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Saturday, September 23, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-33 वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है। जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है। काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं! आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसल�

रवींद्र का दलित विमर्श-33

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है।


काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान

रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं!

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

पलाश विश्वास

kabuliwala এর ছবি ফলাফল


रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती सार्वभौम मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ है।विषमता की पितृसत्ता का प्रतिरोध है।अन्य विधाओं में लगभग अनुपस्थित वस्तुवादी दृष्टिकोण है।मनुस्मृति के खिलाफ,सामाजिक विषमता के खिलाफ,नस्ली वर्चस्व के खिलाफ अंत्यज,बहिस्कृतों की जीवनयंत्रणा का चीत्कार है।कुचली हुई स्त्री अस्मिता का खुल्ला विद्रोह है।न्याय और समानता के लिए संघर्ष की साझा विरासत है।

रवींद्रनाथ की गीताजंलि,उनकी कविताओं,उनकी नृत्य नाटिकाओं,नाटकों और उपन्यासों में भक्ति आंदोलन,सूफी संत वैष्णव बाउल फकीर गुरु परंपरा के असर और इन रचनाओं पर वैदिकी,अनार्य,द्रविड़,बौद्ध साहित्य और इतिहास,रवींद्र के आध्यात्म और उनके भाववाद के साथ उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की हम सिलसिलेवार चर्चा करते रहे हैं।इन विधाओं के विपरीत अपनी कहानियों में रवींद्रनाथ का सामाजिक यथार्थ भाववाद और आध्यात्म के बजाय वस्तुवादी दृष्टिकोण से अभिव्यक्त है।इसलिए उनकी कहानियां ज्यादा असरदार हैं।

आज हम रोहिंगा मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के प्रयास के संदर्भ में आजाद भारत में मुसलमानों की स्थिति समझने के लिए उनकी दो कहानियों काबूलीवाल और मुसलमानीर गल्पो की चर्चा करेंगे।इन दोनों कहानियों में मनुष्यता के धर्म की साझा विरासत के आइने में रवींद्र के विश्वमानव की छवि बेहद साफ हैं।

गुलाम औपनिवेशिक भारत में सामाजिक संबंधों का जो तानाबाना इस साझा विरासत की वजह से बना हुआ था,राजनीतिक सामाजिक संकटों के मध्य वह अब मुक्तबाजारी डिजिटल इंडिया में तहस नहस है।

उत्पादन प्रणाली सिरे से खत्म है।

खात्मा हो गया है कृषि अर्थव्यवस्था,किसानों और खेती प्रकृति पर निर्भर सारे समुदायों के नरसंहार उत्सव के अच्छे दिन हैं इन दिनों,जहां अपनी अपनी धार्मिक पहचान के कारण मारे जा रहे हैं हिंदू और मुसलमान किसान,आदिवासी,शूद्र,दलित,स्त्री और बच्चे।

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

आज धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी में धार्मिक जाति नस्ली पहचान की वजह से मनुष्यों की असुरक्षा के मुकाबले विकट परिस्थितियों में भी सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण है।भारतविभाजन के संक्रमणकाल में भी घृणा,हिंसा,अविश्वास,शत्रुता का ऐसा स्रवव्यापी माहौल नहीं है जहां हिंदू या मुसलमान बहुसंख्य के आतंक का शिकार हो जाये।रवींद्रनाथ की कहानियों में उस विचित्र भारत के बहुआयामी चित्र परत दर परत है,जिसे खत्म करने पर आमादा है श्वेत आतंकवाद का यह नस्ली धर्मयुद्ध।

उनकी कहानियों में औपनिवेशिक भारत की उत्पादन प्रणाली का सामाजिक तानाबाना है जहां गांवों की पेशागत जड़ता औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में टूटती हुई नजर आती है तो नगरों और महानगरों की जड़ें भी गांवों की कृषि व्यवस्था में है।

कृषि निर्भर जनपदों को बहुत नजदीक से रवींद्रनाथ ने पूर्वी बंगाल में देखा है और इसी कृषि व्यवस्था को सामूहिक सामुदायिका उत्पादन पद्धति के तहत आधुनिक ज्ञान विज्ञान के सहयोग से समृद्ध संपन्न भारत जनपदों की जमीन से बनाने का सपना था उनका।जो उनके उपन्यासों का भी कथानक है।

इस भारत का कोलकाता एक बड़ा सा गांव है जिसका कोना कोना अब बाजार है।

इस भारत में शिव अनार्य किसान है तो काली आदिवासी औरत।धर्म की सारी प्रतिमाएं कृषि समाज की अपनी प्रतिमाएं हैं।

जहां सारे धर्मस्थल धर्मनिरपेक्ष आस्था के केंद्र है,जिनमें पीरों का मजार भी शामिल है। जहां हिंदू मुसलमान अपने अपने पर्व और त्योहार साथ साथ मनाते हैं।पर्व और त्योहारों को लेकर जहां कोई विवाद था ही नहीं।

रवींद्रनाथ प्रेमचंद से पहले शायद पहले भारतीय कहानीकार है,जिनकी कहानियों में बहिस्कृत अंत्यज मनुष्यता की कथा है।

जिसमें कुचली हुई स्त्री अस्मिता का ज्वलंत प्रतिरोध है और भद्रलोक पाखंड के मनुस्मृति शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश है।

आम किसानों की जीवन यंत्रणा है और अपनी जमीन से बेदखली के खिलाफ गूंजती हुई चीखें हैं तो गांव और शहर के बीच सेतुबंधन का डाकघर भी है।

दासी नियति के खिलाफ पति के पतित्व को नामंजूर करने वाला स्त्री का पत्र भी है।

रवींद्रनाथ की पहली कहानी भिखारिनी 1874 में प्रकाशित हुई।सत्तावर्ग से बाहर वंचितों की कथायात्रा की यह शुरुआत है।

1890 से बंगाल के किसानों के जीवन से सीधे अपनी जमींदारी की देखरेख के सिलसिले में ग्राम बांग्ला में बार बार प्रवास के दौरान जुड़ते चले गये और 1991 से लगातार उनकी कहानियों में इसी कृषि समाज की कथा व्यथा है।

उन्होंने कुल 119 कहानियां लिखी हैं।उऩके दो हजार गीतों में जो लोकसंस्कृति की गूंज परत दर परत है,उसका वस्तुगत सामाजिक यथार्थ इन्हीं कहानियों में हैं।

कविताओं की साधु भाषा के बदले कथ्यभाषा का चमत्कार इन कहानियों में है,जो क्रमशः उनकी कविताओं में भी संक्रमित होती रही है।

अपनी कहानियों के बारे में खुद रवींद्रनाथ का कहना हैः

..'এগুলি নেহাত বাস্তব জিনিস। যা দেখেছি, তাই বলেছি। ভেবে বা কল্পনা করে আর কিছু বলা যেত, কিন্তু তাতো করিনি আমি।' (২২ মে ১৯৪১)

রবীন্দ্রনাথের উক্তি। আলাপচারি

इसी सिलसिले में बांग्लादेशी लेखक इमरान हुसैन की टिप्पणी गौरतलब हैः

তার গল্পে অবলীলায় উঠে এসেছে বাংলাদেশের মানুষ আর প্রকৃতি। তার জীবনে গ্রামবাংলার সাধারণ মানুষের জীবনাচার বিশ্ময়ের সৃষ্টি করে। তার গল্পের চরিত্রগুলোও বিচিত্র_ অধ্যাপক, উকিল, এজেন্ট, কবিরাজ, কাবুলিওয়ালা, কায়স্থ, কুলীন, খানসামা, খালাসি, কৈবর্ত, গণক, গোমস্তা, গোয়ালা, খাসিয়াড়া, চাষী, জেলে, তাঁতি, নাপিত, ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট, দারোগা, দালাল প-িতমশাই, পুরাতন বোতল সংগ্রহকারী, নায়েব, ডাক্তার, মেথর, মেছুনি, মুটে, মুদি, মুন্সেফ, যোগী, রায়বাহাদুর, সিপাহী, বাউল, বেদে প্রমুখ। তার গল্পের পুরুষ চরিত্র ছাড়া নারী চরিত্র অধিকতর উজ্জ্বল। বিভিন্ন গল্পের চরিত্রের প্রসঙ্গে রবীন্দ্রনাথ একসময় তারা শঙ্কর বন্দ্যোপাধ্যায়কে লিখেছিলেন 'পোস্ট মাস্টারটি আমার বজরায় এসে বসে থাকতো। ফটিককে দেখেছি পদ্মার ঘাটে। ছিদামদের দেখেছি আমাদের কাছারিতে।'

अनुवादः उनकी कहानियों में बांग्लादेश के आम लोग और प्रकृति है।उनके जीवन में बांग्लादेश के आम लोगों के रोजमर्रे के  जीवनयापन ने विस्मय की सृष्टि की है।उनकी कहानियों के पात्र भी चित्र विचित्र हैं-अध्यापक, वकील, एजेंट, वैद्य कविराज, काबूलीवाला, कायस्थ, कुलीन, कैवर्त किसान मछुआरा, ज्योतिषी, जमींदार का गोमस्ता, ग्वाला, खासिवाड़ा, हलवाहा, मछुआरा, जुलाहा, नाई, डिप्टी मजिस्ट्रेट, दरोगा, दलाल, पंडित मशाय, पुरानी बोतल बटोरनेवाला, नायब, डाक्टर, सफाईकर्मी, मछुआरिन, बोझ ढोने वाला मजदूर, योगी, रायबहादुर, सिपाही, बाउल, बंजारा, आदि। उनकी कहानियों के पुरुषों के मुकाबले स्त्री पात्र कहीूं ज्यादा सशक्त हैं।अपनी विभिन्न कहानियों के पात्रों के बारे में रवींद्रनाथ ने कभी ताराशंकर बंद्योपाध्याय को लिखा था-पोस्टमास्टर मेरे साथ बजरे (बड़ी नौका) में अक्सर बैठा रहता था।फटिक को पद्मा नदी के घाट पर देखा।छिदाम जैसे लोगों को मैंने अपनी कचहरी में देखा।

अनुवादः यह खालिस वास्तव है।जो अपनी आंखों से देखा है,वही लिख दिया।सोचकर,काल्पनिक कुछ लिखा जा सकता था,लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है।(22 मई,1941।

रवींद्रनाथ का कथन।आलापचारिता (संवा्द)।

(संदर्भः রবীন্দ্রনাথের ছোটগল্প, http://www.jaijaidinbd.com/?view=details&archiev=yes&arch_date=20-06-2012&feature=yes&type=single&pub_no=163&cat_id=3&menu_id=75&news_type_id=1&index=0)

काबूलीवाला की कथाभूमि अफगानिस्तान से लेकर कोलकाता के व्यापक फलक से जुड़ी है,जहां इंसानियत की कोई सरहद नहीं है।काबूली वाला पिता और बंगाली पिता,काबूली वाला की बेटी राबेया और बंगाल की बालिका मिनी में कोई प्रति उनकी जाति,उनके धर्म,उनकी पहचान,उनकी भाषा और उनकी राष्ट्रीयता की वजह से नहीं है।

काबूलीवाला के कोलकाता और आज के कोलकाता में आजादी के बाद क्या फर्क आया है और वैष्णव बाउल फकीर सूफी संत परंपरा की साझा विरासत किस हद तक बदल गयी है वह हाल के दुर्गापूजा मुहर्रम विवाद से साफ जाहिर है।

रोहिंग्या मुसलमान तो फिरभी विदेशी हैं और भारत और बांग्लादेश की दोनों सरकारें रोहिंग्या अलग राष्ट्र आंदोलन की वजह से इस्लामी राष्ट्रवादी संगठनों के साथ इन शरणार्थियों को जोड़कर सुरक्षा का सवाल उठा रहीं हैं।

भारतीय नागरिक जो मुसलमान रोज गोरक्षा के नाम मारे जा रहे हैं,फर्जी मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं,कश्मीर में बेगुनाह मारे जा रहे हैं,दंगो में मारे जा रहे हैं, नरसंहार के शिकार हो रहे हैं और नागरिक मानवाधिकारों से वंचित हो रहे हैं और हरकहीं शक के दायरे में हैं ,शक के दायरे में मारे जा रहे हैं, उनकी आज की कथा और काबूलीवाला के कोलकाता में कितना फर्क है,यह समझना बेहद जरुरी है।

बांग्ला और हिंदी में बेहद लोकप्रिय फिल्में काबूली वाला पर बनी हैं।दक्षिण भारत में भी काबूलीवाला पर फिल्म बनी है।भारतीय भाषाओं के पाठकों के लिए यह कहानी अपरिचित नहीं है।

काबूलीवाला की ख्याति निर्मम सूदखोर की तरह है।वैसे ही जैसे कि  यूरोेप में मध्यकाल में यहूदी सूदखोरों की ख्याति है।

मर्चेंट आफ वेनिस में शेक्सपीअर ने सूदखोर शाइलाक का निर्मम चरित्र पेश किया है।इसके विपरीत रवींद्रनाथ का काबूलीवाला एक मनुष्य है,एक पिता है।

रवींद्रनाथ का काबूलीवाला कोई सूदखोर महाजन नहीं है।

वह  काबूलीवाला अफगानिस्तान में कर्ज में फंसने के कारण अपनी प्यारी बेटी को छोड़कर हिंदकुश पर्वत के दर्रे से भारत आया है तिजारत के जरिये रोजगार के लिए।

काबूलीवाला सार्वभौम पिता है,विश्वमानव विश्व नागरिक है और अपने देश में पीछे छूट गयी अपनी बेटी के प्रति उसका प्रेम मिनी के प्रति प्रेम में बदलकर सार्वभौम प्रेम बन गया है।वह न विभाजनपीड़ित शरणार्थी है,न तिब्बत या श्रीलंका का युद्धपीड़ित, न वह रोहिंग्या मुसलमान है और न मध्य एशिया के धर्मयुद्ध का शिकार।

आज के भारतवर्ष में,आज के कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों कीतरह काबूलीवाला की कोई जगह नहीं है और आजाद हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, ईसाइयों समेत तमाम गैरहिंदुओं,अनार्य द्रविड़ नस्लों,असुरों के वंशजों, आदिवासियों, किसानों,शूद्रों,दलितों और स्त्रियों के लिए कोई जगह नहींं।

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसे पिता के लिए कोई जगह नहीं है।

देखेंः

वह पास आकर बोला, ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई…..


इस कहानी बनी बाग्ला फिल्म में हिंदकुश दर्रे के लंबे दृश्य बेहद प्रासंगिक है क्योंकि इसी दर्रे की वजह से भारत में बार बार विदेशी हमलावर आते रहे हैं।आर्य,शक हुण कुषाण,पठान मुगल सभी उसी रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न हिस्सा बन गये।सिर्फ यूरोप के साम्राज्यवादी पुर्तगीज,फ्रेंच,डच,अंग्रेज वगैरह उस रास्ते से नहीं आये।वे समुंदर के रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के हिस्सा नहीं बने। बेहतर हो कि काबुली वाला पर बनी बांग्ला या हिंदी फिल्म दोबारा देख लें।

मुसलमानीर गल्पो की काबुलीवाला की तरह लोकप्रियता नहीं है लेकिन यह कहानी भारतीय साझा विरासत की कथा धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।

14 अप्रैल,1941 को रवींद्रनाथ के 80 वें जन्मदिन के अवसर पर शांतिनिकेतन में उनका बहुचर्चित निबंध सभ्यता का संकट पुस्तकाकार में प्रकाशित और वितरित हुआ।7 अगस्त,1941 में कोलकाता में उनका निधन हो गया।

मृत्यु से महज छह सप्ताह पहले 2425 अप्रैल को उन्होंने अपनी आखिरी कहानी मुसलमानीर गल्पो लिखी,जिसमें वर्ण व्यवस्था और सवर्ण हिंदुओं की विशुद्धतावादी कट्टरता की कड़ी आलोचना करते हुए मुसलमानों की उदारता के बारे में उन्होंने लिखा।हिंदू समाज के अत्याचार और बहिस्कार के खिलाफ धर्मांतरण की कथा भी यह है।आखिरी कहानी होने के बावजूद मुसलमानीर गल्पो की चर्चा बहुत कम हुई है और गैरबंगाली पाठकों में से बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी।

गौरतलब है कि अपने सभ्यता के संकट में रवींद्रनाथ नें नस्ली राष्ट्रीयता के यूरोपीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का विरोध भारत के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के संदर्भ में करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण को चिन्हित करते हुए भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की थी।

दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत जब सांप्रदायिक ध्रूवीकरण चरम पर था,उसी दौरान मृत्यु से पहले धर्मांतरण के लिए वर्ण व्यवस्था की विशुद्धता को जिम्मेदार बताते हुए मुसलमानों की उदारता के कथानक पर आधारित रवींद्रनाथ की इस अंतिम कहानी की प्रासंगिकता पर अभी संवाद शुरु ही नहीं हुआ है।

इस कहानी में डकैतों के एक ब्राह्मण परिवार की सुंदरी कन्या को विवाह के बाद ससुराल यात्रा के दौरान उठा लेने पर हबीर खान नामक एक मुसलमान उसे बचा लेता है और अपने घर ले जाकर उसे अपने धर्म के अनुसार जीवन यापन करने का अवसर देता है। हबीर खान किसी नबाव साहेब की राजपूत बेगम का बेटा है ,जिसे अलग महल में बिना धर्मांतरित किये हिंदू धर्म के अनुसार जीवन यापन के लिए रखा गया था और वही महल हबीर खान का घर है।जहां एक शिव मंदिर और उसके लिए ब्राह्मण पुजारी भी है।कमला अपने घर वापस जाना चाहती हैतो हबीर उसे वहां  ले जाता है।

यह कन्या अनाथ हैं और अपने चाचा के घर में पली बढ़ी,जो उसकी सुंदरता की वजह से उसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए एक विवाहित बाहुबलि के साथ विदा करके अपनी जिम्मेदारी निभा चुका था।अब मुसलमान के घर होकर आयी, डकैतों से बचकर निकली अपनी भतीजी को दोबारा घर में रखने केलिे चाचा चाची तैयार नहीं हुए तो कमला फिर हबीर के साथ उसके घर लौट जाती है।

अपने चाचा के घर में प्रेम स्नेह से वंचित और बिना दोष बहिस्कृत कमला को हबीर के घर स्नेह मिलता है तो हबीर के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। वह इस्लाम कबूल कर लेती है।फिर उसके चाचा की बेटी का डकैत उसीकी तरह अपहरण कर लेते हैं तो मुसलमानी बनी कमला अपनी बहन को बचा लेती है और उसे उसके घर सुरक्षित सौप आती है।

इस कहानी में हबीर को हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बराबर सम्मानीय बताया गया है जिसके सामने हिंदू  डकैत भी हथियार डाले देते हैं तो नबाव की राजपूत बेगम की कथा में जोधा अकबर कहानी की गूंज है।हबीर में कबीर की छाया है।दोनों ही प्रसंग भारतवर्ष की साझा विरासत के हैं।

इस कहानी में कमला का धर्मांतरण प्रसंग भी रवींद्रनाथ के पूर्वजों के गोमांस सूंघने के कारण विशुद्धतावाद की वजह से मुसलमान बना दिये जाने और टैगोर परिवार को अछूत बहिस्कृत पीराली ब्राह्मण बना दिये जाने के संदर्भ से जुड़ता है।

सांप्रदायिक ध्रूवीकरण और हिंदू मुस्लिम राष्ट्रवाद के विरुद्ध सभ्यता का संकट लिखने के बाद रवींद्रनाथ की इस कहानी में साझा विरासत की कथा आज के धर्मोन्मादी गोरक्षा तांडव के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।

इस कथा के आरंभ में सामाजिक अराजकता,देवता अपदेवता पर निर्भरता, कानून और व्यवस्था की अनुपस्थिति और स्त्री की सुरक्षा के नाम पर उसके उत्पीड़न के सिलसिलेवार ब्यौरे के साथ स्त्री को वस्तु बना देने की पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार है  तो सवर्णों में पारिवारिक संबंध,स्नेह प्रेम की तुलना में विशुद्धता के सम्मान की चिंता भी अभिव्यक्त है।पितृसत्ता की विशुद्धता के सिद्धांत के तहत सुरक्षा के नाम स्त्री उत्पीड़न की यह कथा आज घर बाहर असुरक्षित स्त्री,खाप पंचायत और आनर किलिंग का सच है।

তখন অরাজকতার চরগুলো কণ্টকিত করে রেখেছিল রাষ্ট্রশাসন, অপ্রত্যাশিত অত্যাচারের অভিঘাতে দোলায়িত হত দিন রাত্রি।দুঃস্বপ্নের জাল জড়িয়েছিল জীবনযাত্রার সমস্ত ক্রিয়াকর্মে, গৃহস্থ কেবলই দেবতার মুখ তাকিয়ে থাকত, অপদেবতার কাল্পনিক আশঙ্কায় মানুষের মন থাকত আতঙ্কিত। মানুষ হোক আর দেবতাই হোক কাউকে বিশ্বাস করা কঠিনছিল, কেবলই চোখের জলের দোহাই পাড়তে হত। শুভ কর্ম এবং অশুভ কর্মের পরিণামের সীমারেখা ছিল ক্ষীণ। চলতে চলতে পদে পদে মানুষ হোঁচট খেয়ে খেয়ে পড়ত দুর্গতির মধ্যে।

এমন অবস্থায় বাড়িতে রূপসী কন্যার অভ্যাগম ছিল যেন ভাগ্যবিধাতার অভিসম্পাত। এমন মেয়ে ঘরে এলে পরিজনরা সবাই বলত 'পোড়ারমুখী বিদায় হলেই বাঁচি'। সেই রকমেরই একটা আপদ এসে জুটেছিল তিন-মহলার তালুকদার বংশীবদনের ঘরে।

কমলা ছিল সুন্দরী, তার বাপ মা গিয়েছিল মারা, সেই সঙ্গে সেও বিদায় নিলেই পরিবার নিশ্চিন্ত হত। কিন্তু তা হল না, তার কাকা বংশী অভ্যস্ত স্নেহে অত্যন্ত সতর্কভাবে এতকাল তাকে পালন করে এসেছে।

তার কাকি কিন্তু প্রতিবেশিনীদেরকাছে প্রায়ই বলত, "দেখ্‌ তো ভাই, মা বাপ ওকে রেখে গেল কেবল আমাদের মাথায় সর্বনাশ চাপিয়ে। কোন্‌ সময় কী হয় বলা যায় না। আমার এই ছেলেপিলের ঘর, তারই মাঝখানে ও যেন সর্বনাশের মশাল জ্বালিয়ে রেখেছে, চারি দিক থেকে কেবল দুষ্টলোকের দৃষ্টি এসে পড়ে। ঐ একলা ওকে নিয়ে আমার ভরাডুবি হবে কোন্‌দিন, সেই ভয়ে আমার ঘুম হয় না।"

এতদিন চলে যাচ্ছিল এক রকম করে, এখনআবার বিয়ের সম্বন্ধ এল।সেই ধূমধামের মধ্যে আর তো ওকে লুকিয়ে রাখা চলবে না। ওর কাকা বলত, "সেইজন্যই আমি এমন ঘরে পাত্র সন্ধান করছি যারামেয়েকে রক্ষা করতে পারবে।"


Thursday, September 21, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-31 बांग्लादेश में रवींद्र और शरत को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने के इस्लामी राष्ट्रवाद खिलाफ आंदोलन तेज हमारे यहां शिक्षा और इतिहास के हिंदुत्वकरण के खिलाफ सन्नाटा कट्टरपंथ के खिलाफ आसान नहीं होती लड़ाई। श्वेत आंतकवाद के युद्धस्थल वधस्थल बन गये भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश, हालांकि रंग श्वेत दीखता नहीं है पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-31

बांग्लादेश में रवींद्र और शरत को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने के इस्लामी राष्ट्रवाद खिलाफ आंदोलन तेज

हमारे यहां शिक्षा और इतिहास के हिंदुत्वकरण के खिलाफ सन्नाटा

कट्टरपंथ के खिलाफ आसान नहीं होती लड़ाई।

श्वेत आंतकवाद के युद्धस्थल वधस्थल बन गये भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश, हालांकि रंग श्वेत दीखता नहीं है

पलाश विश्वास

कट्टरपंथ के खिलाफ आसान नहीं होती कोई लड़ाई।

लालन फकीर और रवींद्रनाथ की रचनाओं को पाठ्यक्रम से निकालने के खिलाफ बांग्लादेश में आंदोलन तेज हो रहा है और रवींद्र और प्रेमचंद समेत तमाम साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से निकालने और समूचा इतिहास को वैदिकी साहित्य में बदलने  के खिलाफ भारत में अभी कोई आंदोलन शुरु नहीं किया जा सका है।

बांग्लादेश में पाकिस्तानी शासन के दौरान 1961 में भी रवींद्र साहित्य और रवींद्रसंगीत पर हुक्मरान ने रोक लगा दी थी,जिसका तीव्र विरोध हुआ और वह रोक हटानी पड़ी।बाग्लादेश मुक्तिसंग्राम के दौरान तो रवींद्र के लिखे गीत आमार सोनार बांग्ला आमि तोमाय भोलोबासि  बांग्लादेश का राष्ट्रीय संगीत बन गया।

गौरतलब है कि 1961 के प्रतिबंध के खिलाफ ढाका में बांग्ला नववर्ष और 25 बैशाख को रवींद्र जयंती मनाने का सिलसिला शुरु हुआ जो कभी रुका नहीं है।

विविधता,बहुलता,सहिष्णुता के लोकतंत्र के खिलाफ हैं भारत के हिंदू राष्ट्रवादी और बांग्लादेश के इसलामी राष्ट्रवादी दोनों।जिस तरह संघ परिवार शिक्षा व्यवस्था के आमूल हिंदुत्वकरण के लिए लगातार विश्वविद्यालयों पर हमले कर रहा है,पाकिस्तान बनने के बाद और पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के बाद वहां भी विश्विद्यालय कट्टर इस्लामी राष्ट्रवादियों  के निशाने पर हैं।

रवींद्रनाथ कहते थे कि पश्चिम के ज्ञान विज्ञान वहां के शासक वर्ग की देन नहीं है और यह आम जनता की उपज है।हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।इसी तरह फासीवादी राष्ट्रवाद के धर्मोन्माद,नस्ली वर्चस्व और समाज और मनुष्यता के धर्म के नाम बंटवारे के राष्ट्रवाद और हिंसा,घृणा,युद्ध और विध्वंस के राष्ट्रवाद का रवींद्रनाथ विरोध करते रहे।

हम शिक्षा और ज्ञान के बदले पश्चिमी धर्मोन्मादी सैन्य राष्ट्रवाद के उत्तराधिकारी बन गये हैं तो स्वतंत्रता के बाद भी स्वदेश अभी साम्राज्यवाद का मुक्तबाजारी उपनिवेश है,जहां उच्च शिक्षा और ज्ञान के लिए कोई जगह नहीं है।मध्ययुगीन बर्बर इतिहास को दोहराने का उपक्रम हमारा धर्म कर्म है।

भारत में जयभीम कामरेड के नारे के साथ जाति धर्म का दायरा तोड़कर मनुस्मति विरोधी ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन और बंगाल के होक कलरव छात्र आंदोलन से पहले युद्ध अपराधियों को फांसी पर लटकाने के खिलाफ शाहबाग छात्र युवा आंदोलन के दौरान इस महादेश के तमाम  कट्टरपंथी धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी युद्धअपराधियों को एक ही रस्सी से फांसी पर लटकाने की मांग उठ चुकी है।

शाहबाग आंदोलन के तहत ही बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान नरसंहार के युद्ध अपराधी रजाकर और जमात नेताओं को फांसी पर लटकाने का सिलसिला जारी है। मनुष्यता के विरुद्ध युद्ध अपराधी वहां फांसी पर लटकाये जा रहे हैं,फिर भी बांग्लादेश सरकार और प्रशासन में इस्लामी राष्ट्रवादियों का वर्चस्व कायम है।

भारत में हिंदुत्व एजंडा के तहत पाठ्यक्रम के हिंदुत्वकरण अभियान के समांतर बांग्लादेश में हिफाजत और जमात के असर में पाठ्यक्रम से रवींद्रनाथ टैगोर,लालन फकीर ,शरतचंद्र,सत्यजीत रे के दादा उपेंद्र किशोर रायचौधरी और बांग्लादेश के बेहद लोकप्रिय लेखक हुमायूं आजाद की रचनाएं बाहर फेंक दी गयी है।इसके खिलाफ बांग्लादेश में छात्र,प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के मोर्चे ने ढाका विश्विद्यालय से आंदोलन शुरु कर दिया है।

हम पहले ही इस बारे में चर्चा कर चुके हैं कि बांग्लादेश में लालन फकीर और रवींद्रनाथ के खिलाफ भयंकर घृणा अभियान जारी है। बंकिम के हिंदू राष्ट्रवाद के साथ लालन और रवींद्रनाथ को जोड़कर उन्हें मुसलमानों के खिलाफ बताने का अभियान शुरु से चल रहा है।इसका व्यापक प्रतिरोध भी वहां हो रहा है।

रवींद्रनाथ के मशहूर उपन्यास गोरा के नायक को आखिरकार अहसास होता है कि उनकी कोई जाति नहीं है और वे अंत्यज है।रवींद्रनाथ ने अपनी रचनाओं में अपने को कई दफा अछूत, अंत्यज, जातिहीन, मंत्रहीन कहा है।अपनी मध्य एशिया की यात्रा के वृत्तांत उन्होंने इस्लाम और इस्लामी विरासत के बारे में उन्होंने सिलसिलेवार लिखा है।

उन्होंने लिखा हैः

'কাছের মানুষ বলে এরা যখন আমাকে অনুভব করেছে তখন ভুল করে নি এরা, সত্যই সহজেই এদের কাছে এসেছি। বিনা বাধায় এদের কাছে আসা সহজ, সেটা স্পষ্ট অনুভব করা গেল। এরা যে অন্য সমাজের, অন্য ধর্মসম্প্রদায়ের, অন্য সমাজগণ্ডীর, সেটা আমাকে মনে করিয়ে দেবার মতো কোনো উপলক্ষই আমার গোচর হয় নি।' (ঠাকুর ১৩৯২ : ২৮-২৯)

(मेरे अपना अंतरंग हाने का अहसास इन लोगों ने किया है।इन्होंने कोई गलती नहीं की है।मैं सचमुच सहज ही इनके पास चला आया।ये दूसरे समाज के लोग है,दूसरे धर्म संप्रदाय के लोग हैं या दूसरे समामाजिक अनुशासन के दायरे में हैं ये,ऐसा कुछ भी महसूस करने का कोई मौका मुझे मिला नहीं है।)

उत्तर कोरिया को तबाह करने की जो अश्लील चेतावनी श्वेत जायनी साम्राज्यवाद ने हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु धमाकों की गूंज के साथ दी है,उसमें यूरोप में धर्मयुद्ध और दैवीसत्ता का नस्ली वर्चस्व है जो यूरोप का राष्ट्रवाद पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का त्रिशुल है।इस त्रिशुल की मार अफगानिस्तान में मिसाइली हमलों,इराक के विध्वंस,लीबिया में गद्दाफी को खत्म करने के लिए बमबारी,सीरिया के गृहयुद्ध और मिश्र समेत पूरी अरब दुनिया में अमेरिकी अरब वसंत तक मनुष्यता को लहूलुहान कर रही है और इससे आतंकवाद की धर्मोन्मादी राजनीति अब मनुष्यता का अंत करने पर आमादा है।

रग और झंडा जो भी हो,यह विशुद्धता का श्वेत आतंकवाद है।धर्मयुद्ध है।

सभ्यताओं के संघर्ष के पश्चिमी उपक्रम की चर्चा रवींद्रनाथ की मध्यएशिया यात्रा के सिलसिले में पश्चिमी श्वेत आतंकवाद के इस आसमानी धर्मयुद्ध के खिलाफ रवींद्रनाथ की लंबी चेतावनी का सार प्रस्तुत किया है विनायक सेन नेः

"বোগদাদে ব্রিটিশদের আকাশফৌজ আছে। সেই ফৌজের খ্রিস্টান ধর্মযাজক আমাকে খবর দিলেন, এখানকার কোন শেখদের গ্রামে তারা প্রতিদিন বোমাবর্ষণ করছেন। সেখানে আবালবৃদ্ধবনিতা যারা মরছে তারা ব্রিটিশ সাম্রাজ্যের ঊর্ধ্বলোক থেকে মার খাচ্ছে; এই সাম্রাজ্যনীতি ব্যক্তিবিশেষের সত্তাকে অস্পষ্ট করে দেয় বলেই তাদের মারা এত সহজ। খ্রিস্ট এসব মানুষকেও পিতার সন্তান বলে স্বীকার করেছেন, কিন্তু খ্রিস্টান ধর্মযাজকের কাছে সেই পিতা এবং তার সন্তান হয়েছে অবাস্তব; তাদের সাম্রাজ্য-তত্ত্বের উড়োজাহাজ থেকে চেনা গেল না তাদের; সেজন্য সাম্রাজ্যজুড়ে আজ মার পড়ছে সেই খ্রিস্টেরই বুকে। তাছাড়া উড়োজাহাজ থেকে এসব মরুচারীকে মারা যায় এতটা সহজে, ফিরে মার খাওয়ার আশঙ্কা এতই কম যে, মারের বাস্তবতা তাতেও ক্ষীণ হয়ে আসে। যাদের অতি নিরাপদে মারা সম্ভব, মারওয়ালাদের কাছে তারা যথেষ্ট প্রতীয়মান নয়। এই কারণে, পাশ্চাত্য হননবিদ্যা যারা জানে না, তাদের মানবসত্তা আজ পশ্চিমের অস্ত্রীদের কাছে ক্রমশই অত্যন্ত ঝাপসা হয়ে আসছে।"

अनुवादः बगदाद में ब्र्टिश हुकूमत की आसमानी फौज है।उसी फौज के एक ईसाई धर्मयजक ने मुझे खबर दी कि यह फौज यहां किसी शेखों के गांव पर रोज बमबारी कर रही है।वहां बच्चे बूढ़े स्त्रियों समेत जो आम लोग मारे जा रहे हैं,वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उर्द्धलोक की मार से मारे जा रहे हैं।यह साम्राज्यवादी नीति व्यक्तिविशेष की निजी सत्ता को इस तरह अस्पष्ट रहस्यमयी भाषा में पेश करती है कि बेगुनाह मनुष्यों को मारना इतना सरल है।यीशु मसीह ने इन सभी मनुष्यों को ईश्वर की संतान माना है लेकिन ईसाई धर्मयाजक के लिए वह पिता और उनकी संतान अवास्तव बन गये हैं,उनका साम्राज्यवाद की अवधारणा युद्धक विमानों से पहचाना नहीं गया है और इसीलिए ब्रिटिश साम्राज्य में ये सारे हमले ईशा मसीह के सीने पर हो रहे हैं। इसके अलावा युद्धक विमान से मरुभूमि के वाशिंदों को मारना इतना आसान है कि जबावी मार खाने की कोई आशंका होती नहीं है और इसीलिए उनके मारे जाने का सचभी इतना क्षीण होता जाता है।जिन्हें इतनी सुरक्षित तरीके से मारना संभव है,मारनेवालों के लिए उनका कोी वजूद होता ही नहीं है।इसलिए जो लोग पश्चिम की हत्या संस्कृति से अनजान हैं,उनकी मनुष्यता का अस्तित्व भी पश्चिमी सैन्य ताकतों के लिए क्रमशः धूमिल होता जाता है।

रवींद्र की यह चेतावनी जितना पश्चिम एशिया और बाकी दुनिया का सच है,उससे बड़ा सच भारत में कृषि व्यवस्था,किसानों,दलितों,आदिवासियों और गैर हिंदुओं का सच है।यह गोरक्षा तांडव का सच है तो नरसंहार संस्कृति का सचभी है तो फिर यह आदिवासी भूगोल में अनंत बेदखली का सच भी है।

रवींद्र नाथ की यह चेतावनी आज की पृथ्वी ,आज की मनुष्यता और प्रकृति के विरुद्ध जारी उसी धर्मयुद्ध का सच है,जिस धर्मयुद्ध के श्वेत आतंकवाद की भाषा उत्तर कोरिया के लिए तबाही की चेतावनी है।

(संदर्भःরবীন্দ্রনাথ ও মধ্যপ্রাচ্য (Tagore and the Middle East)

Posted on May 9, 2014

বিনায়ক সেন)

रवींद्र समय का ब्रिटिश साम्राज्यवाद का श्वेत आतंकवाद अब अमेरिका साम्राज्यवाद है और पश्चिम एशिया में फिलीस्तीन और यरूशलम पर कब्जे का यूरोप का धर्मयुद्ध अब अमेरिका का धर्मयुद्ध भी है,जिसे हम कभी खाड़ी युद्ध तो कभी तेल युद्ध और फिर जल युद्ध या लोकतंत्र के लिए युद्ध और आखिरकार आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका का युद्ध कहते रहे हैं।

नस्ली आतंकवाद के विरुद्ध इस चेतावनी के बाद और पश्चिम एशिया के यथार्थ को दूसरे विश्वयुद्ध से पहले इतना सही तरीके से पेश करने वाले रवींद्रनाथ को इस्लामी राष्ट्रवाद के झंडेवरदार मुसलमानों का दुश्मन साबित करने में लगे हैं।

दरअसल, रवींद्रनाथ और काजी नजरुल इस्लाम दोनों तुर्की के आधुनिकीकरण के कमाल पाशा करिश्मे के प्रशंसक रहे हैं।

धर्म के नाम समाज के बंटवारे के खिलाफ थे नजरुल इस्लाम और रवींद्रनाथ दोनो।इसलिए कमाल अतातुर्क की क्रांति का दोनों ने स्वागत किया है।

रवींद्रनाथ ने लिखा हैः

"কামাল পাশা বললেন মধ্যযুগের অচলায়তন থেকে তুরস্ককে মুক্তি নিতে হবে। তুরস্কের বিচার বিভাগের মন্ত্রী বললেন : মেডিয়াভেল প্রিন্সিপলস্ মাস্ট গিভ ওয়ে টু সেক্যুলার ল'স। উই আর ক্রিয়েটিং আ মডার্ন, সিভিলাইজড্ নেশন।"

अनुवादः कमाल पाशा ने कहा कि मध्ययुग की जड़ता से तुर्की को आजाद करना होगा।तुर्की के न्याय मंत्री ने कहा कि मध्यकालीन सिद्धांतों के बदले धर्मनिरपेक्ष कानून लागू करना होगा।हम एक आधुनिक ,सभ्य राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं।

रवींद्रनाथ ने शुरु से लेकर अपने जीवन के अंत तक जिस राष्ट्रवाद का विरोध किया है,वह दरअसल पश्चिम के धर्म युद्ध का वही राष्ट्रवाद है,जो समाज और मनुष्यता को धर्म के नाम पर बांटता है।

अंग्रेजों ने भारत में दो सौ सालों के अपने राज में हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया और दुश्मनी की इस मजहबी सियासत की नींव पर जो भारत ,पाकिस्तान और बांग्लादेश  का निर्माण हुआ - अखंड भारत वर्ष के वे तीनों ही टुकड़े आखिर कार श्वेत आतंकवाद के उपनिवेश बन गये,जो एक अनंत युद्धस्थल वधस्थल है और फर्क सिर्फ इतना है कि वह श्वेत आतंकवाद दीखता नहीं है और न उसका रंग श्वेत है।पश्चिम के ज्ञान विज्ञान की जगह पश्चिम की यांत्रिक आटोमेशन सभ्यता और तकनीक ने ली है।यही डिजिटल इंडिया की असल तस्वीर है।

इस्लामी कट्टरपंथ से आजादी के हक में रवींद्रनाथ का बयान इस्लामी कट्टरपंथियों को उसीतरह नागवार लगता है जैसे विविधता बहुलता,सहिष्णुता,अनेकता में एकता के मनुष्यता के धर्म से हिंदू राष्ट्रवाद को सख्त ऐतराज है।

रवींद्र नाथ के नाटक विसर्जन में मूर्तिपूजा के विरोध में देवी के अस्तित्व को झूठा साबित करने से हिंदू समाज शुरु से रवींद्र के खिलाफ रहा है।

अरब दुनिया के मशहूर शायर हाफिज के मजार पर बैठकर उन्हें अपने देश में धर्मोन्मादी सांप्रदायिकता की याद आयी और उन्होंने लिखाः

'এই সমাধির পাশে বসে আমার মনের মধ্যে একটা চমক এসে পৌঁছল, এখানকার এই বসন্তপ্রভাতে সূর্যের আলোতে দূরকালের বসন্তদিন থেকে কবির হাস্যোজ্জ্বল চোখের সংকেত। মনে হল আমরা দুজনে একই পানশালার বন্ধু, অনেকবার নানা রসের অনেক পেয়ালা ভরতি করেছি। আমিও তো কতবার দেখেছি আচারনিষ্ঠ ধার্মিকদের কুটিল ভ্রুকুটি। তাদের বচনজালে আমাকে বাঁধতে পারে নি; আমি পলাতক, ছুটি নিয়েছি অবাধপ্রবাহিত আনন্দের হাওয়ায়। নিশ্চিত মনে হল, আজ কত-শত বৎসর পরে জীবন-মৃত্যুর ব্যবধান পেরিয়ে এই কবরের পাশে এমন একজন মুসাফির এসেছে যে মানুষ হাফেজের চিরকালের জানা লোক। (ঠাকুর ১৩৯২ : ৪৩-৪৪)

बांग्लादेश के सिलाईदह,शाहजादपुर और कालीग्राम परगना में टैगोर परिवार की तीन जमींदारियां थीं।युवा रवींद्रनाथ पहलीबार 1890 में अपनी जमींदारी की देखरेख के लिए 1890 में पातिसर पहुंचे।उस वक्त तक टैगोर जमीदारियों में भयंकर सामंती व्यवस्था थी।इस बारे में कंगाल हरिनाथ के खुलना जिले के कुमारखाली से प्रकाशित अखबार ग्रामवार्ता में लगातार लिखा जाता रहा है।

लालन फकीर के सहयोगी और अनुयायी बाउल पत्रकार कंगाल हरिनाथ और उनके अखबार ग्रामवार्ता को अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारों के खिलाफ पाबना और रंगपुर के किसान  विद्रोहों के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है।टैगोर जमींदारी के लठैतों ने उनपर हमले भी किये और उन हमलों से  पास ही स्थित लालन फकीर के अखाड़े के उनके अनुयायियों ने उन्हें बचाया।इस पर बी हमने चर्चा की है।

महर्षि देवेंद्रनाथ के सामंती चरित्र से रवींद्रनाथ के मनुष्यता का धर्म उन्हें अलग करता है।टैगोर जमींदारी के प्रजाजनों पर सामंती शिकंजा तोड़ने की पहल भी रवींद्रनाथ ने की। बाकायदा जमींदार की हैसियत से रवींद्रनाथ पहलीबार कुष्ठिया जिले के सिलाईदह में गये तो पांरपारिक पुन्याह पर्व पर उन्होंने हिंदू मुसलमान और सवर्ण दलित का भेदभाव खत्म कर दिया।

गौरतलब है कि रवींद्र नाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ ठैगोर के जमाने से पुन्हयाह पर्व पर हिंदुओं और मुसलमानों के अलग अलग बैठाने का बंदोबस्त था तो हिंदुओं के लिए उनकी हैसियत और जाति के मुताबिक अलग बैठने का इंतजाम था।हिंदुओं के लिए चादर से ढकी दरिया तो मुसलमानों के लिए बाना चादर की दरिया।ब्राह्मणों को अलग से बैठाने का इंतजाम।

जमींदार के लिए रेशम से सजा सिंहासन।

रवींद्रनाथ ने यह इंतजाम देखते ही सिंहासन पर बैठे बिना नायब से इस भेदभाव की वजह पूछ ली तो उन्होंने परंपरा का हवाला दे दिया।

इसपर रवींद्रनात ने कह दिया की भेदभाव की यह परंपरा नहीं चलेगी। अलग अलग बैठने की व्यवस्था तुरंत खत्म करके हिंदू मुसलमान ब्राह्मण चंडाल सभी को एक साथ बैठाना होगा।नायब ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तो युवा रवींद्रनाथ अड़ गये।उन्होंने खुद सिंहासन पर बैठने से इंकार कर दिया।

बाहैसियत जमींदार सबके लिए समानता का यह उनका पहला आदेश था। नायब,गोमस्ता सभी कर्मचारियों ने इस नये इंतजाम के खिलाफ एकमुश्त इस्तीफे की धमकी दे दी।इसकी परवाह किये बिना रवींद्रनाथ ने सबके लिए एक साथ बैठने का इंतजाम चालू कर दिया।नायब और कर्मचारी देखते रह गये।

यही नहीं जमींदारों के अत्याचार उत्पीड़न से मुसलमान प्रजाजनों को बचाने को रवींद्रनाथ सबसे ज्यादा प्राथमिकता देते थे।

Tuesday, September 19, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-29 हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है। मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं। चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाफ हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अ�

रवींद्र का दलित विमर्श-29

हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है।

मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं।

चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाफ हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अब डिजिटल इंडिया में हजारों ईस्ट इंडिया कंपनियों का राज है।

1980 के दशक से या फिर 1970 के दशक नक्सलसमय के दौरान दक्षिण पंथी ताकतों के ध्रूवीकरण से सिर्फ सत्ता समीकरण बदला है,कोई नई शुरुआत नहीं हुई है।

बौद्धमय भारत के अंत के बाद ब्राह्मण धर्म के मनुस्मृति विधान की बहाली के लिए हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है,इसे समझे बिना नस्ली वर्चस्व के नरसंहारी राष्ट्रवाद का प्रतिरोध असंभव है।

रवींद्र का दलित विमर्श औपनिवेशिक भारत में हिंदुत्व के उसी पुनरूत्थान के प्रतिरोध में है।

पलाश विश्वास

बौद्धमय भारत के अंत के बाद ब्राह्मण धर्म के मनुस्मृति विधान की बहाली के लिए हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है,इसे समझे बिना नस्ली वर्चस्व के नरसंहारी राष्ट्रवाद का प्रतिरोध असंभव है।रवींद्र का दलित विमर्श औपनिवेशिक भारत में हिंदुत्व के उसी पुनरूत्थान के प्रतिरोध में है।

14 मई के बाद हमारी दुनिया सिरे से बदल गयी है और इससे पहले भारत में नस्ली अंध राष्ट्रवाद जैसा कुछ नहीं था या सत्ता समीकरण के सोशल इंजीनियरिंग से मनुस्मृति शासन का अंत हो जायेगा और समता और न्याय का भारततीर्थ का पुनर्जन्म होगा,ऐसा मानकर जो लोग नस्ली विषमता,घृणा, हिंसा और नरसंहार संस्कृति की मौजूदा व्यवस्था बदलने का ख्वाब देखते हैं,उनके लिए निवेदन है कि किसी भी तरह का कैंसर अचानक मृत्यु का कारण नहीं होता और बीज से वटवृक्ष बनने की एक पूरी प्रक्रिया होती है।

1980 के दशक से या फिर 1970 के दशक नक्सलसमय के दौरान दक्षिण पंथी ताकतों के ध्रूवीकरण से सिर्फ सत्ता समीकरण बदला है,कोई नई शुरुआत नहीं हुई है।

बेहतर हो कि बंगालियों के साहित्य सम्राट ऋषि बंकिम चंद्र के उपन्यास आनंदमठ को एकबार फिर नये सिरे से पढ़ लें,कम से कम उसका अंतिम अध्याय पढ़ लें,जिसमें दैववाणी होती है कि म्लेच्छों के शासन के अंत के बाद जबतक हिंदू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो जाती,तब तक भारत के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी का राज जारी रहना चाहिए।

बंकिम ने 1857 की क्रांति के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का राज खत्म होने के बाद महारानी विक्टोरिया के घोषणापत्र के तहत भारत के सीधे तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश बन जाने के बाद बंगाल के बाउल फकीर संन्यासी आदिवासी किसान विद्रोह को सन्यासी विद्रोह में समेटते हुए इस उपन्यास का प्रकाशन 1882 में किया था।

भारतीय नस्ली वर्चस्व के मनुस्मृति राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र के भौतिकी और रसायनशास्त्र को ठीक से समझने के लिए बंकिम के आनंदमठ का पाठ अनिवार्य है।

वंदेमातरम राष्ट्रवाद मार्फत भारतमाता की परिकल्पना में बंकिम ने 1882 में ही हिंदू राष्ट्र की स्थापना कर दी थी और इस वंदे मातरम राष्ट्रवाद का अंतिम लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना और मनुस्मृति विधान की बहाली है।

रवींद्र नाथ मनुष्यता के धर्म,सभ्यता के संकट जैसे निबंधों,रूस की चिट्ठियों, चंडालिका,रक्त करबी और ताशेर घर जैसी नृत्य नाटिकाओं,राजर्षि जैसे उपन्यास और बाउल फकीर प्रभावित अपने तमाम गीतों और गीतांजलि के माध्यम से हिंदुत्व के इसी पुनरूत्थान के प्रतिरोध की जमीन बहुजन,आदिवासी,किसान आंदोलन की साझा विरासत के तहत बनाने की निरंतर कोशिशें की है।

रवींद्र का भारत तीर्थ उतना ही आदिवासियों का है,जितना गैर आदिवासियों का।

रवींद्र का भारत तीर्थ उतना ही अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण पठान मुगल सभ्यताओं का है जितना कि वैदिकी और आर्य सभ्यता का।

रवींद्र का भारत तीर्थ उतना ही मुसलमानों,बौद्धों,ईसाइयों,सिखों,जैनियों और दूसरे गैर हिंदुओं का है जितना कि बहुसंख्य हिंदुओं का।

नव जागरण क दौरानसती प्रथा के अंत और विधवा विवाह,स्त्री शिक्षा के लक्ष्य में सबसे ज्यादा सक्रिय ईश्वर चंद्र विद्यासागर पर बार बार कट्टर हिंदुत्ववादियों के हमले होते रहे।बंगाल का कट्टर कुलीन ब्राह्मण सवर्ण समाज उनके खिलाफ संगठित था लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज में वे विद्यासागर के वध में उसतरह कामयाब नहीं हुए जैसे कि स्वतंत्र भारत में हिंदू राष्ट्र के झंडेवरदारों ने गांधी की हत्या कर दी और अब जैसे दाभोलकर,पानसारे,कुलबर्गी,रोहित वेमुला और गौरी लंकेश की हत्याओं के साथ सात गोरक्षा तांडव में देश भर में आम बेगुनाह नागरिकों की हत्याएं हो रही हैं।वध का इस विशुद्ध कार्यक्रमयह सिलसिला चैतन्य महाप्रभू और संत तुकाराम, गुरु गोविंद सिंह की हत्याओं के बाद कभी थमा ही नहीं है।संत कबीर पर भी हमले होते रहे और उस हमले में हिंदुत्व और इस्लाम के कटट्रपंथी साथ साथ थे। जैसे रवींद्र के खिलाप,लालन फकीर के खिलाफ हिंदुत्व और इस्लाम के  कट्टरपंथी मोर्चांबद हैं।

इसी तरह मेघनाथ वध लिखकर राम को खलनायक बनाने वाले माइकेल मधुसूदन दत्त और ब्रह्मसमाज आंदोलन के संस्थापक राजा राममोहन राय के खिलाफ कट्टर हिंदुत्ववादी हमेशा सक्रिय रहे हैं।

जिस तरह आज अंध विश्वास और कुसंस्कारों को वैदिकी सभ्यता और विशुद्धता के जरिये वैज्ञानिक बताकर कारपोरेट कारोबार का एकाधिकार कायम करने का सिलसिला तकनीकी डिजिटल इंडिया का सच है,उसी तरह उनीसवीं सदी के आठवें दशक में युवा रवींद्रनाथ के समय विज्ञानविरोधी अवैज्ञानिक प्रतिक्रियावादी हिंदुत्व का महिमामंडन अभियान तेज होने लगा था।

हिंदी पत्रकारिता के मसीहा के नेतृत्व में सतीप्रथा से लेकर श्राद्धकर्म और विविध वैदिकी संस्कारों के महिमामंडन के अस्सी के दशक में हिंदी के एक राष्ट्रीय अखबार के विज्ञानविरोधी हिंदुत्व अभियान को याद कर लें तो उनीसवीं सदी के उस सच को महसूस सकते हैं।

हिंदू समाज की तमाम कुप्रथाओं और उसकी पितृसत्तात्मक नस्ली वर्चस्व के खिलाफ एक तरफ नवजागरण और ब्रह्मसमाज आंदोलन तो दूसरी तरफ आदिवासियों और किसानों के जल जंगल जमीन के हकहकूक को लेकर जमींदारों,ईस्ट इंडिया कंपनी और सवर्ण भद्रलोक समाज के खिलाफ एक के बाद एक जनविद्रोह और उसके समांतर पीरफकीर बाउल वैष्णव बौद्ध विरासत के तहत बहुजनों का एकताबद्ध आंदोलन - बौद्धमय भारत के अवसान के बाद मनुस्मृति व्यवस्था की पितृसत्ता और नस्ली वर्चस्व को इससे कठिन चुनौती फिर कभी नहीं मिली है।

इसीकी प्रतिक्रिया में वैदिकी धर्म कर्म संस्कार विधि विधान की वैज्ञानिक व्याख्याएं प्रस्तुत करने का सिलसिला शुरु हुआ और वैदिकी साहित्य का पश्चिमी देशों में पश्चिमी भाषाओं में महिमामंडन का कार्यक्रम भी शुरु हुआ।

कृपया गौर करेंः

Translation functioned as one of the significant technologies of colonial domination in India. In Orientalism, Edward W. Said argues that translation serves "to domesticate the Orient and thereby turn it into a province of European learning" (78). James Mill's The History of British India illustrates Said's point that the Orient is a "representation" and what is represented is not a real place, but "a set of references, a congeries of characteristics, that seems to have its origin in a quotation, or a fragment of a text, or a citation from someone's work on the Orient, or some bit of a previous imagining, or an amalgam of all these" (177). Though Mill had never been to India, he had written three volumes about it by the end of 1817. His History, considered an "authoritative" work on Indian life and society, constructed a version of "Hindoo nature" as uncivilized, effeminate, and barbaric, culled from the translations of Orientalists such as Jones, Williams, Halhed, and Colebrook. Its "profound effect upon the thinking of civil servants" (Kopf 236) and on new generations of Orientalist and other scholars working on India shows how Orientalist translations of "classic" Indian texts facilitated Indians' status as what Said calls "representations" or objects without history.

आगे यह भी गौर तलब हैः

Bankim, on the other hand, constructs a new, manly Bengali vernacular in order to create a new masculine subject. His fictional and non-fictional works redefine the colonized subject and interrogate Western hegemonic myths of supremacy, facilitating the formulation of national identities. Although sharing a similar regional bias and writing during the same era as Bankim, Tagore disavows nationalism.[10] He suggests that nation building itself can be understood as a colonial activity. In Nationalism, a collection of essays, and in the novels Gora and Ghare Baire, Tagore expresses his dissatisfaction with the ideology of nationalism because it erases local cultures and promotes a homogeneous national culture. He demonstrates the violent consequences of Bankim's gendered, upper-caste, Hindu nationalist formulations. Thus, reading Bankim and Tagore together in a course can allow students to see that the historical moment that produced hegemonic nationalist imaginings and from which the contemporary Hindu Right draws sustenance was already divided and already self-critical.

संदर्भःReading Anandamath, Understanding Hindutva: Postcolonial Literatures and the Politics of Canonization

By Chandrima Chakraborty

(McMaster University)

http://postcolonial.org/index.php/pct/article/view/446/841

वैज्ञानिक हिंदू धर्म के नाम से हिंदुत्व के पुनरूत्थान के इस आंदोलन में तबके पढ़े लिखे लोग भी उसीतरह प्रभावित हो रहे थे,जैसे आज पढ़े लिखे तकनीक समृद्ध शहरी कस्बाई लोगों के अलावा मोबाइल टीवी क्रांति से संक्रमित भारत के व्यापक ग्रामीऩ शूद्र,दलित,आदिवासी समाज,स्त्रियां,किसान और मेहनतकश नरसंहारी संस्कृति के संस्थागत फासीवादी नाजी सेना में शामिल हैं।

शशधर तर्कचूड़ामणि,कृष्ण प्रसन्न सेन और चंद्रनाथ बसु जैसे प्रकांड विद्वान लोग इस अवैज्ञानिक विज्ञान विरोधी मनुस्मृति विधान के महिमामंडन का वैज्ञानिक हिंदू धर्म अभियान का नेतृत्व कर रहे थे।

गोमूत्र से लेकर गोबर तक के वैज्ञानिक महिमामंडन के मौजूदा अभियान की तरह तब भी हिंदुओं के चुटिया और तिलक की वैज्ञानिक व्याख्याएं जारी थीं।

तब भी अत्याधुनिक वैज्ञानिक खोजों,नई चिकित्सा पद्धति और नई तकनीक को वैदिकी सभ्यता के आविस्कार बताने की होड़ मची थी।तभी विमान आविस्कार को रामायण के पुष्पक विमान के मिथक से खारिज करते हुए उसे भारतीय वैदिकी सभ्यता की देन बताया जाने लगा था।आज भी विज्ञानविरोधी बाबा बाबियों की बहार है।

वैज्ञानिकों के मुकाबले त्रिकालदर्शी सर्वशक्तिमान मुनि ऋषियों के हिंदुत्व क हथियार से सामाजिक बदलाव के विरुद्ध नवजागरविरोधी बहुजन विरोधी वैज्ञानिक हिंदूधर्म वैसा ही आंदोलन बन गया था जैसे कि मंडल के खिलाफ कमंडल आंदोलन सा सामाजिक न्याय और समानता के बहुजन आंदोलन का हिंदुत्वकरण अस्सी के दशक से आज खिलखलिता हुआ कमल है।

इस अवैज्ञानिक हिंदुत्ववादी नस्ली विमर्श के खिलाफ सभी विधाओं और सभी माध्यमों से रवींद्रनाथ तह वैज्ञानिक दृष्टि के साथ अकेले लड़ रहे थे।

तभी उन्होंने लिखाः

টিকিটি যে রাখা আছে তাহে ঢাকা

ম্যাগনেটিজম্ শক্তি৷

তিলকরেখায় বিদু্যত্ ধায়

তায় জেগে ওঠে ভক্তি \

उनकी जो चुटिया है,उसमें छुपी है

चुंबकीय शक्ति

तिलकरेखा में विद्युत बहे

इसीमे जागे भक्ति

वेद में लिखा सबकुछ सच है और वैदिकी साहित्य ही सच और विज्ञान की कसौटी है,वैदिकी साहित्य और उपनिषदों के स्रोंतों का इस्तेमाल करते हुए रवींद्रनाथ ने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से हिंदुत्व के इस पुनरूत्थान का प्रतिरोध किया और गैर वैदिकी स्रोंतों से प्रतिरोध का साहित्य रचा।उनके गीत,उनकी नृत्यनाटिकाएं वैज्ञानिक हिंदू धर्म के नस्ली वर्चस्व और मनुस्मृति विधान के खिलाफ अचूक हथियार बनते रहे।

जाहिर है कि यह अचानक नहीं है कि महज सोलह साल की उम्र में रवींद्रनाथ ने छद्मनाम भानुसिंह के साथ भानुसिंहेर पदावली लिखकर उत्तर भारत के संत आंदोलन से अपने को जोड़ लिया।अपने बचपन और कैशोर्य में वे नवजागरण और ब्रह्मसमाज के खिलाफ कट्टर हिंदुत्वादियों की मोर्चाबंदी को ब्रह्समाज आंदोलन के केंद्र बने अपने घर जोड़ासांकु से बहुत नजदीक से देख रहे थे रवींद्रनाथ।

मृत्यु से पहले तक रवींद्रनाथ इन्हीं तत्वों के हमलों का निशाना बनना पड़ा और मरने के बाद आज तक वे उन्हीं के निशाने पर हैं।

संघ परिवार ने बंकिम के वंदेमातरम राष्ट्रवाद को संस्थागत संगठन और सांस्कृतिक राजनीति के माध्यम स्वतंत्र भारत का सत्ता समीकरण बना दिया है और इसी वंदेमातरम राष्ट्रवाद के तहत संघ परिवार ने हिटलर का खुल्ला समर्थन किया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध स्वतंत्रता संग्राम से हिंदुत्ववादियों को अलग रखा है।

हिंदू राष्ट्र सिर्फ संघ परिवार का कार्यक्रम नहीं है।

इस कार्यक्रम को अंजाम देने में मनुस्मृति विधान बहाली की सत्ता वर्ग और वर्ण की सारी ताकतें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के समय से सक्रिय हैं और अब उन्ही ताकतों के किसी गटबंधन से रंगभेद के इस स्थाई बंदोबस्त का अंत नहीं हो सकता।

सत्ता वर्ण वर्ग के प्रतिरोध की यह फर्जी कवायद संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे से कम खतरनाक नहीं है।

हिंदुत्व का पुनरूत्थान के साथ हिंदू राष्ट्र का एजंडा का आरंभ राममंदिर आंदोलन से नहीं हुआ है,आदिवासी किसान बहुजन आंदोलनों के खिलाफ भारत के वर्ग वर्ण सत्तावर्ग के वंदेमातरम गठबंधन का इतिहास यही बताता है।

चैतन्य महाप्रभू के वैष्णव आंदोलन से लेकर ब्रहम समाज आंदोलन,नवजागरण और सूफी संत आंदोलन के खिलाप हिंदुत्व का पुनरूत्थान एक अटूट सिलसिला है।फर्क इतना है कि तब एकमात्र ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था और अब डिजिटल इंडिया में हजारों ईस्ट इंडिया कंपनियों का राज है।

आज हम औपनिवेशिक भारत में हिंदुत्व के पुनरूत्थान और इसके खिलाफ रवींद्रनाथ के प्रतिरोध के बारे में सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। नये सिरे से संदर्भ समाग्री शेयर करने में बाधाएं हैं,इसलिए फिलहाल मेरे फेसबुक पेज पर अब तक जारी संदर्ब सामग्री से ही काम चला लें।

Monday, September 18, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-28 अंधेर नगरी में सत्यानाश फौजदार का राजकाज! जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥ रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर भारतेंदु? क्या वैदिकी सभ्यता का प्रतीक न होने की वजह से अशोक चक्र को भी हटा देंगे? बंगाल में महिषासुर उत्सव की धूम से नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में खलबली हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अ�

रवींद्र का दलित विमर्श-28
अंधेर नगरी में सत्यानाश फौजदार का राजकाज!
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥
रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर भारतेंदु?
क्या वैदिकी सभ्यता का प्रतीक न होने की वजह से अशोक चक्र को भी हटा देंगे?
बंगाल में महिषासुर उत्सव की धूम से नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में खलबली
हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है।
पलाश विश्वास
डिजिटल इंडिया में इन दिनों जो वेदों,उपनिषदों,पुराणों,स्मृतियों,महाकाव्यों के वैदिकी साहित्य में लिखा है,सिर्फ वही सच है और बाकी भारतीय इतिहास,हड़प्पा मोहंजोदोड़ो सिंधु घाटी की सभ्यता, अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण खस पठान मुगल कालीन साहित्य, आख्यान, वृत्तांत और विमर्श झूठ हैं।
ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति विधान सच हैं और महात्मा गौतम बुद्ध,उनका धम्म,महात्मा महावीर,गुरु नानक,बसेश्वर,ब्रह्म समाज,नवजागरण,सूफी संत बाउल फकीर आंदोलन झूठ हैं।
हिटलर की नाजी सेना और रवींद्रनाथ के ताशेर घर की अंत्यज आम अस्पृश्य जनता की पैदल फौजों के दम पर वर्तमान पर कब्जा कर लेने के बाद फासिस्टों के निशाने पर है अतीत और भविष्य,जिन्हें वैदिकी साहित्य और मनुस्मृति विधान के मुताबिक सबकुछ संशोधित करने का अश्वमेध अभियान जारी है।
इस हिसाब से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास और भारतीय संविधान और अब तक चला आ रहा कायदा कानून,नागरिक और मानवाधिकार का सफाया तय है तो रवींद्रनाथ,गालिब, प्रेमचंद,पाश, इस्लामी राजकाज,मुसलमान तमाम लेखक,कवि और संत जिनमें शायद जायसी,रहीमदास और रसखान भी शामिल हों निषिद्ध है।
इस हिसाब से गैर वैदिकी राष्ट्रीय प्रतीक अशोक चक्र को देर सवेर हटाने का अभियान चालू होने वाला है।गौरतलब है कि सम्राट अशोक के बहुत से शिलालेखों पर प्रायः एक चक्र (पहिया) बना हुआ है। इसे अशोक चक्र कहते हैं। यह चक्र धर्मचक्र का प्रतीक है। उदाहरण के लिये सारनाथ स्थित सिंह-चतुर्मुख (लॉयन कपिटल) एवं अशोक स्तम्भ पर अशोक चक्र विद्यमान है। भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र को स्थान दिया गया है।भारतीय मुद्रा में बी अशोक चक्र है।अशोक चक्र में चौबीस तीलियाँ (स्पोक्स्) हैं वे मनुष्य के अविद्या से दु:ख बारह तीलियां और दु:ख से निर्वाण बारह तीलियां (बुद्धत्व अर्थात अरहंत) की अवस्थाओं का प्रतिक है।
रवींद्रनाथ की चंडालिका,रक्तकरबी,गीतांजलि,उनके उपन्यासों और निबंधों में राष्ट्रद्रोह पर शोध जारी करने वालों के लिए अगर प्रेमचंद का गोदान,रंगभूमि औकर कर्मभूमि जैसे उपन्यास और सद्गति,ईदगाह,पंच परमेश्वर जैसी कहानियां  खतरनाक हैं तो वाराणसी के भारतेंदु हरिश्चंद्र कम खतरनाक नहीं हैं,जिन्होंने वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति लिखकर राष्ट्रवाद को नये ढंग से परिभाषित किया तो राष्ट्रवाद पर रवींद्रनाथ के भाषणों,निबंधों की तरह अंधेर नगरी में राष्ट्र व्यवस्था का सच बेपर्दा कर दिया और इस पर तुर्रा उन्होंने भारत दुर्दशा भी लिख दिया। आपात काल के दौरान भारतेंदु की ये रचनाएं आम जनता के लिए रंगकर्म की मशालें बन गयी थीं तो नया आपातकाल में इऩसे खतरनाक रचनाएं मिलना मुश्किल है।

तो क्या रवींद्र प्रेमचंद के बाद निशाने पर होंगे भारतेंदु?
रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद का विरोध पहलीबार 1889 में अपने उपन्यास राजर्षि में किया तो सभ्यता का संकट उनका आखिरी निंबध है,जिसे मई 1941 में उन्होंने शांतिनिकेतन में भाषण बतौर प्रस्तुत किया।जबकि इससे बहुत पहले भारत दुर्दशा नाटक की रचना 1875 इ. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अंत करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। वे ब्रिटिशराज और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं।
जिस औपनिवेशिक राष्ट्रव्यवस्था का विरोध रवींद्रनाथ और भारतेंदु कर रहे थे,वह आज का निराधार डजिटल बुलेट सामाजिक यथार्थ है।
भारत दुर्दशा के इस दृश्य पर गौर करेंः
तीसरा अंक

स्थान-मैदान
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! भारतदुर्दैव ’ आता है)
भारतदु. : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।
(नाचता और गाता हुआ)
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे...
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे...
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे...
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे...
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)
देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
(नाचता हुआ)
सत्या. फौ : हमारा नाम है सत्यानास।
धरके हम लाखों ही भेस।
बहुत हमने फैलाए धर्म।
होके जयचंद हमने इक बार।
हलाकू चंगेजो तैमूर।
दुरानी अहमद नादिरसाह।
हैं हममें तीनों कल बल छल।
पिलावैंगे हम खूब शराब।
भारतदु. : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।

सत्यानाश फौजदार का राजकाज है।
अतंरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका हिंदी समय में भारतेेंदु की तीनों महत्वपूर्ण रचनाएं भारत दर्दशा,अंधेर नगरी और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति पढ़ सकते हैं।
सच की कसौटी वैदिकी है और भारत में आदिवासी समाज का सच अगर भारतीय इतिहास का सच नहीं है तो सवाल यह उठता है कि आदिवासियों के भगवान किन्हीं बीरसा मुंडा के पोते की बेटी के यहां खाना खाने का कार्यक्रम क्यों बनाया वैदिकी नस्ली राष्ट्रवाद के सिपाहसालार ने और फिर झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातु गांव में  बीरसा वंशज चंपा मुंडा के माटी के घर में फर्श पर टाइल्स लगवाने के बाद परोसा भोजन खाये बिना कैसे लौट आये?
मुंडा विद्रोह की कथा जाहिर है कि वैदिकी साहित्य नहीं है और भक्तजनों ने बांचा भी नहीं होगा लेकिन आदिवासी किसानों के अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ निरंतर संग्राम का इतिहास जिन्होंने पढ़ा होगा,कम से कम जिन्होंने महाश्वेता देवी का लिखा उपन्यास जंगल के दावेदार पढ़ा होगा,उनके लिए उलगुनान की जमीन उलीहातु गांव अनचीन्हा नहीं है।
बीरसा मुंडा के गांव उलीहातु की आड़ में आदिवासी दुनिया  कब्जे के लिए आदिवासियों को उनके घरों से बेधकल करके ईंटों के दड़बे में कैद किया जा रहा है तो उनके इतिहास,उनकी अस्मिता और उनके अस्तित्व को भी जल जंगल जमीन पर उनके हकहकूक,उनकी नागरिकता,उनकी आजीविका,उनकी संस्कृति और उनके नागरिक और मनावाधिकार मनुस्मृति फौजों के अश्वमेधी सेना कुचलती जा रही है और नस्ली वर्चस्व के ब्राह्मणधर्म और वैदिकी संस्कृति के इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ कुछ भी कहना राष्ट्रद्रोह है और इस जनप्रतिरोध के दमन के लिए दैवी सत्ता का आवाहन है तो इस दैवी सत्ता के खिलाफ आदिवासी आख्यान,वृत्तांत और सामंतवाद साम्राज्यवाद के खिलाफ उनका निरंतर जारी संग्राम का सारा इतिहास वैैदिकी साहित्य के हवाले से खारिज हैं।
संस्कृत में लिखा सबकुछ पवित्र है और तमिल में लिखा साहित्य और इतिहास झूठ है।मनुस्मृति शिकंजे में फंसा हिंदुत्व सच है और इससे बाहर अनार्य असुर अछूतों और आदिवासियों के हजारों साल का इतिहास झूठ है।वैदिकी साहित्य के मिथकों का सच इतिहास है तो बाकी इतिहास मिथक है।
लोक संस्कृति और जनभाषाओं,गैर आर्य गैरहिंदू जनसमुदायों के तमाम आख्यान और वृत्तांत सिर्फ आदि अनंत शाश्वत वैदिकी साहित्य,व्याकरण और सौदर्यशास्त्र की कसौटी में मिथ्या है तो उनकी जीवन यंत्रणा ,उनकी अस्मिता और उनका अस्तित्व भी झूठ है।
रवींद्र नाथ वैदिकी साहित्य और उपनिषदों के आलोक में लिखें तो गुरुदेव ,विश्वकवि और उनके साहित्य का स्रोत बौद्ध दर्शन हो,अनार्य द्रविड़ संस्कृति हो लोकसंस्कृति हो तो उस पर चर्चा निषिद्ध है?
बंगाल में महिषासुर उत्सव को लेकर नस्ली वर्चस्व के झंडेवरदारों में भारी खलबली मची हुई है।यूं तो सैकड़ों सालों से भारत में आदिवासी समाज अपने को असुरों का वंशज मानते हुए नवरात्रि के दौरान शोक मनाता है और महिषासुर उत्सव भी मनाने का सिलसिला भी वर्षों पुराना है।कोलकाता और बंगाल के व्यापक हिस्सों में आदिवासी अछूत और शूद्र जनसमुदाय असुर उत्सव मनाते रहे हैं।इसे लेकर दुर्गोत्सव के दौरान अभी तक किसी टकराव की घटना नहीं हुई है।अब ये हालात सिरे से बदल गये हैं।
जेएनयू में महिषासुर उत्सव के काऱण जेएनयू के छात्रों को संसद से राष्ट्रद्रोही साबित करने के उपक्रम के बाद इसबार बंगाल में महिषासुर और दुर्गा के बारे में आदिवासी आख्यान को पहलीबार वैदिकी साहित्य की कसौटी पर कसते हुए उसका विरोध विद्वतजन कर रहे हैं और संघ परिवार इसे सीधे राष्ट्रविरोधी साबित करने पर तुला हुआ है।आज बांग्ला के प्रमुख दैनिक अखबार एई समये के पहले पेज पर महिषासुर विवाद पर विस्तृत समाचार छपा है।
इसी सिलसिले में फेसबुक पर यह पोस्ट गौर तलब हैः
मेरा सवाल देश के साहित्य जगत के दिग्गजों से हैअब क्या वो चुप रहेंगे??या इसी तरह अभी और बर्बादी देखेंगे???
फूहड़ मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मुंशी प्रेमचंद को 'केंद्रीय हिंदी संस्थान' से बेदखल किया!
मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना 'गोदान' को 'केंद्रीय हिंदी संस्थान' ने अपने पाठ्यक्रम से निकाल बाहर फेंका है। 'केहिसं' प्रशासन ने दलील दी है कि उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि और इसमें प्रयुक्त अवधी भाषा का पुट विदेशी छात्रों को समझ में नहीं आता लिहाज़ा उन्हें भारी दिक्कत होती है(!) ग़ौरतलब है कि 'गोदान' न सिर्फ प्रेमचंद प्रतिनिधि रचना के रूप में जाना जाता है बल्कि हिंदी आलोचना के नज़रिये से इसे उनका सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना गया है। भारतीय भाषाओँ की साहित्यिक पुस्तकों में सर्वाधिक बिक्री के रिकार्ड का तमगा भी इसे ही हासिल है। इतना ही नहीं, विश्व की अन्य भाषाओँ में सबसे ज़्यादा अनुवाद होने वाली भारतीय भाषा की किताब भी 'गोदान' ही है। सन 1936 से लेकर अब तक इसके अन्यान्य प्रकाशनों की तुलना में संख्या की दृष्टि से केवल लियो तोलस्तोय का 'वॉर एंड पीस' ही इसकी टक्कर में खड़ा हो पाता है। 'हिंदी संस्थान की भोथरी राजनीतिक दलील स्पष्ट कर देती है कि मौजूदा शासन में देश की कालजयी रचनाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं। ज़रुरत है कि सभी सचेत पाठकों को ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाईयों का प्रबल विरोध करना चाहिए।
-नथमल शर्मा। Nathmal Sharma SSneha Bava
गौरतलब है कि  इससे पहले वर्तमान पर एकाधिकार नस्ली आधिपत्य कायम करने के बाद हिटलरपंथी संस्थागत  संघ परिवार की  मनुस्मृति विधान की सत्ता राजनीति अतीत को भी वैदिकी आर्य रक्त की विशुद्धता की अपनी विचारधारा के मुताबिक बदलने  के दुस्साहस में लगातार बढ़ रही है। इसलिए न सिर्फ ऐतिहासिक प्रतीकों बल्कि घटनाओं, विवरणों और शख्सियतों को भी पसंद के हिसाब से चुना जा रहा है - उनमें काट छांट की जा रही है।
इसी सिलसिले में सत्ताधारियों के निर्देशानुसार  देश में स्कूली शिक्षा प्रबंधन की केंद्रीय संस्था, एनसीईआरटी ने विषयवार सुझाव मांगे हैं कि किताबों में नई और आवश्यक तब्दीलियां क्या हो सकती हैं। इसी के तहत संघ परिवार से जुड़े संगठन और नेता फौरन हरकत में आ गये।
यह खबर पहले ही आप सभी को मालूम ही होगा कि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नामक संगठन ने स्कूली किताबों में आमूलचूल बदलाव की सिफारिशें भेजी हैं। पांच पेज की इन सिफारिशों का लब्बोलुआब ये है कि भारत का इतिहास, हिंदुओं का इतिहास है और जो हिंदू नहीं है या हिंदू धर्म को लेकर कट्टर नहीं है, वो इस इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकता है। सिफारिशों का आलम ये है कि मिर्जा गालिब और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों से जुड़े पाठ भी हटा देने को कहा गया है।


संघ परिवार से  जुड़े न्यास ने एनसीईआरटी को जो सुझाव दिए हैं उनमें कहा गया है कि किताबों में अंग्रेजी, अरबी या ऊर्दू के शब्द न हों, खालिस्तानी चरमपंथियों की गोलियों का शिकार बने विख्यात पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की कविता न हो, गालिब की रचना या टैगोर के विचार न हों, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश हटाएं जाएं, राम मंदिर विवाद और बीजेपी की हिंदूवादी राजनीति का उल्लेख न हो, गुजरात दंगों का विवरण हटाया जाए, आदि ,आदि। सिफारिशों के मुताबिक सामग्री को अधिक "प्रेरक” बनाना चाहिए।