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Thursday, May 17, 2018

अब बंगाल में या अन्यत्र वर्चस्ववादी,पाखंडी वामपंथी अपना वजूद बनाने के लिए संघियों के साथ सरकार भी बना ले तो मुझे कम से कम ताज्जुब नहीं होगा।

अब बंगाल में या अन्यत्र वर्चस्ववादी,पाखंडी वामपंथी अपना वजूद बनाने के लिए संघियों के साथ सरकार भी बना ले तो मुझे कम से कम ताज्जुब नहीं होगा।
पलाश विश्वास
बंगाल में पंचायत चुनावों में वामपंथियों ने सीटों के तालमेल के बहाने ममता बनर्जी को हराने के नाम पर कांग्रेस के साथ साथ भाजपा के साथ भी गठबंधन कर लिया है और वैचारिक लीपापोती करके इस सच को छुपाने का काम भी वे कर रहे हैं।इससे नाराज हतास वामपंथी कार्यकर्ता सत्ता के साथ होने की लालच में भाजपा के सात ही नत्थी होंगे और संपूर्ण भगवाकरण की हालत में बंगाल में लाल रंग ही सिरे से गायब हो जायेगा।

इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।वामपंथी सत्ता के लिए हमेशा समझौते करते रहे हैं। असम,मेघालय और त्रिपुरा के भगवेकरण का कोई प्रतिरोध वाम नेतृत्व ने नहीं किया और उन्हें जड़े जमाने का मोका भरपूर दिया।इसलिए नतीजे आने से पहले ही मैं कह रहा था कि त्रिपुरा में वामपंथी ही वामपंथ को हराने वाला है।हमारे मित्रों ने इस पर यकीन नहीं किया।

सच यही है कि भारत में समता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण रोकने के लिए ही अपने व्रग जाति हितों के मुताबिक वामपंथियों ने ही वामपंथ को हरा दिया है।

बंगाल से पहले उत्तरभारत में वामपंथ का बहुत असर रहा है और वाम नेतृ्त्व ने यूपी,बिहार,पंजाब जैसे राज्यों में अपने ही नेताओं और कार्यकर्ताओं को हाशिये पर डालकर वामपंथ का सफाया कर दिया।

ईमानदारी से इस सच का सामना किये बिना आप हिंदुत्व सुनामी को रोक नहीं सकते।


पार्टी और जनसंगठनों में करोडो़ं कैडर होने के बावजूद,तीन राज्यों की सरकारे ंबचाने के लिए लिए लगातार कांग्रेस की जनविरोधी सरकार को समर्थन देना क्या भूल गये? 

जनहित और जनसरोकारों से खुल्लमखुल्ला दगा करने के भोगे हुए यथार्थ और केंद्र सरकार की जनसंहारी नीतियो के वास्तव अनुभवों से आम जनता दस साल के करीब करीब अंत के दौरान विचारधारा के पाखंड के तहत भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के फर्जी विरोध के नाटक पर यकीन नहीं कर सकी।

नागरिकता कानून संशोधन हो या श्रम कानूनों का खात्मा या फिर आधार योजना,वामपंथियों ने आम जनता के हितों के मुताबिक कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया।
  इसीलिए 1991 के बाद से लेकर अब तक आर्थिक सुधारों का कोई कारगर विरोध नहीं हो पाया।ट्रेड यूनियनों पर दशकों के एकाधिकार होने के बावजूद श्रम कानूनों केसाथ साथ कामगारों के हकहकूक ,रोजगार खत्म होने के किलाफ इसीलिे कोई विरोध नहीं हुआ।

मलयाली और बंगाली नेतृत्व के वर्चस्ववादी रवैये की वजह से बाकी देश में वामपंथ का पूरा सफाया हो गया है।इस वर्चस्व को बनाये रखने के लिए 1977 में संघियों के साथ गठजोड़ हुआ तो बंगाल में अजय मुखर्जी सरकार और ज्योति बसु की सरकार के दौरान नक्सल उन्मूलन के नाम पर मेहनतकश तबके के दमन,सफाये का आप क्या कहेंगे?

विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का समर्थन तो भाजपा के साथ ही वामपंथी कर रहे थे।1977 में सत्ता में आये संघियों ने हर क्षेत्र में घुसपैठ कर ली तो वीपी शासनकाल के दौरान हिंदुत्व की लहर पैदा करके आखिरकार बाबरी विध्वंस की नींव पर भारत को हिंदू राष्ट्र बना ही लिया।दरअसल वाम नेतृत्व विचारधारा के पाखंड के तहत धर्मनिरपेक्षता की रट तो लगाता रहा लेकिन अपने वर्ग,जाति हित के तहत वे हिंदू राष्ट्र के कभी विरोधी नहीं थे।

यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत में सांप्रदायिक ध्रूवीकरण की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल में ही हुआ और उन्ही सांप्रदायिक त्वों के वारिसान ने पूरे वामपंथ पर कब्जा करके मनुस्मृति के एजंडे को ही लागू करने में जन प्रतिरोध की हालत बनने न देकर सबसे ज्यादा मदद की है।

जमीनी,प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और नेताओं को इन लोगों ने  दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया।

फिर बाजार की ताकतों के भरोसे नंदीग्राम सिंगुर प्रकरण का क्या?

बहुजन तबकों को स्थानीय नेतृ्त्व में भी प्रतिनिधित्व न देने वाले वामपंथी संघियों से भी ज्यादा ब्राह्मणवादी है और वर्गीयध्रूवीकरण के बजाय वर्ग जाति अस्मिता वर्चस्व के तहत मरण पर्यंत अपना नेतृत्व बनाये रखना ही इनका मकसद है।

आपको ताज्जुब हो रहा है लेकिन दशकों के अनुभव के तहत मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा है।त्रिपुरा में भी हार तय थी।दिनेशपुर में प्रेरणा अंशु के 32 वें वार्षिकोत्सव पर देशभर के सामाजिक कार्यकर्ताओं से मैने यही कहा था।

वामपंथियों के अवसरवाद की वजह से ही उत्तर भारत में संघियों के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं बन सका और इसी वजह से बंगाल के बाद केरल औरत्रिपुरा में भगवा झंडा लहरा रहा है।असम और पूर्वोत्तर के भगवेकरण से पहले वामपंथियों का भगवाकरण हो गया  है।

बहुजनों के सफाये में वामपंथी भी पीछे नहीं हैं।मरीचझांपी से लेकर नंदीग्राम सिंगुर तक इसके गवाह हैं।नक्सलियों के सफाये में भी ज्यादातर आदिवासी ,दलित और पिछड़े मारे गये।

बदले हुए हालात में सत्तालोलुप वाम नेतृत्व अगर भाजपा के साथ बंगाल में भी सरकार बनायें तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।लेकिन आशंका हैकि यह मौका भी उनके हाथ ऩहीं लगेगा।अगर ममता बनर्जी नहीं सुधरीं तो जिस तेजी से बंगाल का उग्र हिंदुत्वकरण हो रहा है,भाजपा देर सवेर अकेले ही सत्ता दखल कर लेगी।

जिस सच को वामपंथी नजर्ंदाज कर रहे हैं,वह यह है कि  वामपंथी भाजपा से कितना ही मधुर रिश्ता बना लें लेकिन वामपंथी नेतृत्व न  सही वामपंथी विचारधारा और आंदोलन से संघियों को सबसे ज्यादा नफरत है,जिनकी वजह से उनका हिंदुत्व एजंडा छात्रों,युवाओं,किसानों,कामगारों के प्रतिरोध के कारण लागू करना अब भी असंभव है।

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