तृणमूल वहीं विफल होने वाली है, जहाँ वामपन्थ एक अंधी गली में फ़ँस गया था
जहाँ तक दिल्ली के प्रदर्शन के दौरान अभद्र व्यवहार की बात है, मैं समझता हूँ कि राज्यपाल को निन्दा करने का पूरा हक़ था। यह बात अलग है कि वे अपनी सीमाओं को लांघकर अप्रासंगिक टिप्पणी करने लगे व घटनाओं के परिप्रेक्ष्य को जाँचने में पूरी तरह से विफल रहे। सीपीआईएम द्वारा उसके विरोध के बाद भी हमें सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी ही देखने को मिली। राजभवन से जारी वक्तव्य में कहा गया कि राज्यपाल महोदय ज़िंदगी भर मार्क्सवाद का अध्ययन करते रहे हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि यहाँ मार्क्सवाद के तथाकथित ज्ञान को वे किस तरीके से अपने पद की गरिमा के सवाल के साथ जोड़ रहे हैं।
लेकिन पश्चिम बंगाल की समस्या कहीं गहरी है और दिल्ली के प्रदर्शनकारी उसे समझने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं। वामपन्थ ने वहाँ दो ऐतिहासिक प्रक्रियायें सम्पन्न की है – भूमि सुधार और पंचायती राज। लेकिन भूमि सुधार के क्षेत्र में भी सीपीएम ने एक अवसरवादी रुख़ अपनाते हुये सिर्फ़ किसानों के बीच ज़मीन बाँटी, भूमिहीन खेत मज़दूरों के सवाल को पूरी तरह से टाल दिया। दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल को औद्योगिकरण की एक क्लासिकीय समस्या से जूझना पड़ रहा है – पुराने उद्योग अब प्रतिस्पर्धी नहीं रह गये थे और सारी दुनिया में देखा जाता है कि ऐसे क्षेत्रों में नये उद्योग मुश्किल से पनपते हैं। इसके अलावा ट्रेड यूनियन का संघर्ष दिला देने वाली राजनीति पर आधारित था और जब उससे उबरने की प्रक्रिया शुरू की गयी तो यूनियन हाथ से निकलते गये और पहले इंटक और फिर तृणमूल ने उन पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया।
एक समस्या राजनीति के तौर तरीकों की भी है। साठ और सत्तर के दशक में जिन जुझारू तरीकों को वामपन्थियों ने अपनाया था और उन्हें राजनीतिक विमर्श में प्रतिष्ठित किया था, आज वे सपाट और बेअसर होने लगे हैं, लेकिन उनके स्थान पर नये तरीके नहीं उभर पाये हैं। लेकिन ममता ने इन तरीकों को हाइजैक करते हुये अपनी राजनीतिक शैली में वामपन्थ के एक विकृत रूप को सामने लाया है, जो कम से कम तात्कालिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हो रहा है। वामपन्थी आंदोलन को इस स्थिति से निपटना है, उसे ख़्याल रखना है कि इस वक्त वहाँ सिर्फ़ भद्रलोक ही राजनीतिक संस्कृति के ह्रास से बेचैन है, हालाँकि वह पिछले 35 सालों में भी बहुत अधिक संतुष्ट नहीं रहा है। हाशिये के समुदायों पर ममता की पकड़ बनी हुयी है, बल्कि मज़बूत हुयी है।
ऑपरेशन बर्गा के तहत हिस्सेदारी मे खेती करने वालों को ज़मीन मिली, लेकिन मज़दूरी पर काम करने वाले खेत मज़दूरों के वेतन, काम के अधिकार व उसकी शर्तों के सवाल को बिल्कुल टाल दिया गया। वामपन्थियों, ख़ासकर सीपीएम को डर था कि छोटे किसानों का जो वर्ग उसके साथ आया है, वह दूर हो जायेगा। जहाँ तक मुझे मालूम है पश्चिम बंगाल में सीपीएम के नेतृत्व में अलग से कोई खेत मज़दूर संगठन नहीं है। ध्यान देने लायक बात है कि सिंगुर में ममता के नेतृत्व में जाने वालों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा भूमिहीन खेत मज़दूरों का था, जिन्हें मुआवज़ों का फ़ायदा नहीं मिलने वाला था।
तृणमूल काँग्रेस वहीं विफल होने वाली है, जहाँ वामपन्थ एक अंधी गली में फ़ँस गया था – रोज़गार के मौके कैसे तैयार किये जायं, कैसे विकास की एक वैकल्पिक परिकल्पना बने। वामपन्थ से जिस अनुशासन और समझ की (अक्सर पूरी न होने वाली) उम्मीद थी, ममता की अवसरवादिता में उसकी दूर-दूर तक कोई गुंजाइश नहीं है। पश्चिम बंगाल के लिये आने वाले वर्ष पतनोन्मुखता के मुश्किल वर्ष होने जा रहे हैं, लेकिन उसमें निहित सवाल सारे भारते में विकास के सामाजिक पक्षों से जुड़े हुये बुनियादी सवाल हैं। इस पूरी चर्चा में अल्पसंख्यक समुदाय व पिछड़े व दलित वर्ग के ऐतिहासिक सवालों को शामिल किये बिना भी यह बात कही जा सकती है।
1998 में (उस वक्त) काँग्रेस के नेता सोमेन मित्रा से मेरी बात हो रही थी। जानकार लोगों के लिये उनकी पृष्ठभूमि अज्ञात नहीं है, युवकों का एक काफ़ी बड़ा जमावड़ा हमेशा उनके पीछे रहा है। बहरहाल, राजनीति के अपराधीकरण पर बात होने लगी और ज़ाहिर है कि उन्होंने सारा दोष सीपीआईएम के मत्थे मढ़ दिया। मैंने उनसे कहा – हमेशा ऐसा देखने में आया है किअपराधी तत्व सत्तारूढ़ दलों की ओर खिंचते हैं और किसी भी दल को उनसे स्थायी रूप से कोई लाभ नहीं होता है। क्या सभी राजनीतिक दलों के बीच इस बात पर सहमति नहीं हो सकती है कि इन तत्वों को शह नहीं दी जाएगी ? दलों के बीच ताकत का समीकरण उस हालत में नहीं बदलेगा।
घुमा-फिराकर जवाब देते हुये वे मेरा सवाल टाल गये। लेकिन बाद में मुझे लगा कि ऐसी सहमति सम्भव नहीं है, क्योंकिअपराधी तत्वों का उभरना और राजनीति में उनकी शिरकत एक सामाजिक समस्या है। किसी हद तक यह भद्रलोक और हाशिये के बीच रिश्तों की भी समस्या है, हॉबस्बॉम जिसे प्री-पोलिटिकल कहते हैं, राजनीति के जगत में उसके प्रवेश की समस्या है। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि सीपीएम का इन तत्वों पर नियन्त्रण था, वह इन तत्वों का इस्तेमाल करता था। आज ये तत्व तृणमूल पर हावी हो गये हैं, वे खुद राजनीतिक घटनाओं को तय कर रहे हैं।
इसके अलावा नयी बात यह है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में पहली बार सोशल इंजीनियरिंग के नुस्खे का प्रयोग किया जा रहा है। दीर्घकालीन रूप से जाति का आयाम एक अनिवार्य और ज़रूरी विकास होगा। लेकिन स्वल्पकालीन तौर पर एक लम्बे समय के बाद साम्प्रदायिक राजनीति प्रासंगिक होने जा रही है, क्योंकि एक सस्ते व ख़तरनाक़ ढंग से सबसे दकियानूसी हिस्सों को प्रोत्साहित करते हुये सोशल इंजीनियरिंग का इस्तेमाल किया जा रहा है।
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