Saturday, 13 April 2013 11:39 |
विद्या जैन तीसरा और सबसे अहम पक्ष है करुणा, जिसके माध्यम से समाज में प्रेम, सौहार्द और सहानुभूति का परिवेश तैयार किया जा सकता है। इसी में सुरक्षा, समानता और स्वतंत्रता के बीज निहित हैं, क्योंकि यह उस सामंतवादी व्यवस्था की पुरानी संरचनाओं को भी बदल सकती है, जो पितृसत्ता के आधार स्तंभ हैं। पति, परिवार और पितृसत्ता की बंदिशों से बाहर आने के लिए औरत को करुणा के अहिंसक हथियार का प्रयोग करना चाहिए। यही पाश्चात्य स्त्रीवाद से अलग धारणा भारत में सामाजिक परिवर्तन को संभव बना सकती है। यह समझना आवश्यक है कि करुणा कायरों की जीवन पद्धति का हिस्सा न होकर बहादुरों का हथियार है और इसकी सफलता के प्रमाण भारतीय मुक्ति संग्राम में देखे जा सकते हैं। इसके माध्यम से स्त्री को वैश्वीकरण के दौरान उपजी बंदिशों से भी मुक्ति मिल सकती है, क्योंकि बाजार जहां सुंदरता के व्यक्तिगत और दिखावटी पैमाने रच रहा है, वहां उसे सुंदरता की सामूहिक पहचान और समरसता से मात दी जा सकती है। वैश्वीकरण की अन्य संरचना मीडिया भी महिलाओं को लेकर जिस तरह के उत्पाद प्रस्तुत कर रहा है, उनके प्रसार का सबसे बड़ा कारण बढ़ती हुई 'एकांतता' है। क्योंकि लोग समाज के बीच रहते हुए भी स्वयं को निहायत असहाय और अकेला महसूस करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें मानसिक रूप से संचार के साधनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जबकि करुणा से प्रेम और सामूहिकता का प्रसार होगा तो लोगों का सामाजिकीकरण वैश्वीकरण की शर्तों पर न होकर स्थानीयता की जरूरतों पर होने लगेगा। इससे स्त्रियों की मीडिया पर निर्भरता कम होकर समाज में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने की संभावनाएं अधिक होंगी और सामाजिक लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा। वैश्वीकरण ने जिस तरह से राजनीतिक लोकतंत्र को केंद्रीकृत कर दिया है, उससे आर्थिक असमानताओं के विस्तार के साथ-साथ स्त्री की अस्मिता कहीं गुम हो गई है। गांधी जब राजनीतिक लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण पर बल दे रहे थे, तो उनका उद्देश्य संपूर्ण समाज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक उन्नति था। इसी वजह से स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए इन तीनों ही क्षेत्रों में सत्ता को विकेंद्रीकृत करना होगा। सामाजिक सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए पितृसत्तात्मक मूल्यों का अंत करना अनिवार्य है, जबकि राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए चेतना का प्रसार आवश्यक माना जाता है। चेतना का प्रसार भी करुणामय तरीकों से संभव है, न कि बल प्रयोग से। इसे स्वतंत्र भारत के उन प्रयोगों से आसानी से समझा जा सकता है जिनमें रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए समाज में व्यापक चेतना का प्रसार हुआ। सूचनाधिकार की पूरी मुहिम इसके लिए एक बेहतर उदाहरण है, क्योंकि इसमें करुणा प्रधान साधनों से लोगों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया गया। यह प्रयोग राजनीतिक विकेंद्रीकरण के क्षेत्र में सफल होकर लोगों को व्यापक पैमाने पर लोकतंत्र में भागीदार बनाने में सक्षम रहा। ऐसे ही प्रयोग स्त्री विमर्श को आगे बढ़ा सकते हैं, बाजारवाद और पितृसत्तात्मक मानसिकता, दोनों से छुटकारा दिला सकते हैं। सामाजिक संरचनाओं को विखंडित करने से पहले नवीन संरचनाओं का ताना-बाना बुनना जरूरी हो जाता है, तभी पूरे समाज के जकडेÞ हुए सोच को एक समतामूलक चेतना की ओर अग्रसर किया जा सकता है। स्त्री को सामंतवाद और वैश्वीकरण की संरचनाओं से आगे जाने के लिए ऐसे सपने तलाशने होंगे जो उसके अपने हों और संपूर्ण समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए समानता के लक्ष्य की तरफ ले जाते हों। वरना हम अपने-अपने विचारों की कुंठाओं में कैद होकर किसी घटना विशेष के समय आक्रोश जाहिर करने की भूमिका मात्र से संतोष करते रहेंगे। ऐसे समाज का रास्ता कत्ल और कानून से होकर नहीं गुजरता, वह तो करुणा की विराट संकल्पना से ही हासिल किया जा सकता है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42361-2013-04-13-06-10-05 |
Saturday, April 13, 2013
कत्ल, कानून और करुणा
कत्ल, कानून और करुणा
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