बस में सिनेमा दिखाकर चलता है किसानी का पाठ
♦ अनुपमा
वह दृश्य और नजारा बहुत खास होता है, जब बस के अंदर नीचे दरी या बोरा बिछाकर किसान बहुत तन्मयता और एकाग्रता सिनेमा देखने में तल्लीन रहते हैं। और सिनेमा भी मार-धाड़-एक्शन से भरपूर या इश्क-मोहब्बत के फसानेवाले नहीं बल्कि भिंडी कैसे उपजाएं, बैंगन को कैसे बचाएं, मक्का की खेती के लिए कौन सी प्रणाली अपनाएं, पशुपालन कैसे करें, आदि। बस में किसानी के इस पाठ की पढ़ाई आप किसी रोज, किसी इलाके में देख सकते हैं। न कोई दिन तय होता है, न समय, न स्थान। बस, सिनेमा देखने और दिखानेवाले की आपसी समझदारी और सहूलियत पर यह तय हो जाता है।
इस नये किस्म के सिनेमाघर और सिनेमा के प्रयोग को करीब सात साल पहले शुरू किया था कुछ नौजवानों ने, जिसके प्रमुख सूत्रधार बने थे विजय भरत। हो सकता है शेख खैरूद्दीन जैसे निर्देशक के साथ रहने के कारण विजय भरत में इस तरीके का आइडिया विकसित हुआ हो या फिर कुछ माह तक नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के कैंपस में जाकर रंगकर्म और अभिनय की दुनिया को करीब से देखने का असर हो। कारण जो भी हो, लेकिन राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से कृषि विज्ञान में एमएससी की पढ़ाई पूरी करने के बाद विजय ने अपने साथियों के साथ मिलकर झारखंड के किसानों को खेती का पाठ पढ़ाने के लिए यही रास्ता अपनाया था। आरंभ में इस अभियान में विजय के साथ उनके आइटी प्रोफेशनल साथी अजय, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय से पिछले वर्ष कृषिविज्ञान में पीएचडी प्राप्त करने वाले सुशील कुमार सिंह समेत कुल सात लोग जुड़े थे। पिछले सात सालों में इस टीम ने हजारों किसानों को सिनेमा के जरिये प्रशिक्षित किया है। एक फसल या एक विषय पर आधे घंटे की फिल्म होती है, इलाके के हिसाब से उसकी भाषा तय रहती है यानि एक ही फिल्म को नागपुरी, संथाली, मुंडारी, हिंदी आदि में बनाकर रख लिया जाता है और फिर जिस इलाके में बस पहुंचती है, सिनेमा चलता है, उसी भाषा में फिल्म दिखायी जाती है।
बकौल विजय भरत, मोबाइल एग्रीकल्चर स्कूल एंड सर्विसेज (मास) शुरू करने का खयाल एक गैर सरकारी संस्था की फिल्म को देखने के बाद आया। उसे देखने के बाद विजय ने भी झारखंड में पंचायत स्तर पर कृषि स्कूल खोलने का प्रस्ताव झारखंड में दिया। लेकिन बाद आगे बढ़ न सकी। विधानसभा में पहुंचने के साथ ही खत्म हो गयी। लेकिन एक जिद थी, सो बैंक ऑफ इंडिया से 16 लाख रुपये लोन लेकर इस विशेष बस को तैयार कर मोबाइल स्कूल की शुरुआत की। इस अभियान को एक उद्यम का रूप दिया गया। विजय और अजय पहले इस उद्यम में पार्टनर बने, बाद में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के सुशील को भी जोड़ लिया गया था। फिर एक्सटेंशन एग्रीकल्चर असिस्टेंट की नियुक्ति हुई, जो ग्रामीण इलाके में इस बारे में जानकारी देने में लगे रहे। जिन इलाकों में कम से कम 50 किसान तैयार हो जाते, वहां फिल्मों व विशेषज्ञों के साथ यह मोबाइल स्कूल बस पहुंच जाता। विजय के अनुसार इस फर्म को खड़ा करने में कम से कम 25 लाख रुपये लगे थे, बैंक को लोन भी रिटर्न करना था, सो आरंभ में प्रति किसान 150 रुपये शुल्क लिया जाता था। जहां सरकार या किसी संस्था द्वारा इस शो को आयोजित किया जाता, वहां किसानों से कोई पैसा नहीं लिया जाता। विजय कहते हैं आरंभ में तो महीने में 15 दिन ही मोबाइल स्कूल चल पाता था लेकिन धीरे-धीरे रिस्पांस मिलता गया। पास के बिहार में भी इस प्रयोग की सराहना हुई, तो हौसला भी बढ़ता गया।
(अनुपमा। झारखंड की चर्चित पत्रकार। प्रभात खबर में लंबे समय तक जुड़ाव के बाद स्वतंत्र रूप से रूरल रिपोर्टिंग। महिला और मानवाधिकार के सवालों पर लगातार सजग। देशाटन में दिलचस्पी। फिलहाल तरुण तेजपाल के संपादन में निकलने वाली पत्रिका तहलका की झारखंड संवाददाता। अनुपमा का एक ब्लॉग है: एक सिलसिला। उनसे log2anupama@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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