मोदी के विवेक पर प्रत्याशा का बोझ
-एच.एल.दुसाध
वैसे तो भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ.भीमराव आंबेडकर के जयंती की रौनक साल दर साल बढती ही जा रही है,पर यह वर्ष इस लिहाज से बहुत खास रहा.इस वर्ष उनकी 125 वीं जयंती होने के कारण तमाम राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने अपने-अपने स्तर पर एक दूसरे से बढ़कर भव्य आयोजन किया.इस सिलसिले को आगे बढाते हुए दलित उद्यमियों का संगठन डिक्की (दलित इन्डियन चेंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) 29 दिसंबर को दिल्ली में 'एससी/एसटी उद्यमियों का भव्य राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित करने जा रही है.वैसे तो यह वर्ष डिक्की की स्थापना का दसवां वर्ष भी है,किन्तु विज्ञान भवन जैसे प्रतिष्ठित सभागार में आयोजन के पीछे निश्चय ही प्रमुख प्रेरणा आंबेडकर की 125 वीं जयंती ही है.इसी से प्रेरित हो कर दस साल पुराने इस संगठन ने इस वर्ष से राष्ट्रीय सम्मलेन की शुरुआत की है.
काबिले गौर है कि डिक्की की पहचान मुख्यतः मेलों के आयोजक के रूप में रही है जिसमें दलित उद्यमियों द्वारा तैयार उत्पादों की पर्दर्शनी लगायी जाती है.इस दिशा में इसकी शुरुआत 4-5 जून, 2010 को पुणे में आयोजित दलित एक्सपो-2010 से हुई,जिसका उदघाटन टाटा संस के निदेशक डॉ.जेजे इरानी ने किया तथा जिसमें 150 से अधिक दलित उद्यमियों ने अपने प्रोडक्ट की प्रदर्शनी लगाया था.चूंकि वह मेला दलितों द्वारा लगाया गया था इसलिए कयास लगाया गया था कि उसमें वैसे उत्पादों की भरमार होगी जो दलितों के जातिगत पेशों से जुड़े होते हैं.लेकिन वहां चमड़े से जुड़े उत्पादों के सिर्फ दो ही स्टाल थे,भरमार वैसे उत्पादों की थी जिनसे दलितों के जुड़ने की सहज कल्पना ही नहीं की जा सकती.वहां के स्टाल गवाही दे रहे थे कि वे सीसीटीवी,मोबाइल जैमर,मैजिक बॉक्स,आर्गेनिक चाकलेट और टॉफी जैसी अत्याधुनिक वस्तुएं बना रहे हैं;बीपीओ चला रहे हैं तथा उसकी विदेशों में शाखाएं खोलने का मंसूबा पाल रहे हैं.वे चीनी और टेक्सटाइल मिलों के मालिक बन रहे तथा कंस्ट्रक्सन व्यवसाय में अपनी पहचान स्थापित कर रहे हैं.कहने का मतलब है कि पुणे के दलित एक्सपो ने इस बात पर मोहर लगा दिया था कि दलित भी दूसरों की तरह,किसी भी तरह का उत्पाद तैयार कर सकते हैं.बाद में 2011 में मुंबई के बांद्रा-कुर्ला काम्लेक्स में आयोजित दूसरे मेले ने जहां पुणे की भव्यता को म्लान किया,वहीँ दलित उद्यमिता की प्रतिष्ठा में और इजाफा कर दिया.उसके बाद डिक्की की धाक इस कदर जम गयी कि पुणे से शुरु हुए इस संगठन की शाखाएं देखते ही देखते देश के तमाम प्रमुख शहरों में फ़ैल गईं तथा इसके सदस्यों की संख्या हजार को छूली.लोगों ने दलित राजनीति और दलित साहित्य का उभार देखा था किन्त दलित उद्यमिता का उभार उनकी सोच से परे था.किन्तु डिक्की ने बता दिया है कि दलित उद्यमिता के क्षेत्र में भी दस्तक दे दिए हैं.आज डिक्की से जुड़े कई उद्यमी 21 वीं सदी के दलितों के रोल मॉडल हैं.एससी/एसटी उद्यमियों के राष्ट्रीय सम्मलेन का अन्यतम एजेंडा आर्थिक जगत के दलित नायकों को युवा दलितों से रूबरू कराना है.इसके लिए दिल्ली और उसके पार्श्ववर्ती इलाकों के इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कालेजों के अंतिम वर्ष के एससी/एसटी छात्रों को विशेष तौर से आमंत्रित किया गया है ताकि वे देश –विदेश से आये एक हजार दलित उद्यमियों से रूबरू होकर उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ बनने की प्रेरणा ले सकें.लेकिन डिक्की के इस आयोजन के मुख्य आकर्षण की बात की जाय तो निश्चित रूप से देश की निगाहें प्रधानमंत्री मोदी पर होंगी जो इसके मुख्य अतिथि होंगे.और ऐसा होने का एकमेव व प्रधान कारण विगत एक वर्ष में मोदी और उनकी पार्टी के पितृ संगठन संगठन आरएसएस द्वारा आंबेडकर के प्रति प्रदर्शित की गयी श्रद्धा है.
आंबेडकर जयंती के 125 वें वर्ष में कांग्रेस सहित तमाम दलों ने आंबेडकर की विरासत से खुद को जोड़ने का प्रयास किया ,पर इनमें सबसे आगे निकल गयी भाजपा.कोई सोच नहीं सकता था कि 'रिडल्स इन हिन्दुइज्म' के लेखक और वर्षो पहले 'हिन्दू के रूप में न मरने' की घोषणा करने वाले डॉ.आंबेडकर को भाजपा के घोर हिंदुत्ववादी पितृ संगठन की ओर से 'भारतीय पुनरुत्थान के पांचवे चरण के अगुआ' के रूप में आदरांजलि दी जा सकती है,लेकिन मोदी-राज में ऐसा हुआ.इससे आगे बढ़कर उनके साथ अपने रिश्ते जोड़ने के लिए भाजपा ने और भी बहुत कुछ किया.मोदी राज में ही इस वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह में दादर स्थित इंदू मिल को आंबेडकर स्मारक बनाने की दलितों की वर्षो पुरानी मांग को स्वीकृति मिली.बात यही तक सिमित नहीं रही,इंदू मिल में स्मारक बनाने के लिए 425 करोड़ का फंड भी मोदी सरकार ने मुहैया करा दिया.लन्दन के जिस तीन मंजिला मकान में बाबासाहेब आंबेडकर ने दो साल रहकर शिक्षा ग्रहण की थी,उसे इसी वर्ष चार मिलियन पाउंड में ख़रीदने का बड़ा काम मोदी राज में ही हुआ.इनके अतिरिक्त भी आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष में भाजपा ने ढेरों ऐसे काम किये जिसके समक्ष आंबेडकर-प्रेम की प्रतियोगिता में बाकी दल बौने बन गए.इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था 26 नवम्बर को 'संविधान दिवस' घोषित करना एवं इसमें निहित बातों को जन-जन तक पहुचाने की प्रधानमंत्री की अपील.इसके लिए उन्होंने जिस तरह संसद के शीतकालीन सत्र के शुरुआती दो दिन संविधान पर चर्चा के बहाने डॉ.आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने का उपक्रम चलाया,उससे 125 वीं जयंती और यादगार बन गयी. इस अवसर prसंविधान निर्माण में डॉ.आंबेडकर की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने जिस तरह यह कहा था-' अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता,तो कोई बताये कि मेरे दलित,पीड़ित,शोषित समाज की हालत क्या होती?परमात्मा ने उसे वह सब दिया है ,जो मुझे और आपको दिया है,लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है.उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है-'उससे मोदी सरकार के प्रति दलितों की प्रत्याशा में कई गुना इजाफा हो गया.इस प्रत्याशा के कारण ही 29 दिसंबर को पुरे देश के दलितों की निगाहें दिल्ली के विज्ञान –भवन की और होंगी. मोदी भी इस बात से अनजान नहीं होंगे,इसलिए जब वे २९ दिसंबर की सुबह १०.३० पर विज्ञानं भवन में प्रवेश करेंगे ,निश्चय ही उनके विवेक पर इस प्रत्याशा का बोझ होगा.बहरहाल मोदी अगर सचमुच दलितों की दुर्दशा को दूर करना चाहते हैं तो उन्हें निम्न बातों पर गंभीरता से विचार करना होगा.
सबसे पहले तो यह ध्यान रखना होगा संविधान प्रारूप समिति में जाने के पीछे डॉ.आंबेडकर का प्रधान अभीष्ट दलित वर्ग का कल्याण करना था,जिसका खुलासा उन्होंने 25 नवम्बर,1949 को संसद में दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में भी किया था.इस बात की ओर राष्ट्र का ध्यान नए सिरे से आकर्षित करते हुए विद्वान् सांसद शरद यादव ने गत 27 नवम्बर को संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान कहा था-'हिन्दुस्तान के संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर को जो जिम्मा दिया गया था ,वह इसलिए दिया गया था कि देश के सबसे जयादा छोटे और सब से ज्यादा निचले तबके,छोटी जाति व वीकर सेक्शन के लोगों की जिंदगी कैसे ठीक होगी,कैसी संवरेगी,उन्हें बनाने का यही मकसद था.' लेकिन बाबा साहेब इस मकसद में पूरी तरह सफल इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि संविधान निर्माण के समय वे दुनिया के सबसे लाचार स्टेट्समैन थे.पाकिस्तान विभाजन के बाद वह संविधान सभा में पहुंचे थे तो उस दल की अनुकम्पा से जिसका लक्ष्य परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न तबके का हित-पोषण था.उनकी लाचारी की ओर संकेत करते हुए पंजाबराव देशमुख ने कहा था कि यदि आंबेडकर को संविधान लिखने की छूट मिली होती तो शायद यह संविधान अलग तरह का बनता.मनचाहा संविधान लिखने की छूट न होने के कारण ही उन्हें 'राज्य और अल्पसंख्यक'पुस्तिका की रचना करनी पड़ी थी.अगर मनचाहा संविधान लिखने की छूट होती तो अक्तूबर 1942 में गोपनीय ज्ञापन के जरिये ब्रितानी सरकार के समक्ष ठेकों में आरक्षण की मांग उठाने वाले आंबेडकर क्या संविधान में ठेकों सहित सप्लाई,डीलरशिप इत्यादि अन्यान्य आर्थिक गतिविधियों में दलितों व अन्य वीकर सेक्शन के लिए हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं कर देते?
काबिले गौर है कि मानव सभ्यता के इतिहास में जिन तबकों को शोषण,उत्पीडन और वंचना का शिकार बनना पड़ा,वह इसलिए हुआ कि जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर रही उन्होंने उनको शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक-शैक्षिक इत्यादि) में वाजिब हिस्सेदारी नहीं दिया.जहां तक आंबेडकर के लोगों का सवाल है उन्हें हजारों सालों से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रखा गया.स्मरण रहे डॉ.आंबेडकर के शब्दों में अस्पृश्यता का दूसरा नाम बहिष्कार है.इस देश के शासकों ने जिस निर्ममता से आंबेडकर के लोगों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत कर अशक्त व असहाय बनाया,मानव जाति के इतिहास में उसकी कोई मिसाल ही नहीं है.बहरहाल अपनी सीमाओं में रहकर जितना मुमकिन था,उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14,15(4),16(4),17,24,25(2),29(1),38(1),38(2),39,46,164(1),244,257(1),320(4),330,332,334,335,338,340,341,342,350,371इत्यादि प्रावधानों के जरिये मोदी के दलित ,पीड़ित,शोषित समाज चेहरा बदलने का सबल प्रयास किया.लेकिन आजाद भारत के शासक आंबेडकर के लोगों के प्रति प्रायः असंवेदनशील रहे इसलिए वे इन प्रावधानों को भी इमानदारी से लागू नहीं किये .फलतः आज भी दलित शोषित अपनी दुर्दशा से निजात नहीं पा सके हैं.काबिले गौर है कि आंबेडकरी आरक्षण से प्रेरणा लेकर अमेरिका ने अपने देश के कालों व वंचित अन्य नस्लीय समूहों को सरकारी नौकरियों के साथ-साथ सप्लाई,डीलरशिप,ठेंको,फिल्म-टीवी इत्यादि समस्त क्षेत्रों में ही अवसर सुलभ कराया.इससे अमेरिकी वंचितों के जीवन में सुखद बदलाव आया. प्रधानमंत्री यदि सचमुच अवसरों से वंचित दलित शोषितों के जीवन में बदलाव लाना चाहते हैं,जोकि संविधान निर्माता की दिली चाह थी,तो मौजूदा आरक्षण के प्रावधानों को कठोरता से लागू करवाने के साथ ही उन्हें सप्लाई,डीलरशिप,ठेंको ,फिल्म-टीवी इत्यादि में पर्याप्त अवसर दिलाने का मन बनायें और उसकी घोषणा डिक्की के मंच से करें.साल के विदा लेते-लेते आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष में डॉ.आंबेडकर के लोगों के मुकम्मल-अस्पृश्यतामोचन का डिक्की से बेहतर मंच और कहां मिल सकता है!
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं )
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