मंदी की आशंका,रुपये की गिरावट थामने में नाकाम वित्तमंत्री दौड़ पड़े अमेरिका!
तो क्या चिदंबरम साहब फेडरल बैंक के अध्यक्ष माननीय बारनेंके साहब से यह निवेदन करने वाले हैं कि वे तत्काल प्रभाव से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए जो नीतियां अपना रहे हैं, उन्हें विराम दें, क्योंके इसके नतीजतन रुपया इकसठ पार हो गया है?
पलाश विश्वास
भारत की कारपोरेट सरकार के वित्तमंत्री एकबार फिर भारत बेचने के अभियान पर निकले हैं और विश्वव्यवस्था के मुख्यालय पहुंच गये हैं। उम्मीद है कि विकास कथा जारी रखने के लिए वे सीधे विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से दिशा निर्देश प्राप्त करेंगे। लेकिन दिल्ली और वाशिंगटन के बीच हाटलाइन होने और पिछले बीस साल से वाशिंगटन के दिशा निर्देश से ही सुधारअश्वमेध चलाने के अमेरिकी दिशानिर्देश प्राप्त करने की अटल रघुकुल नीति के बावजूद उन्हें यह कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता पड़ी? आकाओं के दरबार में हाजिरी बजाते रहने का तकादा हो सकता है, पर उत्तर आधुनिक इंतजामात में वीडियो कांफ्रेस के जरिये जब हमलोग सीधे अमेरिका में बात कर सकते हैं, तब भारत के सर्वशक्तिमान वित्तमंत्री की इस विदेशयात्रा का तात्पर्य कुछ दूसरा ही होना चाहिए। तो क्या चिदंबरम साहब फेडरल बैंक के अध्यक्ष माननीय बारनेंके साहब से यह निवेदन करने वाले हैं कि वे तत्काल प्रभाव से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए जो नीतियां अपना रहे हैं, उन्हें विराम दें, क्योंके इसके नतीजतन रुपया इकसठ पार हो गया है? बारनेंके साहब अपने रिजर्व बैंक के गवर्नर तो हैं नहीं कि चिदंबरम साहब की बंदरघुड़की से तत्काल नीतियां बदल दें, वे अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा को सुनने के लिए भी बाध्य नहीं हैं।देश के मौजूदा आर्थिक हालात एक बार फिर साल 1991 के भारी आर्थिक मंदी की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।वहीं एचयूएल के बायबैक से एलआईसी के पास काफी रकम आने की उम्मीद है। एलआईसी यह रकम बाजार में लगाती है तो इससे बाजारों को फौरी तौर पर बड़ा सहारा मिलेगा। हालांकि हालातों को देखते हुए लगता है लंबी अवधि में भी निफ्टी 5,400-6,000 के दायरे में ही घूमता नजर आएगा। आरबीआई की रुपये को थामने की कोशिशें फेल हो रही हैं।
आम जनता की नहीं, भारत के वित्तमंत्री और भारत की कारपोरेट सरकार की मुख्य चिंता यह है कि डॉलर की तुलना में रुपये में दर्ज की जा रही रिकॉर्डतोड़ गिरावट, अमेरिका में फेडरल रिजर्व द्वारा बांड खरीद कार्यक्रम का आकार घटाने व चीन की अर्थव्यवस्था में सुस्ती जैसे कारणों की वजह से सेंसेक्स की तेजी पर लगाम लगती दिख रही है।ड्यूश बैंक ने सोमवार को जारी अपनी रिपोर्ट में सेंसेक्स के लिए इस साल का अपना लक्ष्य पहले के 22,500 अंक से घटाकर 21,000 अंक कर दिया है।बैंक ने कहा है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा उम्मीद से काफी पहले अपने 85 अरब डॉलर प्रतिमाह के बांड खरीद कार्यक्रम का आकार छोटा किए जाने, चीन की अर्थव्यवस्था में स्लोडाउन के हालात पैदा होने और भारत पर छोटी अवधि की विदेशी मुद्रा उधारी ऊंचे स्तर पर होने के मद्देनजर इस साल सेंसेक्स में ज्यादा तेजी की संभावना नहीं है।डॉलर के मुकाबले गिरता रुपया, धराशाही होते शेयर बाजार, कमरतोड़ महंगाई ये सब देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़े खतरे की तरफ इशारा कर रहे हैं। सरकार गिरती अर्थव्यव्स्था को संभालने के लिए लिए भले ही आर्थिक सुधारों का ऐलान करें लेकिन उस पर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे। इन सब के कारण देश की आर्थिक हालत बिगड़ रही है। मंदी की ओर धकेलते देश के बदतर आर्थिक हालात से हमारी-आपकी जेब तो मुश्किल में आएगी जो आएगी साथ ही नौकरी और धंधेपानी पर भी सकंट आ सकता है।
लंबे अरसे से विकास की डगर पर छलांग लगाती भारतीय अर्थव्यवस्था में तब पहली बार रुग्णता के लक्षण प्रकट हुए थे. अब जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के वापस पटरी पर लौटने की खबर मिल रही है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आयी मंदी का किस्सा भी यही बताता है कि निवेशक अपनी अर्थव्यवस्था के संकट में पड़ जाने से अन्यत्र निवेश करके अपनी पूंजी बचाते रहे और स्वदेश में अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटते ही हाथ खींच लिये। विदेशी पूंजी और विदेशी निवेशकों की आस्था पर निर्भर किसी अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति होनी चाहिए वह हो रही है, वैसी ही हो रही है और होती रहेगी। किसी मैराथन दौड़ से मोक्ष पाने की कोई संभावना नहीं है।लगातार मजबूत होते डॉलर समूचे इर्मजिंग मार्केट में कोहराम मचाया हुआ है। डॉलर के मुकाबले दूसरे देशों की करेंसी को करारा झटक लग रहा है, लेकिन सबसे ज्यागा रुपया टूट रहा है। इसके अलावा बढ़ते वित्तीय घाटे और चालू खाते के घाटे से भी रुपये को संभलने का मौका नहीं मिल रहा है। ऐसे में छोटी अवधि के दौरान डॉलर के मुकाबले रुपया 60 के स्तर के आसपास ही कारोबार करता नजर आएगा। वहीं हालात नकारात्मक बने रहते हैं तो अगले 3-6 महीनों में रुपया एक बार फिर 61 का स्तर कर सकता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बावजूद निर्यात में ज्यादा उत्साह देखने को नहीं मिल रहा है। वहीं इर्मजिंग मार्केट से पैसा निकलर अमेरिका के बाजारों में जा रहा है, जिसके चलते रुपये पर भारी मार पड़ रही है।
खास बात तो यह है कि पिछले छह महीने से कम समय में यह चिदंबरम की दूसरी अमेरिकी यात्रा है। चिदंबरम वाशिंगटन की इस चार दिवसीय यात्रा में अमेरिका भारत व्यापार परिषद यूएसआईबीसी के वार्षिक नेतत्व सम्मेलन को संबोधित करेंगे और अमेरिकी वित्त मंत्री, जैक ल्यू से मुलाकात करेंगे।वह कई अमेरिकी उद्योगपतियों और सांसदों से भी मुलाकात करेंगे जो हाल में भारत की नीतियों विशेष तौर पर बौद्धिक संपदा अधिकार व्यवस्था और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीतियों की आलोचना करते रहे हैं।
दरअसल, यह गौर करनेवाली बात है कि देश के वित्तीय प्रबंधन के शीर्ष नेतृत्व को बार बार अमेरिका जाने की जरुरत क्यों होती है। चिदंबरम कोई भारत के विदेश मंत्री नहीं हैं कि उन्हें कोई राजनयिक अभियान पर निकलना पड़ता है। नवउदारवादी जमाने में आर्थिक स्वायत्तता और संप्रभुता गिरवी रखने का यह दुष्परिणाम है। कहने को तो शेयरउछालों पर आधारित विकासगाथा और रेटिंग आधारित विकासदर वाशिंगटन से ही निर्धारित होती है, तो भारतीय वित्तमंत्री को आंकड़े दुरुस्त करने करने के लिए ऐसी अमेरिकी यात्रा तो करनी ही पड़ती है, जिसकी भारतीय वित्तमंत्रियों को वांशिंगटन ईश्वर के िइच्छानुसार डा. मनमोहन सिंह के अवतरण से पहले आवश्यकता नहीं हुई होगी। यह भी कहा जा सकता है कि विश्व की पूंजी व्यवस्था वाशिंगटन में ही आधारित है, िइसलिए अबाध पूंजी प्रवाह जारी रखने के लिए और निवेशकों की आस्था बनाये रखने के लिए उनकी यह परराष्ट्र यात्रा है।
लेकिन जरा अमेरिकी अखबारों और खास तौर पर अमेरिकी आर्थिक अखबारों पर नजर डालें तो कुछ दूसरी ही किस्म की शंकाएं पैदा होती है। यूपीए गठबंधन पर दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के निष्पादन का महती कार्यभार है, जिसके जरिये वित्तीय घाटा और भुगतान संतुलन को साध लेने का असंभव लक्ष्य है। लेकिन लोकसभा चुनावों के मद्देनजर और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व की दोवेदारी के परिप्रेक्ष्य में इस सरकार के सामाजिक सरोकार को लेकर अवांछित सवाल उठाये जा रहे हैं। गेमचेंजर कैश सब्सिडी से अमेरिकी विशेषज्ञ यथेष्ट प्रसन्न थे। क्योंकि यह आर्थिक सुधारों की दिशा में लंबी छलांग समझी जा रही है। लेकिन खाद्य सुरक्षा योजना के औचित्य को लेकर अमेरिकी भारी दुश्चिंता में है। बाजार के विस्तार के लिए सरकारी खर्च में इजाफा के लिए सामाजिक करिश्मा और कारपोरेट समाज प्रतिबद्धता, भारत में स्तंभित बाजार विकास की समस्याओं और अनुकूलन के बारे में वे नहीं जानते हों ,ऐसा भी नहीं है। आखिरकार ये योजनाएं विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कर्ज से ही पोषित होती हैं। भारत की वोट बैंक राजनीति के तहत समय समय पर बदल जी जाती गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करने वालों के नाम बाकी जनता पर विदेशी कर्ज को बोझ लदते जाना अमेरिकी विशेषज्ञों के सरदर्द का कारण तो कतई नहीं हो सकता। यह भी कोई कारण नहीं है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव घोषणापत्र को भी चुनाव आचारसंहिता के दायरे में रखकर सत्तासमीकरण के लिए दिये जाने वाले आश्वासनों पर अंकुश लगाने का निर्देश दे रहा हो तो अल्पमत भारत सरकार संसद को हाशिये पर रखकर डंके की चोट पर एकतरफा तौर पर गेम चेंजर बतौर खाद्य सुरक्षा योजना क्यों लागू कर रहा है। इसकी संवैधानिक वैधता और बाकी बचे आम लोगों की क्रयशक्ति और खाद्यसुरक्षा को लेकर भी जाहिर है कि अमेरिका की कोई चिंता नहीं होगी।
अमेरिकियों को चिंता इस बात की है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था और उत्पादन प्रणाली की बुनियादी समस्याओं को संबोधित किये बिना, बिना किसी युक्तिपूर्ण वितरण व्यवस्था के यह जो समाजसेवा की जा रही है, उसपरसुदारों की सेहत का क्या होगा। जो सब्सिडी दी जायेगी, उसके दुष्परिणाम मुताबिक भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था और खुले बाजार की जो दुर्गति होनी है, उसमें अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों के हित कितने सध पायेंगे और कारपोरेट पूजी के लिए नये जोखिम क्या होंगे। दरअसल चिदंबरम बाबू केइसी सिलसिले में गलतफहमियां दूर करनी है।भारतीय बाजारों में उतार-चढ़ाव की स्थिति बरकरार है। मौजूदा समय में वैश्विक माहौल से ज्यादा घरेलू स्तर पर समस्याएं बाजारों की मायूसी का बड़ा कारण बन रही हैं। सरकार आर्थिक सुधारों के नाम पर नीतियों का ढोल तो पीटती है, लेकिन उन नीतियों में कहीं से भी स्पष्टता नजर नहीं आती है। वहीं अब फूड सिक्योरिटी अध्यादेश लाकर सरकार भले ही अपना राजनीतिक उल्लू सीधा कर रही हो लेकिन इसका खामियाजा बाजार को भुगतना पड़ेगा।अमेरिकियों को चिंता इस बात की है कि फूड सिक्योरिटी अध्यादेश से सरकारी खजाने पर अनुमानित करीब 1.25 लाख करोड रुपये अतिरिक्त सब्सिडी बोझ पड़ेगा। वहीं आगे चलकर सब्सिडी का ये अनुमानित बोझ इससे कहीं ज्यादा हो सकता है। पहले ही भारी वित्तीय घाटे और बेलगाम चालू खाते के घाटे की दोहरी मार झेल रही देश की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पड़ेगा यहां इसका अंदाजा लगाना ज्यादा कठिन नहीं है। ऐसी परिस्थितियों पर आर्थिक सुधारों की बाट जोह रहे भारतीय बाजार किस दिशा में जाएंगे देश की सरकार को इसकी तनिक भी चिंता नहीं है। भारतीय बाजारों की कमजोरी के लिए विदेशी से ज्यादा घरेलू कारक ज्यादा जिम्मेदार साबित हो रहे हैं। सरकार की अस्पष्ट नीतियां बाजारों को मायूसी के गर्त में ढकेल रही हैं। रुपया है कि औंधे मुंह लुढ़कता जा रहा है, एफडीआई जैसे मुद्दों पर सरकार लगातार असहमति का शिकार हो रही है। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) की बिकवाली बाजार की चिंताओं और बढ़ा रही हैं।
तनिक इस सरकारी बयान पर गहराई से गौर करें,रुपये में गिरावट के बीच वित्त मंत्री पी चिदंबरम अमेरिकी निवेश को आकर्षित करने के व्यापक उद्देश्य के साथ अमेरिका पहुंचे हैं। इस यात्रा के दौरान वित्त मंत्री भारत की आर्थिक नीतियों के संबंध में अमेरिकी चिंताओं का समाधान करेंगे और साथ ही निवेशकों को भारत में बुनियादी ढांचा जैसे प्रमुख क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नए अवसरों का लाभ उठाने को प्रोत्साहित करेंगे। दूरसंचार और इलेक्ट्रानिक उपकरणों की खरीद में भारत में विनिर्मित उत्पादों को बढावा देने की सरकार की नीति तरजीही बाजार पहुंच पीएमए को फिलहाल स्थगित रखने के प्रधामंत्री मनमोहन सिहं के निर्णय से चिदंबरम को अमेरिकी उद्योगपतियों और सांसदों के आरोपों का सामना करने में निश्चित रूप से पहले से आसानी होगी।
इस पहल का अमेरिकी उद्योग ने स्वागत किया है। वित्त मंत्री यहां कल पहुंचे और वे आज उद्योग प्रतिनिधियों से मुलाकात करेंगे। वह यहां माइक्रोसाफ्ट के ब्रैड स्मिथ, वालमार्ट के स्काट प्राइस, आइएलएफसी के हेनरी क्रूपन, बोइंग इंटरनैशनल के शेफर्ड डब्ल्यू हिल समेत कई शीर्ष उद्योगपतियों से मुलाकात करेंगे।चिदंबरम भारत में विशेष तौर पर बुनियादी ढांचा क्षेत्र में अमेरिकी कंपनियों के निवेश के मामले पर चर्चा कर सकते हैं। साथ ही वह देश में निवेश बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा उठाई गई कई नीतिगत पहलु और कर संबंध विषयों समेत विभिन्न मुद्दों पर बात कर सकते हैं।
दुनिया में 2008 में आया आर्थिक संकट अमेरिका की देन था। तब से ही दुनिया को इस बात का इंतजार था कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार होना चाहिए। अब धीरे-धीरे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है लेकिन खास बात यह है कि भारत और ब्राजील जैसे देशों पर इसका विपरीत असर भी हो रहा है। इन देशों की करेंसी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के कारण कमजोर हो रही है।भारत में हालत यह हो गई है कि भारतीय करेंसी रुपया ऐतिहासिक निचले स्तर पर आ गया। रुपये पर दबाव बढ़ाने में तेल और सोने के आयात का भी काफी महत्वपूर्ण हाथ है। लेकिन इस दिशा में सरकार अब काम कर रही है और उसके प्रयास कुछ रंग भी ला रहे हैं।साल भर पहले तक एक डॉलर की कीमत 54 रुपये के आसपास थी। लेकिन इस साल मई से रुपये की कीमत गिरने लगी। इस सोमवार को तो रुपया इतना गिरा कि डॉलर की कीमत 61 रुपये तक जा पहुंची। इसके बाद से रुपये की कीमत में थोड़ा सुधार जरूर हुआ, लेकिन अब भी यह एशिया की सबसे कमजोर मुद्रा है।
अमेरिकी नियोक्ताओं ने जून में १.९५ लाख नई नौकरियां दीं। माह के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी की दर ७.६ प्रतिशत रही। नौकरियों की संख्या बढ़ने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मजबूती प्रदर्शित होती है। साथ ही इससे फेडरल रिजर्व द्वारा मौद्रिक प्रोत्साहन पैकेज में सितंबर तक ही कमी शुरू कर देने की राह प्रशस्त होती है।
अमेरिकी श्रम विभाग की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि टैक्स बढ़ोतरी, संघीय खर्चों में कटौती और आर्थिक कमजोरी वाले माहौल में नौकरियों के मौके बढ़ना हैरानी वाली बात है। हालांकि जून में नियोक्ताओं द्वारा नई नौकरियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा नौकरियों की तलाश में जुट जाने के कारण बेरोजगारी दर ७.६ प्रतिशत बनी रही। वैसे ज्यादा लोगों के नौकरी की तलाश को भी अर्थव्यवस्था के लिहाज से सकारात्मक माना जा रहा है।वाशिंगटन (एजेंसी)। अमेरिकी नियोक्ताओं ने जून में १.९५ लाख नई नौकरियां दीं। माह के दौरान अमेरिका में बेरोजगारी की दर ७.६ प्रतिशत रही। नौकरियों की संख्या बढ़ने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मजबूती प्रदर्शित होती है। साथ ही इससे फेडरल रिजर्व द्वारा मौद्रिक प्रोत्साहन पैकेज में सितंबर तक ही कमी शुरू कर देने की राह प्रशस्त होती है।
तनिक इस पर भी गौर करें कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री पी. चिदंबरम के बीच देश से बाहर जा रहे डॉलर को रोकने के उपायों पर बात हुई और रिजर्व बैंक ने ऑइल कंपनियों के फंडिंग ऑप्शन का जायजा लिया। इस बीच, राजनीतिक दलों की ओर से भी रुपए पर ऐक्शन की मांग तेज हुई है। मुद्रा का मूल्य कम होने का असर मोटरसाइकल सवार से लेकर विदेश में उच्चशिक्षा के लिए जाने वाले युवाओं पर हो रहा है।डालर से जोड़ दी गयी अर्थ व्यवस्था का यह अंजामतो होना ही है। अब क्या अमेरिका पहुंचकर डिदंबरम साहब डालर का भाव घटोयेंगे?
जब से अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत मिलने शुरू हुए हैं तब से विदेशी निवेशक अपने पैसे को भारतीय बाजार से निकाल रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 1 मई से लेकर 10 जून तक भारतीय बाजार से 48.6 करोड़ डॉलर की राशि निकाली जा चुकी थी।
इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि फंड मैनेजर्स को अब अमेरिका में निवेश के अवसर दिखाई दे रहे है। यही नहीं, 1 मई से 11 जून के बीच रुपये की कीमत में दस फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। जानकारों का कहना है कि रुपये में चल रहे इस अस्थिरता के दौर के लिए बाहरी कारक जिम्मेदार हैं।
iqगौjiliqnyरतलब है कि अमेरिकी यात्रा एक दिन टालने के बाद चिदंबरम ने सोमवार को प्रधानमंत्री से मुलाकात की। उन्होंने सिंह को बताया कि रुपए में गिरावट रोकने के लिए किन उपायों के बारे में सोचा जा रहा है। इनमें विदेशी लोन का प्री-पेमेंट रोकने जैसी बात भी शामिल है। मामले से वाकिफ एक सरकारी अधिकारी ने बताया, 'बाहर जा रहे डॉलर को रोकने के कुछ उपाय के बारे में सोचा जा रहा है।' चिदंबरम ने भारतीय मुद्रा के बारे में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन से भी बात की। उन्होंने योजना आयोग के उप चेयरमैन मोंटेक सिंह अहलूवालिया और आरबीआई गवर्नर डी. सुब्बाराव की भी राय ली।इतनी लंबी चौड़ी कवायद के बावजूद वित्तीय नीतियों से शून्य बहिस्कार आधारित मौद्रिक प्रबंधन में अमेरिकी सहयोग की मजबूरी ही अभिव्यक्त करती है।
वहीं, विदेशी मुद्रा भंडार में कमी और डॉलर की लगातार मांग के चैलेंज के बीच रिजर्व बैंक ने तेल कंपनियों से मुलाकात की। हालांकि, उसने अब तक खास खिड़की के जरिए उन्हें डॉलर देने का वादा नहीं किया है। इससे रुपए पर दबाव कम हो सकता है। इंडियन ऑइल कॉर्पोरेशन (आईओसी) के डायरेक्टर फाइनैंस पी. के. गोयल ने बताया, 'हमारे एग्जेक्युटिव की मुलाकात आरबीआई से हुई है, लेकिन हमें अब तक लिखित में कुछ भी नहीं मिला है।'आईओसी, बीपीसीएल और एचपीसीएल सरकारी ऑइल मार्केटिंग कंपनियां हैं। वे किसी एक बैंक से डॉलर ले सकती हैं। इससे कंरसी मार्केट में उतार-चढ़ाव कम होगा। आरबीआई ने इन कंपनियों से पूछा है कि उन्हें कितने डॉलर की जरूरत पड़ रही है। वे ऑइल के लिए कैसे पेमेंट करती है। इससे उम्मीद बढ़ी है कि आरबीआई ऑइल कंपनियों के लिए डायरेक्ट फंडिंग का रास्ता खोल सकता है।
मौजूदा समय में रुपये की बेलगाम कमजोरी बेहद चिंता का विषय बनी हुई है। लंबे समय में रुपये में जारी कमजोरी के चलते बाजार लगातार अस्थिरता का सामना कर रहे हैं। वहीं उद्योग धंधे चौपट होने के साथ-साथ, आम आदमी की जेबें भी हल्की हो रही है। हालांकि सरकार और आरबीआई रुपये को ताकत देने के लिए कई कदम उठा रही हैं। लेकिन उनकी ये कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही हैं।
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट को थामने के लिए आरबीआई ने फिर बड़ा कदम उठाया है। सूत्रों के मुताबिक सरकारी ऑयल मार्केटिंग कंपनियों को एक ही बैंक डॉलर खरीदने का निर्देश दिया है।
आरबीआई और बाजार नियामक सेबी ने कुछ कदम जरूर उठाए हैं। आरबीआई ने बैंकों को करेंसी फ्यूचर्स में प्रोपराइटरी ट्रेडिंग नहीं करने के निर्देश दिए हैं। साथ ही आरबीआई के मुताबिक बैंक फॉरेक्स ऑप्शंस में प्रोपराइटरी ट्रेडिंग नहीं कर सकते हैं। ऐसे में अब बैंक खुद के अकाउंट में करेंसी ट्रेडिंग नहीं कर सकते हैं।
डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने से राजकोषीय घाटा बढ़ता है। दरअसल भारत तेल और गैस का आयात करता है। कुल आयात का एक तिहाई हिस्सा तेल और गैस का होता है। जैसे ही रुपये की कीमत गिरती है, ज्यादा पैसा जाना शुरू हो जाता है जिसके कारण राजकोषीय घाटा बढऩे लगता है। इसके कारण सरकार पर दबाव आ जाता है। अभी भी यही हो रहा है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व नोट छापने शुरू कर दिए, ताकि अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाई जा सके। यह काम आम तौर पर सरकारी बांड खरीदकर किया जाता है, सरकार इस पैसे का इस्तेमाल खर्च और उपभोग बढ़ाने के लिए करती है। इसका एक असर यह भी हुआ कि डॉलर की कीमत कम हो गई। लेकिन इस साल के शुरू में जब अर्थव्यवस्था के अपने रंग में वापस आने के संकेत दिखाई दिए, तो फेडरल रिजर्व ने बांड खरीदने का सिलसिला रोक दिया। इसका अर्थ था बाजार में डॉलर की आपूर्ति का पहले के मुकाबले कम हो जाना। इससे डॉलर की कीमत बढ़ने लगी, जिसकी वजह से वैश्विक निवेशक उन देशों के बाजारों को छोड़ने लगे, जहां की मुद्रा कमजोर है। भारत और दूसरे विकासशील देश इसका शिकार बने। भारत में निवेश करने वाले वैश्विक फंड तुरंत ही अमेरिका के मजबूत बाजार की ओर रुख करने लगे।
जैसे ही रुपये ने अपना न्यूनतम ऐतिहासिक स्तर छुआ, राजकोषीय घाटा बढऩे लगा। इस दौरान एक खास बात यह रही कि क्रूड ऑयल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल के आसपास रही। अगर क्रूड की कीमतों में भी कोई ज्यादा बढ़ोतरी हो जाती तो सरकार के सामने और ज्यादा मुश्किल पैदा हो जाती।
ग्लोबल हो चुकी इस दुनिया में हर देश की मुद्रा की दुनिया की सबसे मजबूत मुद्रा अमेरिकी डॉलर के मुकाबले क्या कीमत है, इसका न सिर्फ उस देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है, बल्कि बाजार में बहुत सारी चीजों की कीमतों पर भी। जैसे- भारत का 75 फीसदी आयात कच्च तेल है, जिसके लिए डॉलर में भुगतान होता है। अगर डॉलर की कीमत बढ़ती है, यानी डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरती है, तो हमें इस आयात के लिए ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। नतीजा क्या होगा? हालांकि, सरकार तेल कंपनियों और रिफाइनरियों को पैसा देकर सब्सिडी से इसकी कीमत को कम करने की कोशिश करती है, लेकिन यह काम अनंत काल तक नहीं किया जा सकता। इसलिए तेल कंपनियों के पास इसकी कीमत बढ़ाने के अलावा कोई और चारा नहीं होता। यही वजह है कि पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस सभी की कीमत पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ रही है। बावजूद इसके कि दुनिया भर में इनकी कीमत इन दिनों स्थिर है।
सुजलॉन एनर्जी निकालेगी 1000 कर्मचारी
सुजलॉन एनर्जी की वित्त वर्ष 2014 में 1,000 कर्मचारियों की छंटनी करने की योजना है। साथ ही सुजलॉन एनर्जी का घरेलू मैन्यूफैक्चरिंग कारोबार में 70-75 फीसदी हिस्सा बेचने का इरादा है। सूत्रों का कहना है कि सुजलॉन एनर्जी की मैंगलोर एसईजेड के मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट में हिस्सा बेचने के लिए बातचीत चल रही है। सुजलॉन की तरफ से पुड्डुचेरी मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट में भी हिस्सा बेचा सकता है। एसई फोर्ज में भी हिस्सेदारी बिक सकती है। साथ ही पूरे भारत में कुछ कार्यालयों को भी बेचा जा सकता है। सूत्रों के मुताबिक सुजलॉन एनर्जी चीन में कारोबार करने वाली उसकी सब्सिडियरी सुजलॉन एनर्जी तियांजिन में अगस्त के अंत तक हिस्सा बेच सकती है। माना जा रहा है कि वित्त वर्ष 2014 में सुजलॉन एनर्जी हिस्सा बेचकर 2,000 करोड़ रुपये तक कर्ज का बोझ घटाने वाली है।
मंदी के चलते TCS निकालेगी कर्मचारी
देश की सबसे बडी साफ्टवेयर कंपनी 'टाटा कंसल्टेसी र्सविसेज' अपने फिनलैंड स्थित कार्यालय मे 290 र्कमचारियों की छंटनी करने की योजना बना रही है। कंपनी के सूत्रो ने बताया कि फिनलैंड के विभिन्न कार्यालयो मे उसके 800 र्कमचारी कार्यरत है और उनमे से 290 र्कमचारियो को हटाया जा सकता है। उन्होने बताया कि कंपनी की जरूरत के मुताबिक यह संख्या कुछ और कम भी हो सकती है लेकिन इससे ज्यादा र्कमचारियो की छंटनी की योजना नहीं है। हालांकि कंपनी के र्कमचारियो के प्रतिनिधि संगठन 'यूनियन ऑफ प्रोफेसनल इंजीनियर्स इन फिनलैंड' का दावा है कि टीसीएस 412 र्कमचारियो की छंटनी करने वाला है। कंपनी ने इस आंकडे को खारिज कर दिया है। र्कमचारियो का यह भी कहना है कि कंपनी ने भारत मे रोजगार उत्पन्न करने के लिये फिनलैंड मे छंटनी की योजना बनायी है।
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