अब हर लाल सलाम पर मरीचझांपी लिखने के सिवा मेरे पास कोई शब्द नहीं दूसरा!
पलाश विश्वास
मुझे माफ करना दोस्तों सच कहने के जज्बात में भाववादी बहक के लिए हालांकि मुझे मालूम है अच्छी तरह कि इतिहास का किसी भी पन्ने को खोलें अगर कहीं से भी तो सच बोलने की सजा सिर्फ सजा ए मौत है और कुछ भी नहीं! हालांकि कामरेड थे शायर फैज भी और वे भी लिखकर चले गये कि लहू का सुराग कहीं नहीं होता ,कहीं भी नहीं! हमने भी हिमालय के जलप्रलय में उत्तुंग शिखरों पर पिघलते ग्लेशियरों में वहीं इबारत लिखी देखी।जो शाश्वत है इस अखंड महादेश के लिए, जिसके नागरिक थे मेरे पिता,मैं नहीं हूं।
मुझे माफ करना दोस्तों कि थकान और अवसाद, विचारहीनता और क्लीवत्व के अस्तित्वव्यापी निरपेक्ष आध्यात्मिक समाधिस्थ परिवेश में मेरी आंखों में अब परियों के मानिंद इंद्रधनुषी रथों पर नहीं उतरती नींद और सदियों से हमने ख्वाबों का हक खो दिया है। अब तो हमारे लोग जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से भी बेदखल। भला हो औपनिवेशिक औद्योगिक क्रांति का जो हमने व्रात्य होने के बावजूद चख लिया निषिद्ध फल और घूम लिया स्वर्ग का बगीचा अस्पृश्यता के अभिशाप ढोते हुए। फिरभी फतवा देने वाले इन दिनों दीवाल पर लिख देते, मिथ्या है समता,सामाजिक न्याय। आखिर कलम उठाकर हम कौन से तीस मारखां बनने वाले हैं, वर्चस्व तो उन्हींका है!
सूर्योदय से सूर्यास्त तक और फिर सूर्योदय तक फेसबुक वाल पर देखता हूं क्रांति का दस्तक जो संसद से सड़कों तक कहीं नहीं है। सुनते हैं कि महा्रण्य या दंडकारण्य या बस्तर दांतेबाड़ा में घात लगाकर हमलों में या पूर्वोत्तर में कहीं बारुदी सुरंगों में कैद है विचारधारा इन दिनों और नगरों और महानगरों में, विश्वविद्यालयों और अकादमियों के वातानुकूलित शोधकक्षों में मुक्ति की परियोजनाये लिए बैठे हैं विद्वतजन अनेक,जो कहीं कहीं उत्पादन इकाइयों में मजदूरों के बीच काम करते हुए भी पाये हैं और राजधानी के जंतर मंतर में अवतरित हो जाते हैं कभी कभी और उनके तमाम शोध पत्रों से खुलने वाले हैं मुक्ति पथ के दरवाजे और खिड़कियां तमाम। हमारे पुरखों के पास जिसकी कभी कोई परियोजना नहीं रही है और भाववाद में विचारधारा नहीं होती कहीं।सच है यह भी।
आयातित पंचवर्षीय योजनाओं से विभाजित यह देश सोवियत नही बना। क्रांति से पहले भूगोल और इतिहास को समेटने के कार्यभार के बिना फिर फिर खंडित विखंडित यह देशमहादेश है अब भी और साझा है विरासत और आपदायें अब भी, हिमालय लेकिन चीख चीखकर बताता बार बार। सुनामी और भूकंप से लेकर जलप्रलय तक एकाकार हम।फिरभी रेशमपथ और गिरिमार्ग यात्राओं और पर्यटन में खत्म हो गये न जाने कब।
हमने तराई के शरणार्थी गांवों में कम्युन बनने के बदले डायनासोर फार्मों को आकार लेते हुए देखा और देखा नवधनाढ्य सत्तावर्ग को विचारधारा से लैस।हमने घाटियों को लावारिश होते हुए देखा।देखी बंधती हुई नदियां और डूब में शामिल होता हुआ देश।हमने निर्बाध पूंजी प्रवाह देखा और देखते रहे अबाध नरसंहारों का सिलसिला। देखा मरीचझांपी बार बार।हमने क्रांति की मशाल लेकर बढ़ते गांवों को देखा। देखा तबाह देहात।देखते रहे हम तमाशबीन सारे के सारे लोग कि कैसे विकल्प चुनते आत्महत्या का किसान। हम देखते रहे आर्थिक सुधार और अश्वमेध यज्ञ में शामिल होते रहे धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता की पैदल सेना में तब्दील होकर। सामाजिक यथार्थ को हाशिये पर छोड़ वर्ग संघर्ष और फिर वर्ग शत्रुओं के रणहुंकार के साथ क्रांति को कारपोरेट राज से नत्थी होते हुए देखा हमने। देखा संसदीय राजनीति में कैसे हुए निष्णात तेभागा और तेलंगना के साथी। देखा देशभर में कैसे लागू सैन्य शासन अबाध और रंग बिरंगे सैन्यअभियान लोकतंत्र के नाम।
क्रांति दावानल की तरह न दहक सकी और न महुआ की तरह महक सकी। हमने वसंत के वज्रनिर्घोष का गर्भपात देखा। चारु मजुमदार के दस्तावेज देखें।देख लिया भूमि सुधार।रोज रोज देख रहे संविधान की हत्या और देखते रहे हैं लहूलुहान देश हमेशा। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता तोहफे में मिली विरासत के सिवाय उसका क्या मूल्य समझेंगे बायोमेट्रिक डिजिटल आनलाइन हम? तभी हमें नजर आतीं खूंटियों पर टंगे अपने पुरखों के नरमुंड तमाम। वर्ण और नस्ली भेद से ऊपर नहीं रही विचारधारा कभी।
माफ करना दोस्तों, हम शताब्दी उत्सव में शामिल हो ही नहीं सकते कि कोई मरीचझांपी दहकता है अबभी। स्मृति अभी मरी नहीं है। जांच हो न हो, न्याय हो या न हो, विचार और इतिहास की मौत हो न हो, हमारा सौंदर्यशास्त्र अस्पृश्यों का सौंदर्यशास्त्र है,जिसके गर्भ मेंअंध इतिहास के चर्यापदों में कभी आकार ले रही थीं तमाम भाषाएं। हमें व्याकरण की तमीज नहीं है। लोक को वर्तनी क्या मालूम होती होगी भला?जनपदों को कत्लगाहों में बदलते हुए देखा हमने बार बार और रक्तनदियों में आकार लेती रही मेट्रो सभ्यता।हमने व्याभिचार और कालाधन का खुला बाजार देखा। देखी संसद और विधानसभाओं में घोड़ों की मंडियां तमाम। और टापों की गूंज में हिनहिनाती रही विचारधारा। हम कामरेड को लाल सलाम लाल सलाम कैसे कह दें जबकि सारे के सारे बुरांस मुरझा गये,बुझ गये दहकते हुए पलाश वन। निर्गंध हुए महुआ के फूल। हर लाल सलाम की इबारत पर हमारी उंगलिया बार बार लिख देतीं मरीचझांपी, दोस्तों माफ करना। माफ करना! दोस्तों, अभी घेरे में है जनता हरकहीं। खाद्य सुरक्षा का ऐलान हुआ है लेकिन भोजन मिलेगा खुले बाजार के अग्निपथ पर। सूचना का अधिकार है और सूचना महाविस्फोट भी है, सूचना का स्वर्णिम राजपथ है जिसके आरपार जाना है मना। कहीं नहीं है पैदल लोगों के लिए कोई भी पुल।मृतकों का दावा दर्ज नहीं होता। हिमालय में लापता हो जाते हजारोंहजार,लाशों और ताबूत, राहत और बचाव का धंधा है जोरों पर इनदिनों!
कामरेड,आप इसी बंदोबस्त को बिना मुस्कुराये मजबूत बनाते रहे आजीवन कि कहीं कोई प्रतिरोध नहीं होगा। पूंजी और क्रांति का सहअस्तित्व होगा। मारे जाते रहेंगे हमारे लोग सिर्फ। क्योंकि नरबलि की प्रथा में भी तो हमीं मारे जाते रहे हैं हमेशा और तमाम कर्म कांड हैं हमारे ही विरुद्ध! जिसतरह विचारधारा हर्माद वाहिनी और गेस्टापो बनकर कहर बरपाती रही। जिसतरह नंदीग्राम और सिंगुर होता रहा।हमारे खेत बनते रहे सेज या फिर परमाणु संयंत्र या पांचवीं और छठीं अनुसूचियों का होता रहा उल्लंघन। जायज मांग उठायी तो हो गये नक्सली और माओवादी हमारे ही लोग।उग्रवादी आतंकवादी भी। आतंक के विरुद्ध युद्ध आयातित क्रांति का आयात करते करते। इसी तरह पारमाणविक भी हो गये हम। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का उपनिवेश,वधस्थल अनंत।समाज लुप्त। लुप्त मातृभाषा। लुप्त संस्कृति।फिरभी सामाजिक योजनाएं, सरकारी खर्च,क्रयशक्ति की सौगात और अंततः बाजार का विस्तार।विकास गाथा है यह,जिसकी परिभाषाएं रोज गढ़ी जातीं। रोज बदल दी जाती। कामरेड,सत्ता में बने रहने के सौदे के अलावा आपने और पार्टी ने किया क्या कभी प्रतिरोध, बयानों के अलावा?
जायनवाद के इस नंगे नाच के उत्सव पर हम आपका जन्मदिन कैसे,मनायें कामरेड!पूंजीवादी विकास के रास्ते पर कम्युनिस्ट घोषणापत्र और लालकिताब, जनयुद्ध अब कारपोरेट बेदखली का हथियार। वनाधिकार कानून भी हुआ। पेसा लागू नहीं कहीं भी।तेलंगाना को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया क्योंकि नेहरु कामरेड थे, लेकिन अब भी तेलंगाना में आदिवासियों के लिए निजाम का कानून लागू है,भारतीय संविधान नहीं।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र और लालकिताब के उद्धरणों से आप हमे क्रांति के लिए उद्बुद्ध करते रहे कामरेड, लोकतंत्र से बेदखल होते रहे हम और मारे जाते रहे फर्जी मुठभेड़ में। जनयुद्ध की आड़ में बेदखल होते रहे तमाम आदिवासी इलाके। प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी होती रही। कानून बदलते रहे। प्रकृति से होता रहा बलात्कार और बलात्कार की शिकार होती रहीं हमारी ही औरतें खुलेआम। नंगी सड़कों पर दौड़ायी जाती रहीं। जेल की दीवारों में होते रहे अत्याचार और कहीं रपट तक दर्ज नहीं होती रही। लापता रहीं भंवरियां तमाम।हर औरत बाजार में पेश उपभोक्ता सामान।आप देहमुक्ति का जयगान करते रहे।समानता का कहीं कोई आंदोलन नहीं। मजदूरों को बना दिया यूनियन गुलाम और निजीकरण जारी रहा बिना प्रतिरोध। बिना प्रतिरोध विनिवेश। कारपोरेट नीति निर्धारण और संसद में निर्लिप्त सहमति के सिवाय हमारी बेदखली में आपका भी रहा सहयोग।
कामरेड,आपकी भूमिका हमारे सामाजिक यथार्थ में कहीं नही है, इसकथा के कुरुक्षेत्र में आप कृष्ण की भूमिका में रहे निरंतर और आपकी बांसुरी बजती रही हमारे विध्वंस पर।पूंजी के हित में हर कानून बदलता रहा और कामरेड अंबेडकर को गरियाते रहे। जैसे अंबेडकर ने ही रोक दी हो क्रांति की रथयात्रा। धर्मनिरपेक्षता को आपने गुलाम धार्मिक वोटबैंक में तब्दील कर दिया और निर्विरोध राज करते रहे जबतक शरीर साथ देता रहा। आप पिछड़ों का वजूद मानने से लगातार करते रहे इंकार और सत्ता में साझेदारी के सिद्धांत के तहत अपनों को ही रेवड़ियां बांटते रहे। संसदीय नरसंहार को जायज बनाती रही आपकी पार्टी और दमन का सिलसिला जारी रहा,जबतक आप रहे और आपके बाद भी।हम नियमागिरि से लेकर लोकताक तक निहत्था मारे जाने को अभिशप्त ही तो!
कामरेड, हमें माफ करें कि आपके जन्मोत्सव जो कि जीवित कामरेडों का दुर्गोत्सव है अबकी दफा। दुर्गोत्सव में असुरों के वध का विजयोत्सव मनाया है तो अबकी दफा एकमुश्त मनायेंगे मरीचझांपी,नंदीग्राम और सिंगुर उत्सव कामरेड। जंगलमहल को आपने माओवादी बना दिया और सुंदरवन में बाघों को हमारा चारा दिया और इससे भी पहले कामरेड, हम भूले नहीं कि कैसे आपने हमें इतिहास और भूगोल से निर्वासित कर दिया हमेशा के लिए। हम भूले नहीं समुंदर के खारा पानी का स्वाद। हम भूल नहीं सकते अनंत दल दलदल और अराजक हिंसा की चपेट में यह लोकतंत्र। हमें मालूम है कि बहुजन निनानब्वे फीसद को खंडित करने के लिए होते कैसे कैसे धमाके और उन धमाकों के पीछे जो हाथ हैं,उनसे नत्थी चेहरे भी हमें साफ साफ दिख जाते हैं ,जिनके साथ संसदीय राजनीति के लिए आप मोर्चा बनाते रहे हमेशा,जनमोर्चा को तिलांजिले देते हुए।अब हर लाल सलाम पर मरीचझांपी लिखने के सिवा मेरे पास कोई शब्द नहीं दूसरा।
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