प्राकृतिक नहीं, मानवजनित तबाही कहें जनाब!
पावर प्रोजेक्टों के निर्माण, खडि़या व अन्य सम्पदाओं के खनन के नाम पर भी उत्तराखण्ड के पहाड़ों का जमकर दोहन किया जा रहा है. यही कारण है कि कमजोर होते जा रहे पहाड़ थोड़ी सी बरसात में भी भरभरा कर गिरने लगे हैं...
नरेन्द्र देव सिंह
उत्तराखण्ड जैसे हिमालयी राज्य का गठन एक व्यापक जनांदोलन के फलस्वरूप हुआ था. इसके लिये स्थानीय लोगों ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभायी थी. उनका मुख्य उद्देश्य इस हिमालयी क्षेत्र के लिए एक अलग राज्य का गठन करवाना था. 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड एक पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया. चूंकि उत्तराखण्ड मूलतः पर्वतीय राज्य है, इसलिए संवेदनशील पर्यावरणीय माहौल को देखते हुये यहां अलग से आपदा प्रबंधन विभाग का गठन किया गया.
इस राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं जैसे बादल फटना, भूस्खलन होना वैसे ही आम बात है जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार राज्यों में बाढ़ आना. यहां आने वाली प्राकृतिक आपदाओं को सरकार दैवीय आपदा कहती है, लेकिन अलग राज्य बनने के बाद से दैवीय से कहीं ज्यादा मानवीय हस्तक्षेप इन भारी आपदाओं का कारण है.
राज्य गठन से पहले भी यहां प्राकृतिक आपदायें आती थीं, लेकिन राज्य गठन के बाद हर साल ही यहां के नागरिकों को इन आपदाओं से जूझना पड़ रहा है. गौरतलब है कि पृथक उत्तराखण्ड निर्माण के बाद गढ़वाल मंडल में नदियों पर बिजली परियोजनाओं के नाम पर जमकर बांधों का निर्माण किया जा रहा है.
टिहरी परियोजना हालांकि राज्य गठन के पहले से ही शुरू हो गयी थी, मगर इसके दुष्परिणाम राज्य गठन के बाद सामने आये हैं. भौगोलिक दृष्टि से हिमालय एक नवीन संरचना है, जिसका निर्माण केवल पांच करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था. हिमालय भारतीय प्लेट के तिब्बत से टकराने के बाद बना था. पावर प्रोजेक्टों के लिए पर्वतों को डायनामाइट लगाकर तबाह किया जाता है. पहाड़ों के अन्दर काटकर लम्बी-लम्बी सुरंग बनायी जाती है, जिसका असर पूरे हिमालयी क्षेत्र पर पड़ता है.
इन्होंने पहले से ही कमजोर पहाड़ों को और कमजोर कर दिया गया है. इतना होने के बावजूद अभी भी राज्य में अन्य विद्युत परियोजनाओं को लगाने की बात कही जा रही है, जो इस पर्वत श्रृंखला के लिए पूरी तरह से नुकसानदायक साबित होगा.
गौर करने वाली बात है थ्क हिमालय जोन 5 और जोन 4 में पड़ता है. यह भूकम्प और भूस्खलन की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है. एनसीटी का मुख्य केन्द्रीय भ्रंश भी यहां से गुजरती है. सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यहां पर किये जा रहे विकास निर्माण कार्य बिना किसी ठोस जानकारी के शुरू कर दिये जा रजे हैं.
हालात इतने बद्तर हैं कि अल्मोड़ा में 2012 में मौसम वैज्ञानिक का घर भी प्राकृतिक आपदा की चपेट में आ गया. अभी भी हाल ही में केदारनाथ में घटित भीषण प्राकृतिक आपदा के पीछे का सच जानने की कोशिश नहीं की जा रही है. गौर करने वाली बात है कि चारधामों में से प्रमुख केदारनाथ धाम पूरी तरह से व्यवसाय का केन्द्र बन चुका था. लगभग चार महीने के लिए खुलने वाले मन्दिर में लाखों की तादात में श्रृद्धालुओं की आवाजाही है. इतना ही नहीं, पिछले कई वर्षों से केदारनाथ मंदिर क्षेत्र में अंधाधुंध निर्माण हो रहा है.
यहां धर्मशालाओं-होटलों का निर्माण तेज गति से हुआ है. सड़कों पर वाहनों की अंधाधुंध दौड़ है. केदारनाथ धाम में हद से कहीं ज्यादा बढ़ चुके मानवीय हस्तक्षेप पर किसी ने ध्यान नहीं दिया या फिर देना जरूरी भी नहीं समझा. हाल ही यहां पर आयी इतनी बड़ी विपदा के पीछे नेताओं, नौकरशाहों और उन सभी मुनाफाखोंरों का हाथ है, जिन्होंने इस हिमालयी क्षेत्र में केदारनाथ ही नहीं बल्कि अन्य धार्मिक स्थलों पर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अपने कमाई के अड्डे खोल रखे हैं.
राज्य गठन के बाद वर्ष 2005, 2006 और 2011 को छोड़कर हर बरसात में प्राकृतिक आपदायें यहां अपना कहर बरसाती रही हैं. इसमें पिछले वर्ष उत्तरकाशी में बादल फटने से सैकड़ों लोग अकाल मृत्यु का शिकार हो गये. इसका मतलब स्पष्ट है कि उत्तराखण्ड निर्माण का एक मुख्य उद्देश्य यहां की प्राकृतिक संपदाओं को बचाना था, मगर इसके उलट राज्य गठन के बाद ही यहां की प्राकृतिक संपदाओं को जमकर लूटा जा रहा है.
पिछले दिनों पोंटी चढ्ढा की मृत्यु के बाद मीडिया में यह बात सामने आयी थी कि किस तरह यहां की प्रत्येक सरकार ने खनन व शराब माफिया को राज्य में खुली छूट दे रखी थी. यह तो मात्र एक उदाहरण है, पावर प्रोजेक्टों के निर्माण, खडि़या व अन्य सम्पदाओं के खनन के नाम पर भी राज्य के पहाड़ों का जमकर दोहन किया जा रहा है. यही कारण है कि कमजोर होते जा रहे पहाड़ थोड़ी सी भी बरसात में भरभरा कर गिरने लगे हैं.
अगर नदियों के माध्यम से हो रही तबाही के मंजर पर नजर डालें तो पहले तो हमें इस बात को समझना होगी कि नदियां हमारे घरों या निर्माणस्थल में नहीं घुस रही हैं, बल्कि हम नदियों के दायरे में जाकर अपने घरों तथा अन्य भवनों का निर्माण कर रहे हैं. भारत-नेपाल सीमा पर बहने वाली काली नदी हो या गढ़वाल में बहने वाली अलकनंदा, भागीरथी, सभी नदियों के मुहानों पर भवनों का जमकर निर्माण कर दिया गया है.
इसका मतलब है कि हम प्रकृति को उसका दायरा बता रहे हैं. नदियों के बहाव क्षेत्र निर्धारित कर रहे हैं. जिस प्रकृति पर हम पूरी तरह से निर्भर हैं, उसी पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं. इतिहास उठाकर देखें तो अतिवृष्टि में भी अपने बहाव क्षेत्र से नदियां बाहर नहीं गयी हैं, बल्कि वो तब से ऐसे ही बह रही हैं जब से उनका उद्गम हुआ है.
बरसात में उनका बहाव तेज हो जाता है, जो एक सामान्य प्रक्रिया है. इसीलिए नदियों के मुहाने पर बने भवन भरभरा कर गिर जाते हैं. नदियां आज भी सामान्य तरीके से ही बह रही हैं, असामान्य हरकतें तो हम मानवों ने की है, सरकार मौन होकर नदियों के मुहाने पर बन रहे भवनों के निर्माण से देखती रहती है.
केदारनाथ में आयी इतनी बढ़ी प्राकृतिक आपदा के बाद भी अगर हम नहीं संभले, तो इन पहाड़ों और नदियों को आपदाओं के लिए दोष नहीं देना चाहिए. यह दैवीय आपदा नहीं, बल्कि इनके पीछे सीधा मानवीय हस्तक्षेप है.
नरेन्द्र देव सिंह राजनीतिक संवाददाता हैं.
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