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Friday, August 23, 2013

रुपए का रोग

रुपए का रोग

Friday, 23 August 2013 11:05

अरविंद कुमार सेन
जनसत्ता 23 अगस्त 2013 : यूपीए सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है

। फिसलन की रफ्तार इतनी तेज है कि हर गिरावट के साथ अब तक की रिकॉर्ड कमी शब्द चस्पां किया जा रहा है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री से लेकर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर तक आश्वासन की पुड़िया बांट चुके हैं, लेकिन रुपए का रोग बढ़ता जा रहा है। शेयर बाजार में हाहाकार मचा हुआ है, इसका असर सूचकांक पर दिख रहा है। कोई नहीं जानता कि रुपए की कीमत में आ रही यह गिरावट कहां जाकर रुकेगी। यूपीए सरकार के मंत्रियों के पास विदेशी निवेश लाने के पुराने नुस्खे के अलावा इस समस्या से निपटने का कोई खाका नहीं है। 
भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले चार सालों से दयनीय स्थिति में है, ऐसे में सवाल है कि रुपए की कीमत में अचानक इतनी तेज गिरावट क्यों आ रही है। अगर रुपया भारतीय अर्थव्यवस्था की बदहाल तस्वीर का सूचक है तो इसकी कीमत में पहले गिरावट क्यों नहीं आई। जवाब खोजने से पहले रुपए की कीमत में आ रही गिरावट की मौजूदा वजह पर गौर करते हैं। 
2008 की आर्थिक मंदी के बाद से ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुस्त थी और बेलआउट पैकेजों के बावजूद यह सुस्ती दूर नहीं की जा सकी। ऐसे में अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने क्वांटीटेटिव इंडिंग (क्यूई) नीति अपनाने की घोषणा की। क्यूई वह मौद्रिक नीति है, जिसमें केंद्रीय बैंक सस्ती ब्याज दरों पर बाजार में नकदी की आपूर्ति बढ़ा देता है। इस तरह कंपनियों को अपना उत्पादन बढ़ाने की राह मिल जाती है और मांग-उत्पादन का चक्र शुरू होने से अर्थव्यवस्था मंदी के भंवर से बाहर निकल जाती है। मौद्रिक नीति के तूणीर में क्यूई नीति बेहद खतरनाक बाण है और नकदी की अधिकता अक्सर स्थायी मांग के बजाए उधार के पैसे से खड़ी हुई कृत्रिम मांग को बढ़ावा देती है। 
बहरहाल, क्यूई नीति के तहत हर माह अमेरिकी अर्थव्यवस्था में पचासी अरब डॉलर की नकदी मुहैया कराई जाने लगी। लोगों को बेहद कम ब्याज दरों पर पैसा मिलने लगा। पानी की माफिक पैसा भी अपना तल पकड़ लेता है और पैसे के लिहाज से यह तल निवेश की गई रकम पर सबसे ज्यादा प्रतिफल देने वाली जगह होती है। फेडरल रिजर्व के रहमोकरम से मिल रही सस्ती पूंजी से मुनाफा कमाने के लिए निवेशकों ने अमेरिकी बाजार से कम ब्याज दरों पर पैसा लेकर ऊंची ब्याज दरों वाले उभरते देशों के शेयर बाजारों में लगाना शुरू कर दिया। 
भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका निवेशकों के रडार पर सबसे ऊपर थे। सस्ती ब्याज दरों पर मिलने वाली रकम से मुनाफा कमाने का यह सबसे तेज तरीका था। जाहिर है, फेडरल रिजर्व की मेहरबानी से बड़े पैमाने पर हो रहे इस पूंजी प्रवाह के कारण भारत जैसे उभरते देशों के शेयर बाजार में उछाल आने लगा। यही वजह है कि भारत में घरेलू आर्थिक माहौल खराब होने के बावजूद सेंसेक्स या रुपए की कीमत में कोई खास गिरावट देखने को नहीं मिली। 
2008 की आर्थिक मंदी के दौरान भारत की विकास दर आठ फीसद से ज्यादा थी, जबकि अब यह गिर कर पांच फीसद के आसपास रह गई है। विकास दर में आई इस गिरावट के बावजूद भारतीय शेयर बाजार में 2008 से लेकर अब तक महज चार फीसद गिरावट दर्ज की गई। साफ है, शेयर बाजार भारतीय अर्थव्यवस्था की बिगड़ती तबीयत की माकूल तस्वीर पेश नहीं कर रहा था। दरअसल, अमेरिका से थोक के भाव हो रहे सस्ती नकदी के प्रवाह ने शेयर बाजार को बुलंदियों पर रखा, मगर अफसोस कि यह अमेरिकी दवा थोड़े वक्त के लिए ही थी। 
एक तरफ सस्ती पूंजी की खुराक के दम पर भारत जैसे उभरते देशों के बाजार झूम रहे थे, वहीं दूसरी ओर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी छंटने के संकेत मिलने लगे। बढ़ती मांग, उत्पादन में इजाफा और रोजगार के उम्दा आंकड़ों के चलते इस साल अप्रैल आते-आते नीति-निर्माताओं को पुख्ता तौर पर विश्वास हो गया कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अब मंदी की गिरफ्त से बाहर निकल चुकी है। कम ब्याज दरों पर मुहैया कराई जा रही सस्ती नकदी का काम पूरा हो गया था, लिहाजा फेडरल रिजर्व ने इस साल 22 मई को क्यूई मौद्रिक नीति को वापस लेने की घोषणा कर दी। वह दिन उभरते देशों, खासकर भारत और ब्राजील के शेयर बाजारों के लिए कयामत का दिन बन कर आया। 
सस्ती पूंजी खत्म होने से घबराए निवेशक उभरते बाजारों से पैसा निकाल कर सरपट भाग रहे हैं और इस आवारा पूंजी के सहारे कुलांचे भरने वाले शेयर बाजार जमीन पर आ गए हैं। भारत ही नहीं, थाइलैंड से लेकर ब्राजील तक दुनिया भर के विकासशील देशों में तबाही मची हुई है। 
बीते कुछ समय से डॉलर में उठाई गई सस्ती पूंजी के दम पर मजबूत होती रही विकासशील देशों की मुद्राएं, मसलन भारत का रुपया, ब्राजील का रियल, दक्षिण अफ्रीका का रैंड, थाइलैंड का बाहट और तुर्की का लीरा, डॉलर के मुकाबले अब तक अपने रिकॉर्ड निचले स्तर पर चल रहे हैं। 
सस्ती पूंजी से विकासशील देशों के शेयर बाजारों में खड़ा हो रहा परिसंपत्ति का बुलबुला फूट चुका है, इसलिए शेयर बाजार भी लगातार ढलान की तरफ जा रहे हैं। विकासशील देशों की कंपनियों की ओर से डॉलर में लिया गया

कर्ज इस गिरावट की आग में तेल डालने का काम कर रहा है। 
चूंकि डॉलर बाजारों में कर्ज कम ब्याज दरों पर आसानी से उपलब्ध है, इसलिए विकासशील देशों की कंपनियों ने अपने घरेलू बाजार से ऋण लेने के बजाए अंतरराष्ट्रीय बाजार का रुख किया। गौर करने की बात है कि इन कंपनियों ने कर्ज तो डॉलर में लिया, मगर इनका कारोबार अपने-अपने देशों की मुद्राओं में हो रहा था। बदले माहौल में अब डॉलर के मुकाबले विकासशील देशों की मुद्राएं अपने-अपने निचले स्तर पर जा चुकी हैं, लिहाजा डॉलर में लिए गए कर्ज का भुगतान करते हुए अब विकासशील देशों की कंपनियों को ज्यादा पैसे चुकाने होंगे। कॉरपोरेट समूह के इस कर्ज संकट के कारण सस्ती पूंजी से पैदा हुआ यह रोग अब शेयर बाजार से निकल कर अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों में भी फैलता जा रहा है। 
पेट्रोलियम पदार्थों की घरेलू मांग का तकरीबन अस्सी फीसद आयात करने वाले भारत के लिए यह रोग खतरनाक साबित होता जा रहा है। डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में आ रही गिरावट को तेल कंपनियां उपभोक्ताओं पर लाद देंगी। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में इजाफे का सीधा असर परिवहन और सामान की ढुलाई पर और फिर सीधे आम जनता पर पड़ेगा। 
रुपए की कीमत में आ रही गिरावट को रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने कई कदम उठाए, जिनका उलटा असर हुआ है। रिजर्व बैंक ने देश से बाहर जा रहे डॉलर प्रवाह को रोकने के लिए भारत से पैसा भेजने की सीमा दो लाख डॉलर से घटा कर पचहत्तर हजार डॉलर कर दी। आरबीआइ के मुताबिक इस रकम का इस्तेमाल विदेशों में संपत्ति खरीदने के लिए नहीं किया जा सकता है। इन नीतिगत घोषणाओं के अगले ही दिन रुपए की कीमत में 5.40 फीसद गिरावट दर्ज की गई, वहीं सेंसेक्स ने अगले दो दिन के भीतर ही 1059 अंकों की गिरावट दर्ज की। संदेश साफ है, रुपए की गिरावट को थामने की कोशिशों से अब नकारात्मक असर ही देखने को मिलेगा। 
रुपए की कीमत में आ रही गिरावट दरअसल, कोई रोग नहीं, बल्कि यह शरीर में आए बुखार की माफिक इस बात का सूचक है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर रोग की गिरफ्त में आई हुई है। इस गिरावट को थामने के बजाए रोग का इलाज किया जाना चाहिए। 
रुपए को गर्व का प्रतीक समझने के बजाए इसे साधारण आर्थिक सूचक समझना चाहिए। बीते सालों में रुपए की कीमत में बढ़ती हुई मुद्रास्फीति के हिसाब से जो स्वाभाविक गिरावट आनी चाहिए थी, वह विकसित देशों से हो रही सस्ती नकदी की ताबड़तोड़ आवक के कारण नहीं आई। ऐसे में हमारा निर्यात क्षेत्र कीमतों के लिहाज से आकर्षक नहीं होने के कारण वैश्विक बाजार में मुकाबला नहीं कर पाया और इसकी कीमत आज हमारी अर्थव्यवस्था चुका रही है। 
दुनिया के हर विकासशील देश ने अपनी मुद्रा के अवमूल्यन से फायदा उठाया है, हमारा पड़ोसी चीन इस बात का जीता-जागता सबूत है। रुपए के अवमूल्यन से निश्चित तौर पर हमारे निर्यात क्षेत्र को सहारा मिलेगा, लेकिन केवल अवमूल्यन के सहारे निर्यात क्षेत्र को वैश्विक बाजार में खड़ा करने की बात करना नादानी होगी। रुपए की कीमत में गिरावट की सबसे बड़ी अंदरूनी वजह बढ़ता चालू खाते का घाटा (आयात और निर्यात के बीच का फर्क) है। एक तरफ पेट्रोलियम पदार्थ और सोने का बढ़ता आयात है, वहीं दूसरी तरफ वैश्विक दौड़ से बाहर हो चुका निर्यात क्षेत्र चालू खाते के बढ़ते घाटे की अहम वजहें हैं। 
रोग की जड़ पर प्रहार करने के बजाए हमारे नीति-निर्माता लक्षणों को ही रोग समझ कर कभी सोने के पीछे लट््ठ लेकर भागते हैं तो कभी देश से बाहर डॉलर के प्रवाह पर रोक लगाते हैं। ऐसे दिशाहीन फैसलों के कारण संकट और गहराता जा रहा है। रुपए को राष्ट्रीय गौरव से जोड़ कर इसकी गिरावट थामने की नादानी का लंबे समय तक खमियाजा उठाना पड़ेगा। 
मजबूत भारत बनाने की बात कहने वाली भाजपा के नरेंद्र मोदी एक रुपए को एक डॉलर के बराबर लाने का दावा कर रहे हैं। अगर उन्हें अर्थशास्त्र की जरा भी समझ है तो इस तरह की आधारहीन बातें करने के बजाए विदेशी पूंजी की बाट जोह रही भारतीय अर्थव्यवस्था को विकास के रास्ते पर लाने के लिए देश में विनिर्माण क्षेत्र को खड़ा करने का मसला उठाना चाहिए। 
फेडरल रिजर्व ने क्यूई नीति अमेरिकी अर्थव्यवस्था के फायदे के लिए लागू की थी और अपना मकसद पूरा हो जाने के बाद इसे वापस लिया जा रहा है। रुपए का संकट बता रहा है कि भारत का वित्तीय स्वास्थ्य किस हद तक विदेश पूंजी के प्रवाह पर निर्भर हो गया है। असल में भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत उस खच्चर की तरह है, जो न गधा है और न घोड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह बंद अर्थव्यवस्था नहीं है, जो वैश्विक झटकों से महफूज रह सके और यह पूरी तरह खुली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भी तब्दील नहीं हो पाई है, जो विकसित अर्थव्यवस्थाओं में हो रही रिकवरी का फायदा उठा सके। रुपए-सेंसेक्स की गिरावट ने दुबारा इस बात पर मुहर लगाई है कि हमारी अर्थव्यवस्था मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था के हिसाब से समायोजन करके आगे बढ़ने को तैयार नहीं है।

 

 

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