ज़िन्दगी परेशान है गुजरात और महाराष्ट्र में सूखे के आतंक से…
पश्चिमी भारत में सूखे से त्राहि-त्राहि मची हुयी है। महाराष्ट्र और गुजरात के बड़े इलाके में पानी की भारी किल्लत है, कपास का किसान सबसे ज्यादा परेशान है। महाराष्ट्र और गुजरात में कैश क्रॉप वाले किसान बहुत भारी मुसीबत में हैं। अजीब बात है कि इन दोनों राज्यों के आला राजनीतिक नेता कुछ और ही राग अलाप रहे हैं। गुजरात के मुख्यमन्त्री दिल्ली और कोलकता में धन्नासेठों के सामने गुजरात मॉडल के विकास को मुक्तिदाता के रूप में पेश कर रहे हैं जबकि महाराष्ट्र के उपमुख्यमन्त्री बाँधों में पानी की कमी को पेशाब करके पूरा करने की धमकी दे रहे हैं। इस बीच इन दो राज्यों में आम आदमी की समझ में नहीं आ रहा है कि वह ज़िन्दगी कैसे बिताये।
उपभोक्तावाद के चक्कर में इन राज्यों में बड़ी संख्या में किसान कैश क्रॉप की तरफ मुड़ चुके हैं। कैश क्रॉप में आर्थिक फायदा तो होता है लेकिन लागत भी लगती है। अच्छे फायदे के चक्कर में किसानों ने सपने देखे थे और कर्ज लेकर लागत लगा दी। जब सब कुछ तबाह हो गया और कर्ज वापस न कर पाने की स्थिति आ गयी तो मुश्किल आ गयी। ख़बरें हैं कि किसानों की आत्महत्या करना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र का सूखा तो तीसरे सीज़न में पहुँच गया है। योजना बनाने वालों ने ऐसी बहुत सारी योजनाएं बनायीं जिनको अगर लागू कर दिया गया होता तो आज हालत इतनी खराब न होती लेकिन जिन लोगों के ऊपर उन योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी थी वे भ्रष्टाचार के रास्ते सब कुछ डकार गये। आज हालत यह है कि किसान असहाय खड़ा है। महाराष्ट्र में सरकार ने पिछले 12 वर्षों में 700 अरब रूपये पानी की व्यवस्था पर खर्च किया है लेकिन राज्य के दो तिहाई हिस्से में लोग आज भी बारिश के पानी के सहारे ज़िन्दा रहने और खेती करने को मजबूर हैं। महारष्ट्र सरकार के बड़े अफसरों ने खुद स्वीकार किया है कि हालात बहुत ही खराब हैं। मराठवाड़ा क्षेत्र में स्थिति बहुत चिन्ताजनक है। बाकी राज्य में भी पानी के टैंकरों की मदद से हालात संभालने की कोशिश की जा रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कहीं कोई भी चैन से रह रहा है। केन्द्रीय कृषि मन्त्री शरद पवार इसी क्षेत्र के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि बहुत सारे बाँध और जलाशय सूख गये हैं। कुछ गाँव तो ऐसे हैं जहाँ हफ्ते में एक बार ही पानी का टैंकर पहुँचता है। सरकारी अफसर अपनी स्टाइल में आँकड़ों के आधार पर बात करते पाये जा रहे हैं। जहाँ पूरे ग्रामीण महाराष्ट्र इलाके में चारों तरफ पानी के लिये हर तरह की मुसीबतें पैदा हो चुकी हैं, वहीं सरकारी अमले की मानें तो राज्य के 35 जिलों में से केवल 13 जिलों में सूखे की स्थिति है। 40 साल पहले महाराष्ट्र में इस तरह का सूखा आया था और इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा उसी सूखे की भेंट चढ़ गया था। कहीं कोई गरीबी नहीं हटी थी और ग्रामीण भारत से भाग कर लोग शहरों में मजदूरी करने के लिये मजबूर हो गये थे। नतीजा यह हुआ था कि गाँवों में तो लगभग सब कुछ उजड़ गया था और शहरों में बहुत सारे लोग फुटपाथों और झोपड़ियों में रहने को मजबूर हो गये थे। देश के बड़े शहरों में 1972 के बाद से गरीब आदमी का जो रेला आना शुरू हुआ वह रुकने का नाम नहीं ले रहा है।
जो लोग भी हालात से वाकिफ हैं उनका कहना है कि सिंचाई की जो परियोजनायें शुरू की गयी थीं अगर वे समय पर पूरी कर ली गयी होतीं तो सूखे के आतंक को झेल रहे इलाको की संख्या आधे से भी कम हो गयी होती। पिछले साल कुछ गैर सरकारी संगठनों ने राज्य सरकार के मन्त्रियों के भ्रष्टाचार का भण्डाफोड किया था और बताया था कि राज्य के मन्त्री अजीत पवार ने भारी हेराफेरी की थी। उनको उसी चक्कर में सरकार से इस्तीफ़ा भी देना पड़ा था लेकिन जब बात चर्चा में नहीं रही तो फिर सरकार में वापस शामिल हो गये थे। अभी पिछले दिनों उनका एक बयान आया है जो कि सूखा पीड़ित लोगों का अपमान करता है और किसी भी राजनेता के लिये बहुत ही घटिया बयान माना जायेगा। खबर है कि केन्द्र सरकार ने इस साल महारष्ट्र सरकार को 12 अरब रुपये की रकम सूखे की हालत को काबू करने के लिये दी है। केन्द्र सरकार ने यह भी कहा है कि जिन किसानों की फसलें बर्बाद हो गयी हैं उनको उसका मुआवजा दिया जायेगा। इसके लिये कोई रकम या सीमा तय नहीं की गयी है। सरकार का कहना है कि जो भी खर्च होगा वह दिया जायेगा। देश में चारों तरफ सूखे और किसानों की आत्महत्या के विषय पर गम्भीर काम कर रहे पत्रकार पी साईनाथ ने कहा है कि जब भी भयानक सूखा पड़ता है तो सरकारी अफसरों, ठेकेदारों और राजनीतिक नेताओं की आमदनी का एक और ज़रिया बढ़ जाता है। साईनाथ ने तो इसी विषय पर बहुत पहले एक किताब भी लिख दी थी और दावा किया था कि सभी लोग एक अच्छे सूखे से खुश हो जाते हैं।महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों से लौट कर आने वाले सभी पत्रकारों ने बताया कि अगर भ्रष्टाचार इस स्तर पर न होता तो इस साल के सूखे से आसानी से लड़ा जा सकता था। सरकार ने अपने ही आर्थिक सर्वे में यह बात स्वीकार किया है कि 1999 और 2011 के बीच राज्य में सिंचित क्षेत्र में शून्य दशमलव एक ( 0.1 ) प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। इस बात को समझने के लिये इसी कालखंड में हुये 700 अरब रूपये के खर्च पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। इसका भावार्थ यह हुआ कि ७०० अरब रूपये खर्च करके सिंचाई की स्थिति में कोई भी बढोतरी नहीं हुयी। पूरे देश में सिंचित क्षेत्र का राष्ट्रीय औसत 45 प्रतिशत है जब कि महाराष्ट्र में यह केवल 18 प्रतिशत है। यानी अगर पिछले 12 साल में जो 700 अरब रूपये पानी के मद में राज्य सरकार को मिले थे उसका अगर सही इस्तेमाल किया गया होता, भ्रष्टाचार का आतंक न फैलाया गया होता तो हालात आज जैसे तो बिलकुल न होते। आज तो हालत यह हैं कि पिछली फसल तो तबाह हो ही चुकी है इस बार भी गन्ने की खेती शुरू नहीं हो पा रही है क्योंकि उसको लगाने के लिये पानी की ज़रूरत होती है।
गुजरात के सूखे की हालत भी महाराष्ट्र जैसी ही है। वहाँ पीने के पाने के लिये मीलों जाना पड़ता है तब जाकर कहीं पानी मिलता है। सौराष्ट्र और कच्छ में करीब 250 बाँध ऐसे हैं जो पूरी तरह से सूख चुके हैं। करीब 4000 गाँव और करीब 100 छोटे बड़े शहर सूखे की चपेट में हैं। सौराष्ट्र, कच्छ और उत्तर गुजरात में पानी के लिये त्राहि-त्राहि मची हुयी है। राज्य की ताक़तवर मन्त्री आनंदीबेन पटेल ने स्वीकार किया है कि राज्य के 26 जिलों में से 10 जिले भयानक सूखे के शिकार हैं। राज्य के 3918 गाँव पानी की किल्लत झेल रहे हैं। इस सबके बावजूद गुजरात सरकार के लिये कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। जब यह सारी जानकारी मीडिया में आ गयी तो सरकार ने दावा किया है कि वन विभाग को कह दिया गया है कि वह लोगों को सस्ते दाम पर जानवरों के लिये चारा देगा और टैंकरों से लोगों को पानी दिया जायेगा। गुजरात सरकार की बात को सूखे से प्रभावित लोग मानने को तैयार नहीं हैं। उनका आरोप है कि गुजरात के मुख्यमन्त्री जिस गुजरात मॉडल के विकास की तारीफ़ करते घूम रहे हैं, वह और भी तकलीफ देता है क्योंकि गुजरात में किसानों के हित की अनदेखी करके या उनके अधिकार को छीनकर मुख्यमन्त्री के उद्योगपति मित्रों को मनमानी करने का मौक़ा दिया गया है और किसान आज सूखे को झेलने के लिये अभिशप्त है।गुजरात में सूखे से लड़ रहे लोगों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं को कांग्रेस से भी बहुत शिकायत है। उनका कहना है कि अगर उन्होंने अपने मंचों से गुजरात के सूखा पीड़ित लोगों की तकलीफों का उल्लेख किया होता तो आज हालत ऐसी न होती। महाराष्ट्र की तरह गुजरात के सूखा पीड़ित इलाकों में कुछ क्षेत्रों में हफ्ते में एक दिन पानी का टैंकर आता है। सौराष्ट्र के अमरेली कस्बे में 15 दिन के बाद एक घंटे के लिये पानी की सप्लाई आती है जबकि भावनगर जिले के कुछ कस्बे ऐसे हैं जहाँ 20 दिन बाद पानी आता है।सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात से ग्रामीण लोगों में भगदड़ शुरू हो चुकी है किसान सब कुछ छोड़कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं।
महाराष्ट्र और गुजरात की हालत देखने से साफ़ लगता है कि प्रकृति की आपदा से लड़ने के लिये अपना देश बिलकुल तैयार नहीं है और मीडिया का इस्तेमाल करके वे नेता अभी देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। यह अलग बात है कि इन दोनों ही राज्यों में सूखे से दिन रात जूझ रहे लोगों में मीडिया की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं।
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