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Saturday, April 6, 2013

‘लौह महिला’ इरोम शर्मिला और उसका संघर्ष

'लौह महिला' इरोम शर्मिला और उसका संघर्ष


सारदा बनर्जी

 स्त्रियों को जब किसी महत्वपूर्ण उपाधि से नवाज़ा जाता है तो उसके पीछे एक ज़बर्दस्त संघर्ष का किस्सा छिपा रहता है, उसके बलिदान की एक लम्बी कहानी होती है। पुरुषों की तरह आसानी से कोई भी टैग उसके नाम से नहीं जुड़ जाता। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका इरोम शर्मिला के ज़ज्बे को देखते हुये उन्हें लोगों ने 'आयरन लेडी' या 'लौह-महिला' के नाम से मशहूर कर दिया। वजह यह है कि इरोम शर्मिला चानू पिछले 12 साल से मणिपुर से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर ऐक्ट,1958 (ए.एफ.एस.पी.ए.) यानि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने की माँग कर रही है। इस एक्ट के तहत मणिपुर में तैनात सैन्य बलों को यह अधिकार प्राप्त है कि उपद्रव के अँदेशे पर वे किसी को भी जान से मार दें और इसके लिये किसी अदालत में उन्हें सफाई भी नहीं देनी पड़ती है। साथ ही सेना को बिना वॉरंट के गिरफ़्तारी और तलाशी की छूट भी है। 

इसी कानून को हटाने की माँग पर इरोम सन् 2000 से लगातार अब तक भूख हड़ताल पर है, उसने पिछले 12 साल से अन्न का एक दाना भी नहीं लिया है। दरअसल एक नवंबर को इरोम एक शांति रैली के लिये बस स्टैंड पर खड़ी थी कि अचानक दस लोगों को सैन्य बलों ने भूनकर मार डाला। इस घटना का इरोम पर बहुत गहरा असर पड़ा। 29 वर्षीया इरोम चानू ने दो नवंबर को ही आमरण अनशन शुरु कर दिया हालाँकि छह नवंबर को उन्हें 309 के तहत 'आत्महत्या करने के प्रयास' के जुर्ममें गिरफ़्तार कर लिया गया। 20 नवंबर से उन्हें जबरन नाक में पाइप डालकर तरल पदार्थ दिया गया था। उसके बाद से इरोम को लगातार पकड़ा

sarada banerjee, सारदा बनर्जी, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं

और रिहा किया जाता रहा है क्योंकि 309 धारा के तहत यह नियम है कि पुलिस किसी को भी एक साल से ज़्यादा जेल में कैद नहीं रख सकती। इसलिये साल के पूरे होने से पहले ही दो-तीन दिन के लिये उन्हें छोड़ दिया जाता है और फिर पकड़ लिया जाता है। पुलिस हर 14 दिन में हिरासत को बढ़ाने के लिये उन्हें अदालत ले जाती है। तब से अब तक इरोम का यह जीवन इसी तरह संघर्षपूर्ण बना हुआ है।

इस असाधारण मनोबल की वजह से इरोम को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिये गये हैं। साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों और नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया है। सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार महाश्वेता देवी ने केरल के लेखकों के एक संगठन की ओर से जब शर्मिला की ओर से आये उनके भाई इरोम सिंघजीत को अवॉर्ड दिया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे वापस कर दिया। अवॉर्ड के तहत एक स्मृति चिह्न् और 50,000  रुपये का चेक दिया गया था। सिंघजीत ने कहा कि जब शर्मिला की जीत होगी तो वे खुद ही अवॉर्ड स्वीकार कर लेंगी।

प्रमुख सवाल ये है कि इरोम के पहले और बाद में भी कई बार देश में कई लोगों ने अनशन किये हैं और उनकी माँगे भी सरकार ने मान ली हैं या तो कोई उपाय ज़रूर हुआ है। तो क्या कारण है कि इरोम की माँगें मानी नहीं जा रही? वह पिछले 12 सालों से अनशन पर है लेकिन मीडिया में उसे लेकर कोई हलचल नहीं है, कोई समाचार नहीं है? उसे क्यों सीरियसली नहीं लिया गया? क्या इसका कारण इरोम का स्त्री होना है ? या यह कि इरोम के पास कोई सशक्त शख्सियतें नहीं है? या कि इरोम जिस मणिपुर राज्य के लिये माँग कर रही है वह मुख्यधारा से एक अलग राज्य माना जाता है। इसलिये मणिपुर राज्य के लिये किया गया माँग सरकार के लिये उतना महत्व नहीं रखता जितना दूसरे मुख्य राज्यों का।

यह सही है कि इस एक्ट के बिना कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की हालत बहुत गम्भीर भी हो सकती है। लेकिन इरोम मणिपुर में हो रहे उत्पीड़नों के प्रतिवादस्वरुप जो माँग कर रही हैं वह जायज़ माँग है और वह भी अहिंसक तरीके से किया जा रहा है। यदि सरकार के लिये उसकी माँगों को पूरी तरह से मानना सम्भव नहीं था तो यह भी ज़रूरी था कि कोई न कोई उपाय किया जाता जिससे वहाँ बस रहीं जनता सुरक्षित रह सके। उन पर बेवजह ज़ुल्म न हो। ये कैसे सम्भव है कि बिना गुनाह के सिर्फ़ अनशन करने की वजह से किसी स्त्री को सालों-साल जेल में रहना पड़े? एक नागरिक होने की हैसियत से इरोम को अधिकार है कि वह अपने राज्य की सुरक्षा की गारंटी सरकार से माँगे। इसलिये यह बेहद ज़रूरी है कि इरोम को सम्मान देते हुये, उसके जज़्बे को सलाम करते हुये सरकार द्वारा उसकी माँगों को गम्भीरता से लिया जाये। मणिपुर राज्य की असुरक्षा पर विचार किया जाये और वहाँ आम जनता की सुरक्षा के लिये सरकार ठोस कदम उठाये।


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