Follow palashbiswaskl on Twitter

ArundhatiRay speaks

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity No2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Jyoti basu is dead

Dr.B.R.Ambedkar

Friday, August 9, 2013

कब मिलेगी आदिवासियों को असली सत्ता?

कब मिलेगी आदिवासियों को असली सत्ता?


कौन लोग हैं जो आदिवासी नेताओं के मुंह में ताला लगा रहे हैं?

ग्लैडसन डुंगडुंग

Gladsom Dungdung, ग्लैडसन डुंगडुंग

ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता और झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट के महासचिव हैं।

झारखंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जो कानूनी तौर पर तो नहीं लेकिन सैद्धान्तिक रूप से आदिवासियों के नाम पर बना है और इसी वजह से सत्ता के केन्द्र में अब तक आदिवासी ही रहे हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हकीकत में सत्ता उनके हाथ में है? बावजूद इसके सत्ता के केन्द्र से आदिवासियों को बेदखल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी गैर-आदिवासियों को सौंपने का प्रयास पिछले कुछ वर्षों से चल रही है। बहुसंख्यक गैर-आदिवासी यह स्वीकार करने को ही तैयार नहीं हैं कि राज्य का शीर्ष नेतृत्व आदिवासियों के हाथ में हो और वे राज्य का भविष्य गढ़े। इसलिये अब आदिवासी नेतृत्व को ही कमजोर, नालायक, दिशाहीन, भ्रष्ट और असफल बताया जा रहा है। छत्तीसगढ़ को उदाहरण मानते हुये तर्क दिया जाता है कि झारखंड का विकास करना है तो गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री चाहिए।

लेकिन क्या किसी के पास इस सवाल का जवाब है कि सरकार का जो विभाग गैर-आदिवासी मंत्रियों के जिम्मे में था उनकी स्थिति बदहाल क्यों है? इस सवाल का भी जवाब चाहिए कि बिहार, मध्यप्रदेश या पश्चिम बंगाल जैसे राज्य क्यों पिछड़े हैं जबकि वहाँ की सत्ता गैर-आदिवासियों के हाथों में ही रही है? सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भ्रष्ट, दिशाहीन और असफल भारतीय लोकतंत्र का नेतृत्व कभी आदिवासियों ने किया है? यहाँ झाड़ी पीटने के बजाये गंभीर चर्चा का विषय यह होना चाहिए कि क्या पिछले 13 वर्षो से झारखंड की सत्ता सही मायने में आदिवासियों के हाथों में हैं? यह इसलिये जरूरी है क्योंकि अगर सही मायने में झारखंड का आदिवासी नेतृत्व फेल हुआ तो पूरे देश में आदिवासी असफल होंगे। यहाँ आदिवासी संघर्ष का गौरवशाली इतिहास है इसलिये देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों को झारखंड से बहुत उम्मीद है और इसी राज्य से देश के आदिवासियों का भविष्य तय होगा।

जब 15 नवंबर, 2000 को राज्य का गठन हुआ था तब ऐसा लग रहा था कि अब अबुआ दिशुमअबुआ राज का सपना पूरा होगा। आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनायी और तीन वर्षों के बाद उन्हें सत्ता से बेदखल कर अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। सत्ता की ड्राइविंग सीट पर बैठने वाले ये दोनों ही आदिवासी चेहरे थे लेकिन अबुआ राज का सपना पूरा नहीं हुआ क्योंकि उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता ही नहीं थी इसलिये वे प्रत्येक बड़े निर्णय के लिये दिल्ली और नागपुर के आदेश का इंतजार करते थे। इसी तरह जब मधुकोड़ा के नेतृत्व में यूपीए ने सत्ता संभाली तो शासन का बागडोर फिर दिल्ली और पटना में केन्द्रित हो गयी। इसी बीच दिसोम गुरू शिबू सोरेनभी कुछ दिनों के लिये कुर्सी पर काबिज हुये लेकिन फिर सत्ता की लगाम दिल्ली में ही थी।

अब वर्तमान झारखंड सरकार को भी देख लीजिए किस तरह से केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश सत्ता की चाभी अपने हाथ में लेकर घूम रहे हैं। वहीं आदिवासी नेतागण, मंत्री बनने के लिये कभी सोनिया गांधी, तो कभी राहुल गांधी और कभी लालप्रसाद यादव के दरबार में गिड़गिड़ाते नजर आते हैं। सही मायने में झारखंड की असली सत्ता समय-समय पर अटलबिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, सोनिया गांधी, लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार के हाथों में रही है। अब तक राज्य के मुख्यमंत्री, मंत्री और नीति निर्धारण दिल्ली, नागपुर और पटना से होता रहा है तो फिर असफलता का ठीकरा आदिवासियों के सिर पर क्यों फोड़ा जाना चाहिए? क्या अगर राज्य सही पटरी पर होता तो उसका श्रेय उन्हें दिया जाता? क्या आप उस ड्राईवर से सही ड्राइविंग की उम्मीद कर सकते हैं, जिसे स्टीयरिंग, गियर और ब्रेक लगाने ही आजादी ही न हो? ऐसी स्थिति में क्या दुर्घटना की जिम्मेवारी उसके सर पर मढ़ना उसके साथ अन्याय नहीं होगा? और आदिवासी नेतृत्व के साथ यही हो रहा है।

देखा जाये तो आदिवासी सलाहकार परिषद् एक संवैधानिक संस्थान है, जहां आदिवासियों के विकास एवं कल्याण हेतु निर्णय लिया जाना है। यह संस्थान संवैधानिक रूप से विधानसभा से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं जहाँ अनुसूचित क्षेत्र के विकास एवं कल्याण हेतु सिर्फ आदिवासी जनप्रतिनिधि निर्णय लेने के लिये बैठते हैं। लेकिन क्या कारण है कि पिछले 13 वर्षों में इस संस्थान ने आदिवासी विकास और कल्याण को लेकर कोई एक ठोस निर्णय नहीं ले सका है? क्यों ट्राईबल सब-प्लान के पैसे का बंदरबाँट हो रहा है और कोई प्रश्न नहीं उठता? क्या सचमुच आदिवासी नेता अपने समाज के हित की चिन्ता नहीं करते या उन्हें ऐसा करने से रोका जाता है? क्यों हेमंत सोरेन जैसा युवा आदिवासी नेता मुख्यमंत्री बनते ही स्थानीयता की बात करता है और उसे दूसरे दिन ही चुप करा दिया जाता है? कौन लोग हैं जो आदिवासी नेताओं के मुंह में ताला लगा रहे हैं?

देश के स्तर पर देखने से पता चलता हैं कि वर्तमान में 47 आदिवासी सांसद हैं लेकिन आदिवासियों के गंभीर मुद्दे कभी भी राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बनता? झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़िसा में हो रहे निर्दोष आदिवासियों की निर्मम हत्या, आदिवासी बच्चियों के साथ बलात्कार और उनकी गैर-कानूनी जमीन लूट संसद में क्यों नही गूँजती है? आज क्यों एक भी राष्ट्रीय स्तर का आदिवासी नेता नहीं है? क्यों आदिवासी नेता कोई मुद्दा उठाने की बात पर पार्टी लाईन का रोना रोते हैं? क्या आदिवासी नेताओं को गुलाम बना लिया गया है? इन सवालों का जवाब आदिवासी नेताओं को भी देना चाहिए। 

हकीकत यह है कि आदिवासी नेतृत्व के खिलाफ षडयंत्र चलाया जा रहा है और वे उसमें फँसते जा रहे हैं। इतिहास गवाह है कि बाबा तिलका मांझीसिदो-कन्हो, फूलो-झानो, सिंगराय-बिन्दराय, माकी-देवमणी, बुद्धो भगत, निलंबर-पीतंबर, बिरसा मुंडा, जतरा टाना भगत जैसे सैंकड़ो क्रांतिकारी आदिवासी नेताओं ने आजादी की लड़ाई लड़ी लेकिन इतिहास में उन्हें नाकार दिया गया। इसी तरह जब जयपाल सिंह मुंडा, विश्व पटल पर चमके और उनके जादुई नेतृत्व में झारखंड पार्टी ने 1952 के विधानसभा चुनाव में बिहार विधानसभा में 32 सीट हासिल कर विपक्षी पार्टी की ताकत हासिल कर ली तो कांग्रेस पार्टी के अंदर खलबली मच गई और उसे ट्रैप कर लिया गया। दिसोम गुरू शिबु सोरेन के साथ भी वही हुआ। कांग्रेस के नेताओं ने उनके बैंक खाते में एक करोड़ रूपये डालकर उसे बेईमान घोषित कर दिया। अगर वे सचमुच बेईमान होते तो क्यों वे उस पैसे को अपने बैंक खाते में डलवाते?

झारखंड बनने के बाद तो आदिवासी नेताओं को बेईमान साबित कर भ्रष्टाचार का सिंबल बना दिया गया। अब मधुकोड़ा को ही ले लीजिये। आज वे भ्रष्टाचार के सिंबंल बन गये हैं लेकिन उनके साथ जुड़ने वाले नामों में कितने लोग आदिवासी हैं? क्या लूटे गये खजाना का पैसा उनके खाते में गया या किसी और के खजाने में? हालांकि मधुकोड़ा को आदिवासी कहकर बरी तो नहीं ही किया जा सकता है क्योंकि लूट तो उन्हीं के शासनकाल में हुई है। लेकिन अगर सही में वे भ्रष्ट हैं भी तो एक मधुकोड़ा की वजह से पूरे आदिवासी समुदाय के नेतृत्व को कैसे नाकारा जा सकता है? साथ ही साथ यह भी देखना होगा कि झारखण्ड गठन के बाद भ्रष्टाचार की नीव पड़ी उसमें कितने आदिवासी नेता शामिल थे? राज्य में किसने भ्रष्टाचार की नीव डाली? किसने सबसे पहले झारखंड का सौदा दिया? झारखंड के संसाधनों को लूटकर किसका घर भरा जा रहा है?

यह कौन नहीं जानता है कि अपने मेहनत के बलबूते पर उभरती नेत्री रमा खलखो को ट्रैप कर लिया गया और लोकतंत्र के नाम पर पैसे के पूरे खेल को अंजाम देने वाली बड़ी मछली को किसी ने हाथ लगाने की हिम्मत तक नहीं की? और अंत में आदिवासी नेत्री रमा खलखो को बेईमानों की सूची में डालकर जेल भेज दिया गया। क्या वजह है कि चमरा लिंडा जैसा लड़ाकू युवा सत्ता पर बैठते ही चुपी साध लेता है? स्थानीयता, जमीन बचाने का संघर्ष और आदिवासी मुद्दों पर गोलबंद के लिये विख्यात नेता बंधु तिर्की और चमरा लिंडा कांग्रेस पाटी में शामिल होने के लिये मजबूर क्यों हैं? कालांतर में जिस तरह से आदिवासी तिरंदाज एकलब्य का अंगूठा कटवाकर उसके प्रतिभा की हत्या की गई, ठीक उसी तरह से देश में आदिवासी नेतृत्व को एक के बाद एक खत्म करने की साजिश चल रही है, जिसपर आदिवासी नेताओं को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।

झारखंड का असली नारा 'अबुआ दिशुम, अबुआ राज' में अबतक आदिवासियों को सिर्फ अबुआ दिशुम मिला है और सही मायने में अबुआ राज लेना अभी बाकी है। अबुआ राज याने सत्ता में बैठकर निर्णय लेने का अधिकार, क्योंकि झारखंड की सत्ता को अबतक दिल्ली (अटलबिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और सोनिया गांधी), नागपुर (नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह और आर.एस.एस. नेतृत्व) पटना (लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार), पूंजीपति, नौकरशाह और ठेकेदार ही चलाते रहे हैं, जिन्होंने आदिवासियों को सिर्फ एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया है। फलस्वरूप यहाँ पूँजीपतियों, नेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों और व्यापारियों का खजाना भरा और आदिवासी लोग गरीब होते चले गये?

ऐसी स्थिति में जबतक झारखंडी लोग स्वयं झारखंड को नहीं चलायेंगे तब तक यह राज्य कभी भी आगे नहीं बढ़ेगा क्योंकि राज्य की परिकल्पना ही उनका है। झारखंड का इतिहास गौरवशाली रहा है, जिससे आदिवासी नेताओं ने भी मिट्टी में मिलाने का काम किया है। इसलिये आदिवासी नेताओं को ही सबसे ज्यादा सोचना पड़ेगा। अब समय आ गया है कि नया नेतृत्व, नयी सोच और नयी उर्जा के साथ झारखंड में पार्टी लाईन, दिल्ली, नागपुर और पटना से छुटकारा लेकर राज्य में विकास और सुशासन कायम करते हुये विरोधियों को करारा जवाब दे तभी झारखंड और आदिवासियों का भला होगा।

 

- ग्लैडसन डुंगडुग मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक व चिंतक हैं।।


No comments: