मुश्किल से बनाये गये राजनीतिक लोकतन्त्र को ध्वस्त कर देंगे असमानता के शिकार लोग, कहा था डॉ. आंबेडकर ने
डॉ. आंबेडकर को सामान्यतया भारतीय संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा के रूप में ही जाना जाता है परन्तु उनके व्यक्तित्व का एक अति महत्वपूर्ण पहलू अभी तक जन साधारण से छिपा हुआ है। डॉ. आंबेडकर न केवल महान समाज-शास्त्री, राजनीति-शास्त्री और धर्म-शास्त्री थे, बल्कि वे एक महान अर्थ-शास्त्री भी थे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी वे पब्लिक फाइनेंस विषय के महान विशेषज्ञ थे। उनकी पी एच डी का शोध विषय Evolution of Public Finance in British India तथा डी एस सी का विषय Problem of the Rupee अत्यन्त गहन विषय था जो कि बाद में पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुये। उनकी एम ए का विषय Ancient Indian Commerce तथा एम एस सी का शोध विषय Decentralization of Imperial Finance in British India भी गम्भीर और महत्वपूर्ण विषय थे। उनका इरादा अर्थशास्त्र के संसार में प्रसिद्ध अध्ययन केन्द्र Bonn University से एक एडवांस कोर्स भी करने का था जिसे वे पैसे की कमी के कारण पूरा नहीं कर सके। उनकी यह शैक्षिक उपलब्धियाँ उनके अर्थ शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् होने का प्रमाण हैं।
भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने के उद्देश्य से वर्ष 1925 में गठित हिल्टन कमीशन के सामने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिये बुलाया गया था। उनके दूसरे असंख्य लेख एवं भाषण न केवल उनके एक अग्रगणी अर्थशास्त्री होने को प्रमाणित करते हैं बल्कि इस से उनकी भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने की उत्सुकता भी प्रमाणित होती है। डॉ. आंबेडकर द्वारा विद्यार्थियों की एक सभा मेंResponsibilities of a Responsible Government विषय पर पढ़े गये लेख में व्यक्त विचारों के बारे में उस समय के संसार प्रसिद्ध राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रो हेराल्ड जे लस्की ने कहा था : " लेख में प्रकट किये गये डॉ. आंबेडकर के विचार क्रान्तिकारी स्वरूप के हैं।" डॉ. आंबेडकर के आर्थिक दर्शन से प्रभावित होकर ही नोबल पुरुस्कार विजेता डॉ. अमर्त्य सेन ने कहा है: "Dr Ambedkar is the father of my economics" अर्थात "डॉ. आंबेडकर मेरे अर्थशास्त्र के जनक हैं।"
डॉ. आंबेडकर के शोध- ग्रन्थ Decentralization of Imperial Finance in British India पर उनके आचार्य एडविन केननने अपनी प्रस्तावना में उनके तर्क से मतभेद व्यक्त करते हुये उन के ग्रन्थ में व्यक्त विचारों और युक्तिवाद में प्रकट कुशाग्र बुद्धि की सराहना की थी।
भारत की मुद्रा प्रणाली में आवश्यक सुधार लागू करने के लिये Royal Commission on Indian Currency and Finance की स्थापना की गयी थी। इस कमीशन के अध्यक्ष Edward Hilton Young थे। इस कमीशन ने 40 लोगों के बयान लिये जिनमे डॉ. आंबेडकर को जब आमन्त्रित किया गया तो कमीशन के हरेक सदस्य के हाथ में डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित Evolution of Public Finance in British India ग्रन्थ की प्रतिलिपियाँ थीं। यह इस अद्भुत भारतीय मनीषी के प्रति अँग्रेज़ बुद्धिजीवियों द्वारा प्रदर्शित बौद्धिक सम्मान था।
उस समय सारे भारत में यह चर्चा का विषय बना हुआ था कि रुपये का मूल्य पौंड के हिसाब से एक शिलिंग चार पैन्स या एक शिलिंग छह पैन्स रखा जाये। इस विषय में डॉ. आंबेडकर ने दो लेख कर अपनी राय ज़ाहिर की थी। उसमें उन्होंने यह सुझाव दिया था कि रुपये का मूल्य एक शिलिंग छह पैन्स रखना ही राष्ट्र के लिये हितकर होगा। बाद में डॉ. आंबेडकर के इस सुझाव के अनुसार ही रुपये का मूल्य एक शिलिंग छह पैन्स रखा गया था।
कमीशन के सामने दिये गये अपने बयान में डॉ. आंबेडकर ने साफ साफ कहा था कि सरकार की दुविधामयी नीति के कारण ही कीमतों में भारी उतार चढ़ाव होते रहते हैं और उसका परिणाम गरीबों को झेलना पड़ता है। उन्होंने एच एल शैव्लानी की पुस्तक Indian Currency and Exchange पर भी समालोचन लिखी थी।
डॉ. आंबेडकर ने अपनी कृतियों में अँग्रेज़ सरकार की तत्कालीन कर-नीति जैसे अत्यधिक भूमि लगान, नमक-कर, इंग्लैंड तथा भारतीय उत्पादन पर असमान कर कस्टम ड्यूटी, जागीरदारी व्यवस्था द्वारा किसानों का घोर आर्थिक शोषण तथा अँग्रेजों और भारतीय सरकारी अधिकारीयों के वेतन में भारी अन्तर अदि पर भी आलोचनायें की थीं। इस व्यस्था के परिणामों का चित्रण बाबा साहेब ने इन शब्दों में किया था- " The Agencies of war were cultivated in the name of peace and they usurped so much of the total funds that nothing was practically left for the agencies of progress" अर्थात शांति के नाम पर युद्ध के अभिकरण तैयार किये गये और वे सम्पूर्ण धनराशि का इतना अधिक भाग हजम कर गये कि विकास के लिये कुछ छोड़ा ही नहीं।"
रुपये की समस्या पर उनका मत था कि भारतीय रुपये का आधार सोना होना चाहिये न कि चांदी। डॉ. आंबेडकर "गोल्ड एक्सचेंज स्टैण्डर्ड" तथा " गोल्ड रिज़र्व फण्ड" के विरोधी थे। वे रुपये के मूल्य को उसकी आन्तरिक क्रय क्षमता से जोड़ने तथा उसके नियंत्रित प्रचलन के पक्षधर थे। उनका सुझाव था कि रुपये का मूल्य सोने के रूप में रखा जाये तथा कागज़ के नोट चलाये जायें। इस विवरण से स्पष्ट है कि बाबा साहेब भारतीय अर्थ व्यवस्था के प्रति कितने चिंतित थे तथा उन्होंने इसे सुधारने में अथक योगदान दिया।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर की एक अर्थशास्त्री के रूप में योग्यता अँग्रेजी और पश्चिम के विद्वानों द्वारा कितनी सराही गयी थी।
स्वंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वाँछित अर्थ-व्यस्था के बारे में उनके विचार States and Minorities नामक पुस्तक, जो वास्तव में उनका संविधान का अपना प्रारूप था, में स्पष्टतया अंकित हैं।
डॉ. आंबेडकर प्रत्येक नागरिक की मुलभूत अवश्क्ताओं की पूर्ति किसी भी लोकतन्त्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे। वे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खुले विरोधी थे। उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम बुद्ध के विचारों का अदभुत समन्वय है। वे पक्के यथार्थवादी थे। उनकी मान्यता थी कि मानव समाज में पूर्ण समानता नहीं लायी जा सकती। इसलिये वे धन-दौलत एवं अन्य प्रकार की सामाजिक-शैक्षिक असमानताओं को ही क्रमिक और तार्किक ढंग से दूर करना चाहते थे। उन्होंने निजी पर्स की समाप्ति, बैंकों, बीमा कम्पनियों तथा कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठायी थी। इस से भी आगे बढ़कर उन्होंने भूमि तथा कृषि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी। वे समाजवाद और सार्वजानिक क्षेत्र के पक्षधर थे जिनके माध्यम से नेहरू जी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित एवं विकसित करना चाहते थे। डॉ. आंबेडकर की आर्थिक योजना पर उनके निम्नलिखित शब्द प्रकाश डालते हैं- "यदि विदेशी तत्वों को निष्काषित करके आर्थिक परिवर्तनों को वरीयता दी जाये तो सशक्त प्रशासन आसानी से दूरगामी समाज-सुधार ला सकता है।"
डॉ. आंबेडकर का दृढ़ मत था कि "हमें अपने लोकतन्त्र को सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र बनाना चाहिये क्योंकि इसके बिना राजनीतिक लोकतन्त्र अधिक दिनों तक नहीं चल सकता।" उन्होंने भारतीय समाज की सामाजिक दशा का चित्रण एक ज़ोरदार राजनीतिक एवं आर्थिक शब्दावली में इस प्रकार किया है:-
"यह अत्यन्त असंतोषजनक स्थिति है कि अधिकाँश लोगों को अपनी जीविका कमाने के लिये भार ढोने वाले पशुओं की तरह 14-14 घण्टे पसीना बहाना पड़ता है और इस प्रकार वे मनुष्य की अमूल्य धरोहर मस्तिष्क एवं मन का प्रयोग करने के अवसरों से सर्वथा वंचित रह जाते हैं। पूर्व में कैसा भी रहा हो, परन्तु वर्तमान समय में वैज्ञानिक और तकनीकि प्रगति ने इसे सम्भव बना दिया है। कुछ लोगों द्वारा दूसरों का शोषण इस लिये सम्भव हो पा रहा है कि उत्पादन के साधनों, भूमि और उद्योगों पर समाज का नियन्त्रण नहीं है। जब यह सम्भव कर दिया जायेगा तो मैं इसे वास्तविक क्रान्ति मानूँगा।"
डॉ. आंबेडकर की यह भी मान्यता थी कि सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के बिना जीवन और राजनीतिक स्वतन्त्रता का कानून एवं संविधान द्वारा संरक्षण बेमानी हो जाता है। उन्होंने कहा कि," हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि लोग, दलितों सहित, केवल कानून और व्यवस्था पर जीवित नहीं रहते, उन्हें तो रोटी चाहिये।" लोकतन्त्र की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि "मेरे विचार में लोकतन्त्र की सफलता की पहली शर्त है कि समाज में घोर असमानतायें न हों। वहाँ पर कोई शोषित और दलित वर्ग न हो। वहाँ पर न तो कोई सर्वाधिकार सम्पन्न वर्ग और न ही कोई सर्वथा वंचित वर्ग हो। अन्यथा ऐसा विभाजन, ऐसी परिस्थिति तथा ऐसा सामाजिक संगठन हमेशा हिंसक क्रान्ति के बीज संजोये रहता है और लोकतन्त्र द्वारा इनका निदान असम्भव हो जाता है।"
डॉ. आंबेडकर उन राष्ट्रवादियों से असहमत थे जो केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता को प्राथमिकता देते थे। वे ऐसी कोरी एवं भावुक देशभक्ति को आदर्श नहीं मानते थे। उनकी मान्यता स्पष्ट थी- "भारत में वे लोग राष्ट्रवादी और देशभक्त माने जाते हैं जो अपने भाईयों के साथ अमानुषिक व्यवहार होते देखते हैं किन्तु इस पर उनकी मानवीय संवेदना आन्दोलित नहीं होती। उन्हें मालूम है कि इन निरपराध लोगों को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है परन्तु इस से उनके मन में कोई क्षोभ नहीं पैदा होता। वे एक वर्ग के सारे लोगों को नौकरियों से वंचित देखते हैं परन्तु इस से उनके मन में न्याय और ईमानदारी के भाव नहीं उठते। वे मनुष्य और समाज को कुप्रभावित करने वाली सैंकड़ों कुप्रथायों को देख कर भी मर्माहत नहीं होते। इन देशभक्तों का तो एक ही नारा है- उनको तथा उनके वर्ग के लिये अधिक से अधिक सत्ता। मैं प्रसन्न हूँ कि मैं इस प्रकार के देशभक्तों की श्रेणी में नहीं हूँ। मैं उस श्रेणी से सम्बन्ध रखता हूँ जो लोकतन्त्र की पक्षधर है और हर प्रकार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिये संघर्षरत है। हमारा उद्धेश्य जीवन के सभी क्षेत्रों- राजनीतिक,आर्थिक एवं समाज में एक व्यक्ति, एक मूल्य के आदर्श को व्यव्हार में उतारना है।"
बाबा साहेब ने राजनीतिक आन्दोलनों में मजदूर वर्ग की भूमिका के बारे में 6-7 सितम्बर, 1943 को पाँचवी मजदूर सभा को सम्बोधित करते हुये कहा था-
"मैं दो टिप्णियाँ करना चाहता हूँ। पहली- यह कि जो लोग औद्योगिक ढाँचे की पूँजीवादी व्यवस्था और राजनीतिक ढाँचे की संसदीय व्यवस्था में रह रहे हैं वे अपनी व्यवस्था के अन्तर्विरोधों को अवश्य पहचानें। इसमें प्रथम अन्तर्विरोध काम न करने वालों के लिये असीम सम्पदा एवं काम करने वालों के लिये भीषण गरीबी के रूप में है। दूसरा अन्तर्विरोध राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में है। राजनीति में समानता परन्तु आर्थिक क्षेत्र में असमानता। एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य हमारे राजनीतिक आदर्श हैं, परन्तु आर्थिक क्षेत्र राजनीतिक आदर्श का बिलकुल उल्टा है। इन अन्तर्विरोधों को दूर करने के रास्तों के बारे में मतभेद हो सकते हैं, परन्तु इस में कोई मतभेद नहीं हो सकता कि ये अन्तर्विरोध हैं।
मेरी दूसरी टिप्पणी यह है कि जबसे जीवन का आधार स्तर और संविदा (Status and Contract) हुये हैं तब से जीवन की असुरक्षा एक सामाजिक समस्या बन गयी है और मानवीय जीवन को बेहतर बनाने वालों को इस का हल ढूँढना होगा। मनुष्य के जन्म-सिद्ध अधिकारों एवं स्वतंत्राओं को व्याखित करने में बड़ी शक्ति लगायी है। यह सब बहुत अच्छा है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँ कि तब तक सुरक्षा सम्भव नहीं होगी जब तक इन अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जाता जिन्हें जन साधारण समझ सके जैसे – शांति, मकान, पर्याप्त कपड़ा, शिक्षा, अच्छी सेहत तथा सब से ऊपर गिरने के भय के बिना सिर को ऊँचा रखकर चलने का आधिकार।"
डॉ. आंबेडकर ने आगे कहा-
"हम भारत में इन समस्यायों को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। हमें अपने मूल्यों का पुनर्मूल्याँकन करना होगा। भारत में केवल आर्थिक उत्पादन पर सारी शक्ति लगा देना पर्याप्त नहीं होगा। हमें न केवल सभी भारतीयों के सम्मानजनक जीवन के साधन के रूप में इस सम्पदा में उनकी हिस्सेदारी के मौलिक अधिकार पर सहमत होना होगा, बल्कि असुरक्षा से बचने के तरीके भी ढूँढने होंगे।"
वे गाँधीवादी अर्थव्यवस्था से खुले रूप से असहमत थे। उनकी दृष्टि में "गांधीवाद केवल वर्गभेद से ही संतुष्ट नहीं है, वह वर्ण व्यवस्था पर भी जोर देता है। यह तो समाज की वर्ण अर्थात आर्य-संरचना को पवित्र मानता है जिसके फलस्वरूप अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, मालिक-नौकर आदि हमारे सामाजिक संगठन के स्थायी अंग हो जायेंगे।" उन्होंने आगे कहा कि "गांधीवाद ऐसे समाज के लिये उपयुक्त हो सकता है जो लोकतन्त्र के आदर्श को अस्वीकार करता हो। ऐसा समाज आत्मनिर्भरता और संस्कृति के प्रति उदासीन हो सकता है, परन्तु लोकतान्त्रिक नहीं। पहला समाज कुछ लोगों के लिये आराम और सुसंस्कृत जीवन तथा अधिकाँश लोगों के लिये कड़ी मेहनत और दरिद्रता का जीवन स्वीकार करेगा। परन्तु एक लोकतान्त्रिक समाज के लिये अपने सभी नागरिकों को सुखी एवं सुसंस्कृत जीवन सुनिश्चित करना आवश्यक है।" डॉ. आंबेडकर मशीनीकरण और औद्योगीकरण के प्रबल समर्थक थे जब कि गाँधी जी इस के कट्टर विरोधी थे।
वास्तव में डॉ. आंबेडकर का बहुत बड़ा योगदान भारत के औद्योगीकरण और आधनुकीकरण की नींव डालने का भी रहा है। दुर्भाग्यवश उन के इस योगदान को जानबूझ कर लोगों के सामने प्रकट नहीं किया गया है। इस क्षेत्र में उनका प्रमुख योगदान मजदूर वर्ग का कल्याण, बाढ़ नियन्त्रण योजनायें, कृषि सिचाई, बिजली उत्पादन एवं जल यातायात सम्बन्धी योजनायें तैयार करना है। इसके फलस्वरूप ही बाद में भारत में औद्योगीकरण एवं बहुउदेशीय नदी जल योजनायें बन सकीं।
यह स्पष्ट है कि पण्डित जवाहर लाल नेहरू गाँधीवादी व्यवस्था के विरुद्ध उतने मुखर नहीं थे जितने कि डॉ. आंबेडकर।नेहरू जी के लिये भी राजनीतिक स्वन्तन्त्रता सर्वोपरि थी और सामाजिक कार्यक्रम गौण थे। डॉ. आंबेडकर और नेहरू जी दोनों ही राजकीय समाजवाद में विश्वास रखते थे।
डॉ. आंबेडकर के शब्दों में:
"समस्या यह है कि अधिनायकवाद के बिना समाजवाद और संसदीय लोकतन्त्र के साथ राजकीय समाजवाद कैसे रहे। इसका केवल यही हल दिखता है कि संसदीय लोकतन्त्र और संवैधानिक कानूनों द्वारा राजकीय समाजवाद अपनाया जाये जिसे संसदीय बहुमत द्वारा निलम्बित, संशोधित अथवा समापित करना असम्भव होगा। इस प्रकार समाजवाद लाने, संसदीय लोकतन्त्र को स्थापित करने और अधिनायकवाद से बचने के हमारे तीनों उद्देश्यों की पूर्ति हो सकेगी।"
डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक दर्शन मूलत: सामाजिक- आर्थिक दर्शन है। वे कहते हैं: "बेरोजगार लोगों से पूछिये कि उनके लिये मौलिक अधिकारों की क्या उपयोगिता है। यदि किसी बेरोजगार व्यक्ति को अनिश्चित घण्टों वाली सवैतनिक नौकरी और किसी मजदूर यूनियन में शामिल होने, संगठन बनाने अथवा धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार के बीच चुनने के लिये कहा जाये तो क्या उसके चुनाव के बारे में कोई शक हो सकता है? वह दूसरी चीज़ कैसे चुन सकता है? भुखमरी, घर-विहीनता, दरिद्रता, बच्चों को स्कूल से दूर रखने जैसी परिस्थितियाँ किसी भी व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकार छोड़ने के लिये बाध्य कर सकती हैं। इस प्रकार बेरोजगार लोग काम तथा जीवन-निर्वाह के लिये मौलिक अधिकारों को तिलांजलि देने के लिये मजबूर होंगे।"
स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में चर्चा करते हुये डॉ. आंबेडकर ने कहा -
"संवैधानिक विशेषज्ञ यह मान लेते हैं की स्वतन्त्रता की सुरक्षा हेतु मौलिक अधिकारों को दे देना ही पर्याप्त है। उनकी मान्यता है कि जब सरकार व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहती है। किन्तु आवश्कता इस बात की है कि न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को कायम रखते हुये वास्तविक स्वतन्त्रताओं को बढ़ाया जाये। स्वतन्त्रता को केवल सरकारी हस्तक्षेप से पूर्ण मुक्ति के सन्दर्भ में ही नहीं परिभाषित किया जाना चाहिये। इस से स्वतन्त्रता की समस्या का समाधान नहीं हो जाता। सरकारी हस्तक्षेप के बिना जंगल राज अर्थात जिस की लाठी उसकी भैंस वाला समाज होगा।"
इस लिये ऐसी स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में डॉ. आंबेडकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ऐसी स्वतन्त्रता आखिर कैसी और किस के लिये होगी? इस का उत्तर वे निम्न प्रकार देते है:
" स्पष्टतया यह स्वंत्रता ज़मींदारों को लगान बढ़ाने, पूँजीपतियों को काम के घण्टे बढ़ाने और कम मजदूरी देने की छूट देने वाली होगी। यह ऐसी ही होगी।"
इसलिये डॉ. आंबेडकर ने राजशक्ति की सृजनात्मक भूमिका पर जोर दिया। सही मायने में लोकतान्त्रिक राज लोक कल्याणकारी होगा। ऐसे राज का उपयोग ज़मींदारों और पूँजीपतियों जैसे निहित स्वार्थों को अनुशासित करने और उनके सामाजिक -आर्थिक आधार को ख़तम करने के लिये किया जा सकता है। इनके अधिकारों को सीमित किये बगैर आम जन को स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। अतः डॉ. आंबेडकर ने कहा: "एक अर्थव्यवस्था, जिसमे लाखों मजदूर उत्पादनरत हों, समय समय पर किसी न किसी को नियम बनाने पड़ेंगे ताकि मजदूरों को काम मिल सके और उद्योग चलते रहें, अन्यथा जीवन असम्भव हो जायेगा। राजकीय नियन्त्रण से स्वतन्त्रता का मतलब होगा व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही।"
डॉ. आंबेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी। भारत के सामाजिक रूपान्तरण और आर्थिक विकास के लिये वे इसे अपरिहार्य मानते थे। उन्होंने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि "States and Minorities" नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। उनके अनुसार भावी संविधान में भारतीय संघ निम्नलिखित को संवैधानिक कानून का अंग घोषित करेगा:-
1. सभी प्रमुख उद्योग सरकारी नियन्त्रण में होंगे तथा सरकार द्वारा ही चलाये जायेंगे।
2. वे उद्योग भी जो प्रमुख नहीं हैं किन्तु आधारभूत हैं सरकार अथवा सरकारी उद्यमों द्वारा चलाये जायेंगे।
3. बीमा केवल सरकार के हाथ में होगा तथा प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को जीवन बीमा पालिसी लेना आवश्यक होगा।
4. कृषि राजकीय उद्योग घोषित होगी।
5. सरकार सभी प्रमुख उद्योगों, बीमा कम्पनियों एवं कृषि भूमि का उनके मालिकों को डिबेंचरज के रूप में मुआवजा दे कर राष्ट्रीयकरण कर लेगी।
6. कृषि उद्योग निम्न प्रकार से चलाया जायेगा:
(1) सरकार द्वारा अधिग्रहीत भूमि को उचित आकार के फार्मों में विभाजित करके ग्रामीण परिवार-समूहों को इकाई मानकर उत्पादन करने हेतु निम्न शर्तों पर आवंटित किया जायेगा:
(क) फार्म पर सामूहिक खेती होगी।
(ख) फार्म पर सरकार द्वारा बनाये गये नियमों के अनुसार उतपादन किया जायेगा।
(ग) किरायेदारी कर आदि देने के बाद बचे उत्पादन को निर्धारित तरीके से आपस में बाँटा जायेगा।
(घ). भूमि सभी लोगों में जाति-धर्म आदि के भेदभाव के बगैर इस तरह बाँटी जायेगी कि न तो कोई जमींदार होगा और न ही भूमिहीन मजदूर।
(च) पानी, उपकरण, पशु, खाद तथा बीज आदि उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेवारी होगी।
इस प्रकार हम देखते हैं की डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र-निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था। वे राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण के लिये आवश्यक मानते थे। यह प्रारूप गाँधीवादी प्रारूप से सर्वथा भिन्न और नेहरूवादी प्रारूप से अधिक स्पष्ट, विकसित और निर्णायक था। भारत में परम्परागत सामाजिक बँटवारा अन्यापूर्ण है और उस पर आधारित आर्थिक बँटवारा अमानवीय है। हमें इसे समाप्त करना है। यही हमारे लिये महा प्रशन है। इस सन्दर्भ में कुछ विशेष न कर पाने के कारण ही आज जगह जगह हिंसात्मक संघर्ष फूट रहे हैं। इन्हें केवल कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में देखना समझदारी नहीं होगी। इसकी आशंका डॉ. आंबेडकर को पहले ही थी। अतः उन्होंने उसी समय अपना राजकीय समाजवाद का नमूना देश के सामने रखा था। यह भारत जैसे पिछड़े देश के लिये आज भी प्रासंगिक है। नेहरू जी इस दिशा में चले थे लेकिन आधे अधूरे मन से। आज हम अपने चिंतकों द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक-आर्थिक नमूनों को भूल कर पश्चिमी पूँजीवादी देशों द्वारा लुभावने किन्तु खतरनाक नारों और मुहावरों में फँसते जा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक रास्ता है।
आज भूमण्डलीकरण औए निजीकरण के दौर में हम राजकीय नियन्त्रण से स्वतन्त्रता को वास्तविक स्वतन्त्रता मान बैठे हैं। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने इसमें व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही देखी थी। लोकतान्त्रिक राज्य को निपट पूँजीवादी राज्य मानना उचित नहीं हैं। डॉ. आंबेडकर ने भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक अन्तर्विरोधों को दूर करने के लिये जिस राज्य की कल्पना की थी वह राजनीतिक दृष्टि से लोकतान्त्रिक और आर्थिक दृष्टि से समाजवादी था। उसे उन्होंने राजकीय समाजवाद कहा था। उसे समाजवादी लोकतन्त्र भी कहा जा सकता है। हमारे लिये यह नमूना आज भी प्रासंगिक है।
अन्त में मैं डॉ. आंबेडकर की इस गम्भीर चेतावनी को दोहराना आवश्यक समझता हूँ जिस में उन्होंने कहा था, "26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे हैं। एक तरफ जहाँ हमारे राजनीतक क्षेत्र में समानता होगी वहीँ हमारी परम्पराओं के कारण सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। हमें इस अन्तर्विरोध को शीघ्रातिशीघ्र दूर करना होगा अन्यथा इस असमानता के शिकार लोग मुश्किल से बनाये गये इस राजनीतिक लोकतन्त्र को ध्वस्त कर देंगे।"
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