Follow palashbiswaskl on Twitter

ArundhatiRay speaks

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Wednesday, April 17, 2013

मुख्य एजंडा ही प्रकृति और मनुष्य के सर्वनाश का है तो विपर्यय मुकाबले की तैयारी कैसी?

मुख्य एजंडा ही प्रकृति और मनुष्य के सर्वनाश का है तो विपर्यय मुकाबले की तैयारी कैसी?


पलाश विश्वास


कोलकाता समेत पूरे पश्चिम बंगाल में मौसम की दूसरी कालबैशाखी में भारी तबाही मच गयी। कालबैशाखी आने की पहले से चेतावनी थी,​​ लेकिन प्रकृतिक विपर्यय से निपटने की मानसिकता हमारी सरकारों में नहीं है। कामकाजी स्त्री पुरुषों को घर वापसी के रास्ते तरह तरह के संकट का सामना करना पड़ा, जिनके लिए कोई वैकल्पिक इंतजाम नहीं हो सका। गनीमत है कि सुंदरवान की वजह से बंगाल समुद्रीतूपान के कहर से बचा हुआ है। पर पिछली दफा आयला की मार झेलने के बावजूद प्रकृतिक विपर्यय से बचने के लिए पर्यावरण और जीवनचक्र बचाने की कोई पहल​ ​ नहीं हो रही है। कोलकाता और उपनगरों में झीलों, तालाबों और जलाशयों को पाटकर बिल्डर प्रोमोटर राज राजनीतिक संरक्षण से जारी है। कोई भी निजी घर प्रोमोटर सिंडिकेट से बचा नहीं है। बेदखली के लिए अग्निकांड आम है। अंधाधुंध निर्माण की वजह से जलनिकासी का कोई ​​इंतजाम नहीं है। ट्रेन सेवा हो या विमान यातायात जलभराव के संकट से कुछ भी नहीं बचा है। कालबैशाखी को थामने के लिए हरियाली का जो सबसे बड़ा हथियार है, बंगाल ने विकास की राह पर उसे गवां दिया है। काल बैशाखी अपने नाम के अनुरूप कहर बनकर आती है। विशेषकर बैशाख माह में होने के कारण ही इसे काल बैशाखी कहते हैं। गर्मी के दिन में विशेष रूप से काल बैशाखी आती है। काल बैशाखी अपने साथ धूल भरी आंधी, तेज बारिश, कहीं-कहीं ओला वृष्टि और वज्रपात लेकर आती है जिसके कारण तबाही मच जाती है। आंधी-पानी में कई घर व पेड़ क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। जान-माल का भारी नुकसान होता है। हर वर्ष कालबैशाखी के दौरान व्रजपात होने से दर्जनों लोग काल के मुंह में समा जाते है।भारतीय मौसम विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक असित सेन बताते हैं कि सामान्यत: फरवरी माह के अंत से लेकर मई के पहले पखवाड़े तक काल बैशाखी का असर रहता है। लेकिन इसका सबसे अधिक असर अप्रैल व मई माह में होता है। देश में असम के बाद सबसे अधिक बंगाल में ही काल बैशाखी आती है। चार माह के दौरान औसतन हर वर्ष 15-16 बार काल बैशाखी आती है। वैसे किसी वर्ष इसकी संख्या 10-12 तो किसी वर्ष 22-24 तक भी पहुंच जाती है। वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक सेन ने बताया कि काल बैशाखी को तैयार होने में 5 से 6 घंटा ही समय लगता है। इसलिए 12 से 24 घंटा पहले ही इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है। बहुत पहले से इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल होता है। इसके अध्ययन के लिए आवश्यक मौसम रडार की संख्या जितनी अधिक होगी सूचना उतनी ही सटीक होगी। भारत में वर्तमान में ऐसे 15 रडार हैं। अगले दो वर्षो में इन रडारों की संख्या 55 करने की योजना है। जिससे काल बैशाखी की और सटीक भविष्यवाणी हो सकेगी। काल बैशाखी में बादलों की विशेष भूमिका होती है। बादल पहले रुई की तरह सफेद दिखता है। उसके बाद क्रमश: ग्रे और डार्क कलर का हो जाता है। बादल कम समय में ही तेजी से ऊपर पहुंच जाते हैं। इसके बाद आकाशी बिजली चमकने लगती है और आंधी के साथ बारिश शुरू हो जाती है। जो अधिकतम एक से डेढ़ घंटे तक रहती है। इसके बाद मौसम सामान्य हो जाता है।


सत्तावर्ग भारत राष्ट्र के महाशक्ति बन जाने के गौरवगान से धर्मांध राष्ट्रवाद का आवाहन करने से अघाते नहीं हैं। उत्तराखंड में हमने बार बार भूकंप का कहर झेला है। अब तो हिमालय ऊर्जा क्षेत्र बन गया है। भारत से लेकर चीन ​​तक बिना द्विपक्षीय वार्तालाप के बड़े बांधों का सिलसिला बनता जा रहा है। ऊपर से पोड़ों की अंधाधुंध कटान और चिपको आंदोलन का ​​अवसान। अभी जो ७.८ रेक्टर स्केल का भूकंप आया वह ईरान से लेकर चीन तक को हिला गया। राजधानी नई दिल्ली और समूचे राजधानी क्षेत्र की नींव हिल गयी। गनीमत यह रही कि भूकंप का केंद्र ईरान में था। भारत में जान माल का नुकसान नहीं हुआ। लेकिन सुनामी के दौरान मची व्यापक तबाही से साफ जाहिर है कि समुद्रतटवर्ती इलाके हों या फिर हिमालय क्षेत्र, भारत में जनता को विपर्यय सेबचाने की कभी कोई योजना नही बनी।


बन भी नहीं सकती क्योंकि इसमे कारपोरेट हित आड़े आते हैं। मनुस्मृति अश्वमेध के तहत मुक्त बाजार के वधस्थल पर आर्थिक सुधारों के नाम पर जो नरसंहार संस्कृति के जयघोष में महाशक्ति के प्राणपखेरु है,उसका मुख्य एजंडा ही प्रकृति और मनुष्य का सर्वनाश है।


हम तो किसी कालबैशाखी से ही ध्वस्त विध्वस्त होने के अभिशप्त है, भूकंप तो क्या मामूली भूस्खलन और बाढ़ से ही जानमाल की भारी क्षति यहा आम बात है।मृतकों की संख्या गिने और क्षति का आकलने करने, फिर राहत और बचाव के बहाने लूट मार मचाने के सिवाय इस व्वस्था में कुछ नहीं होता। पुनर्वास तो होता ही नहीं, एकतरफा बेदखली है।मुआवजा दिया नहीं जाता, अनुग्रह राशि बांटकर वोट खरीदे जाते हैं। जबकि सबसे​​ ज्यादा और सबसे तेज भूकंप जापान में आते हैं, अमेरिका के तटवर्ती प्रदेशों में तो तूफान जीवनका अंग ही है। लेकिन वहां इतने व्यापक ​​पैमाने पर  जान माल की  क्षति नही होती।


दोनों देश पूंजीवादी हैं और वहां भी कारपोरेट वर्चस्व है। पर विकासगाथा के लिए वे पर्यावरण की तिलांजलि नहीं देते। जापान की पूरी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को ही भूकंप रोधक बना लिया गया है।


जीआईसी नैनीताल के हमारे आदरणीय ​​गुरुजी ताराचद्नेर त्रिपाठी ने अपनी जापान और अमेरिका यात्रा पर लिखी पुस्तकों में इस पहेली को संबोदित किया है। उनके मुताबिक सबसे​​ ज्यादा कारों का उत्पादन करने वाले जापान में तेल की खपत नग्ण्य है। वहां प्रधानमंत्री तक साइकिल से दफ्तर आते जाते हैं।


पर्यावरण चेतना के बिना कारपोरेट विकास भी असंभव है, इसे साबित करने के लिए जापान का उदाहरण काफी है। दूध दुहने के लिए दुधारु पशु की हत्या ​​भारतीय अर्थव्यवस्था का चरित्र है। प्रकृति और प्रकृति से जुड़े समुदायों के सर्वनाश से कब तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन संभव है,​​ इसपर हमारे शासक कारपोरेट अर्थशास्त्री समुदाय तनिक भी नहीं सोचते।


जहां अकूत प्राकृतिक संपदाएं हैं, उन्हें राजमार्गों  और रेलवे, ​​पुलों के जरिये बाजार से जोड़ना हमारे यहां विकास का पर्याय है और इसके लिए विस्थापन अनिवार्य है। विपर्यय मुकाबलका यह आलम है कि बंगाल में ही पद्मा के कटाव से बचाव के लिए बेहज जरुरी तटबंदों के निर्माम का काम हमेशा अधूरा रहता है। सुंदरवन इलाकों में नदी तटबंध अभी ​​बने नहीं है, पर पर्यटन के लिए सुंदरवन के कोर इलाके तक कोलने के चाक चौबंद इंतजामात हैं।आयला पीड़ित इलाकों में भी तटबंध का​​ काम शुरु ही नहीं हो पा रहा है।


अमेरिका महज कारपरेट साम्राज्यवाद के लिए कोई महाशक्ति नहीं है, विपर्यय मुकाबले के अपने इंतजाम और अपने नागरिकों की जनमाल की सुरक्षा की गारंटी के लिए उसकी यह हैसियत है।विपर्यय मुकाबलेमें हम कहां हैं, यह शायद बताने की नहीं, महसूस करने की बात ​​है। लेकिन देश के नागरिकों की ऐसी तैसी करने में इस देश की व्यवस्था का क्या खाक मुकाबला करेगा अमेरिका या जापान!


दुनियाभर में भारत बेचना की मुहिम पर निकले केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने अमेरिकी निवेशकों को आकर्षित करने की कोशिश में कहा है कि विदेशी पूंजी भारत में सर्वाधिक सुरक्षित है और भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) हासिल करने के लिए सभी जरूरी तत्व मौजूद हैं। हावर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों को सम्बोधित करते हुए चिदम्बरम ने कहा, निवेश सुरक्षा की सर्वाधिक गारंटी है स्थिर और लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना. मैं कानून का शासन, पारदर्शिता और स्वतंत्र न्यायपालिका में भरोसा करता हूं. भारत में ये तीनों मौजूद हैं।'अबाध पूंजी प्रवाह और काले धन की अर्थव्यवस्था जिसे मुक्त बाजार कहा जाता है, उनकी अनिवार्य शर्त है निवेशकों को प्राकृतिक संसाधनों की खुली छूट दे दी जाये। भारत में विकास के नाम पर बेदखली की कथा व्यथा के मूल में ही यही है।


प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हकहकूक के ​​लिए संवैधानिक रक्षाकवच हमारे पास हैं, पर सात दशक बीतते चलने के बावजूद संविधान लागू ही नहीं हुआ और असंवैधानिक तरीके से बायोमैट्रिक नागरिकता और वित्तीय कानूनों के जरिये उत्पादन प्रणाली को तहस नहस करके , आम जनता के जीवन और आजीविका का बाजा बजाते हुए नागरिक और मानव अधिकारों की धज्जियां उड़ाते हुए विकास गाथा का जयगान अब राष्ट्रगान है और हम सभी सावधान की मुद्रा में तटस्थ हैं। ​


नस्ली भेदभाव के तहत जो जाति व्यवस्था है, जो भौगोलिक अलगाव है, वह प्राकृतिक संसाधनों पर दखल के लिए एकाधिकारवादी​​ वर्चस्ववादी सतत आक्रमण है। भारत के विश्वव्यवस्था के उपनिवेश बन जाने के बाद यह आक्रमण निरंतर तेज होता जा रहा है। राष्ट्र के ​​सैन्यीकरण का मकसद अंततः प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट कब्जा हासिल करना है।


पांचवीं और छठी अनुसूचियों को लागू किये बिना, मौलिक अधिकारों की तिलांजलि देकर सविधान की धारा ३९ बी और ३९ सी के खुल्ला उल्लंघन के जरिये यह आईपीएल पहले से जारी है लेकिन जनता के प्रतिरोध के सिलसिले को तोड़ने के लिहाज से कानून बदले जा रहे हैं।मसलन, अभी सुधार के एजंडे के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता यह है कि पर्यावरण कानून के तहत लंबित परियोजनाओं को फिर चालू करना। सारी सत्ता की लड़ाई इस पर केंद्रित  है कि कारपोरेट हितों को सबसे बेहतर कौन साध सकता है। कारपोरेट चंदा वैध कर दिये जाने के बाद अराजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता और बहुजन आंदोलन के लोग भी इस तस्करी में बड़े पैमाने ​​पर शामिल हैं।


राजनीतिक अखाडा़ कारपोरेट अखाड़े में तब्दील हैं , जनता के बीच जाने के बजाय राजनेता कारपोरेट आयोजन के जरिये कारपोरेट मीडिया के जनविरोधी उद्यम और जनादेश इंजीनियरिंग के जरिये अपने अपने प्रधानमंत्रित्व के दावे पेश कर रहे हैं।


जनता को साधने के लिए धर्मांध राष्ट्रवाद पर्याप्त है, लेकिन कारपोरेट को साधने के लिए वधस्थल की मशीनरी दुरुस्त करना ज्यादा जरुरी है।


मजे की बात है कि समाजकर्म से जुड़े प्रतिबद्द जन वैसे तो वैज्ञानिक पद्धति के जरिये तर्कसंगत विचारधाराओं और सिद्धांतों की बात करते​ ​ हैं लेकिन उनकी सारी कवायद इतिहास की निरंतराता जारी रखने की है।


हाशिये पर रखे भूगोल की ओर, भौगोलिक अलगाव की ओर ध्यान ही नहीं जाता, जिसके लिए प्रकृति और पर्यावरण से तादात्म और तत्संबंधी चेतना अनिवार्य है।इस महादेश में कारपोरेट राज स्थापना के पीछे इस पर्यावरण चेतना का सर्वथा अभाव सबसे बड़ा कारण है।


सामाजिक कार्यकर्ता को पर्यावरणकार्यकर्ता भी होना चाहिए, ऐसा हम सोच भी नहीं सकते और बड़ी आसानी से पहले राजनीतिक कार्यकर्ता और फिर कारपोरेट राज के एजेंट,दलाल और प्रतिनिधि बन जाते हैं। विचारधाराओं और सिद्धांतों के अप्रासंगिक बन जानी के समाज वास्तव की वास्तविक पृष्ठभूमि किंतु यही है।


जब बेदखली और लूटखसोट पर टिका हो विकास कार्यक्रम और कानून ​​का राज,दोनों, तब विपर्यय मुकाबले का प्रस्थानबिंदू कहां बन पाता है!कानून के राज का आलम यह है कि कैंसर पीड़ित अल्पसंख्यक महिला को कानून  कोई मोहलत नहीं देता, पर समान अपराध के लिए अभियुक्त के साथ खड़े हो जाते हैं राजनेता सेलेकर न्यायाधीस तक, क्योंकि उसपरनिवेशकों का दंव लगा है। इस प्रणाली में इरोम शर्मिला, सोनी सोरी या जेल में बंद तमाम माताओं और उनके साथ कैद बच्चों के मौलिक  अधिकारों की हम परवाह करें तो क्यों करें?


प्रकृति से जुड़े तमाम समुदाय यहां तक कि इस देस के बहुसंक्यक किसान और कृषि आधारित नैसर्गिक आजीविका से जुड़े लोग बाजार में खड़े नहीं हो सकते। या तो वे आत्महत्या कर सकते हैं या फिर प्रतिरोध। धर्म कर्म और संस्कृति में प्रकृति की उपासना की परंपरा ढोते हुए भी हमारे ​

​लिए प्रकृति जड़ है।


हम धार्मिक हवाला दकर पवित्रता के बहान नदियों के अबाध प्रवाह की मांग लेकर मगरमच्छी अनुष्टान तो कर सकते हैं, पर उस प्रकृति से जुड़े समुदायों की हितों के बारे में सोच भी नहीं सकते।


इसलिए जहां देवभूमि है, देवताओं का शासन चलता है, उस हिमालयी ​​क्षेत्र में मनुष्य के हित गौण हैं। वहां पर्यटन और धार्मिक पर्यटन, विकास और धर्म एकाकार हैं। जबकि कारपोरेट धर्म और कारपोरेट राज में अब कोई बेसिक अंतर नहीं रह गया है। धर्म भी जायनवादी तो कारपोरेट राज भी जायनवादी। इसलिए हिमालयी क्षेत्र में किसी प्रतिरोध आंदोलन का जनाधार बन ही नहीं पाया, वहां  भी बहुजन संस्कृति के मुताबिक अस्मिता और पहचान पर सबकुछ खत्म है।


बहुजनों में प्रकृति और पर्यावरण चेतना​ ​ होती तो आज समूचा हिमालय, मध्य भारत और पूर्वोत्तर अलगाव में नहीं होते और आदिवासी भी देस की मुख्यधारा में सामिल होते। ​​इसी वजह से आदिवासियों की सरना धर्म कोड की मांग लेकर, मौलिक अधिकारों, पांचवीं छठीं अनुसूचियों को लागू करने की मांग लेकर​ ​संविधान बचाव आंदोलन का तात्पर्य समझना हमारे लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।


No comments: