबल्लभ, यानी अपना गिरदा

बहस के बजाय

धिक्कारी जलप्रलय में प्रवाहित होते

और घाटियों से लेकर धारों तक

गूंजती ध्वनि प्रतिध्वनि

थूः

गाड़ गधेरे घघहराते प्रबल

बगने लगता सारा हिमालय

और जल रहा होता धूधू

कोई मरीचझांपी अपना हिमालय


तब कहां थे अखबरों के पहाड़ी दैनिक संस्करण

नेनीताल में फिरभी दैनिक पर्वतीय तो था

बाकी लखनऊ दिल्ली के अखबार थे

जो कभी कभार छाप देता था विनासकारी पौधे की खबर

और कोहराम मच जाता था

तब कहां थे मशरूमिये टावी चैनल तमाम

फिर भी चिपको था

फिरभी गिरदा था

फिर भी था

नैनीताल समाचार

और थे ढेरों सारप्ताहिक पहाड़ के कोने कोने से

था सर्वोदय बुलेटिन

और वक्त बेवत्त निकाले जाने वाला परचा,बुलेटिन

और नुक्कड़ सभाएं

फिरभी आग थी

पहाड़ों में हेली पत्रकार अवतरित न हुआ था तब

और न था सबकुछ इतना धुआं धुआं


तब कुंवारे थे तीनों

शमशेर,शेखर और राजीव लोचन शाह

फिर हमने उनकी व्या भी देखी

देखा गृहस्थी में रमते गिरदा को भी

वे नहीं बदले आजीवन तो बाकी पहाड़ इतना बदल गया

पहाड़ का द्रद पहाड़ ही जानें

जैसे मरीचझांपी जाने

सिर्फ मरीचझांपी ही

मन में हो दंडकारण्य तो हिमालय

और बाकी भूगोल में फर्क क्या है


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो



2


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो


तब भी था भयावह संकटसमय कि हजारों तीर्थयात्री फंसे थे

और युद्धस्तर पर जारी था राहत और बचाव अभियान

और मीडिया की हर बाइट में था पवित्रतम चार धाम

लेकिन अपना हिमालय तब भी कहीं नहीं था


थीं नदियां, घाटियां, थीं धारादेवी तक

पर कहीं नहीं थे गांव देहात, ग्राम देवता गोल्ल महाराज

अलौकिक शिवमंदिर की थी महिमा अपरंपार

राममंदिर के बजाय शिवमंदिर बनाने का आह्वान था

अपनों अपनों के बचाव में तल्लीन हर रैम्बो था


कहीं नहीं थे मलबों में दबे अपने लोगों की चीखें,कराहें

लावारिश मरते लोगों की मृत्युयंत्रणा

कहीं भी लाइव नहीं था

टीवी खोलते ही राजनैतिक चेहरे थे

और उनकी धाराप्रवाह बाइट थी

सितंबर अक्तूबर से फिर होगा शरदोत्सव

उसकी गूंज भी थी

पर्यावरण पर भी बोल रहे थे लोग

आपदा और विध्वंस स्पर्श कर रहा था यह महादेश

जिसके लिए हिमालय महज तीर्थाटन है

या फिर बेहद खूबसूरत विश्वसुंदरी के

देहसौष्टवसमृद्ध जड़ दृश्यों का जमघट

या फिल्मों के आउटडोर लोकेशन


उस धूम में लेकिन

न कहीं पहाड़ का दिल था,जो तब भी

मेरे सीने में धड़क रहा था

न कहीं था पहाड़ का दिमाग

न पहाड़ बोल रहा था

और न बगते धंसते सिरे से गुम होते पहाड़ के गांव थे कहीं

और न पहाड़ के लोग कहीं


केदारनाथ में सामूहिक अंत्येष्टि से भी पहले

पूजा के अधिकार को लेकर

सज गया कुरुक्षेत्र

और शकुनि ने बिछा दिये शतरंज

विधवाओं

का विलाप कहीं नहीं था

अट्टहास था प्रबल

विद्रुप था उससे ज्यादा

यात्रियों के लिए

कुछ नहीं करता उत्तराखंड


बलात्कार की खबरें थीं

थी लूट खसोट की वारदातें

थीं ह्रदयविदारक कथाएं

था स्वजनों को खोने की वेदना

गिरते निर्माण विनिर्माण का उल्लास और सनसनी

था लाइव और लाइव, बाकी कुछ न था


ग्लेशियर टूटने का दर्द नहीं था कोई

गांवों की सामूहिक जलसमाधि

खबर नहीं थी कोई

लालटेन की रोशनी में

खुले आसमान के नीचे

भूस्खलन के विध्वंस के बीचों बीच

असहाय खड़ा हिमालय


मरीचझांपी का आकार ले रहा था

1979 में मरीचझांपी में अछूतों,शशरणार्थियों के मृत्यु उत्सव

पर तब भी निर्लिप्त थी भद्रलोक मुख्यधारा

यकीन न हो तो जो फिल्म हमने बनायी

यू ट्यूब पर देख लो

लिंक हैः

Harichand Thakur http://www.youtube.com/watch?v=FW6vSdM5UUM



अब जो दिख रहा है

अछूतोद्धार अभियान से क्या कम है

जैसे आगजनी के बाद

परम उदार परम दानी

बचाव अभियान में सबसे आगे

और खोलते हों अपना अकूत खजाना


तब केदार जाते हुए वापस लौटे थे भाई पद्मलोचन

मूसलाधार बारिश थी

और वह चिकित्सकों की टीम के साथ था

डीएम ने कह दिया कि

केदार घाटी में जा नहीं सकते इसवक्त

फोन पर बहुत रोया पद्मलोचन

मैं तो रो भी नहीं सकता

मेरे पांव में जंजीरें हैं इन दिनों


बस,लिखता हूं

जो अब तक नहीं लिख रहा था

वह ग्लेशियर भी अब फूट निकल रहा है

फिरभी लोगों को शिकायत

कि इतना क्यों लिखते हो


कल फिर आया था भाई का फोन

पंतनगर एफ एम रेडियो से शायद आज

प्रसारित होगा हमारा गांव बसंतीपुर

अब तक हम हिमालय को प्रकाशित

प्रसारित होते देख रहे थे

लेकिन हिमालय को कहीं नहीं देख रहे थे


कौन सुनेगा मेरे गांव की आवाज


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो



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हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो


पिताजी को डायरियां लिखने की आदत थी

रोज वे लिखते थे डायरियां

अपने पीछे जो झोपड़ियां टोड़ गये वे

उन्हें भी मैं छोड़ चुका था

उनके देहांत के दो दशक पहले

और मुड़कर कभी देख नहीं सका

न देख सका उन्हें

उनके संघर्ष के साथियों को

न उनकी तराई को

और न उनके हिमालय को

और न उनके अखंड महादेश को


हम उनकी एक डायरी भी सहेज न सकें

काठ के बक्से में पड़ी पड़ी सड़ गयीं

बरसात पानी में

बेशकीमती वे तमाम डायरियां,जिसमें तराई थी

ढिमरी ब्लाक था

था भारत विभाजन

देश भर के शरणार्थी थे

राष्ट्र की दिनलिपियां थीं

राष्ट्रनेताओं को लिखे

पत्रों के मसविदे थे

और पूरे देश की आत्मा बसती थीं जिन डायरियों में


रोजाना वे सैकड़ों पत्र लिखते थे

राष्ट्रनेताओं के नाम पंजीकृत डाक से संवाद जारी था उनका निरंतर

और अथक यात्राएं थीं निरंतर

था उनका ब्यौरा

थे रोजाना के उनके तमाम कार्यक्रम और संकल्प


वे अपढ़ थे घनघोर। साक्षर हुए बहुत बाद में।

लेखक कभी नहीं थे पिता

और उनके लिखे का कोई मोल न था

अनमोल उनकी डायरियां रातोंरात

फिर जिंदा हो गयीं

जलप्रलय में खोये पहाड़ के तमाम दस्तावेजों के साथ


जो गांव पहाड़ के हमेशा के लिए गुम हो गये

या रंगबिरंगे बिक्रीसज्जासज्जित ऊर्जा प्रदेश

की अनंत डूब में हो गये शामिल

उनके साथ एकाकार हुईं पिता की डायरियां


राजीव दाज्यू हो या शमशेरदा

या फिर राजीव नयन बहुगुणा

या चंद्रशेखर भाई

या आनलाइन पर्वतजन

उनका कोई न कोई दिल होगा अतिरिक्त


जो आत्मघाती  हिंसा के अराजक बंगाल में

सुंदरवन के खारापानी में

गंगोत्री से बह आयी

गंगा के मुहाने में

सागरद्वीप के गंगासागर के आसपास कहीं

किसी मरीचझांपी नरसंहार में अब भी जल रहा है

गंगा उलटे पांव लौटीं पहाड़ तो यकीनन उसकी शक्ल

मरीचझांपी की बलात्कृत औरतों से अलग नहीं होगी


पहाड़ में लावारिश दफन मेरे स्वजन

और मरीचझांपी में मारे गये लोगों के चेहरे

मेरे पिता की सूरत में

या फिर मेरी माता की मृत मूरत में एकाकार हैं


कोई सुन रहा है बसंतीपुर की आवाज?


कोई सुन रहा है मरीचझांपी का

मृत्युउत्सव का आंखों देखा हाल?


हम हाकी क्रिकेट टेनिस फुटबाल

केजरिये दुनियाभर से जुड़ सकते हैं

भारतीयकप्तान भी कहते हैं अल्मोड़िया है

एकदम अपने शमशेरदाज्यू, कपिलेश भोज, पीसी,जगत रौतेला ,बालम सिंह जनौटी, विपिन चचा,प्रदीप टमटा,षष्ठीदाज्यू, जगत सिंह बेड़ी की तरह


लेकिन हिमालय की ब्रांडिंग में अभी कसर बहुत बाकी है

जो अब तक जिया वह तो बस झांकी है

खून अभी पुरजोर खौला नहीं अपनी पहचान को लेकर

अभी बहुत अंजाम बाकी है

बहुत पास नहीं, तो बहुत दूर भी नहीं है मरीचझांपी हिमालय से

शायद अभी हिमालय का मरीचझांपी बनना भी बाकी है


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो



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हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो


जब मैं `अग्निवीणा' का पाठ करता था

बचपन से लेकर कैशोर्य तक

यानी जबतक बसंतीपुर में मेरा दाना पानी था


सुनती थी पूरी तराई

सुनते थे सारे के सारे छत्तीस शरणार्थी गांव

और उनके साथ खड़े पंजाबियों, रायसिखों,बुक्सों,थारुओं, देसी, मुसलमान

और पहाड़ी गांव तमाम

ढिमरी ब्लाक की जगह तब तक ले ली बिंदुखत्ता ने

और शक्ति फार्म में भी था कोई तिलियापुर

जहां मेरे मित्र की कुंवारी बहन युथिका ने कुंवारी असमय मौत से पहले

उगाये थे तमाम फूल भूमिहीन उपनिवेश में


तब उत्तराखंड के नक्शे में कहीं नहीं था

कोई सिडकुल और न किसान अपने खेतों से बेदखल थे

रुद्रपुर,गदरपुर, काशीपुर से लेकर हल्द्वानी तक कस्बे ही कस्बे थे

कहीं कोई शहर न था

न था कोई सूरजमुखी और सोयाबीन का नकदी खेत

पोपलर और युकोलिप्टस के जंगल न थे

पहाड़ से लेकर तराई तक थी हरियाली की चादर


न टिहरी बांध था और न थीं ऊर्जा परियोजनाएं

भूमि सुधार तब भी न था और न अब है कहीं

हां, बड़े बड़े फार्म तब भी थे और अब भी हैं

बाहुबली तब भी थे और अब भी लहैंतब भी राष्ट्रीय नेता

और मुख्यमंत्री हुआ करते थे और आज भी है


लेकिन तब तेलंगना और नक्सबलाड़ी हो चुकने के बावजूद

बाकी था मरीचझांपी

जिसे अंजाम दिया हमारे प्रतिबद्ध कामरेडों ने

कि इसी तरह सर्वहारा का अधिनायकत्व होना था

इसी तरह बननी थी हर्मादवाहिनी

और इसीतरह पार्टीबद्ध गेस्टापो


बहुत कुछ बाकी था उनदिनों

मसलन तब भी घाटियों में धान के खेत

महकती बासमती

और पहाड़ों में सेब के बगीचे

हमारे भी थे

और पूरी की पूरी तराई थी पहाड़


बसंतीपुर में तुलसी के बिरवे के पास

ऊंघता था हिमालय

और नजरुल को पढ़ते हुए मैं

चीख चीखकर उसे जगाता था

`बलो बीर

चिर उन्नत मम शिर

शिखर हिमाद्रिर'


बदल गया है सबकुछ, दोस्तों

अब वह हिमाद्रिशिखर कहीं नहीं है

कहीं नहीं है बाबा नागार्जुन भी

या कोई सुमित्रानंदन पंत

जिनकी आंखों मे बसता हो उत्तुंग हिमाद्रिशिखर


कोसी का घटवार होगा कहीं न जाने

प्रेतमुक्ति लेकिन अब नहीं होती

पहाड़ पर अब भी होगा कोई लालटेन

और शायद धार पर गूंजती होगी

अब भी गिरते पेड़ की आवाज

हिमालय की बेटियां आज भी रोज नापती हैं

एवरेस्ट की ऊंचाई

माताएं प्रसव वेदना झेलती हैं आज भी पगडंडियों पर चलते चलते


जैसे हमारे जीआईसी के मास्साब सुरेश चंद्र सती कहते थे

और जैसे हमारे डीएसबी के दिवंगत अर्थशास्त्री चंद्रेश शास्त्री

खुलकर कहा करते थे

आज भी पहाड़ सिर्फ रंगरूट तैयार करता है

आज भी गोरखे, पहाड़ी और मणिपुरी

यहां तक कि नगा

एक दूसरे के पर्याय हैं

और पूरा हिमालय आज भी डाटालिंक के बावजूद

मनीआर्डर अर्थव्यवस्था है


बहुत मुंहफट था अपना वह गिराबल्लभ

कैपिटाल हाल में मृगतृष्णा देखी

तो जलाल आगा में वे देखने लगे अपने पहाड़ी

बोला,देख स्साले


ऐसे बनते हैं रंगरूट। और इस तरह बेपर्दा होता हिमालय

और इसतरह बाजार में ठेले पर है हिमालय


हिमालय में दावानल है बहुत

हर मौसम दावानल का मौसम होता

पर आग बहुत कम है

जो है धुआं धुआं है

आग लगी है,लगायी नहीं है

फिरभी निरंतर आगजनी है

द्वीप नहीं है कोई हिमालय

लेकिन अस्पृश्य इसतरह


बार बार विस्थापित इसतरह

बार बार बेदखल इसतरह

बार बार डूब में शामिल इस तरह

बार बार वही तबाही का बेइंतहा मंजर

मुख्यधारा की बहती करुणाधारा

ऐशगाह में नींद में खलल जैसी

राष्ट्रव्यापी सहानुभूति बार बार

और फिर स्मृतियों का खो जाना

कि मरीचझांपी से कोई बेहतर नाम नहीं है हिमालय का अब


हिमालय अब ऊर्जा प्रदेश है

या फिर चार धाम

या फिर सुरम्य पर्यटनस्थल

वहां स्थानीय वाशिंदे होते होंगे कहीं कहीं

न प्रदेश सरकार और न ही भारत सरकार के पास

स्थानीय लोगों के जीने मरने या लापता होने के कोई आंकड़े हैं


जैसे मरीचझांपी के कोई आंकड़े नहीं मिलते

जैसे कोई आदिवासी गांव राजस्व गांव नहीं होता

जैसे भारत का संविधान कहीं लागू नहीं है

किसी भी आदिवासी इलाके में


हिमालय दम तोड़ रहा है धीमे जहर से

चारों तरफ बस, ठूंठ का जंगल है

किस सांप ने काटा है

किसी को नहीं मालूम

अपने लोग अपने जैसे चेहरों के सांपों को नहीं पहचानते


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो


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हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो


आंकड़ों की बात चली तो कुछ आंकड़ों की ही बात करें

जीआईसी में अपने भूगोल के मास्साब

हरीश चंद्र सती थे बहुत सख्त मिजाज के

और हम सब थे डीएसबी परिसर में दाखिल हाईस्कूल पास

बेखौफ बदमाश तमाम

अवधारणाएं कम समझते थे और आंकड़े तो हमारी समझ से बाहर ही थे


हरीश चंद्र सती आंकड़ों का तिलिस्म इसतरह खोलते थे कि लखनऊ से

बनी योजनाएं एकदम नंगी खड़ी हो जातीं हमारे सामने

जब वे पहाड़ों में नलकूप लगाने का बजट का खुलासा करते थे


माननीय विवेक ओबेराय नमस्य हैं और उनके आंकड़े भी नमस्य

कभी वे वाम सरकार के आर्थिक सलाहकार हुआ करते थे

उसीतरह जैसे कि अशोक मित्र जैसे दिग्गज अर्थशास्त्री

और इंदिरा गाधी के मुख्य आर्थिक सलाहकार

एकमुश्त आशीष नंदी की तरह समाजशास्त्री भी

अशोक मित्र पहले वाम अर्थमंत्री थे बंगाल के

या नोबेल विजयी अर्थशास्त्री

डा.अमर्त्य सेन सत्ता से बेदखल होने से पहले तक

थे वाम सरकारी सलाहकार

अबाध पूंजी और मुक्त बाजार के घनघोर प्रवक्ता

और सामाजिक यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध समाजशास्त्री भी


सिंगुर में टाटासमूह के कारखाने के पक्ष में

आनंद समूह के कवर लेखक थे विवेक ओबेराय

नंदीग्राम के नेपथ्य में भूमि संघर्ष में

सेज क्रांति के भी वे खुले समर्थक थे

मानों टाटा मोटर्स और सलेम के प्रवक्ता थे

हालांकि परिवर्तन राज में कोरस का

सुर ताल सिरे से बदला है

और फिर जनपक्षधर बने हुए हैं देश के तमाम अर्थशास्त्री

मोंटेक सिंह आहलूवालिया और चिदंबरम के नेतृत्व में


नमस्य विवेक ओबेराय ने आंकड़ों से इधर साबित कर दिया है कि खुले बाजार में असमानता बढ़ी तो क्या ट्रिकलिंग डाउन यकीनन हुआ है

और जनम सार्थक हो गया केइंस एवम

उनके भारतीय प्रतिरुप मनमोहन का

विवेक बाबू कहते हैं कि

यकीनन

अमीरी बढ़ी  है

लेकिन साथ ही गरीबी घटी है

गरीबी घटनी ही थी

मोंटेक बाबू की मानें तो सत्ताइस रुपये

में चैन की जिंदगी जीते हैं लोग

अपने हिमालय में तो यह भी नहीं चाहिए

जीने के लिए दूषित आक्सीजन काफी है


नदियां बिक गयी हैं

हवा अभी बिकी नहीं है

नदियां बंध गयी है

हवा अभी बंधी नहीं है


और गनीमत यह भी कि  विकासदर के लिए

वित्तीय घाटा पूरा करने के लिए

अभी किसी अर्थशास्त्री ने रंगराजन की तरह

ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है कि

आम जनता अब

अपनी सांसों का रिटर्न भी दाखिल करें, आनलाइन

गनीमत है कि सांसें अब भी सही सलामत हैं और सांसों के भरोसे

कितने मजे में जी रहे हैं हम मर मरकर ,देख लो


विवेकबाबू आर्थिक विवेकानंद है

कुछ भी हो जाये कहीं भी

निर्मम स्लोगन है या फिर जिंगल है

`आनंदे थाकून!'


आनंदित होकर देखें महाशय कि

अश्वमेध यज्ञ कितना प्रासंगिक है

और कितने प्रासंगिक हैं वैदिकी कर्मकांड

भाई मेरे, भारतेंदु तो खुले बाजार से बहुत पहले ही

बोल चुके हैं, वैदिकी हंसा हिंसा न भवति

हमने डीएसबी में जहूर की अभिनयदक्षता से पहलीबार यह जाना


विवेक उवाचः आर्थिक सुधारों से जितने लाभान्वित हुए अमीर

उतने ही लाभान्वित हो गये गरीब

अब पहेली यह है कि इंदिरा को जो जादू की छड़ी नहीं थी मिली

और गरीबी हटाओ करते करते

आपात काल और फिर

वापसी पर भोपाल गैस त्रासदी से लेकर सिख नरसंहार तक

गरीबी का जो सर्वव्यापी परिदृश्य

नरसिंह अवतार तक खुले बाजार में हुआ तब्दील

वह छड़ी आखिर मिली कहां से?


गराबों के कायकल्प के बावजूद

गरीबी रेखा का यह विभाजन क्यों?


क्यों कारपोरेट सामाजिक सरोकार?


संयुक्त राष्ट्र व विश्वबैंक प्रायोजिक विकास?

क्यों अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दिशानिर्देश?


क्यों यह डालर का आतंक और मंदी का साया?


फिर क्यों इतनी

सामाजिक योजनाएं और गेम चेंजर?


क्यों खाद्य सुरक्षा योजना यह गरीबी के कायाकल्प के बावजूद?


क्रयशक्ति के ट्रिकलिंग डाउन के बावजूद?


नीति निर्धारकों में हैं विवेक ओबेराय भी

आशीष नंदी और अमर्त्य की तरह जो

आंकड़ों में अबूझ पहेलियां पेश करने के विशेषज्ञ हैं

और जो नहीं जानते गरीबी या फिर

नवधनाढ्यों, अतिधनाढ्यों अरबपतियों का भूगोल


बिलियन डालर का सच तो यह है कि नदियां पहाड़ों के रास्ते

ग्लेशियरों से निकलकर

समुंदर तक बहती है जरुर

लेकिन विकास की कोई

उल्टी गंगा बहती नहीं है

हिमालय की तरफ

जैसे मरीचझांपी की कथा सिर्फ विध्वंस की है

हिमालय की व्यथा कथा भी वह अनंत


सन 1991 से अब तक का लेखा जोखा तैयार है तो बस यूं समझो कि

इस महादेश से अब गरीबी की विदाई तय है

लेकिन चूंकि लोकगण राज्य भी है यह देश

बाकी अधिकारों का इस्तेमाल हो या नहीं,

हिंसा हो या फिर अराजकता

मतादेश खंडित हो या निर्मित

गराबों के वोट बेशकीमती है

इसलिए विकास गाथा के साथ गरीबी का सच भी

खुले बाजार का अलंकार है

अनुप्रास है या रूपक,यह खुले बाजार के विद्वतजन बतायें


एक और आंकड़ा है निर्मम

जलप्रलय से तबाह हुआ उत्तराखंड

अब नहीं है कृषि निर्भर किसी भी मायने में

अपना ऊर्जा प्रदेश की कृषि निर्भरता

उपजाऊ तराई के बावजूद सिर्फ चौवालीस फीसद रह गयी है


जबकि हिमाचल में अब भी साठ फीसद से ज्यादा है

कृषि निर्भरता


पिछड़ा भी है हिमाचल उत्तराखंड के मुकाबले कि

वह प्रकृति के कहीं नजदीक हैलेकिन हिमालय की आपदाएं

कुछ ज्यादा ही कहर बरपाती है देवभूमि उत्तराखंड पर ही


आंकड़ों के  परे हों दिलो दिमाग तो सोचें

इस तबाही के लिए असली जिम्मेवार कौन


हिमालय हो गया मरीचझांपी तो कोई ज्वालामुखी धधकने दो

बहुत हुआ जलप्रलय का किस्सा, अब लावा की नदियां बहने दो










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