'कोल कर्स' में दिखेगा कोयले का अभिशाप
ऊर्जा के लिए कोयले पर निर्भरता पर सवाल उठाती फिल्म
सिंगरौली एक तरफ तो भारत में बिजली उत्पादन का केंद्र है, वहीं दूसरी ओर खोयला खनन के चलते यहां विस्थापन, बर्बादी और निराशा की कहानियां मौजूद हैं. यहाँ से देश के बड़े शहरों में बिजली की आपूर्ति की जाती है, दिल्ली जैसे शहर को 15 फीसदी बिजली यहीं से मिलती है...
अप्रैल का महीना आते ही देशभर में बिजली का भीषण संकट शुरू हो जाता है. ऊर्जा संकट के ऐसे ही वक्त में सामाजिक सरोकारों के लिए मशहूर पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने नई दिल्ली में अपनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म "कोल कर्स" को प्रदर्शित किया. इस फिल्म के जरिए एक बार फिर सवाल उठा है कि भारत कब तक अपनी ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए कोयले पर निर्भर रहेगा.
तैंतालीस मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म में मौजूदा समय के भारत में कोयले से जुड़ी राजनीति और अर्थव्यवस्था को दर्शाया गया है. फिल्म का उद्देश्य इस कारोबार से जुड़े भ्रष्टाचार के पहलुओं को सामने लाना है. कोलगेट स्कैम के दौरान देश की जनता इसे पहले देख चुकी है, लेकिन निर्देशक इसकी हकीकत को जानने के लिए भारत के मध्य क्षेत्र स्थित सिंगरौली इलाके में चल रहे कोयला खनन उद्योग की पड़ताल बारीकी से करते हैं.
फिल्म में उस विरोधाभास को दर्शाया गया है जिसके मुताबिक सिंगरौली एक तरफ तो भारत में बिजली उत्पादन का केंद्र है, वहीं दूसरी ओर कोयला खनन के चलते यहां विस्थापन, बर्बादी और निराशा की कहानियां मौजूद हैं. सिंगरौली से देश के बड़े शहरों में बिजली की आपूर्ति की जाती है, दिल्ली जैसे शहर को 15 फीसदी बिजली यहीं से मिलती है.
फिल्म प्रदर्शन के दौरान प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने कहा, 'कोयला अर्थव्यवस्था को चलाने में आधार की तरह काम करता है, लेकिन इसके लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. सिंगरौली में कोयला खनन का विपरीत असर आम लोगों के जीवन पर दिख रहा है, ख़ासकर स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोगों को जितना नुकसान हुआ है, उसकी कभी पूर्ति नहीं की जा सकती. भारत के विकास के रास्तों के चलते आमलोगों को कितना नुकसान उठाना पड़ा है, इसका आज का सिंगरौली प्रतिमान बन गया है.'
फिल्म प्रदर्शन के बाद भारत में मौजूदा ऊर्जा संकट के मुद्दे पर एक पैनल परिचर्चा का आयोजन भी रखा गया. इस परिचर्चा का संचालन प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने किया, जिसमें ऊर्जा, राजनीतिक और सिविल सोसायटी से जुड़े विशेषज्ञ शामिल हुए. इस परिचर्चा में भी कोयला खनन मामले से जुड़े भ्रष्टाचार का मुद्दा उभरकर सामने आया. इसके अलावा यह सवाल भी उठा कि क्या देश की ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पागलपन की हद तक जारी कोयला खनन ही सबसे बेहतर उपाय है.
कोलगेट स्कैम को सामने लाने में अहम भूमिका निभाने वाले कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव पीसी पारेख भी इस परिचर्चा में शामिल हुए. उन्होंने कहा, 'जब मैं कोयला मंत्रालय में सचिव था, तब मैंने कोयला ब्लॉक के आवंटन के लिए एक पारदर्शी नीलामी व्यवस्था का प्रस्ताव रखा था. इस प्रस्ताव को प्रधानमंत्री ने जिनके पास कोयला मंत्रालय का भी प्रभार था, इसे स्वीकृति दे दी थी. लेकिन तत्कालीन दो कोयला राज्य मंत्री राव और शिबू सोरेन इसके पक्ष में नहीं थे. सोरेन तो बाद में केंद्रीय कोयला बने. इन लोगों ने इस प्रस्ताव को लेकर टालमटोल वाला रवैया अपनाया. मेरे विचार से नीलामी की प्रक्रिया को तब तक वैसे ही रखा गया जब तक अच्छे ब्लॉक का आवंटन नहीं होगा. नीलामी की प्रक्रिया के जरिए देने के लिए कोई ब्लॉक बचा ही नहीं.'
ऊर्जा की समस्या के समाधान के मसले पर भी पैनल में चर्चा हुई, जिसमें यह तथ्य उभरकर सामने आया कि अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के नजरिए से सबसे बड़ी बाधा नीतिगत खामियां हैं. यह कोई तकनीकी समस्या नहीं है. इस परिचर्चा में ऊर्जा के क्षेत्र में दक्षता हासिल करने पर कोयला की मांग घटने की संभवनाओं को तलाशने को लेकर सरकार की उदासीनता पर भी चर्चा हुई.
ग्रीनपीस इंडिया की पर्यावरण और ऊर्जा क्षेत्र की कैंपेनर अरूंधति मुथू ने कहा, 'देश उस मुकाम पर आ पहुंचा है जहां से उसे यह तय करना होगा कि वह किस तरह की ऊर्जा के लिए निवेश करना चाहता है. सस्ते कोयला का युग अब बीत चुका है. अक्षय ऊर्जा की कीमतों में कमी आ रही है और कोयले की कीमत लगातार बढ़ रही है. दोनों में अंतर तेजी से बढ़ रहा है. ऊर्जा सुरक्षा और ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता ऊर्जा के अक्षय स्त्रोतों से हासिल होगी. कोयला खनन के बदले में जिस तरह की तबाही देखने को मिल रही है, उसमें अक्षय ऊर्जा का स्त्रोत ही बेहतर विकल्प होगा.'
'कोल कर्स' फिल्म को ग्रीनपीस की मदद से बनाया गया है. आने वाले दिनों में इसका प्रदर्शन दूसरे शहरों में किया जाएगा.
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