गांधी और मार्क्स से आगे आंबेडकर
आंबेडकर जयंती 14 अप्रैल पर विशेष
आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद का अन्तर्विरोध बिलकुल दलितवाद और ब्राह्मणवाद के अन्तर्विरोध जैसा ही है. मार्क्स वैश्विक अर्थों में एक 'एलीट' बना दिए गए हैं. गांधी राष्ट्रीय अर्थ में एलीट हैं और एक षड़यंत्र के तहत आंबेडकर आज भी इस एलीट क्लब से बाहर रखे जाते रहे हैं----
संजय जोठे
आज आंबेडकर जयंती है, आज उनके योगदानों को याद करने का दिन है. वे बहुत सारे मुद्दों पर प्रासंगिक और एकदम व्यवहारिक अंतर्दृष्टि दे गए हैं. विशेष रूप से शोषण, दमन, राजनीतिक या सामाजिक बहिष्कार के कारण क्या हैं और इनका सम्यक इलाज कैसे -संभव है इस विषय पर विवेचना करते हुए वे अनेक अर्थों में मार्क्स और गांधी से आगे निकल जाते है.
मार्क्स एक ही आयाम - आर्थिक गुलामी/विषमता - को सब संघर्षो की जड़ बताते हैं और समाज के सामूहिक मनोविज्ञान के जनक स्वरुप धर्म को एक गन्दी चीज़ के रूप में परिभाषित करते हैं. यह एक अर्थ में कुछ उपयोगी होते हुए भी अंततः ये बहुत खतरनाक बात है, जिसके खतरे पिछली शताब्दी में सिद्ध हो चुके हैं. गांधी शोषण को एक अलग दृष्टि से देखते हुए उसे वर्ण व्यवस्था की खोल में रखकर समझाते हैं. इस अर्थ में गांधी और आंबेडकर के विचार कुछ मिलते हैं. दोनों वर्ण व्यवस्था के पतन और कार्य विभाजन के जन्म से जुड़ जाने में इस समस्या का जन्म देखते हैं.
लेकिन इस बिंदु पर आकर आंबेडकर एक और छलांग लेते हैं और इस शोषण को वे दो धर्मों के संघर्ष की पृष्ठभूमी में रखकर दिखाते हैं. गांधी जहां हिन्दू धर्म की आतंरिक प्रक्रियाओं को इस पतन के लिए जिम्मेदार बताते हैं, वहीं आंबेडकर बौद्ध धर्म के ह्वास के काल को भी इसके लिए जिम्मेदार बताते हैं. गांधी इस दमन का इलाज सवर्णों के ह्रदय परिवर्तन और रामराज्य में देखते हैं जो पुनः वर्ण व्यवस्था को एक सूक्ष्म अर्थ में जारी रखने की बात है, (हालाकि ये मानना भी मूर्खता है कि करोड़ों सवर्णों का ह्रदय परिवर्तन होकर एक रामराज्य आ जाएगा).
मार्क्स एक आर्थिक बराबरी में समाधान देखते हैं. हिंसक क्रान्ति का झंडा उठाते हैं और धर्म को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं. इसके उलट आम्बेडकर ने भारतीय सन्दर्भ में विशेषकर दलित जातियों के शोषण का जो कारण और उपाय बताया है वो एकमात्र आर्थिक भेदभाव और वर्ण व्यवस्था के पतन से आगे निकल जाता है. भारत जो एक धर्मप्राण संस्कृति है, उसके विवेचन के लिए धर्म को एकदम से ही अफीम साबित कर देना ना तो संभव है और ना उचित ही है. भारत में जो श्रेष्ठ बातें पैदा हुई हैं वो धर्म से हुई हैं और जो निकृष्ट बाते हैं उनमें भी धर्म कहीं ना कही शामिल है.
आंबेडकर की प्रस्तावनाओ में जो इलाज है वो धर्म को उसकी सार्थकता में स्वीकार करता है और बौद्ध धर्म के रूप में एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण विकल्प लेकर आता है. यहाँ आंबेडकर की दृष्टि बहुत व्यावहारिक है. मनुष्य धर्म और परम्पराओं के बिना नहीं रह सकता यह एक गहरी बात है. खुद मार्क्सवाद एक तरह के धर्म की शक्ल में फैलाया गया है. अभी इतिहासकार रामचंद्र गुहा के आर्टिकल से "माओ" से जुड़ी चमत्कारी कथाएं प्रकाश में आई हैं.
आंबेडकर और मार्क्सवाद में तुलना करते समय ये हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इन दोनों ने जो भविष्य का नक्शा दिया है वो एक दुसरे से बहुत भिन्न है. हालाँकि दोनों भविष्य की कल्पना के लिए सबसे पहले इतिहास की व्याख्या करते हैं, और इतिहास को देखने की उनकी दृष्टि भी भिन्न है. शोषण और दमन दोनों देखते हैं लेकिन उसके कारणों पर दोनों के मत भिन्न है. मार्क्स जहां एक वैश्विक थ्योरी के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं वहीं आंबेडकर एक ख़ास जनसंख्या के लिए बहुत फोकस्ड तरीके से काम कर रहे थे. इसीलिये आम्बेडकर वैश्विक पटल पर नज़र नहीं आते लेकिन उनकी दृष्टि दलितों के लिए बहुत-बहुत सार्थक है. या कहें की धर्म और परम्पराजन्य दमन के विषय में उनकी दृष्टि मार्क्स से ज्यादा पैनी और सार्थक है.
जहां मार्क्स परम्परा और धर्म को शोषण का औज़ार मात्र बताते हैं वहीं आंबेडकर धर्म के विधायक दान के प्रति बहुत सजग हैं, उनके 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' से ये पता चलता है की कितनी गहराई से वो धर्म और धर्म के मनोविज्ञान को समझते हैं. आंबेडकर के लिए धर्म युक्त और भेद मुक्त समाज लक्ष्य है, जबकि मार्क्स की प्रस्तावना है कि भेद मुक्त समाज को अनिवार्य रूप से धर्म से भी मुक्त होना होगा. यहीं पर इन दोनों में भेद है.
अब साम्यवाद के वैचारिक और राजनीतिक पतन ने ये साबित कर दी है कि मार्क्स एक अर्थ में गलत साबित हुए और आंबेडकर की अंतर्दृष्टि भविष्य के लिए और ज़्यादा महत्वपूर्ण होती जायेगी. इस भूमिका के बाद ये समझा जा सकता है कि क्यों ये दोनों धड़े सहमत नहीं हो सकते. जब इतिहास और भविष्य दोनों की व्याख्याएं ही अलग अलग हैं तो साम्य बनेगा भी कैसे ? और बनाना भी नहीं चाहिए इसी में भारत का भला है. हमें मार्क्स से ज्यादा आंबेडकर की जरूरत है.
मार्क्स का आभामंडल कितना भी बड़ा हो उनका भारत की समस्याओं के बारे में जो विश्लेषण है वो अधूरा है. मार्क्स के परवर्ती विचारकों ने भी भारत के इतिहास के साथ अन्याय किया है. एक भविष्य की कल्पना पहले कर ली और फिर 'बेक-प्रोजेक्शन' वाली शैली में इतिहास की व्याख्या कर डाली. जबकि आंबेडकर बहुत व्यवहारिक तरीके से धर्म-परम्परा-जाती-वर्ण आदि का विश्लेषण करते हैं. इसलिए उनकी प्रस्तावनाएं ज्यादा प्रासंगिक हैं. इसी सन्दर्भ में कहीं लोहिया ने कहीं कहा था भारत में वर्ग संघर्ष की नहीं वर्ण संघर्ष की जरूरत है. यहाँ लोहिया भी आंबेडकर की भाषा बोल रहे है.
हालांकि आंबेडकर स्वयं मार्क्स का बहुत सम्मान करते थे और एक हद तक जाकर उन्होंने भी कह डाला था की मार्क्सवाद से कुछ चीजें (जैसे हिंसा और सर्वहारा वर्चस्व) निकाल ली जाए तो बुद्धिज़्म शेष बचेगा. अब इससे बड़ी प्रशंसा और क्या हो सकती है?... लेकिन दुर्भाग्य ये है कि दलितों के मसीहा को विचारकों के जगत में दलित बना दिया गया है. आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद का अन्तर्विरोध बिलकुल दलितवाद और ब्राह्मणवाद के अन्तर्विरोध जैसा ही है. मार्क्स वैश्विक अर्थों में एक 'एलीट' बना दिए गए हैं. गांधी राष्ट्रीय अर्थ में एलीट है और एक षडयंत्र के तहत अम्बेडकर आज भी इस एलीट क्लब से बाहर रखे जाते रहे हैं. उम्मीद है भविष्य में कभी ये राष्ट्र उनको यथोचित सम्मान दे पायेगा.
संजय जोठे इंदौर में कार्यरत हैं.
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