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Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Thursday, August 29, 2013

इस तरह की पूंजी अस्थिर होती है और कभी भी बाहर जा सकती है। फिर, अनाज से लेकर सोना-चांदी तक के दाम वायदा बाजार के सटोरिए तय करने लगे हैं जो डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत का अनुमान लगा कर अपना खेल खेलते हैं। चौतरफा मुश्किलों की चर्चा तो हो रही है, पर वायदा बाजार और पूंजी बाजार के सटोरियों पर लगाम लगाने की बात क्यों नहीं हो रही? रुपए के बेतहाशा अवमूल्यन ने आयात-खर्च में बढ़ोतरी और फलस्वरूप महंगाई और बढ़ने का रास्ता खोल दिया है। भाजपा ने अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत को लेकर यूपीए सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, मगर वह क्यों नहीं बताती कि सरकार की कौन-सी नीतियां और फैसले गलत हैं और मौजूदा स्थिति से उबरने के लिए क्या किया जाना चाहिए। मौजूदा संकट को एक अवसर में भी बदला जा सकता है। पर इसके लिए नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा, जिसकी कोई इच्छाशक्ति हमारे राज्यतंत्र और नीति नियंताओं में फिलहाल नहीं दिखती।

Thursday, 29 August 2013 10:38

जनसत्ता 29 अगस्त, 2013 : अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में रुपए की बदहाली ने आर्थिक मोर्चे पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। यूपीए सरकार यह कहते नहीं थकती कि विश्वव्यापी मंदी के दौर में भी उसने भारतीय अर्थव्यवस्था को संभाले रखा। लेकिन अब, जबकि वैसा वैश्विक परिदृश्य नहीं है, क्यों देश की अर्थव्यवस्था संकट में पड़ती दिख रही है? वित्तमंत्री कहते रहे हैं कि रुपए की कीमत में आई गिरावट से घबराने की जरूरत नहीं है, जल्दी ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। मगर ऐसे आश्वासन बार-बार अर्थहीन साबित हुए हैं। यों मुद्रा बाजार में थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव आम बात है। लेकिन कुछ महीनों से डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में आती गई गिरावट एक अपूर्व स्थिति है। इस साल के शुरू से अब तक रुपए का बीस फीसद तक अवमूल्यन हो चुका है। मंगलवार को एक डॉलर का मूल्य छियासठ रुपए से कुछ ऊपर पहुंच गया। फिर अगले ही रोज यह रिकार्ड टूट गया; एक डॉलर अड़सठ रुपए के पार चला गया, और फिर थोड़ा पीछे हटने के बावजूद उसकी कीमत सड़सठ रुपए से ज्यादा रही। यह सिलसिला कहां थमेगा? इस स्थिति ने अर्थव्यवस्था के अस्थिर होने का खतरा पैदा कर दिया है। 
रुपए के रसातल में जाने का असर मुंबई के शेयर बाजार पर भी नजर आया। मंगलवार को संवेदी सूचकांक पांच सौ नब्बे अंक लुढ़क गया। कयास है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक को लोकसभा की मंजूरी मिलने की खबर ने रुपए को भी झटका दिया और शेयर बाजार को भी। इसलिए कि इस विधेयक के चलते सरकार पर सबसिडी का जो बोझ पड़ेगा उससे चालू खाते का घाटा बढ़ जाएगा। इसी आशंका के आधार पर इस समय खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने के औचित्य पर भी सवाल उठाए गए हैं। लेकिन उद्योग क्षेत्र को दिए गए प्रोत्साहन पैकेज और सालों-साल दी गई कर-रियायतों के मद्देनजर राजकोषीय घाटे की फिक्र क्यों नहीं की गई? सच यह है कि चालू खाते का घाटा बढ़ने का सिलसिला ढाई दशक पहले ही शुरू हो गया था। डब्ल्यूटीओ के दबाव में तमाम चीजों के आयात पर शुल्क घटा दिए गए और आयात को निर्बाध बना दिया गया। हालांकि इसके बरक्स निर्यात बढ़ाने के लिए करों में छूट और सेज से लेकर कई तरह की सुविधाएं दी गर्इं, पर निर्यात के मुकाबले आयात बढ़ता ही गया। विदेश व्यापार के बढ़ते असंतुलन ने चालू खाते को संकट के कगार पर पहुंचा दिया है। इससे पार पाने और रुपए को संभालने के लिए एक बार फिर जोर-शोर से विदेशी निवेशकों का भरोसा बहाल करने के नाम पर उन्हें और ज्यादा रियायतें या सहूलियतें देने की वकालत की जा रही है। लेकिन तथ्य यह है कि विदेशी निवेश में पोर्टफोलियो निवेश का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है और वह कुल विदेशी निवेश के आधे तक पहुंच गया है। 

इस तरह की पूंजी अस्थिर होती है और कभी भी बाहर जा सकती है। फिर, अनाज से लेकर सोना-चांदी तक के दाम वायदा बाजार के सटोरिए तय करने लगे हैं जो डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत का अनुमान लगा कर अपना खेल खेलते हैं। चौतरफा मुश्किलों की चर्चा तो हो रही है, पर वायदा बाजार और पूंजी बाजार के सटोरियों पर लगाम लगाने की बात क्यों नहीं हो रही? रुपए के बेतहाशा अवमूल्यन ने आयात-खर्च में बढ़ोतरी और फलस्वरूप महंगाई और बढ़ने का रास्ता खोल दिया है। भाजपा ने अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत को लेकर यूपीए सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, मगर वह क्यों नहीं बताती कि सरकार की कौन-सी नीतियां और फैसले गलत हैं और मौजूदा स्थिति से उबरने के लिए क्या किया जाना चाहिए। मौजूदा संकट को एक अवसर में भी बदला जा सकता है। पर इसके लिए नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा, जिसकी कोई इच्छाशक्ति हमारे राज्यतंत्र और नीति नियंताओं में फिलहाल नहीं दिखती।

 

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