क्रूरता की औपनिवेशिक मानसिकता
तेरह अप्रैल- जलियांवाला बाग कांड पर विशेष
एक आंकड़े के मुताबिक 2001 से 2010 तक पुलिस हिरासत में लगभग 14,231 लोगों की मौत हुई हैं. सैकडों लोग हर साल फर्जी पुलिस मुठभेड़ में मार गिराए जाते हैं. हाल ही में 31 साल पुराने फर्जी पुलिस मुठभेड़ मामले में 3 पुलिसकर्मियों को फांसी और कइयों को उम्रकैद की सजा हुई है...
अरविन्द जयतिलक
तेरह अप्रैल 1919 वैशाखी का वह काला दिन शायद ही भुलाया जा सकेगा, जब पंजाब के जलियांवाला बाग में ब्रितानी हुकूमत के काले कानून के खिलाफ इकठ्ठा लोगों के सीने में 303 नम्बर की 1650 गोलियां उतार दी गयी. 10 मिनट तक चली अंधाधुंध फायरिंग में 1000 से अधिक लोग मारे गए और 1100 से अधिक लोग घायल हुए.
पिछले दिनों भारत यात्रा पर आए ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने भी स्वीकार किया कि यह नरसंहार ब्रिटिश इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना है. उल्लेखनीय है कि 1919 में ब्रितानी हुकूमत ने रौलट एक्ट पारित किया, जिसका मकसद भारतीय जन असंतोष को दबाना था. नतीजतन विरोध का बवंडर खड़ा हो गया. सत्याग्रही नेता सैफुदीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी के बाद पंजाब का जनमानस भड़क गया और 20 हजार लोग जलियांवाला बाग में इकठ्ठा हो गए.
गौरतलब है कि ब्रिगेडियर जनरल रेगीनाल्ड ईएच डायर ने तब प्रदर्शनों पर रोक लगायी हुई थी. इकठ्ठी भीड़ देख जनरल माइकल ओ डायर भड़क उठा. नृशंस भाव से अपने सैनिकों को निहत्थी जनता पर गोली चलाने का आदेश दे दिया. पुलिसिया कत्लेआम से मानवता सिहर उठी. भारतीय सदस्य शंकर नायर ने वायसराय की कार्यकारिणी परिषद से इस्तीफा दे दिया और रविन्द्र नाथ टैगोर ने 'सर' की उपाधि लौटा दी.
मौजू सवाल यह है कि 94 साल बाद क्या देश का पुलिसिया तंत्र ब्रितानी औपनिवेशिक मानसिकता के केंचुल से बाहर आ पाया है. क्या भारत की मौजूदा सरकारें तत्कालीन ब्रितानी सरकार से इतर अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील हैं? भरोसे के साथ कहना कठिन है. पिछले दिनों ही देश की सर्वोच्च अदालत ने पंजाब के तरनतारन और बिहार के पटना में महिलाओं और संविदा शिक्षकों पर ढाए गए जुल्म की तुलना जलियांवाला बाग कांड से की. निहत्थे लोगों के साथ क्रूरतापूर्ण आचरण को जानवरों जैसा बताया.
यह कम खौफनाक नहीं है कि राज्य मानवाधिकार आयोग को जितनी भी शिकायतें मिल रही है उनमें अधिकांश पुलिसिया क्रूरता से जुड़ीं हैं. आयोग के पास पुलिस अभिरक्षा में मारे जा रहे लोगों से संबंधित हर दिन हजारों शिकायतें मिल रही हैं. लेकिन विडंबना है कि केंद्र व राज्य की सरकारें इसे गंभीरता से लेने और पुलिसिया तंत्र को मानवीय बनाने के लिए तैयार नहीं हैं. सर्वोच्च अदालत एक अरसे से 1861 के भारतीय पुलिस कानून में बदलाव के निर्देश दे रही है, लेकिन सरकारें उदासीन हैं.
विधि आयोग, रिवेरियो कमेटी, पदमनाभैया कमेटी, मलिमथ कमेटी तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी समय-समय पर पुलिस सुधार के उपाए सुझाव, लेकिन सभी सुझाव कूड़ेदान के हिस्सा बने. सितंबर, 2006 में न्यायमूर्ति वाई के सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस सुधार के आदेश जारी किए, लेकिन सात साल गुजर जाने के बाद भी इस पर कान नहीं दिया गया. ऐसा क्यों हो रहा है यह समझना कठिन नहीं है.
दरअसल सत्ताधीशों को अच्छी तरह पता है कि पुलिस सुधार लागू होने से पुलिसिया तंत्र उनके हाथ की कठपुतली नहीं रह जाएगा. लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने का अधिकार छिन जाएगा. धरना, प्रदर्शन, सत्याग्रह और आंदोलन लोकतंत्र के प्राण हैं. देश आजादी की लड़ाई के दिनों से ही इसे आजमाता रहा है, लेकिन सरकारें इसे बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं. लोकमानस जब भी जनविरोधी नीतियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करता है, सरकार की पुलिसिया जमात उन पर जानवरों की तरह टूट पड़ती है.
एक आंकड़े के मुताबिक 2001 से 2010 तक पुलिस हिरासत में लगभग 14,231 लोगों की मौत हुई हैं. सैकडों लोग हर साल फर्जी पुलिस मुठभेड़ में मार गिराए जाते हैं. हाल ही में 31 साल पुराने फर्जी पुलिस मुठभेड़ मामले में 3 पुलिसकर्मियों को फांसी और कइयों को उम्रकैद की सजा हुई है. सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर भारतीय पुलिस इतनी आक्रामक क्यों है, इसके लिए जिम्मेदार कौन है. कहना गलत नहीं होगा कि पुलिस के आक्रमणकारी चरित्र को गढ़ने के लिए सरकारें जिम्मेदार है.
देश के सत्ताधारियों ने पुलिसिया तंत्र को अपने प्रति केंद्रित कर रखा है और वे अपनी जवाबदेही भूल गए हैं. सत्ता के इशारे पर वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. मजे की बात यह है कि इस जमात को सत्ता प्रतिष्ठान पुरस्कृत भी कर रहा है. यह देश व समाज के लिए बेहद खतरनाक है. यह सिलसिला तभी खत्म होगा, जब पुलिस व्यवस्था में आमूलचुल परिवर्तन होगा. लेकिन ऐसा हो सकेगा, इसमें संदेह है. इसलिए कि सरकारें पुलिस तंत्र में सुधार के लिए तैयार नहीं है.
सरकारें कतई नहीं चाहतीं कि पुलिस का चेहरा मानवीय और उदार बने. अपराध सिद्ध होने पर भी सरकारें अपनी पुलिसिया जमात को उसी घिनौन तरीके से बचा रही हैं, जिस तरह ब्रितानी हुकूमत ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए जिम्मेदार डायर का बचाव किया था. तत्कालीन भारतीय सचिव मांटेग्यू ने जनरल डायर को बचाते हुए कहा था कि 'जनरल डायर ने जैसा उचित समझा उसके अनुसार बिल्कुल नेकनीयती के साथ कार्य किया.'
बचाव की इस काली संस्कृति ने पुलिस की आक्रामकता और निरंकुशता को चरम पर पहुंचा दिया है. औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त भारतीय सरकार जब तक अपनी अधिनायकवादी संस्कृति का स्वयं परित्याग नहीं करेगी तब तक पुलिस का औपनिवेषिक और खौफनाक चेहरा उदार नहीं बनेगा. समझना होगा कि स्वतंत्रता आन्दोलन का उद्देश्य सिर्फ लोकतंत्र की बहाली और स्वयं का शासन नहीं था. बल्कि उसका उउद्देश्य जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना भी था.
सेवा के बजाए शासन की घातक प्रवृत्ति ने पवित्र उद्देश्य को नष्ट कर दिया है. इक्कीसवीं सदीं का एक दशक पूरा हो चुका है. रोज विकास की नई इबारत लिखी जा रही है, लेकिन पता नहीं क्यों देश की सरकारें ब्रितानी औपनिवेषिक का खोल उतारने को तैयार नहीं हैं. यह आचरण जलियांवाला बाग में शहीद हुए देशभक्तों की भावना के साथ क्रूर मजाक है. उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी, जब सरकारें निरंकुशता का परित्याग कर अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील होंगी.
अरविन्द जयतिलक टिप्पणीकार हैं.
http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-02/71-movement/3904-2013-04-13-03-45-00
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