राज्य समाजवाद का कोई पूछनहार नहीं
अम्बेडकर के 122वें जन्मदिवस पर विशेष
अम्बेडकर के बाद दलित राजनीति और आंदोलनों में उनकी सामाजिक विचारधारा की अवहेलना इस कदर की गयी कि दलित आंदोलन पथभ्रष्ट हो चुका है. उनकी अवधारणा महज बौद्धिक विमर्श का विषय बनकर रह गयी है...
राजीव
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने महात्मा फूले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केन्द्र में रखकर संघर्ष किया। आने वाली पीढ़ियों को जाति के विनाश का एक ऐसा मूलमंत्र दिया, जो सही अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन सके. महात्मा फूले द्वारा ब्राहमणवाद के खिलाफ शुरू किए गए अभियान को विश्वव्यापी बनाया, लेकिन अम्बेडकर के बाद उनकी राज्य समाजवाद की अवधारणा को कोई पूछने वाला नहीं है.
अम्बेडकर के जीवनकाल में किसी ने यह नहीं सोचा था कि 'अम्बेडकर के सिद्धांत' को आधार बना सत्ता भी हासिल की जा सकती है, लेकिन काशीराम और मायावती ने सत्ता तो हासिल की। परंतु सवाल है की क्या सत्ता का सुख भोगने वाली मायावती सरकार ने अम्बेडकर के मुख्य सिद्धांत 'जाति का विनाश' को क्या अग्रसारित किया या कि जाति प्रथा को और सुदृढ़ किया।
'जाति का विनाश' पुस्तक के रूप में छपवाने की भी कहानी ऐतिहासिक है. दरअसल, लाहौर के 'जातपात तोड़क मंडल' नामक संस्था ने अम्बेडकर को जातिप्रथा पर भाषण देने का आमंत्रण दिया था.अम्बेडकर ने अपने भाषण को लिखकर भिजवा दिया था, परंतु 'जातपात तोड़क मंडल' के ब्राहमणवादी कर्ताधर्ता ने भाषण का विरोध करते हुए उसे संपादित कर पढ़ने की बात अम्बेडकर से कही, जो उन्हें मंजूर न था. बाद में अम्बेडकर ने अपने भाषण को पुस्तक रूप में छपवा दिया जो 'दि आनहिलेशन ऑफ़ कास्ट' के नाम से आज भारतीय इतिहास की धरोहर है.
भारतीय समाज के दलित वर्ग में जन्म लेने के कारण अम्बेडकर को जातिप्रथा का कटु अनुभव था। यही वजह है कि उनके सिद्धांत और दर्शन में दलित, अछूत, शोषित और गरीब ने जगह पायी. वे अछूत और मजदूर का जीवन जीकर देख चुके थे, उन्होंने कुली का भी काम किया था। गांव को वर्णव्यवस्था की प्रयोगशाला कहा तथा शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से संविधान सभा को दिए गए अपने ज्ञापन में भारत में तीव्र औद्योगीकरण की मांग करते हुए कृषि को राज्य उद्योग घोषित करने की मांग की थी.
अम्बेडकर का यह ज्ञापन 'स्टेटस ऑफ़ माइनारिटीज' नाम से उनकी रचनाओं में संकलित है. कृषि को उद्योग का दर्जा देने की मांग के अतिरिक्त पृथक निर्वाचन मंडल, पृथक आबादी, राज्य समाजवाद, भूमि का राष्ट्रीयकरण की सामाजिक अवधारणाओं को संविधान का अंग बनाना चाहते थे, परंतु मसौदा समिति के चेयरमैन होने के बावजूद वे यथास्थितिवादियों के विरोध के कारण संविधान में पूरी तरह शामिल नहीं करवा पाए थे.
अम्बेडकर कहा करते थे हर व्यक्ति जो जॉन स्टुअर्ट मिल के इस सिद्धांत को दुहराता है कि एक देश दूसरे देश पर शासन नहीं कर सकता, उसे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन नहीं कर सकता. प्रसिद्ध समाजवादी विचारक मधु लिमये ने एक लेख में अम्बेडकर लिखित पुस्तक 'जाति का विनाश' को कार्ल मार्क्स लिखित 'कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो' के बराबर महत्व देते हुए लिखा था कि अम्बेडकर जाति का विनाश चाहते थे, जिसके बिना न वर्ग का निर्माण हो सकता है और न ही वर्ग संघर्ष.
डॉ। रामविलास शर्मा ने ठीक लिखा था कि 'एक मजदूर नेता के रूप में अम्बेडकर में जाति के भेद पीछे छूट गए थे.' अम्बेडकर के राज्य समाजवाद की अवधारणा कृषि और उद्योग पर राज्य के स्वामित्व पर आधारित था, जिसे मार्क्सवादी अवधारणा से तुलना कर सकते हैं। अम्बेडकर और मार्क्स की अवधारणाओं में अंतर सिर्फ समयसीमा का है. अम्बेडकर राज्य समाजवाद की अवधारणा को सिर्फ संविधान लागू होने के समय से आगामी एक दशक के लिए चाहते थे, जबकि मार्क्स के राज्य समाजवाद में कोई समयसीमा नहीं है.
इसमें तो कोई दो राय नहीं है कि गरीबी हटाओ के लोकलुभावने नारे के बावजूद गरीबी तो खैर क्या हटेगी, हाँ दलित-आदिवासी गरीब को ही बहुत हद तक हटा दिया जाता है. अम्बेडकर ने अपने एक निबंध 'स्माल होल्डिंस इन इंडि़या एंड देयर रेमिडीज' में भारत में गरीबी के कारण और निवारण पर स्पष्ट कहा है 'भारत में जमीन पर जनसंख्या का बहुत अधिक दबाव है, जिसके कारण जमीन का लगातार विभाजन होता रहा है और बड़ी जोतें छोटी जोतों में बदलती रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप अधिक लोगों को खेत में कार्य नहीं मिल पाता है और बहुत बड़ी श्रम शक्ति बेकार हो जाती है। यह बेकार पड़ी श्रम शक्ति बचत को खाकर अपना जीवनयापन करते हैं।'
भारत में यह बेकार श्रम शक्ति एक नासूर की तरह है जो राष्ट्रीय लाभांश में वृद्धि करने की जगह उसे नष्ट कर देता है. अम्बेडकर ने कहा कि 'कृषि को उद्योग का दर्जा देने से यह समस्या हल हो सकती है. औद्योगीकरण से ही जमीन पर दबाव कम होगा और कृषि जो अभी छोटे-छोटे जोतों का शिकार है, औद्योगीकरण से पूंजी और पूंजीगत सामान बढ़ने से जोतों का आकार खुद- ब-खुद बढ़ जाएगा।' अम्बेडकर ने शेडूल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से संविधान सभा को दिए गए अपने ज्ञापन में भारत के तीव्र औद्योगीकरण की मांग करते हुए कृषि को राज्य उद्योग घोषित करने की मांग की थी.
बुद्धि के विकास को मानव अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य मानने वाले अम्बेडकर का कहना था कि वो ऐसे धर्म को मानते हैं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मों के शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए. हिन्दू धर्म में विवेक, तर्क और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है. आज भारतीय दो अलग-अलग विचारधाराओं द्वारा शासित हो रहे हैं। उनके राजनीतिक आदर्श जो संविधान की प्रस्तावना में इंगित हैं वे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को स्थापित करते हैं। उनके धर्म में समाहित सामाजिक आदर्श इससे इंकार करते हैं।
अम्बेडकर के बाद दलित राजनीति और आंदोलनों में उनकी सामाजिक विचारधारा की अवहेलना इस कदर की गयी है कि आज दलित आंदोलन पथभ्रष्ट हो चुका है. मजदूर वर्ग के नेतृत्व की अम्बेडकर की अवधारणा महज बौद्धिक विमर्श का विषय बनकर रह गया है. दलित और वामपंथी विचारक मजदूर वर्ग के नेतृत्व के प्रश्न पर चुप्पी साधे हुए हैं। शायद इसीलिए अम्बेडकर पहले ही कह गए कि 'मनुष्य नश्वर है, उसी तरह विचार भी नश्वर है. प्रत्येक विचार को प्रचार-प्रसार की जरूरत होती है जैसे किसी पौधे को पानी की, नहीं तो दोनों मुरझा कर मर जाते हैं. '
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