TaraChandra Tripathi
अध्यापकीय जीवन के छत्तीस वर्ष के अनुभव ने मुझे शिक्षकों के चार स्वरूपों के दर्शन कराये थे और मैने इन कोटियों को नाम दिया था- वन्दनीय, आत्मीय, पालनीय और झेलनीय। चारों ही सामान्यतः हर विद्यालय में विराजमान होते हैं।
१-वन्दनीय अध्यापक
मेरे विचार से वन्दनीय अध्यापक वे अध्यापक हैं, जो निरपेक्ष भाव से निरंतर छात्र हित में लगे रहते हैं। विद्यालय में प्रधानाचार्य का होना न होना उनके कर्म को प्रभावित नहीं करता। उनका तन-मन केवल छात्रों के प्रति समर्पित होता है। वे अपने ज्ञान से ही नहीं, शिक्षण कला और आचरण से भी छात्रों के भविष्य को रूपायित करते हैं। नकल के लिए कुख्यात विद्यालयों में भी कुछ अध्यापक ऐसे होते हैं जिन पर विद्यालय के दूषित परिवेश का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। वे प्राकृतिक उपादानों की तरह अपना काम करते रहते हैं ।
२आत्मीय अध्यापक
आत्मीय कोटि के अध्यापकों में ऐसे अध्यापक सम्मिलित किये जा सकते हैं, जिनकी कार्यशैली प्रधानाचार्य-सापेक्ष्य होती है। प्रधानाचार्य से पटती है, तो अच्छा काम करते हैं। नहीं पटती, तो उदासीन हो जाते हैं। हर विद्यालय में ऐसे अनेक अध्यापक होते हैं।
३- पालनीय अध्यापक
तीसरी कोटि में ऐसे अध्यापकों को रखा जा सकता है, जो सेवा-निवृत्ति के निकट हैं, न पारिवारिक दायित्व पूरे हुए हैं, न पदोन्नति ही मिली है। जिन्दगी भर पढ़ाते-पढ़ाते वाणी थक गयी है। प्रोत्साहन के नाम पर विभाग को भेजी जाने वाली आख्याओं में केवल संतोषजनक टिप्पणी देखते-देखते जिनकी आँखें पथरा चुकी हैं। मन में अनवरत 'अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल' का अनाहत नाद चल रहा है, ऐसे अध्यापक पालनीय हैं। मुझे लगता है कि ऐसे अध्यापकों के लिए 'अवगुन चित न धरौ' सूत्र का ही पालन किया जाना चाहिए।
४-झेलनीय अध्यापक
विद्यालयों की सबसे बड़ी समस्या झेलनीय अध्यापक हैं। इनमें से कुछ बाहुबली होते हैं तो कुछ अर्थबली, कुछ की देह तो विद्यालय में होती है और प्राण किसी नेता में। कुछ रावण की तरह होते हैं, जिनके शीष चाहे कितनी ही बार काटो, वे किसी नेता के वरदान से फिर-फिर उग आते हैं। कुछ छात्रों को मनुष्य बनाने की अपेक्षा मुर्गा और बकरा बनाने में प्रवण होते हैं, तो कुछ उन्हें बँधुवा मजदूर मानते हैं। उच्चतर विद्युत वोल्ट की विद्युत धारा को वहन करने वाले तारों के खंभों पर 'खतरा है' का संकेत देने वाले नरमुंडों के चित्र तो टँगे होते हैं, इन पर खतरे का प्रतीक नरमुंड दिखाई भी नहीं देता। इनको छेड़ने से पहले कई बार सोचना पड़ता है। छेड़ दो तो प्रधानाचार्य को ही नहीं उच्च अधिकारियों को भी जैसे करेंट लग जाता है। प्राचार्य को विद्यालय प्रशासन और अपने सहयोगियों से काम लेने में अक्षम मान लिया जाता है। इनमें कुछ तो अधिकारियों और नेताओं को प्रसाद चढ़ा-चढ़ा कर राष्ट्रपति पदक खरीदने में भी सफल हो जाते हैं.
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