एक दबा हुआ आर्तनाद
Author: समयांतर डैस्क Edition : November 2012
विद्यार्थी चटर्जी
एक सौ बीस पृष्ठों की एक पतली-सी किताब जिसके हर पृष्ठ में 150 शब्द से ज्यादा नहीं हैं पिछले कई महीनों से बंगला की 'बेस्ट सेलर' हुई है। कोलकाता के लेखक-पत्रकार रंजन बंद्योपाध्याय की कांदबरी देबीर सुसाइड नोट हजारों में न सही सैकड़ों में तो बिक ही रही है। इसने ऐसा तूफान मचाया हुआ है जो लगता नहीं कि बंगाली बाबू के चाय के प्याले तक सीमित रहेगा। कादंबरी देवी रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रिय भाभियों में से थीं जिनसे उनका कई वर्षों तक निकट का साथ रहा। उन्होंने होनेवाले-कवि के विवाह के चार माह बाद अफीम खाकर आत्महत्या कर ली थी। बाद में रवींद्रनाथ ने अपने इस अप्रतिदानित (अधूरे) प्रेम को आधार बना कर नष्टो नीड़ नामका उपन्यास लिखा था। सत्यजित राय की सुप्रसिद्ध फिल्म चारुलता इसी उपन्यास पर आधारित थी।
रंजन बंद्योपाध्याय की किताब औपन्यासिक कृति है जो कुछ स्थापित तथ्यों पर आधारित है। रवींद्रनाथ तब 23 वर्ष के थे, उनकी 'नोतून बाऊथान' (नई भाभी) कादंबरी देवी 25 वर्ष कीं। 19 अप्रैल, 1884 को कादंबरी देवी ने अफीम की घातक मात्रा ली थी। उनका दो दिन बाद देहांत हुआ। उन्होंने यह कदम क्यों उठाया? रवींद्रनाथ के पिता 'महर्षि' देवेंद्रनाथ ने उनकी मृत्यु से सबंधित सारे प्रमाणों को जला देने का आदेश क्यों दिया? क्यों उन सब लोगों को जो इस बारे में कुछ भी जानते थे घूस दे कर या डरा कर चुप करा दिया गया? बंद्योपाध्याय स्वयं से या संभवत: पाठक से सवाल करते हैं – क्या कादंबरी देवी ने आत्महत्या के बारे में कुछ लिख कर छोड़ा था? अपने हृदय सम्राट या भविष्य के लिए कोई पत्र? संभवत: उन्होंने कुछ छोड़ा था और अगर ऐसा था तो निश्चय ही उस पत्र को भी परिवार के मुखिया के आदेश पर आग की भेंट कर दिया गया था। क्या वह पत्र दुनिया को यह बतलाने के लिए था कि किस तरह से एक प्रेम में डूबा, एकाकी और बुरी तरह से क्षत-विक्षत हृदय टैगोर परिवार के हाथों उत्पीडि़त हुआ…।
पाठक को संबोधित करते हुए बंद्योपाध्याय लिखते हैं: "यह असल में सुसाइड नोट (आत्मघात से पहले लिखी टिप्पणी) नहीं बल्कि लंबा पत्र है, ऐसा पत्र जो पूरा का पूरा जला हुआ है…इसे कौन आग से निकाल सकता था, क्या वह रवींद्रनाथ ही थे?" इस घटना के 127 वर्ष बाद पाठक सिसकियों, कानाफूसियों और ऐसे संबंधों, जिनका नाम लेना भी वर्जित है, के गलियारों से गुजरता है। इसके मूल में एक बदनसीब युवती का क्रंदन है जो अपनी बात को सुने जाने की पुकार कर रही है।
जब अफीम का असर नजर आने लगा तो कादंबरी देवी को देखने अंग्रेज डाक्टर डी.बी. स्मिथ को बुलाया गया था। डा. स्मिथ को चार सौ रुपए की मोटी रकम चेक से दी गई। इसके बाद 25 रुपए की दवाएं आईं। टैगोर परिवार ब्रह्म समाजी था, कहने को पश्चिमी तौर तरीकों को समर्पित, लेकिन इस पर भी यह संभव नहीं था कि वे एक 'साहब डाक्टर' को सारी रात अपने जोरासंको घर में रहने दें। यह देखते हुए कि कादंबरी देवी को सांस लेने में तकलीफ हो रही है और वह धीरे-धीरे चेतना खोती होती जा रही हैं परिवार की ओर से दो बंगाली डाक्टरों – नील माधव हल्दार और सतीश चंद्र मुखोपाध्याय को बुलाया गया जिन्होंने डा. स्मिथ के अलावा अपनी ओर से भी इलाज किया।
कादंबरी देवी दूसरी मंजिल के एक कमरे में थीं। सामान्यत: इस कमरे में कोई नहीं रहता था, इसलिए इसमें रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं थी। पर अब इसमें प्रकाश की व्यवस्था अनिवार्य हो गई थी क्योंकि परिवार की एक बहू इसमें आई थी फिर चाहे वह किसी भी दशा में क्यों न हो। डेढ़ रुपए की कीमत का एक लैंप लाया गया। कादंबरी की हालत धीरे-धीरे बिगड़ती नजर आ रही थी। एक मंहगा डाक्टर भगवत चंद्र रुद्र को यह जानने के लिए बुलाया गया कि क्या मरीज को बचाया जा सकता है? इस बीच तीन डाक्टरों के लिए, जो रात-दिन देखभाल कर रहे थे, विल्सन होटल से बढिय़ा भोजन मंगाया गया। लेकिन सारे प्रयत्नों के बावजूद लगभग दो दिन के बढ़ते प्रमाद के बाद, कादंबरी देवी ने 21 अप्रैल, 1884 की सुबह दुनिया छोड़ दी। लेकिन वह बीच-बीच में तार्किक बातें भी करती रहीं…
अगर कादंबरी देवी की मृत्यु की स्थितियां भिन्न होतीं तो कोलकाता के अखबारों ने निश्चित तौर पर रिपोर्ट किया होता, आखिरकार टैगोर कोई सामान्य खानदान नहीं था। वे विशिष्ट से भी विशिष्टतम थे। कोलकाता का सबसे महत्त्वपूर्ण खानदान। लेकिन अखबारों में एक शब्द प्रकाशित नहीं हुआ, इसका श्रेय जाता है देवेंद्रनाथ के चातुर्य को। सारे ठोस सबूतों को मिटा देने के अलावा संपादकों को अच्छी-खासी घूस दी गई ताकि वे एक शब्द न छापें। मृत महिला के शव को मुर्दाघर (मॉर्ग) नहीं भेजा गया ताकि असामान्य मृत्यु का समाचार वहां से किसी को कानों-कान खबर न लग जाए। देवेंद्रनाथ के आदेश के मुताबिक कारोनर (मृत्यु की जांच करनेवाले मजिस्ट्रेट) की अदालत गुपचुप तरीके से टैगोर के विशाल भवन जोरासंको के एक कोने में लगायी गई। इसके बाद उस विकट आदमी ने ऐसा प्रबंध किया कि कोरोनर की रिपोर्ट 'खो गई'।
कादंबरी देवी का अंतिम संस्कार नीमतोला घाट पर पंडित हेमचंद्र विद्यारत्न की देखरेख में हुआ। चिता में जितना हो सकता था घी, चंदन और हवन सामग्री डाली गई। उस स्त्री के प्राणहीन शरीर के सच्चाई और न्याय भी धुंए के साथ हवा में विलीन हो गया, पर इस बात की ओर इशारा करनेवाला कोई नहीं था। शवदाह के दौरान रवींद्रनाथ उपस्थित थे लेकिन वहां ज्योतिरिंद्रनाथ, रवींद्रनाथ के नोतून (नए/छोटे) दादा और मृत महिला के पति का कोई पता नहीं था।
कादंबरी की आत्महत्या के तत्काल बाद टैगोर परिवार के कुछ लोग समुद्री यात्रा पर निकले। इसमें सत्येंद्रनाथ ठाकुर (इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा पास करनेवाले पहले भारतीय) की पत्नी ज्ञानंदनंदिनी देवी, उनका देवर ज्योतींद्रनाथ, कादंबरी का गायक-संगीतकार-लेखक पति, जिसके साथ शंका है कि ज्ञानंदनंदिनी के आध्यात्मिक से ज्यादा नजदीकी संबंध थे और सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि उसमें स्वयं रवीन्द्रनाथ स्वयं भी थे। कादंबरी देवी की चिता की राख अभी पूरी तरह ठंडी भी नहीं हुई थी बंगाल के सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित और सुसंस्कृत परिवार के लोगों ने समुद्रयात्रा पर निकलना उचित समझा। यह यात्रा बिना मौज-मस्ती के पूरी नहीं हुई होगी।
कहा नहीं जा सकता कि कादंबरी देवी के शुरु के नौ वर्षों का जीवन कैसा रहा होगा जब उन्हें अपने परिवार से उखाड़ कर उनका विवाह – पूरे संदर्भ से जोड़ कर देखा जाए तो किसी बलि के पशु की तरह – उनसे दस साल बड़े ज्योतिरिंद्रनाथ के साथ। यह कोई बहुत भव्य नहीं रहा होगा, क्योंकि वह जिस मकान में अपने माता-पिता और भाई-बहिनों के साथ हारकाता गली (तब और अब भी यह सस्ती वेश्याओं का इलाका है) में रह रहीं थीं वह उनके दादा को टैगोर परिवार की ओर से दिया गया था। लेकिन यह उनके लिए वैवाहिक जीवन की तुलना में अधिक सुखदायी रहा होगा। घर की औरतें, विशेष कर सत्येंद्रनाथ की विदेश गई पत्नी कादंबरी को उसकी निम्न परिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में याद दिलाने से नहीं चूकतीं थीं: यह तथ्य कि उनके पिता श्याम गंगोपाध्याय टैगोर परिवार के बाजार मास्टर थे, जिनका काम हर सुबह बाजार जाकर परचून, सब्जियां, मछलियां खरीदना था जिनसे कि अभिजात्य टैगोर परिवार की विविध रुचियों को तृप्त किया जा सके।
यद्यपि वह परिवार की एक बहू के पिता थे श्याम गंगोपाध्याय जो टैगोर परिवार से संबंध होने के कारण जो सम्मान मिलना चाहिए था उसका एक अंश भी नहीं मिलता था। अगर विवाह के इस संबध की कोई परवाह नहीं की जाती थी तो स्पष्टत: इसका कारण यह था कि उनके पास संपत्ति नहीं थी, सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं थी या बौद्धिक और कलात्मक गुण नहीं थे जिनसे टैगोर परिवार परिपूर्ण था। इसलिए न तो गरीब पिता और न ही उसकी बेटी का इस विशिष्ट परिवार में कोई महत्त्व था।
आमार प्राणेर रोबि (मेरे प्राणप्रिय रवि) को लिखे अपने अंतिम पत्र में कांदबरी एक और जख्म के बारे में बतलाती हैं जिसके कारण उन्हें अपने पूरे वैवाहिक जीवन में अपमान सहना पड़ा जो नाममात्र का संबंध था किसी झूठ से ज्यादा कुछ नहीं जिसे शब्दजाल से ढ़का जाता है। चाहे वह नखचढ़ा आईसीएस सत्येंद्रनाथ हो, उसकी कमीनी और ईर्ष्यालु पत्नी हो या ठैगोर के 'ओंदर महल' (जनाना) की अन्य स्त्रियां, ऐसा लगता है कि हर एक को कादंबरी को उसके कथित काले रंग, मरियल शरीर और अनाकर्षक चेहरे को लेकर अपमानित करने में आनंद आता था। वे उसके बारे में इस तरह से सबसे ज्यादा निर्मम बातें करते कि वह सुन ले, उसे पीड़ा पहुंचे और वह भीरत से टूटे। सत्येंद्रनाथ और उसकी पत्नी की यह आदत थी कि वे अक्सर जोर-जोर से इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते कि आखिर बाबूमोशय (देवेंद्रनाथ) ने इस लड़की को "हमारे ज्योति" के लिए क्या सोच कर चुना होगा।
इस पर भी अगर किसी की आंखें और सुंदरता को पहचानने की सामथ्र्य हो तो किताब में छपे कादंबरी के फोटो से आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता। (आश्चर्य यह है कि यह फोटो उसका ध्यान न रखनेवाले पति ने खींचा था)। उसके आलोचक या तो अंधे थे या फिर नीचे के तबकों के लोगों के प्रति घृणा से अंधे हुए हुए थे कि वे कांदबरी तीखे नाक-नक्श – उसके पतले होंठ, सुतवां नाक, विकल सौंदर्य से भरी आखों और विपुल केश राशि को देख नहीं पाए। उस के चेहरे की मार्मिकता में उसका अद्भुत सौंदर्य छिपा है। क्या यह संभव है कि रवींद्रनाथ जो सौंदर्य और बुद्धिमत्ता के पारखी थे किसी भी पक्ष में अगर वह कम होतीं तो उससे इस तरह बुरी तरह आकर्षित हुए होते?
पर इसमें कोई शक नहीं है कि जरासंको में जो लगभग 16 वर्ष गुजरे उनमें कादंबरी को सबसे ज्यादा आघात पहुंचाने में बांज होने का अवांछित आरोप रहा जो घर की औरतें सामान्य तौर पर लगाती थीं। शब्दबाण और अपमान अपने क्रूरतम रूप में 1878 से 1880 के दो वर्षों में रहा जब कि सुदूर इंग्लैंड में थे। उनके संरक्षण के न होने से टैगोर परिवार की औरतों के मन में जो आता उस निम्नवर्गीय महिला के लिए वे वह बकती थीं। अपने जीवन के इस दौर के बारे में बंद्योपाध्याय कादंबरी से लिखवाते हैं: इन दो वर्षों में मुझे धीरे-धीरे अहसास हो गया कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकूंगी। मेरे रात-दिन तुम्हारे बारे में सोचते हुए गुजरते हैं। जैसे जैसे समय बढ़ता गया मेरी पीढ़ी और घनीभूत होती गई। शायद अगर मेरी कोई संतान होती तो यह पीड़ा कम होती। बच्चा मेरा संबल और शांति का माध्यम बनता…।
"संतान न होने के लिए हर एक मुझे जिम्मेदार ठहराता रहा है। किसी ने मैडिकल जांच करवाने की जरूरत नहीं समझी, इस पर भी बांझ होने का आरोप मुझे ढोना पड़ा। मैं तुम्हें (रवि) सब कुछ नहीं बता सकती, लेकिन कोई मुझे इस अपमान और झूठे आरोपों से बचाने के लिए आगे नहीं आया, यहां तक कि मेरा पति, तुम्हारे 'नूतोन दादा' भी। जरासंको की ठाकुरबाड़ी के इस हृदयहीन माहौल में मैं ऐसी आरोपी रही जिसके लिए ऐसी कोई अदालत नहीं थी जहां फरियाद कर सकूं।"
स्पष्ट है कि कादंबरी देवी का अपने देवर के प्रति प्रेम उतना ही सघन था जितना कि उसकी मातृत्व की कामना। लेकिन 1879 में कुछ दिनों के लिए कादंबरी के जीवन में चमक आई, यह अलग बात है कि इसके अंधकार में डूबने में समय नहीं लगा। उन्हीं के शब्दों में, "जब तुम दूर योरोप में थे तब तुम्हारी बहन स्वर्णकुमारी देवी और उसकी नन्हीं बेटी उर्मिला के आगमन ने मेरे हृदय को अपार आनंद से भर दिया। उर्मिला सारा दिन मेरे साथ गुजारती थी मानो में ही उसकी मां हूं। मैं ही उसे खिलाती, कपड़े पहनाती, वह मेरे ही साथ सोती और मैं उसके साथ खेलती थी। अचानक ही मैं मां बन गई थी। मेरे लिए मातृत्व का यह क्षणिक आस्वाद भूलना असंभव है।"
लेकिन भाग्य असहाय नारी के लिए क्रूर छल आरक्षित रखता है, नियति ने मेरे साथ न जाने इतना बुरा कैसे किया। कादंबरी का अफीम में डूबी कलम धीरे-धीरे बढ़ती है: "यह 31 दिसंबर, 1879 की बात है – मेरे जीवन का सबसे भयावह दिन। योरोप से तुम्हारा पत्र शाम की डाक से तभी आया था…मैं तुम्हारे लंबे पत्र में इतनी खोई हुई थी कि मैं यह भी भूल गई कि मैं कहा हूं। मैं यह नहीं देख पाई कि छोटी-सी उर्मिला अपने डगमगाते कदमों से मकान के पिछवाड़े की लोहे की घुमावदार सीढिय़ों से नीचे उतरने लगी है। संतुलन न रख पाने के कारण वह सीढिय़ों से लुड़क गई। गिरने से उसके सिर में गंभीर चोट आ गई। अचानक मैं नीचे काम करनेवाले लोगों के चीखने की आवाज से आपे में आई। मैं बच्चे के लिए दौड़ी पर बहुत देर हो चुकी थी। जब तक मैं उर्मिला के पास पहुंची वह बेहोश हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद उसने प्राण त्याग दिए।"
कादंबरी अपराधबोध से भर गई। "उस दिन से मैं अपने आप को कोस रही हूं: गहरे पश्चाताप से भरी। क्या उर्मिला की मौत मेरे पापों का नतीजा है? देवर, तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम गलत है। उर्मि को इसी कारण मरना पड़ा। अब मेरी बारी है। संभव है तुम्हें भी इस पीड़ा से गुजरना होगा, तुम्हारी पूरी जिंदगी परिताप में बदल जाएगी।"
कादंबरी देवी के इस संक्षिप्त और अंधकारमय जिंदगी के प्रस्तुतीकरण में विचारणीय सामग्री है। स्पष्ट है कि इस गल्प में जो वास्तविक जीवन की विभिन्न घटनाओं से उपजी है कई राजनीतिक उप पाठ पढ़े जा सकते हैं। अपनी तरह से यह किताब टैगोर परिवार के चारों ओर समय के साथ गढ़े गए कई भव्य मिथकों ध्वस्त कर देती है। जीवन चरित्र के रूप में आरती गानेवालों और अंध भक्तों, जिनमें से कई बंगाली हैं और कुछ गैर बंगाली भी की कमी नहीं है। जोरासंको का गुणगान करनेवालों को सबसे प्रखर जवाब कादंबरी देवी की यह पीड़ामय समझ है कि उत्तर कोलकाता के उस विशाल भवन में, जो चकित पूजकों की पीढिय़ों के लिए तीर्थस्थल रहा है और जो सही भी है, रहनेवाले टैगोरों में जो सबसे बड़ी कमी थी वह यह कि उनमें उन लोगों के प्रति जिनको जिंदगी से वह नहीं मिला जो कि इस भवन में रहनेवालों को मिला था।
सीरत (रूपरंग) की राजनीति, वर्ग की राजनीति और प्रजनन की राजनीति – अगर कादंबरी पर विश्वास किया जाए तो संपन्न, सुसंस्कृत और आधुनिक-दृष्टिवाले टैगोर परिवार ने उसे अपूर्ण, असुरक्षित और अकेला करने के इन तीन स्तरों पर कोई कसर नहीं छोड़ी। अगर आप इस पर सोचें तो वास्तव में ये उच्चप्रतिष्ठावाले लोग पितृसत्ता के पक्षपाती दंभी लोगों से बेहतर नहीं नजर आते। अगर सत्येंद्रनाथ द्विज यानी दो बार जन्मे ब्राह्मण (उन दिनों समाज में यह उपमा कई लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाती थी और बाद में भी दशकों तक आईसीएस लोगों के लिए इस्तेमाल होती रही) थे तो कादंबरी तीन स्तरों पर मात खाई अबला थी, हर पराजय कदम दर कदम अप्रासांगिक और गुमनामी के अंधेर की ओर ले जानेवाला कदम थी। लेकिन कोई भी पराजय इतनी पीड़ा दायक, इतनी अपमानित करनेवाली इतनी अन्यायपूर्ण नहीं थी जितना कि बिना किसी प्रमाण के 'बाजा' (बांझ) होने का आरोप। लेकिन उसे मातृत्व का मौका ही कब दिया गया, वह पूर्णता जिसकी कामना में उसका शरीर और और आत्मा तड़पती रही? – वह यह प्रश्न स्वयं से, अपने पाठक से, उस पर आरोप लगानेवालों से और न्यायाधीशों से जो मिल कर एक हो जाते हैं, पूछती है। उसका पति ज्योतिरिंद्रनाथ रात हो या दिन कभी भी उनके कमरे में नहीं आता था। जब वह सत्येंद्रनाथ की पत्नी के पास नहीं होता तो वह उस दौर के बंगाली रंगमंच की जानी-मानी अभिनेत्रियों के साथ मौज-मस्ती कर रहा होता था। बंद्योपाध्याय ने दिखलाया है कि कादंबरी को ऐसी ही एक औरत के द्वारा अपने पति के नाम लिखा एक बेनाम प्रेम पत्र मिलता है।
कादंबरी देवी के नारकीय वैवाहिक जीवन का आख्यान, जो रवींद्रनाथ की प्रेममय उपस्थिति से पिता के आदेश पर होनेवाले उनके विवाह तक कुछ हद तक सहनीय हो जाता है, टैगोर परिवार के कई सदस्यों की क्षूद्रता दर्शाता है जिन्होंने उसे एक घुसपैठिया से अधिक कुछ नहीं माना जो कि उनकी संपन्नता और श्रेष्ठता की व्यवस्था को बिगाडऩे आई थी। बंद्योपाध्याय द्वारा उस स्त्री के अपने प्रिय को लिखे विदा पत्र के माध्यम से पाठक जिस यथार्थ के समक्ष पहुंचता है वह कुल मिला कर दुष्टों की कतार है जिनका मुखिया महर्षी देवेंद्रनाथ है जिसमें लगता है उत्पात करनेवालों को उनकी जगह दिखलाने का महारथ हासिल है। इस तरह जब उन्हें पता चला कि उनका सबसे छोटा बेटा एक ऐसी औरत के साथ जुड़ रहा है जिसने कि मर्यादा, पारिवारिक प्रतिष्ठा और सामाजिकता की सारी हदें पार कर दीं हैं तो उन्होंने मसूरी से अपने ध्यान के ऊंचे आसन से फर्मान जारी किया कि नवयुवक के लिए जिसका कि भेजा फिर गया है और जो नहीं जानता कि उसके हित में क्या है, तत्काल एक अच्छा-सा रिश्ता ढूंढा जाए। रवींद्रनाथ को मसूरी बुलाया गया और उनसे कहा गया कि वह विवाह के लिए तैयार हो जाएं। सत्येंद्रनाथ और उसकी पत्नी को निर्देश दिया गया कि वे रवि के लिए अच्छी-सी लड़की ढ़ूंढें। आदेश का पालन करते हुए रवीन्द्रनाथ 9 दिसंबर, 1883 को एक 'अच्छी जैसोरी लड़की' से ब्याह दिए गए।
मानो कटार से घाव को और गहरा घोंपने के लिए कादंबरी देवी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि विवाह ठीक से निपटे। सत्येंद्रनाथ की पत्नी ने कादंबरी के नई बहू के लिए साड़ी चुनने और सही गहने तय करने के पीड़ाजनक काम को निभाने की प्रक्रिया का पूरा आनंद लिया। कादंबरी ने यह उत्पीडऩ बिना शिकन पर लहु-लुहान हृदय के साथ सहा। जब कादंबरी देवी टैगोर परिवार में उदारता या सहृदयता के अभाव की बात करती हैं तो निश्चय ही ऐसे ही प्रसंग हैं जो उनके दिमाग में आते होंगे।
ध्वस्त कादंबरी अपनी बात पूरी करते हुए कहती हैं: "रवि, 25 वर्ष कोई मरने की उम्र नहीं होती। लेकिन मैं क्यों जियूं? किस लिए? मेरे लिए कौन बचा है जिसे मैं प्यार कर सकूं्?"
अनु.: उत्तरा बिष्ट
प्रस्तुत है इसी से संबंधित एक वीडियो
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