Follow palashbiswaskl on Twitter

ArundhatiRay speaks

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Saturday, April 13, 2013

साहित्य, सत्ता और भ्रष्टाचार

दिल्ली मेल : साहित्य, सत्ता और भ्रष्टाचार

sunil-gangopadhyay-and-tasleema-nasreen-controversyसाहित्य अकादेमी के अध्यक्ष और बंगला लेखक सुनील गंगोपाध्याय के आकस्मिक निधन ने उनके और तस्लीमा नसरीन के बीच के विवाद को यद्यपि कुछ हद तक पृष्ठभूमि में धकेल दिया है पर पिछले तीन महीने से चल रहे इस विवाद ने गंगोपाध्याय की छवि को धूमिल करने में कसर नहीं छोड़ी। इस विवाद ने सार्वजनिक जीवन, सार्वजनिक मर्यादा और निजी आचरण से जुड़े कई सवालों को उठाया है। यह इस बात को भी बतलाता है कि किस तरह से सत्ता से जुड़े लेखक और रचनाकार साहित्य-संस्कृति की संस्थाओं पर कब्जा करते हैं और फिर उन का इस्तेमाल स्वयं को आगे बढ़ाने से लेकर अपनी यौन स्वेच्छाचारिता की तुष्टि के लिए करते हैं। सुनील गंगोपाध्याय ने जिस तरह से केंद्रीय साहित्य अकादेमी में पहुंचने के लिए गोपीचंद नारंग जैसे तिकड़मी और साहित्यिक उठाईगीर के साथ मिलकर काम किया उसने इस बहुचर्चित पर महत्त्वाकांक्षी बंगला लेखक की छवि को बिगाड़ा ही। यह नहीं भुलाया जा सकता कि गंगोपाध्याय ने महाश्वेता देवी के खिलाफ नारंग का साथ दिया था। नारंग ने बदले में उन्हें उपाध्यक्ष पद देकर उपकृत किया था। अंतत: वह अध्यक्ष बने। उनका कार्यकाल इस वर्ष समाप्त हो रहा था।

17 सितंबर के आउटलुक में प्रकाशित गंगोपाध्याय के साक्षात्कार के जवाब में पत्रिका ने 15 अक्टूबर के अंक में तस्लीमा नसरीन का साक्षात्कार छापा। यह साक्षात्कार तस्लीमा के विरोध करने पर लिया गया था। इसमें जो बातें कहीं गई हैं वे तस्लीमा के पक्ष को निश्चय ही ज्यादा मजबूती से रखती हैं और गंगोपाध्याय के चरित्र को लेकर रही-सही शंकाएं भी साफ कर देती हैं। तस्लीमा से पूछा गया पहला प्रश्न है:

आपने एक प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार द्वारा अपने यौन उत्पीडऩ के आरोपों को इतने वर्षों तक छिपाए क्यों रखा?

तस्लीमा: "सिर्फ इस बात की जानकारी के कारण कि मेरा मुकाबला किससे है। मैं जानती थी कि मुख्यधारा का मीडिया और वे ताकतवर लोग जिनके साथ सुनील जुड़े हैं, इसमें बंगाल के सबसे बड़े समाचारपत्र घराने का मालिक और तत्कालीन राज्य सरकार भी है, यही नहीं कि मेरी बात छापी ही नहीं जाएगी बल्कि वह यह भी सुनिश्चित करेंगे कि मुझे हर संभव तरीके से परेशान किया जाता रहे।"

कम से कम बंगाल में यह किसी से छिपा नहीं है कि सुनील गंगोपाध्याय वामपंथ के निकट थे और उनके तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ निकट के संबंध थे। इसके अलावा वह उस समाचार संस्थान से निकट से जुड़े थे जो बंगला का सबसे बड़ा अखबार निकालता है और सबसे बड़ा प्रकाशन गृह है।

इस अन्य प्रश्न के उत्तर में कि उनके सुनील गंगोपाध्याय से आपसी स्वीकृति के संबंध थे, तस्लीमा ने कहा:

"जहां तक मेरे संबंधों का सवाल है हमारे बीच किसी तरह के संबंध नहीं थे। सुनील बड़ी उम्र के आदमी हैं, मेरी पिता की उम्र के। मैं उनका सम्मान करती थी। लेकिन उन्होंने मेरे विश्वास के साथ दगा किया और मुझ से यौन संबंध बनाने की कोशिश की…। अपने यौन उत्पीडऩ के बारे में ट्वीट करने के बाद मेरे पास ढेर सारे ईमेल आए जिनमें और लोगों ने भी इसी तरह की शिकायतें की थीं। एक में एक पिता ने लिखा था कि किस तरह से मेरी बेटी जब उनसे मिलने गई तो उन्होंने (सुनील) उसे पकड़ कर चूम लिया था। मैं कई लड़कियों को जानती हूं जो अपनी कविताएं और कहानियां छपवाने के लिए इसको सहती रहीं लेकिन बोलीं नहीं क्योंकि वे जानतीं थीं कि किस तरह से उनकी आवाज को बंद कर दिया जाएगा।"

इस साक्षात्कार में सुनील गंगोपाध्याय पर कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं। जैसे कि तस्लीमा ने कहा है कि "उन्होंने राज्य सरकार में अपने संबंधों का इस्तेमाल कर मेरी किताब को प्रतिबंधित करवाकर मेरी अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की कोशिश की और अंतत: मुझे कोलकाता से बाहर फिंकवा दिया।"

एक और प्रश्न के जवाब में तस्लीमा ने कहा है: "वह मेरी लोकप्रियता से सदा परेशान रहते थे। आनंद पुरस्कार कमेटी में वह अकेले निर्णायक थे जिसने दो बार 1992 और 2000 में मेरा विरोध किया। इसके बावजूद दोनों बार मैं पुरस्कृत हुई। मेरी किताब को 2003 में प्रतिबंधित करवाने के उनकी हरचंद कोशिश के सैकड़ों प्रमाण हैं। सन 2007 में वह गुप्त रूप से मुझ से मिले और मुझ से कहा कि मैं कोलकाता से चली जाऊं।"

पर मसला यहीं नहीं थमा। 29 अक्टूबर के आउटलुक के अंक में, जो कि बाजारों में गंगोपाध्याय के देहांत से तीन दिन पहले ही उपलब्ध हो चुका था, तस्लीमा के साक्षात्कार की प्रतिक्रिया में एक ऐसा धमाकेदार पत्र छपा, जिसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। यह लंबा पत्र किसी बंगला लेखिका का नहीं, बल्कि अंग्रेजी की जानी-मानी कवियत्री और आईआईटी दिल्ली में अंग्रेजी की प्रोफेसर रुक्मणी भाया नायर का था।

तस्लीमा नसरीन के यौन उत्पीडऩ के आरोप के संदर्भ में रुक्मणी ने लिखा : "मैं यह बतलाने के लिए लिख रही हूं कि जब मैं 2008 में साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष श्री सुनील गंगोपाध्याय से एक अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन के संदर्भ में, जिसे मैं आयोजित कर रही थी, मिलने एक शाम आईआईसी (इंडिया इंटरनेशनल सेंटर) गई मेरा अनुभव भी उससे भिन्न नहीं रहा जैसा कि उन्होंने (तस्लीमा) ने लिखा है। यह अपने सम्मेलन के लिए मदद मांगने के लिए 'ऑफिशियल' मुलाकात थी और उनसे इस में प्रमुख वक्ता के रूप में शामिल होने का निवेदन भी करना था। मैं उनसे पहले कभी नहीं मिली थी। लगभग 20 मिनट तक बातचीत करने के बाद जिसमें मुझे लगा कि वह हमारे प्रयत्न का समर्थन कर रहे हैं, मैं जाने के लिए उठी। तभी अचानक श्री गंगोपाध्याय झपटे और मुझे चूम लिया। उनके इस व्यवहार ने मुझे स्तब्ध कर दिया क्योंकि मेरे व्यवहार में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं था जिसका यह संकेत हो कि मैं 'उपलब्ध' हूं। मैं पूरी तरह हिल गई थी। मैंने अपने को खींचा और बाहर हो गई।"

नायर ने कहा है कि "मैं एक लेखक के रूप में गंगोपाध्याय का सम्मान करती हूं। … मुझे यह नहीं लगा कि यह (उनके) व्यवहार का हिस्सा हो चुका है। तस्लीमा नसरीन का साक्षात्कार अब कुछ और ही संकेत देता है। इसके अलावा मेरे मामले में श्री गंगोपाध्याय का व्यवहार पद का दुरुपयोग माना जाएगा। अन्य औरतें जो कम उम्र की, मासूम और छपने के लिए बेताब हों इस संदर्भ में और भी आसान शिकार हैं।"

आउटलुक के इसी अंक में एक और पत्र भी छपा है वह दुर्गापुर की अर्पणा बनर्जी का है। अर्पणा ने जो कहा है वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उनका कहना है कि सुनील गंगोपाध्याय कभी भी कोई बड़े उपन्यासकार नहीं थे। हां उन्होंने कुछ अच्छी कविताएं जरूर लिखी हैं। अब तो वह गंभीर कूड़ा लिख रहे हैं। इसे विशेषकर देश के पूजा विशेषांक में प्रकाशित उन की रचनाओं से जाना जा सकता है। उनका पश्चिम बंगाल के साहित्यिक समाज पर नियंत्रण वामपंथी सरकार के कारण रहा है। अर्पणा ने जो सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात कही है वह यह कि "मुझे तस्लीमा के आरोपों को सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ है।"

आश्चर्य यह है कि क्या कोलकाता में रहते हुए वामपंथी नेता इन सारी बातों से परिचित नहीं होंगे? और क्या उन्होंने गंगोपाध्याय के आचरण को लेकर कभी आपत्ति नहीं की होगी? काश अगर ऐसा किया गया होता तो निश्चय ही उन्हें अपने अंतिम दिनों में इस तरह के आरोपों और अपमान का सामना नहीं करना पड़ता।

उज्ज्वल भविष्य

इस वर्ष के श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान समारोह को लेकर कम से कम राजेंद्र यादव को वह शिकायत नहीं होनी चाहिए (खैर सान्निध्य की जो फीस उन्हें मिली होगी – सुना जाता है वह एक लाख थी – उससे तो शिकायत का सवाल ही नहीं उठता) जो वह साहित्यिक समारोहों को लेकर बार-बार किया करते हैं कि जिस सभा में देखो तिवारी जी, त्रिपाठी जी, शर्मा जी और जोशी जीओं का बोल-बाला नजर आता है। कभी-कभी यह शिकायत साहित्य के सिंहों को लेकर भी रहती है, पर ज्यादा नहीं।

इस आयोजन में, जो लखनऊ में हुआ, अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव और राजेंद्र यादव की गरिमामय उपस्थिति होनी थी। संयोग से मुख्यमंत्री व्यस्तताओं के कारण नहीं आ पाये और उनके स्थान पर शहर के भाजपा मेयर दिनेश शर्मा उपस्थित थे। जोशी लोग इस पर भी अल्पसंख्यक ही रहे। संयोजन वीरेंद्र यादव ने दिया। हमें खुशी है पहली बार ही सही, पर ऐसा हुआ तो। भविष्य उज्ज्वल नजर आ रहा है।

राजेंद्र यादव का लखनऊ के समारोह में उपस्थित उन लोगों के लिए थोड़ा आश्चर्य की बात हो सकती है जो उनकी शारीरिक स्थिति को जानते हैं। सवाल यह भी है कि यादव जी का उर्वरकों से क्या संबंध है? या उस तरह से खेती से ही क्या संबंध है? उनके लेखन में गांव या खेत कहीं नजर आते हैं? सहकारिता आंदोलन से भी उनका दूर-दूर का संबंध नहीं है (वैसे भी वह एकला चलो पीढ़ी या दौर के हैं), तब उन्हें इतना कष्ट देकर लखनऊ ले जाने की क्या जरूरत आन पड़ी थी? वैसे भी नई कहानीवालों का किसान-मजदूर से संबंध जरा दूर का ही रहा है। वहां तो सारे दुख-दर्द मध्यवर्गीयों के हैं। फिर पुरस्कार भी उन्हें नहीं देना था। वह काम अखिलेश को सौंपा हुआ था गो कि इसे निभाया चाचा जी ने।

इस पर भी उनका जाना वाजिब और जरूरी था। इसलिए कि वह उस निर्णायक समिति के अध्यक्ष जो थे जिसने शेखर जोशी को 5,50,000 रु. के इस सम्मान के लिए चुना। आयोजन में किसे बुलाया जाना चाहिए था और किसे नहीं यह तो आयोजकों ने तय किया था। और यह महज संयोग ही है कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव मंत्री मंडल के वरिष्ठ सदस्य हैं। इसलिए यह कैसे कहा जा सकता है कि पांच सौ किलो मीटर दूरी की यह कठिन या आसान, जो भी समझें, यात्रा मात्र जातीय एकजुटता के कारण की गई। अखिलेश यादव को तो आशीर्वाद राजेंद्र जी हंस के संपादकीयों में दे ही चुके हैं।

यूं तो आपत्ति इस बात पर भी हो सकती है कि आखिर यह आयोजन लखनऊ में ही क्यों किया गया? पर यह महज संयोग नहीं है। कोई मूर्ख ही इस बात से अपरिचित होगा कि नवाबों की यह नगरी ही श्रीलाल शुक्ल की कर्मभूमि है और यहीं उनका गत वर्ष देहांत हुआ था।

अगर संयोग और औचित्य व्यावहारिकता बन जाए तो किसी भी तरह का छिद्रानवेषण निंदनीय हो जाता है। जो भी हो खुशी की बात यह है कि अगली बार से पुरस्कार राशि को दोगुना कर दिया गया है।

और अंत में:

इधर कुछ ऐसे प्रसंग हुए हैं जिनको लेकर हंसने के लिए आप को हिंदी के मास्टर व्यंग्यकार उर्फ असफल आलोचकों के उन प्राणहीन स्तंभों को पढऩे की जरूरत नहीं रहती जिनके अंत में अनिवार्य रूप से 'कृपया हंसें' लिखा जाना चाहिए। इन में पहला है, उत्तराखंड के ऊंचे पहाड़ पर स्थित महादेवी वर्मा संस्थान का। गत माह के शुरू में दिल्ली के कई पहाड़ी कलमकारों को वहां के निदेशक महोदय का निमंत्रण पत्र मिला। जिसमें निवेदन किया गया था:

"स्व. श्री शैलेश मटियानी को जन्मदिन के असवर पर श्रृद्धांजलि देने के लिए उनके जन्म स्थान बाड़े (अल्मोड़ा) में महादेवी वर्मा सृजन पीठ ने दिनांक 13 अक्टूबर, 2012 को 'शैलेश मटियानी: स्मृतियां और प्रासंगिकता' शीर्षक कार्यक्रम का आयोजन किया है।"

लगता है दिल्ली के किसी भी लेखक ने "जन्म दिन के अवसर पर श्रृद्धांजलि" देने जाना उचित नहीं समझा।

व्यंग्य के यथार्थ का दूसरा प्रसंग अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी छोर का है जहां इस बार कथित हिंदी विश्वसम्मेलन हुआ। इस पर हिंदी कवि उपेंद्र कुमार के एकलेख को जनसत्ता ने 21 अक्टूबर को व्यंग्य घोषित कर छापा।

हुआ यों कि भारतीय उच्चायुक्त ने प्रतिनिधियों को दावत में आमंत्रित किया। रस रंजन की अपेक्षा से प्रकंपित विश्व हिंदी जगत ने समय पर प्रिटोरिया को कूच किया। आगे का किस्सा प्रस्तुत है प्रत्यक्षदर्शी लेखक की जबानी:

"बारातों में जैसा होता है, अक्सर कोई न कोई छोटी-बड़ी दुर्घटना घट ही जाती है। यहां भी वही हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ख्यातिवाले प्रख्यात हिंदी सेवी और अब वयोवृद्ध हो चले रत्नाकर पांडेय भारतीय उच्चायुक्त के तरणताल में फिसलकर जा गिरे। कुछ लोग दुखी हुए कि हिंदी सेवा का ऐसा मेवा! तो कुछ ने आपस में कहा कि रत्नाकर जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा को डुबा दिया था, लेकिन उन्हें आज तक ज्ञात नहीं था कि डूबने-डुबाने का असल मतलब, क्या होता है। सो आज इस परदेस में उन्हें इसका पता भी चल गया। बहरहाल, कुछ लोग चुपके से इस अंनुसंधान में लग गए कि पंडित जी गिरे कैसे? डूबे तो कितना डूबे? गले तक या पूरे ही? और उबरे तो कैसे उबरे?

- दरबारी लाल

No comments: