इस चूतियापे के खिलाफ भी जंग जरुरी है
हमारे पास हनुमान कोई कम नहीं हैं।जरुरत है कि उनकी पूंछ में आग लगी दी जाये।
साभार प्रभू जोशीःइस दुश्चक्र को समझिए
पलाश विश्वास
दिल्ली में इन दिनों बेहद बहुत ज्यादा चूतियापा का कहर बरप रहा है।हमारे कवि मित्र अग्रज वीरेन डंगवाल इस चूतियापे की बेहतर व्याख्या कर सकते हैं।लेकिन कैंसर पीड़ित आलसी वीरेनदा को हम कविता के चूतियापे से फिलहाल अब तक सक्रिय नहीं कर पाये।जगमोहन फुटेला के ब्रेन स्ट्रोक होने से तो हम खुद विकलांग हो गये हैं।फुटेला से हमारी अंतरंगता तराई की जमीन से जुड़ती है।हमारा लिखा वे तुरंत पाठकों तक पहुंचाते रहे हैं।सम्मति असहमति की परवाह किये बिना।हर आलेख पर उनका बैशकीमती नोट भी बेहिसाब मिलता रहा है।अब तो हमें उनकी खबर लेने की हिम्मत भी नहीं है।न जाने कैसे होगा मेरा दोस्त।
बाकी दोस्तों से उम्मीद कम नहीं है।हस्तक्षेप और मोहल्ला लाइव की वजह से मेरा नेट पर लेखन शुरु हुआ। अपने सहकरमी मित्र डा.मांधाता सिंह द्वारा समय समय पर कोंचे जाने और उन्हीं के उपलब्ध टुल पर जैसे तैसे लिखी हिंदी को अमलेंदु और अविनाश दोनों लगाते रहे,तो मुझे हिंदी में लिखने की हिम्मत मिली। वरना याहू ग्रूप के जमाने से लगातार मैं अंग्रेजी में लिख रहा था।भारत में न सही दुनियाभर में यहां तक कि पाकिस्तान,बांग्लादेश,क्यूबा,चीन और म्यांमार जैसे देशों में छप रहा था। मेरे पाठकों में अस्सी फीसद लोग यूरोप और अमेरिका के थे।अब लगातार हिंदी में लिखने से और अंग्रेजी लेखन बेहद कम हो जाने से मेरे पाठक पहले के दस फीसद भी नहीं हैं। लेकिन तब मेरे एक फीसद पाठक भी भारतीय न थे। मुझे महीने में एकबार छपने वाले समांतर के भरोसे ही अपनी बात कहनी होती थी। अब मैं समांतर के लिए भी लिख नहीं पाता।तीसरी दुनिया में मेरा योगजदान शून्य है। पर हिंदी में नियमित लिखने के काऱम अब निनानब्वे फीसद मेरे पाठक भारतीय हैं।बड़ी संख्या में असहमत और गाली गलौज करने वाले पाठक भी हमारे बड़ी संख्या में है।यह हिंदी की उपलब्धि है। आदरणीय राम पुनियानी जी,दिवंगत असगर अली इंजीनियर और यहां तक कि इरफान इंजीनियर अंग्रेजी में जो भी लिखते हैं,हरदोनिया जी के अनुवाद के मार्फत भारतीय पाठक समाज तक पहुंच ही जाता है।
हमारे प्रिय मित्र विद्याभूषण रावत जी लगातार सक्रिय हैं।लेकिन अब भी वे ज्यादातर अंग्रेजी में लिखते हैं। फेसबुक पर इधर जरुर उनकी टिप्पणियां हिंदी में मिल जाती है।उनका नायाब लेखन हिंदी जनता तक पहुंचता ही नहीं।
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लेखन राष्ट्र और अर्थ व्यवस्था के बारे अरुंधति राय और आनंद तेलतुंबड़े,अनिल सद्गोपाल और गोपाल कृष्ण जी ने किया है।अनिल जी और गोपाल कृष्ण का लिखा हिंदी में उपलब्ध है ही नहीं।गोपाल कृष्ण अकेले शख्स हैं जो असंवैधानिक आधार कारपोरेट विध्वंस का पर्दाफास लगातार करते जा रहे हैं,लेकिन जिनका विध्वंस होने वाला है,उनतक उनकी आवाज नहीं पहुंच रही है।इधर हमने उनका ध्यान इस ओर दिलाया है और आवेदन किया है कि आधार विरोधी महायुद्ध कम से कम हिंदी,बांग्ला,मराठी और उर्दू के साथ साथ दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी लड़ी जानी चाहिए।
वे सहमत हैं और उन्होंने वायदा किया है कि जल्द ही वे इस दिशा में कदम उठायेंगे। राम पुनियानी जी से लंबे अरसे से बात नहीं हुई है लेकिन वे हम सबसे ज्यादा सक्रिय हैं।
हमरी दिक्कत है कि पंकज बिष्ट जैसे लेखक संपादक सोशल मीडिया में नहीं हैं।आनंदस्वरुप वर्मा जैसे योद्धा भी अनुपस्थित हैं।उदय प्रकाश जैसे समर्थ लेखक कवि हिंदी में उपलब्ध हैं,वे तमाम लोग अगर जनसरोकार के मुद्दे पर सोशल मीडिया से आम लोगों को संबोधित करे तो हमारी मोर्चाबंदी बहुत तेज हो जायेगी।
ग्लोबीकरण ने सांस्कृतिक अवक्षय को मुख्यआधार बनाकर नरमेध अभियान के लिए यह उपभोक्ता बाजार सजाया हुआ है।इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि स्त्री विरोधी कामेडी नाइट विद कपिल के कपिल शर्मा फोर्बस की लिस्ट पर सत्तानब्वेवें नंबर पर हैं।जिस तेजी से अपने युवा तुर्क दुस्साहसी यशवंत और पराक्रमी अविनाश दास बेमतलब के कारपोरेट मुद्दे में पाठकों को उलजाने लगे हैं कि कोई शक नहीं कि इस लिस्ट में देर सवार वे लोग भी शामिल हो जायेंगे।मेरे लिए निजी तकलीफ का कारण यह है कि दोनों से हमने बहुत उम्मीदें पाल रखी थीं,जैसे अपने प्रिय भाई दिलीप मंडल से जो अब खुलकर चंद्रभान प्रसाद की भाषा में लिख बोल रहे हैं।अविनाश ने तो मोहल्ला को कामेडी नाइट विद कपिल का प्रोमो शो बना दिया है और वहां जनसरोकार के मुद्दे कहीं नजर नहीं आते।कभी कभार महिषासुर के दर्शन अवश्य हो जाते हैं।
साहिल बहुत सधे हुए लक्ष्य के साथ काम कर रहे हैं जो भूमिका बाकी सोशल मीडिया निभाने से चूकता है,उसे निभा रहे हैं। लेकिन उन्हें भी अपनी सीमाएं तोड़ने चाहिए।
आलोक पुतुल अक्षर पर्व के संपादक है। मेरी जितनी कविताएं छपी हैं,उनमें से ज्यादातर आलोक और ललित सुरजन जी के वजह से है।लेकिन रविवार को ब्रांडसमारोह बनाकर वे हमारी टीम में कहीं नहीं है।
मीडिया दरबार के सुरेंद्र ग्रोवर जी हम सबमें सबसे समझदार और गंभीर हैं,ऐसा हमारा मानना रहा है। लेकिन वे आहिस्ते आहिस्ते जनसरोकार के मुद्दों से कन्नी काटकर दरबार को महफिल बनाने में जुट गये हैं और वहां लगातार पूनम पांडेय कपड़े उतार रही हैं या तनिशा से अरमान की मांग दिखायी जा रही है। यह बहुत निराशाजनक है।
अब संसद का स्तर जारी है और तमाम सूचनाएं मस्तिष्क नियंत्रण के खेल के तहत प्रसारित प्राकाशित की जा रहीं है।तमाम फैसले उसी मुताबिक हो रहे हैं।कुल मिलाकर रोटी कपड़ा रोजगार जमीन और नागरिकता के सवालों से हटकर बहस कुल मिलाकर समलेंगिकता के अधिकार और आप की शर्तों पर केंद्रित हो गयी है।
संवाददाता बनेने के लिए बहुत ज्यादा पढ़ने लिखने की जरुरत नहीं है।सत्तर अस्सी के दशक में जो पढ़े लिखे और अंग्रेजी जानने वाले होते थे,उन्हें सीधे डेस्क पर बैठा दिया जाता था।जिन्हें पढ़ने लिखने का शउर नहीं लेकिन संप्रक साधने में उस्ताद हैं और लड़ भिड़ जाने की कुव्वत है,बवालिये ऐसे सारे लोग संवाददाता बनाये जाते थे। मैं भी अखबारों में रिक्रूटर बतौर काम किया है। हम जानते हैं कि सिपारिश माल कैसे रिपेर्टिंग में खपाया जाता है।इसी नाकाबिल मोकापरस्त अपढ़ लोगों की वजह से.जो न महाश्वेता को जानते हैं और न अरुंधति को,मीडिया की आज यह कूकूरदशा है।ईमानदार प्रतिबद्ध पढ़े लिखे और सक्रिय संवाददाताओं की पीढी को कारपोरेट प्रबंधन ने किनारे लगा दिया है।संपादक सारे मैनेजर हो गये हैं जिनके लिए अब पढ़ना लिखना जरुरी नहीं है और संपादक बनते ही वे सबसे पहले ऐसे लोगों का पत्ता साफ करने में जुट जाते हैं।
लेकिन मीडिया के अंतरमहल में नरकयंत्रणा जिनका रोजनामचा है और जो लोग बेहद मेधासंपन्न हैं,पढ़े लिखे हैं वे भी नपुंसक रचनाकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों की तरह हाथ पर हाथ धरे तूपान गपजर जाने के इंतजार में हैं।देश,समाज और परिवार को बचाना है तो सबसे पहले इन तमाम लोगों को चूतियापे के महासंकट से दो चार हाथ करना ही होगा।
हमारा क्या।हम तो नंग हैं।हमसे क्या छीनोगे अब ज्यादा से ज्यादा जान ही लोगे,वैसे भी तो हम कफन ओढ़े बैठे है ,कोई फर्क नहीं पड़ता,ऐसे तेवर के बिना अब कुछ नहीं होने वाला है।
राजमाता से लेकर युवराज तक,विपक्षी रथी महारथी,वामपंथी दक्षिण पंथी रथी महारथी,विद्वतजन,एनजीओ,जनसंगठन.जनांदोलन के तमाम साथी सारे मुद्दे ताक पर रखकर देश को समलैंगिक बनाकर अश्वमेधी आयोजन में अंधे की तरह शामिल हो रहे हैं।दिल्ली से यह भेडधंसान शुरु हुई है तो इसके खात्मे की पहल और जनता के मुद्दों पर लौटने के साथ ही नागरिक अधिकारों के इन सवालों पर संतुलित प्रासंगिक समयानुसार विमर्श की पहल भी दिल्ली से ही होनी चाहिए।
हमारी समझ तो यह है कि तुरंत अरुंधति,महाश्वेतादी,आनंद तेलतुंबड़े,अनिल सद्गोपाल,गोपाल कृष्ण जैसे लोगों के लिखे को हमें व्यापक पैमाने पर साझा करना चाहिए।साभार छापने में हर्ज क्या है। जो रचनाकार अब भी जनसरोकार से जुड़े हैं,रचनाकर्म के अलावा मुद्दों पर वे अपनी अपनी विधाओं की समीमाओं से बाहर निकलकर हमारी जंग में तुरंत शामिल हो,ऐसा उनसे विनम्र निवेदन है।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वैकल्पिक मीडिया की टीम भी दिल्ली में ही बनी है। सारे लोग दिल्ली में आज भी बने हुए हैं। साथ बैठने का अभ्यास तो करें।समन्वय से काम तो करें। रियाजउल हक और अभिषेक श्रीवास्तव जैसे युवातुर्क अपने अपने दायरे में बंधे रहेंगे तो बहुत मुश्किल हो जायेगी जनमोर्चे की गोलबंदी।मुश्कल तो यह है किलगातार रिंग होते रहने के बावजूद ये तमाम योद्धा हम जैसे तुच्छ लोगों के काल को पकड़ते ही नहीं है।
इस सिलसिले में दिल्ली में सिर्फ अमलेंदु से बात हो पायी है।बाकी महानुभव विमर्श को जारी रखकर हमारा तनिक उपकार करेंगे तो आभारी रहूंगा।
मित्रों के कामकाज पर प्रतिकूल टिप्पणियों के लिए खेद है पर चूतियापे जारी रहे ,इससे तो बंहतर है कि साफ साफ कही जाये बात,फिर चाहे तो समझदार लोग दोस्ती तोड़ दें जैसे बहुजनों का दस्तूर है कि असहमति होते न होते गालियों की बौछार।
इस विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए आज जनसत्ता के रविवारीय में छपे प्रभू जोशी का आलेख साभार नत्थी है।प्रभु जोशी समर्थ रचनाकार हैं,चित्रकार भी।अगर वे खुलकर बात रख सकते हैं तो मंगलेश डबराल,उदय प्रकाश,मदन कश्यप,उर्मिलेश,वीरेंद्र यादव,मोहन क्षोत्रिय,आनंद प्रधान,सुभाष गाताडे,गौतम नवलखा,वीर भारत तलवार,बोधिसत्व,ज्ञानेंद्रपति,पंकज बिष्ट, आनंद स्वरुप वर्मा,संजीव जैसे लोग क्यों नहीं तलवार चलाने को तैयार हैं।हमारे पास हनुमान कोई कम नहीं हैं।जरुरत है कि उनकी पूंछ में आग लगी दी जाये।
हमारे पास हनुमान कोई कम नहीं हैं।जरुरत है कि उनकी पूंछ में आग लगी दी जाये।
Sunday, 15 December 2013 10:46 |
प्रभु जोशी जनसत्ता 15 दिसंबर, 2013 : सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद बुद्धिजीवियों की एक बिरादरी समलिंगियों के अधिकारों को लेकर चर्चा करने में जुट गई है। वे इस कानून को 'राज्य' द्वारा मानवता के विरुद्ध किया जा रहा जघन्य अपराध मानते हैं। इसमें अमेरिकी समाज का उदाहरण दिया जा रहा है। मगर यहां यह भी देखना जरूरी है कि पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी समाज में समलैंगिकता को वैध बनाने के लिए कैसी रणनीतिक कवायदें की गर्इं। यह सब एक सुनिश्चित योजना के तहत हुआ। दरअसल, समलैंगिकता किसी भी व्यक्ति में जन्मना नहीं होती। वह बचपन के निर्दोष कालखंड में अज्ञानतावश हो जाने वाली किसी त्रुटि के कारण आदत का हिस्सा बन जाती है। इस तरह यह 'नादानी में अपना लिए जाने वाली' वैकल्पिक यौनिकता है, जिसे चिकित्सीय दृष्टि 'प्राकृतिक' या 'नैसर्गिक' नहीं मानती। जब व्यक्ति इसमें फंस जाता है तो बुनियादी रूप से उसके लिए यह एक किस्म की यातना ही होती है, जिसमें उसके समक्ष बार-बार अपना यौन सहचर बदलने की विवशता भी जुड़ी होती है। इसके अलावा, इसमें विपरीत सेक्स के साथ किए गए दैहिक आचरण की-सी संतुष्टि भी नहीं मिल पाती। तमाम सर्वेक्षण और अध्ययन बताते हैं कि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छया समलैंगिक नहीं बनता। किशोरवय में पहली यौन-उत्तेजना और आकर्षण विपरीत सेक्स को लेकर ही उपजता है, समलैंगिक के लिए नहीं। न्यूयॉर्क के अलबर्ट आइंस्टाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. चार्ल्स सोकाराइड्स की स्पष्टोक्ति है कि यौन-उद्योगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है, जो समलैंगिकों को विकृतिग्रस्त बताती है। इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के ख्यात अध्येता डॉ. चार्ल्स अपनी पुस्तक 'होमोसेक्सुअल्टी: फ्रीडम टू फॉर' में कहते हैं- 'अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति' (?) यों ही हवा में नहीं गूंजने लगी, बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की मानववाद के नाम पर शुरू की गई वकालत का परिणाम थी, जिनमें से अधिकतर खुद भी समलैंगिक थे। ये लोग यौनिक-अराजकता को नारी स्वातंत्र्य को दिए जा रहे मुंहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे। पश्चिम में, जब पुरुष की बराबरी को मुहिम की तहत स्त्री 'मर्दाना' बनने के नाम पर, अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक 'पुरुषवत' या 'पौरुषेय' होने लगी कि उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने लगा, तो स्त्री की जो 'स्त्रैण-छवि' पुरुषों को यौनिक उत्तेजना देती थी, धीरे-धीरे उसका लोप होने लगा। वेशभूषा की भिन्नता के जरिए, किशोरवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखाई देता था, वह धूमिल हो गया। इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन-निकटता बढ़ाने में मदद की, जिसने आखिरकार उन्हें समलैंगिकता की ओर हांक दिया। निश्चय ही इसमें फैशन-व्यवसाय की भी काफी अहम भूमिका थी। इसके साथ ही अमेरिकी समाज में एकाएक यौन-पंडितों की एक पूरी पंक्ति आगे आ गई, जिसमें अल्फ्रेड किन्से, फ्रिट्स पर्ल और नार्मन ब्राऊन जैसे लोग थे। इन्होंने एक नई स्थापना दी कि अगर ये संबंध 'फीलगुड' हैं, तो इसमें अप्राकृतिक जैसा क्या है? 'फीलगुड' की वकालत करने वालों में विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री हर्बर्ट मार्क्यूज भी शामिल हो गए, जिनकी पुस्तक 'वन डाइमेंशनल मैन' फ्रायड की वैचारिकी से भी अधिक सम्मान और ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। इन सब लोगों ने संगठित होकर, अपने तर्कों के सहारे समलैंगिकता के साथ जुड़ा 'अप्राकृतिक-मैथुन' वाला लांछन भी पोंछ दिया। समलैंगिकता के इन पैरोकारों में से कुछ लोगों के साथ समलैंगिक होने की कुख्याति भी जुड़ी थी, लेकिन इन लोगों ने अपने कथित बौद्धिक आंदोलन को शक्ति-संपन्न बनाने के लिए किया यह कि इन्होंने अभी तक 'कुटेव' समझी जाने वाली अपनी लत को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक कर दिया। कहा: 'हम समलैंगिक हैं और इसको लेकर हममें कोई अपराधबोध नहीं है। यह हमारी इच्छित-यौन स्वतंत्रता है, क्योंकि यौनांग का अंतिम अभीष्ट आनंद ही होता है- और इसमें भी हम आनंद प्राप्त करते हैं।' इस समूचे विवाद में रस लेकर, उसे तूल देने के लिए कुछ प्रकाशकों ने 'मेक द होल वर्ल्ड गे' यानी 'समूचे संसार को समलैंगिक बनाओ' के नारे को घोषणा-पत्र का रूप देकर छाप दिया। डेनिस अल्टमैन की पुस्तक 'होमो-सेक्सुअलाइजेशन आॅफ अमेरिका' भी इसी वक्त आई। अल्टमैन खुद समलैंगिक थे। उन्होंने 1982 में कहा- 'समलैंगिक संबंध अमेरिका में राज्य की सीमा से अधिक हस्तक्षेप के कारण आततायी बन चुकी विवाह-संस्था की नींव हिला डालने वाला है। शादी के साथ जुड़ चुकी घरेलू हिंसा वाले कानून के पचड़ों से बचने का एकमात्र निरापद रास्ता है- स्विंगिंग-सिंगल हो जाना।' यह आकस्मिक नहीं था कि इन तमाम धुरंधरों ने व्याख्याओं का अंबार लगा दिया कि समलैंगिकता, निर्मम परंपरागत यौनिक-बंधन से मुक्ति का मार्ग है। यह मनुष्य के स्वभाव का पुनराविष्कार है। कुल मिलाकर समलैंगिकता से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकोच के ध्वंस के लिए तरह-तरह के विचारधारात्मक प्रहार किए जाने लगे। कुछ चर्चित कानूनविदों ने चर्चा में आने के लिए बहस को अपनी ओर से कुछ ज्यादा ही सुलगा दिया। लगे हाथ टेलीविजन चैनलों और हॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं ने इस पूरे विवाद और विषय को लपक लिया और धड़ाधड़ समलैंगिक जीवन को आधार बना कर, उनके अधिकारों को वैध मांग के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। नामचीन प्रकाशकों ने इसे अपने व्यापार का स्वर्णिम अवसर मान कर बाजार को समलैंगिकता के पक्ष-विपक्ष पर एकाग्र पुस्तकों से पाट दिया। इस सारे तह-ओ-बाल और गहमागहमी को पॉल गुडमैन जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षा के क्षेत्र में हांक दिया और अचानक सेक्स एजुकेशन की जरूरत और अनिवार्यता के पक्ष में लंबे-लंबे लेख और विमर्श होने लगे। अमेरिकी टेलिविजन के लिए यह विषय 'दमदार और दामदार' भी बनने लगा। नैतिकता का प्रश्न उठाने वालों को 'होमो-फोबिया' का शिकार कह कर, उनकी आपत्तियों को खारिज किया जाने लगा। उन्होंने कहा कि समलिंगी ठीक वैसे ही हैं, जैसे कि कोई गोरा होता है या काला। इसलिए इन्हें सभी किस्म की स्वतंत्रताओं को 'एंजाय' करने का पूरा अधिकार है। यह किशोरवय की दैहिकता से फूटती यौन-उत्तेजना का नया प्रबंधन था। यह युवा होने की ओर बढ़ने वाला वर्ग ही समलैंगिकता की सैद्धांतिकी का राजनीतिक मानचित्र बनाने वाला था। इसलिए यह वर्ग ही आंदोलन का अभीष्ट था। वे कहने लगे, समलैंगिकता आबादी रोकने में एक अचूक भूमिका निभाती है। तभी 'फिलाडेल्फिया' नामक फिल्म आई, जिसमें सुनियोजित मनोवैज्ञानिक युक्तियां थीं, जो करुणा का कारोबार करती हुई निर्विघ्न ढंग से 'ब्रेनवॉश' करती थीं। डॉ. चार्ल्स कहते हैं कि मैंने चार दशकों के अपने चिकित्सीय अनुभव में पाया कि वे अपनी समलैंगिक जीवन पद्धति से सुखी नहीं हैं। वे उस कुचक्र से बाहर आना चाहते हैं। एक हजार में से नौ सौ सत्तानबे लोग अपनी समलैंगिकता को लेकर दुखी हैं। बहरहाल, उपचार के बाद ऐसे सैकड़ों रोगी हैं, जिन्होंने विवाह रचाए और वे सुंदर और स्वस्थ्य संतानों के पिता हैं। मैंने यह भी पाया कि दरअसल, समलैंगिक बनने में उनके माता-पिताओं की भूमिका ज्यादा रही है, जिन्होंने किशोरवय में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने वाले अपने बच्चों के साथ सख्त सहमति प्रकट करने के बजाय उनकी 'स्वतंत्रता का सम्मान' करने का जीवनघाती ढोंग किया। समलैंगिकों में से अधिकतर ने कहा कि वे झूठी स्वतंत्रता में जी रहे हैं, जबकि यह एक दासत्व ही है। यह वैकल्पिक जीवन पद्धति नहीं, सिर्फ आत्मघात है। समलैंगिकता जन्मना नहीं है। यह मीडिया द्वारा बढ़-चढ़ कर बेचे गए झूठ का परिणाम है।' एक जगह डॉ. चार्ल्स कहते हैं, 'दरअसल हकीकत यह है कि समलैंगिकों के अधिकारों की ऊंची आवाजों में मांग करने वाले मुझे चुप कराना चाहते हैं, क्योंकि वे यौन उद्योग की तरफ से और उनके हितों की भाषा में बोल रहे हैं। वे मनुष्य के जीवन से उसकी नैसर्गिकता का अपहरण कर रहे हैं। वे मानवता के कल्याण नहीं, अपने लालच में लगे हुए हैं और उसी के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें प्रकृति या ईश्वर ने समलिंगी नहीं बनाया है, इन्हीं लोगों ने बताया है। सोचिए, तब क्या होगा, जब सहमति से होने वाले सेक्स के लिए उम्र की सीमा चौदह वर्ष निर्धारित कर दी जाएगी। इस मांग से हमारे विद्यालय पशुबाड़े (एनीमल फार्म) में बदल जाएंगे।' दुर्भाग्यवश हिंदुस्तान में एड्स और सेक्स टॉय के व्यापार के लिए राज्य खुद ही समलैंगिक संबंधों को कानून की परिधि से बाहर निकालने का इरादा प्रकट कर रहा है। वह समलिंगियों की 'ऑफिशियल आवाज' बन रहा है, ताकि अरबों डॉलर का यौन उद्योग यहां भी अपनी जड़ें जमा सके। यह सब धतकरम एड्स की आड़ में हो रहा है, जिसके चलते वहां की विकृति एड्स की स्वीकृति बन जाए। हम अभी भारत की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को रोटी, कपड़ा, मकान तो छोड़िए, पीने योग्य पानी तक नहीं दे सके हैं। ऐसे में इन लड़ाइयों को स्थगित करके समलैंगिकता की लड़ाई लड़ना कितना विवेकपूर्ण कहा जा सकता है? क्या हम इसको लेकर कोई विवेक-सम्मत विरोध नहीं कर सकते?
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