जब मैं भड़ास4मीडिया वेबसाइट शुरू कर रहा था तो मुझे इस बात का मलाल था कि मेरी फितरत, मेरी हरकतों, मेरी अराजकताओं, मेरी प्रवृत्तियों, मेरे सोचने-जीने के तौर-तरीकों को बेहद ना-पसंद करने वाले हिंदी पट्टी के लालाओं और इनके डरपोक किस्म के चमचे संपादकों ने मेरे लिए हिंदी अखबारों में कोई जगह न होने की अघोषित घोषणा कर दी थी और इसको लेकर आपस में अंदरखाने एकजुटता, एकगुटता भी बना ली थी. डरपोक व चमचा संपादक कभी किसी बहादुर व सरोकारी पत्रकार को बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसे डर लगा रहता है कि पता नहीं कब यह सवाल खड़ा करने लगे, बहस करने लगे, अच्छा-बुरा समझाने लगे और क्या करें क्या ना करें की बात बताने लगे... हम हिंदी पट्टी वाले नौकरी जाने के बाद अचानक खुद को बेहद पस्त, दयनीय, शोकग्रस्त पाते हैं क्योंकि हम लोगों को जन्म से ही नौकरी करने के लिए जीना सिखाया गया... और नौकर न बन पाने की स्थिति में सबसे नाकारा घोषित किया गया.. खासकर सवर्ण घरों के युवाओं की स्थिति ज्यादा दुखद होती है क्योंकि उन्हें स्व-रोजगार करना किसी घटिया काम करने जैसा लगता है और नौकरी पाना-करना इनमें से ज्यादातर के वश की बात होती नहीं. पर थोड़े समझदार युवा जब नौकरी में जाते हैं और किन्हीं कारणों से छंटनी के शिकार या पैदल हो जाते हैं तो इनके आंख के आगे अंधेरा छाने लगता है... कि अब क्या करें... सीएनएन-आईबीएन व आईबीएन7 में सैकड़ों पत्रकारों की छंटनी के बाद अब दैनिक भास्कर दिल्ली आफिस से खबर है कि सैकड़ों लोगों को कार्यमुक्त करने की तैयारी है.. कइयों को लेटर थमा दिया गया है... भास्कर के दिल्ली एडिशन को मैनेजमेंट बंद कर रहा है.. मतलब ये कि सैकड़ों की संख्या में पत्रकार बेरोजगार होंगे और इन्हें खुद को नौकरी पाने के लिए यहां वहां जूझना घूमना पड़ेगा... जो पहले से ही सैकड़ों बेरोजगार हैं, उनके साथ नौकरी पाने के लिए होड़ में जुटना पड़ेगा... लेकिन मेरा सवाल इन बेरोजगारों से ये है कि इनमें से कितने लोग हैं जो अब अपना खुद का काम करना चाहते हैं और उस काम से उतना ही कमा लेना चाहते हैं जितना वह नौकर बनकर (कारपोरेट मीडिया घरानों में पत्रकार की नौकरी करना किसी नौकर जैसा ही होना है, जो अपने विवेक से नहीं बल्कि मालिक के आदेश इशारों व रहमोकरम पर निर्भर करता जीता है) कमा पाता है? मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूं कि हिंदी पट्टी के युवाओं, खासकर मीडिया वालों को यह बताया जाए कि इस दौर में जब आनलाइन माध्यम तेजी से विकसित हो रहे हैं, मार्केट का खास तवज्जो इस ओर है तो वे कैसे यहां खुद की दुकान सजा सकते हैं, खुद का बिजनेस माडल डेवलप कर सकते हैं, खुद के परिश्रम से कमा सकते हैं? इसको लेकर एक वर्कशाप करने की योजना मेरे दिमाग में है. वर्कशाप में कंटेंट पर कम (क्योंकि पत्रकार की कंटेंट पर पकड़ पहले से ही होती है), बिजनेस जनरेट करने पर ज्यादा जोर रहेगा. इसके लिए कुछ एक्सपर्ट को भी बुलाया जाएगा... कैसे वेबसाइट बनाएं, कैसे गूगल एडसेंस को एक्टिविट कर पैसे पाएं, किन किन फील्ड में आनलाइन काम कर लाखों कमाएं... इन विषयों पर वर्कशाप की जरूरत है क्योंकि एक अकेला बेरोजगार पत्रकार अपनी तात्कालिक त्रासदी से उबर नहीं पाता तो भला इन विषयों पर क्या सोच पाएगा, क्या विचार कर पाएगा.. आप लोग सोचें और बताएं कि क्या वर्कशाप की दिशा में बढ़ा जाए या फिर साथियों की बलि पर सिर्फ शोक व्यक्त कर शांत रहा जाए...
जब मैं भड़ास4मीडिया वेबसाइट शुरू कर रहा था तो मुझे इस बात का मलाल था कि मेरी फितरत, मेरी हरकतों, मेरी अराजकताओं, मेरी प्रवृत्तियों, मेरे सोचने-जीने के तौर-तरीकों को बेहद ना-पसंद करने वाले हिंदी पट्टी के लालाओं और इनके डरपोक किस्म के चमचे संपादकों ने मेरे लिए हिंदी अखबारों में कोई जगह न होने की अघोषित घोषणा कर दी थी और इसको लेकर आपस में अंदरखाने एकजुटता, एकगुटता भी बना ली थी. डरपोक व चमचा संपादक कभी किसी बहादुर व सरोकारी पत्रकार को बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसे डर लगा रहता है कि पता नहीं कब यह सवाल खड़ा करने लगे, बहस करने लगे, अच्छा-बुरा समझाने लगे और क्या करें क्या ना करें की बात बताने लगे... हम हिंदी पट्टी वाले नौकरी जाने के बाद अचानक खुद को बेहद पस्त, दयनीय, शोकग्रस्त पाते हैं क्योंकि हम लोगों को जन्म से ही नौकरी करने के लिए जीना सिखाया गया... और नौकर न बन पाने की स्थिति में सबसे नाकारा घोषित किया गया.. खासकर सवर्ण घरों के युवाओं की स्थिति ज्यादा दुखद होती है क्योंकि उन्हें स्व-रोजगार करना किसी घटिया काम करने जैसा लगता है और नौकरी पाना-करना इनमें से ज्यादातर के वश की बात होती नहीं. पर थोड़े समझदार युवा जब नौकरी में जाते हैं और किन्हीं कारणों से छंटनी के शिकार या पैदल हो जाते हैं तो इनके आंख के आगे अंधेरा छाने लगता है... कि अब क्या करें... सीएनएन-आईबीएन व आईबीएन7 में सैकड़ों पत्रकारों की छंटनी के बाद अब दैनिक भास्कर दिल्ली आफिस से खबर है कि सैकड़ों लोगों को कार्यमुक्त करने की तैयारी है.. कइयों को लेटर थमा दिया गया है... भास्कर के दिल्ली एडिशन को मैनेजमेंट बंद कर रहा है.. मतलब ये कि सैकड़ों की संख्या में पत्रकार बेरोजगार होंगे और इन्हें खुद को नौकरी पाने के लिए यहां वहां जूझना घूमना पड़ेगा... जो पहले से ही सैकड़ों बेरोजगार हैं, उनके साथ नौकरी पाने के लिए होड़ में जुटना पड़ेगा... लेकिन मेरा सवाल इन बेरोजगारों से ये है कि इनमें से कितने लोग हैं जो अब अपना खुद का काम करना चाहते हैं और उस काम से उतना ही कमा लेना चाहते हैं जितना वह नौकर बनकर (कारपोरेट मीडिया घरानों में पत्रकार की नौकरी करना किसी नौकर जैसा ही होना है, जो अपने विवेक से नहीं बल्कि मालिक के आदेश इशारों व रहमोकरम पर निर्भर करता जीता है) कमा पाता है? मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूं कि हिंदी पट्टी के युवाओं, खासकर मीडिया वालों को यह बताया जाए कि इस दौर में जब आनलाइन माध्यम तेजी से विकसित हो रहे हैं, मार्केट का खास तवज्जो इस ओर है तो वे कैसे यहां खुद की दुकान सजा सकते हैं, खुद का बिजनेस माडल डेवलप कर सकते हैं, खुद के परिश्रम से कमा सकते हैं? इसको लेकर एक वर्कशाप करने की योजना मेरे दिमाग में है. वर्कशाप में कंटेंट पर कम (क्योंकि पत्रकार की कंटेंट पर पकड़ पहले से ही होती है), बिजनेस जनरेट करने पर ज्यादा जोर रहेगा. इसके लिए कुछ एक्सपर्ट को भी बुलाया जाएगा... कैसे वेबसाइट बनाएं, कैसे गूगल एडसेंस को एक्टिविट कर पैसे पाएं, किन किन फील्ड में आनलाइन काम कर लाखों कमाएं... इन विषयों पर वर्कशाप की जरूरत है क्योंकि एक अकेला बेरोजगार पत्रकार अपनी तात्कालिक त्रासदी से उबर नहीं पाता तो भला इन विषयों पर क्या सोच पाएगा, क्या विचार कर पाएगा.. आप लोग सोचें और बताएं कि क्या वर्कशाप की दिशा में बढ़ा जाए या फिर साथियों की बलि पर सिर्फ शोक व्यक्त कर शांत रहा जाए...
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