उनके पैर एक भयवाह प्रथा के जूते में कैद रहते थे!
तीन इंच के स्वर्ण फूल
लेखिका युंग चांग ♦ अनुवाद सुधा अरोड़ा
पंद्रह साल की उम्र में मेरी दादी एक मुख्य सेनापति की रखैल बन गयी थीं। यह 1924 का साल था और चीन में अराजकता छायी थी। चीन का अधिकांश हिस्सा, मंचूरिया सहित, जहां मेरी दादी रहती थी, सेनापतियों द्वारा शासित था। यह संबंध उसके पिता द्वारा तय किया गया था, जो मंचूरिया के दक्षिण भाग में स्थित यिक्सियन में पुलिस अफसर थे।
मेरी दादी के पिता अपने परिवार के अकेले लाड़ले बेटे थे और उन्हें अपने परिवार में इसकी वजह से एक खास ऊंचा ओहदा मिला हुआ था। केवल एक बेटा ही अपने वंश का नाम आगे बढ़ा सकता था, उसके बिना एक परिवार की वंश बेल रुक सकती थी, जो अपने पूर्वजों के प्रति बहुत बड़ा विश्वासघात थी। उन्हें अच्छे स्कूल में भेजा गया ताकि वे परीक्षाएं पास कर के एक अच्छे पुलिस अफसर बन सकें, जो उस समय के अधिकांश चीनी युवकों का एकमात्र लक्ष्य था। अफसर बनना सत्ता और ताकत लाता था और सत्ता से पैसा आता था। बिना सत्ता और पैसे के कोई भी चीनी अफसर के शोषण से सुरक्षित महसूस नहीं करता था। कोई सही कानून या न्याय विधान नहीं था। ताकतवर अफसर ही कानून थे। अधिकांश औरतें सिलाई करती थीं और देर रात तक पोशाकें तैयार करने का काम करती थीं। पैसा बचाने के लिए वे अपनी लालटेनें बिल्कुल धीमी रोशनी पर रखतीं जिससे उनकी आंखों को स्थायी नुकसान पहुंचता था। लगातार घंटों काम करने से उनकी उंगलियों की गठानें सूज कर दर्द करने लगती थीं।
चीन के पुराने रिवाज के तहत चौदह साल की छोटी उम्र में मेरे परदादा की शादी अपने से छह साल बड़ी लड़की से कर दी गयी थी। अपने पति की देखभाल करना और उसे बड़ा होने में मदद करना एक पत्नी का धर्म माना जाता था। उनकी छह साल बड़ी पत्नी मेरी परदादी की कहानी उस वक्त की लाखों चीनी औरतों की एक औसत कहानी थी। वे सरकारी ओहदे वाले किसी पढ़े-लिखे परिवार से नहीं थीं और चूंकि वह लड़की थी, उन्हें कोई नाम नहीं दिया गया था। दूसरी बेटी होने के कारण उन्हें सिर्फ नंबर दो लड़की [एर-या-तो] बुलाया जाता था। बचपन में ही पिता की मौत के कारण उन्हें उनके चाचा ने पाला। एक दिन, जब वह छह साल की थीं, चाचा अपने एक मित्र के साथ खाना खा रहे थे, जिसकी पत्नी गर्भवती थी। खाने की मेज पर ही दोनों मित्रों ने तय किया कि अगर होने वाला बच्चा लड़का हुआ तो उसकी शादी छ्ह साल की भतीजी से कर दी जाएगी। शादी हुई पर शादी से पहले वह दोनों कभी नहीं मिले। दरअसल प्रेम में पड़ना बेहद शर्मनाक घटना मानी जाती थी। शादी एक फर्ज, एक धर्म था, दो परिवारों के बीच।
चौदह साल की उम्र में जब मेरे परदादा की शादी हुई तो शादी की पहली रात वह अपनी दुल्हन के कमरे में नहीं गये और मां के कमरे में सो गये। उनके सोने के बाद उन्हें उठाकर उनकी पत्नी के कमरे में ले जाया गया। वे एक बिगड़ैल बेटे थे और नहाकर कपड़े पहनने के लिए भी उन्हें किसी की जरूरत होती थी पर उनकी पत्नी के अनुसार 'बच्चा रोपना' वह जानते थे और शादी के एक साल के अंदर ही मेरी दादी पैदा हो गयी थीं। अपनी मां से उनका दर्जा बेहतर था क्योंकि उन्हें एक नाम दिया गया था- यू फांग जिसका मतलब था खुशबूदार फूल।
मेरी दादी वाकई खूबसूरती की जीती जागती मिसाल थीं। अंडाकार चेहरा, गुलाबी गाल और मुलायम त्वचा। उसके चमकते बालों की काली चोटियां उसकी कमर तक पहुंचती थीं। बेहद दुबली पतली, नाजुक, खूबसूरत फिगर और ढलके हुए कंधे जो आदर्श माने जाते थे।
दादी की सबसे बेशकीमती संपति थी उसके बंधे हुए पैर, जिन्हें चीनी में 'सान-त्सुन-जिन-लिएन' यानी थ्री इंच गोल्डेन लिलिज, तीन इंच के सोने का फूल कहा जाता है। इसका मतलब था कि छोटे-छोटे पैरों से वह ऐसे चलती थी, जैसे बसंत की हवा में नाजुक कोमल कोंपलें लहरा रही हों। बंधे हुए पैरों पर धीरे-धीरे ठुमक ठुमक कर चलना पुरुषों पर बड़ा उत्तेजक प्रभाव डालता है, ऐसा माना जाता था, खास तौर पर इसलिए भी क्योंकि उसकी दुर्बलता सामने वाले के मन को सुरक्षा देने की भावना से भर देती थी।
जब दादी सिर्फ दो साल की थीं, उनके पैरों को बांध दिया गया था। उनकी मां, जिनके अपने पैर भी इसी तरह बांधे गये थे, पहले एक बीस फीट लंबा सफेद कपड़ा उनके पैरों पर लपेट देती थीं, अंगूठे के अलावा पैर की सभी उंगलियों को भीतर की तरफ मोड़ते हुए। फिर वे एक बड़ा पत्थर लपेटे हुए पैर के उभरे हुए हिस्से को कुचलने के लिए पैर के ऊपर रखती थीं। दादी दर्द से चीखती थीं और उसे यह क्रिया बंद करने की मिन्नतें करती थीं। तब उनकी मां उसका चीखना-चिल्लाना बंद करने के लिए उसके मुंह में कपड़ा ठूंस देती थी। दादी को बार-बार इस तकलीफ से गुजरना पड़ता था।
यह क्रिया बरसों तक दोहरायी जाती थी। पैरों की सारी हड्डियां कुचल देने के बाद भी पैरों को मोटे कपड़ों में दिन-रात बांध कर रखना पड़ता था क्योंकि जैसे ही पैरों को कपड़े के बंधन से आजाद किया जाता, वे फौरन बढ़ना शुरू हो जाते थे। सालों तक दादी इस अनवरत और असह्य पीड़ा से गुजरती रहीं। जब दादी अपनी मां से हाथ जोड़कर पट्टियां खोल देने की मिन्नतें करतीं तो उनकी मां रो रो कर अपनी मजबूरी का बखान करने लगतीं कि अगर उन्होंने पैरों को खुला छोड़ दिया तो ये पैर उसकी सारी जिंदगी बरबाद कर देंगे और वह उसकी खुशी और उसके भविष्य को ध्यान में रख कर ही ऐसा कर रही है।
कभी-कभी किसी मां को अपनी बेटी पर तरस आ जाता और वह बंधी हुई पट्टियां खोल देती। वही बेटी बड़े होने पर जब पति के परिवार की अवहेलना और समाज के तिरस्कार का पात्र बनती तो वह अपनी मां को इतना कमजोर होने के लिए कोसती।
उन दिनों, जब भी किसी लड़की की शादी होती, सबसे पहले दूल्हे के परिवार वाले उसके पैरों का मुआयना करते। बड़े पैर यानी औसत साइज के पैर देखकर ससुराल वालों को सबके सामने शर्मिंदा होना पड़ता। घर आयी बहू की लंबी स्कर्ट उठाकर सास पहले उसके पांव देखती और अगर पांव चार इंच से लंबे हुए तो वह तिरस्कार की मुद्रा में स्कर्ट को नीचे डालकर, उसे अकेले सब रिश्तेदारों की आलोचना भरी निगाहों का शिकार होने के लिए छोड़कर नाराजगी में बाहर निकल जाती। वे रिश्तेदार लड़की के पैरों को हिकारत से घूरते और अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए उसे अपमानित करने के लिए कुछ भी बड़बड़ाते।
पैरों को बांधने की इस प्रथा की शुरुआत लगभग एक हजार साल पहले किसी चीनी सम्राट के हरम की किसी रखैल द्वारा हुई थी। छोटे-छोटे पैरों पर बत्तखों की तरह फुदक-फुदक कर चलती हुई औरतें न सिर्फ पुरुषों के लिए उत्तेजक मानी जाती थीं बल्कि पुरूष इन छोटे बंधे पैरों के साथ खेलते हुए उत्तेजित होते थे। क्योंकि वे हमेशा खूबसूरत कसीदेदार जूतों से ढके रहते थे। युवा होने के बाद भी औरतें अपने पैरों की पट्टियां खोल नहीं सकती थीं क्योंकि उन्हें खोलते ही पैर फिर से बढ़ना शुरू कर देते थे। इन पट्टियों को सिर्फ थोड़ी देर के लिए रात को सोते समय ढीला कर दिया जाता था और नरम सोल वाले जूते पहन लिए जाते थे। पुरुष कभी इन पैरों को नंगा नहीं देख पाते थे क्योंकि पट्टियां खोलते ही गली हुई त्वचा की सड़ांध चारों ओर दुर्गंध बिखेरती थी।
मुझे अपने बचपन के वे दिन अच्छी तरह याद हैं, जब हम खरीददारी करके बाजार से लौटते थे और दादी हमेशा दर्द से कराहती रहती थीं। बाजार से लौटते ही वह गरम पानी की देगची में अपने पांव डुबाकर रखती और लगातार राहत की लंबी लंबी सांसें भरतीं। फिर वह अपनी चमड़ी में से मरी हुई रूखी त्वचा की पपड़ियां उतार उतार कर फेंकतीं। पैरों के उभरे हुए हिस्से की कुचली हुई हड्डियों में तो दर्द होता ही था, उससे भी ज्यादा तकलीफ उन उंगलियों के नाखूनों से होती थी जिन्हें नीचे की तरफ लगातार मोड़ने के कारण उनके नाखून पीछे की ओर बढ़ गये होते थे।
दरअसल मेरी दादी के पैर उन दिनों बांधे गये थे, जब यह प्रथा समाप्ति के चरण पर थी क्योंकि दादी की छोटी बहन जो 1917 में पैदा हुई, इस यातना का शिकार होने से बच गयी क्योंकि तब तक इस प्रथा का बहिष्कार किया जा चुका था।
[चीनी लेखिका युंग चांग की आत्मकथा 'वाइल्ड स्वॉन्स' का एक अंश]
(अनुवादिका सुधा अरोड़ा। वरिष्ठ लेखिका और स्तंभकार। महिला संगठनों और महिला सलाहकार केंद्रों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। जीवनयात्रा की शुरुआत लाहौर से। इन दिनों मुंबई में रहती हैं। उनके बारे में इस लिंक पर विस्तृत जानकारी है, www.abhivyakti-hindi.org। उनसे sudhaarora@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
http://mohallalive.com/2013/07/11/yung-chang-autobiography-piece/
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