नरेंद्र मोदी से ज्यादा खतरनाक साबित होंगे केजरीवाल
मूक भारत है बहुत लेकिन शोर है
धर्म निरपेक्षता और स्त्री अस्मिता का गृहयुद्ध भी कुल मिलाकर एनजीओ करिश्मा है
पलाश विश्वास
हम फेसबुक के माध्यम से संवाद का दरवाजा खोलने की शायद बेकार ही कोशिश कर रहे हैं। लाइक और शेयर के अलावा कोई गंभीर बहस की गुंजाइश यहां है नहीं। मोबाइल के जरिये फेसबुक पर जो हमारे लोग हैं, वे दरअसल हमारे लोग रह नहीं गये हैं। वे मुक्त बाजार के उपभोक्ता बन गये हैं।
बहस और अभियान लेकिन फेसबुक पर कम नहीं है। जो है वह लेकिन मुक्त बाजार का प्रबंधकीय चमत्कार है। हम लोग उनके मुद्दों पर जमकर हवा में तलवारबाजी कर रहे हैं, जबकि अपने मुद्दों को पहचानने की तमीज हमें है ही नहीं। जो लोग समर्थ हैं, वे भी मौकापरस्त इतने कि अपने स्टेटस को जोखिम में डालने को तैयार नहीं हैं।
अब हालत यह है कि धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री विमर्श का गृहयुद्ध लगातार तेज होता जा रहा है। रोज नये मोर्चे खुल रहे हैं। जमकर सभी पक्षों से गोलंदाजी हो रही है। लेकिन कॉरपोरेट धर्मोन्मादी सैन्य राष्ट्रवाद के मुकाबले कोई मोर्चा बन ही नहीं रहा है। हम दरअसल किसका हित साध रहे हैं, यह समझने को भी कोई तैयार नहीं है।
यह भय और आतंक इस लोकतांत्रिक बंदोबस्त के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक है। लोग सुनियजित तरीके से भय का वातावरण बना रहे हैं ताकि नागरिक व मानवाधिकार के खुले उल्लंIन के तहत एकतरफा कॉरपोरेट अभियान में कोई बाधा न पहुँचे। पिछले दिसंबर में संसदीय सत्र के दरम्यान हुये निर्भया जनांदोलन के फलस्वरtप यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून बना दिया गया तुरत फुरत। न यौन उत्पीड़न का सिलसिला थमा है और न थमे हैं बलात्कार। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत जो इलाके हैं, जो आदिवासी और दलित इलाके हैं,जहां सलवा जुड़ुम और रंग बिरंगा अभियान के तहत जनता के खिलाफ युद्ध जारी है, वहाँ पुलिस और सेना और सामतों को रक्षाकवच मिला हुआ है, वहाँ यौन उत्पीड़न और बलात्कार किसी कानून से थमने वाले नहीं है। लेकिन विडंबना तो यह है कि सत्ता केंद्रों में, राजधानियों में, शहरीकरण और औद्योगीकरण के खास इलाकों में, सशक्त महिलाओं के कार्यस्थलों में स्त्री पर अत्याचारों की घटनाएं बेहद बढ़ गयी हैं और उन घटनाओं को हम पितृसत्तात्मक नजरिये से देख रहे हैं। हमारी धर्मनिरपेक्षता का आन्दोलन भी इस पितृसत्ता से मुक्त नहीं है। धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री विमर्श का यह गृहयुद्ध देहमुक्ति विमर्श और सत्ता तन्त्र में, कॉरपोरेट राज में अबाध पुरुष वर्चस्व के संघर्ष की अनिवार्य परिणति है।
अभी-अभी जिस ईश्वर का जन्म हुआ है और हमारे वैकल्पिक मीडिया और जनांदोलनों के सिपाहसालार जिनकी ताजपोशी के लिये बेसब्र हैं, वे नरेंद्र मोदी से ज्यादा खतरनाक साबित होंगे। खतरा नरेंद्र मोदी से उतना नहीं, बाजार की प्रबंधकीय दक्षता और सूचना क्रान्ति के महाविस्फोट से जनमे जुड़वाँ ईश्वरों से कहीं ज्यादा है,यह बात मैं बार बार कह रहा हूं। कालाधन की अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध आपका कोई न्यूनतम कार्यक्रम नहीं है और न कोई मोर्चाबन्दी है। आप भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं।
केजरीवाल टीम के बैराग्य का तो खुलासा सरकार बनते न बनते होने लगा है। जनादेश और जनमत संग्रह की प्रणाली को हाशिये पर रखें, तो भी काँग्रेस के खिलाफ जिहाद के बाद काँग्रेस के खिलाफ सामाजिक शक्तियों की सामूहिक गोलबन्दी और जनादेश के विरुद्ध जाकर नये सिरे से जनमतसंग्रह करके काँग्रेस के सशर्त समर्थन से सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय और सर्वाधिक कॉरपोरेट राज और उपभोक्ता बाजार के पोषक विशिष्ट ऑनलाइन समाज के मार्फत आप देश,समाज और राष्ट्र का चरित्र बदलने चले हैं,ऐसे लोगों के भरोसे जिनकी नैतिकता सत्ता में निष्मात हो चुकी है सत्ता तक पहुँचने से पहले।
काँग्रेस, संघ परिवार, वामपन्थी, बहुजनपन्थी सर्वदलीय सहमति से परिवर्तन की लहर थामने के लिये मोर्चाबद्ध तरीके से लोकपाल विधेयक पारित किया गया है। जो भ्रष्टाचार को कितना खत्म करेगा, वह पहले से हासिल कागजी हक-हकूक के किस्से से जाहिर न भी हुये हों तो देर सवेर उजागर हो जायेगा।
यह बात समझनी चाहिए कि अब जो राजनीतिक सत्ता केंद्रित भ्रष्टाचार है, वे कॉरपोरेट हितों के मुताबिक हैं। जिसमें हिस्सेदार सत्तावर्ग के सभी तबके कमोबेश हैं। कॉरपोरेट फंडिंग से चलने वाली राजनीति ने कॉरपोरेट और निजी कम्पनियों को, एनजीओ को भ्रष्टाचार के दायरे से बाहर रखा है और तहकीकात के औजार वही बन्द पिंजड़े में कैद रंग बिरंगे तोते हैं। हम बारबार लिख रहे हैं और आपका ध्यान खींच रहे हैं कि हम लोग जनांदोलनों से सिरे से बेदखल हो गये हैं। हम मुद्दों से बेदखल हो गये हैं। हम अपने महापुरुषों और माताओं से बेदखल हो गये हैं, हम हर तरह के विचारों से, विमर्श से और समूचे लोकतन्त्र और भारत के संविधान से भी बेदखल है। जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली से कम खतरमनाक नही है यह। किसी भी बेदखली के विरुद्ध प्रतिवाद इसी बेदखली से असम्भव हो गया है। उत्पादन प्रणाली ध्वस्त है तो यह इसलिये कि भारतीय कृषि की हत्या का हम प्रतिरोध नहीं कर पाये और हमारे सारे आन्दोलन अस्मिता निर्भर है जो भारतीय कृषि समाज और भूगोल और जनता के बँटवारे का मुख्य आधार है। इसे सम्भव बनाने में स्वंयसेवी प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग निर्भर तमाम जनसंगठन हैं। अब समझ लीजिये कि धर्म निरपेक्षता और स्त्री अस्मिता का यह गृहयुद्ध भी कुल मिलाकर एनजीओ करिश्मा है। जहां भ्रष्ट आचरण निरंकुश है और लोकपाल से वहाँ कुछ भी नहीं बदलना वाला है।
मनमोहन ईश्वर के अवसान के बाद जो दो जुड़वाँ ईश्वरों की ताजपोशी की तैयारी है, उनके पीछे भी एनजीओ की विदेशी फंडिंग ज्यादा है, कॉरपोरेट इंडिया और कॉरपोरेट मीडिया तो है ही।
सत्ता वर्ग को नरेंद्र मोदी से दरअसल कोई खतरा है ही नहीं। आर्थिक सुधारों के समय जनसंहार संस्कृति के मुताबिक राजकाज में काँग्रेस और संघ परिवार अकेले साझेदार नहीं हैं। वामपन्थी,बहुजनवादी और रंग बिरंगी अस्मिताओं के तमाम क्षत्रप भी कॉरपोरेट नियंत्रण के तहत इस कॉरपोरेट राजकाज में समान साझेदार है।
भय और आतंक का माहौल सिर्फ नमोमय भारतके निर्माण से ही नहीं हो रहा है। स्त्री जो हर कहीं असुरक्षित हैं, हर कहीं जो नागरिक मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, पाँचवीं और छठीं अनुसूचियों और संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध देश बेचो अभियान के तहत हिमालय, पूर्वोत्तर में और दंडकारण्य में जो भय और आतंक का माहौल है, जो सलवा जुड़ुम तक सीमाबद्द नहीं है, गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस का न्याय नहीं हुआ लेकिन सिख जनसंहार के युद्ध अपराधी और हिन्दुत्व के पुनरुत्थान से पहले जो दंगे हुये, उन तमाम मामलों के लिये नरेंद्र मोदी जिम्मेदार नहीं है। धर्म निरपेक्षता के नाम पर हम संघ परिवार को कटघरे में खड़ा कर दें और आर्थिक नरसंहार के युद्ध अपराधी, भारत में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की मौलिक पिताओं को बरी कर दें। यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है, कम से कम मेरी समझ में नहीं आती।
भय और आतंक के इसी माहौल में अपने पास जो है, उसी को बहाल रखने की फिक्र ज्यादा है लोगों को। बाजार में नंगे खड़े होने, आत्महत्या के कगार पर खड़े हो जाने के बावजूद बाबा साहेब अंबेडकर के मुताबिक बहुजन भारत आज भी मूक है। पाँच करोड़ क्या पचास करोड़ लोग भी ऑनलाइन हो जाये तो यह निःस्तब्धता टूटेगी नहीं। घनघोर असुरक्षाबोध ने हमारे इंद्रियों को बेकल बना दिया है और पूरा देश कोमा में है। प्राण का स्पन्दन फेसबुक पोस्ट से वापस लाना शायद असम्भव है। हम रात दिन चौबीसों घंटा सातों दिन बारह महीने कंबंधों के जुलूस में हैं। कब्र से उठकर रोजमर्रे की जिन्दगी जीने की रोबोटिक आदत है। सम्वेदनाएं अब रोबोट में भी है। हाल में काम के बोझ से रोबोट ने आत्महत्या भी कर ली लेकिन कॉरपोरेट राज में आत्मसमर्पित भारतीयों में कोई सम्वेदना है ही नहीं। होती तो अपनी माँ बहनों के साथ बलात्कार करने, उनके यौन उत्पीड़न का उत्सव मनाने का यह पशुत्व हम में नहीं होता। पशुत्व कहना शायद पशुओं के साथ ज्यादती है। कॉरपोरेट राज के नागरिक मनुष्यों की तुलना पशुओं से करना पशुों का अपमान है जो अपने समाज और अपने अनुशासन के प्रति कहीं ज्यादा सम्वेदनशील और जिम्मेदार हैं।
हम न पशु हैं और न हम मनुष्य रह गये हैं। हम अपने कंप्यूटरों, विजेट और गैजेट, उनसे बने वर्चुअल यथार्थ की तरह, रोबोट की तरह अमानवीय हैं। इसीलिये सारी विधाएं, सारे माध्यम, सारी भाषाएं, सारी कलाएं अबाध भोग को समर्पित है, मनुष्यता को नहीं। हमारा सौंदर्यबोध चूँकि क्रयशक्ति निर्भर है। तो बाजार में टिके रहने के लिये यथासम्भव क्रयशक्ति हमारे जीने का एकमात्र मकसद है और हम सारे लोग बाजार के व्याकरण के मुताबिक आचरण कर रहे हैं। उस व्याकरण के बाहर न राजनीति है और न जीवन।
तमाम लोग इसी क्रयशक्ति के कारोबार में भय और आतंक का माहौल रच रहे हैं, अकेले नरेंद्र मोदी नहीं। माध्यमों में जो आवाजें अभिव्यक्त हो रही हैं, वे अब सबसे ज्यादा दहशतगर्द हैं। बाजार की तरह धर्मोन्माद और सांप्रदायिकता भी पुरुषतांत्रिक है, जो अब निर्लज्ज तरीके से स्त्री अस्मिता से युद्धरत है। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की तरह माफ करना दोस्तों, धर्मनिरपेक्षता भी अब भय और आतंक पैदा करने लगा है और इसका जीवन्त उदाहरण मुजफ्फरनगर है।
इस सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान कॉरपोरेट राज के तहत दुनिया भर में सबसे ज्यादा असुरक्षित स्त्री है और पुरुषतन्त्र की नजर में योनि से बाहर उसका कोई वजूद ही नहीं। इस वैश्वक लूटतन्त्र की जायनवादी व्यवस्था में राजनीति का शिकार हर देश के अल्पसंख्यक हैं। मसलन भारत में मुसलमान,ईसाई,सिख और बौद्ध तो बांग्लादेश में हिंदू और बौद्ध,पाकिस्तान में हिंदू और ईसाई, हिंदू राष्ट्र नेपाल में मदेशिया हिंदू तो श्रीलंका में तमिल हिंदू और म्यांमार में फिर मुसलमान।सिर्फ उत्पीड़ितों की पहचान देश काल के मुताबिक बदलती है, उत्पीड़न की सत्ता का चरित्र समान है जो अब कॉरपोरेट है। धर्म और जाति के आरपार नस्ली और भौगोलिक भेदभाव है, जिसके कारण उत्तराखंड और पूर हिमालयी क्षेत्र में सांप्रदायिक या धार्मिक नहीं अंधाधुंध कॉरपोरेट विकास का आतंक है। जो इस देश में और दुनिया भर में प्रकृति से जुड़े तमाम समुदायों और प्रकृति के संरक्षक समुदायों की भारत के हर आदिवासी इलाके की तरह समान नियति है।
अब गौर करे तो यह धर्मोन्मादी सांप्रदायिक हिंसा भी दरअसल विकास का आतंक है और एकाधिकारवादी कॉरपोरेट आक्रमण है। अस्सी के दशक में उत्तरप्रदेश में दंगों का कॉरपोरेट चेहरा हमने खूब देखा है और उस पर जमकर लिखा भी है, हालाँकि विद्वतजनों ने मेरे लिखे का कभी नोटिस ही नहीं लिया है।
विडम्बना यह है कि करीब दस साल से परम्परागत लेखन छोड़कर विशुद्ध भारतीय नागरिकों और विशुद्ध मनुष्यता को सम्पादक, आलोचक, प्रकाशक के दायरे से बाहर सम्बोधित करने की कोशिश कर रहा हूँ।
दीवार से सिर टकराने का नतीजा सबको मालूम है।
अब लग रहा है कि इस आखिरी माध्यम से भी हम बहुत जल्दी बेदखल होने वाले हैं।
भारत नमोमय बने या न बने, केजरीवाल या नंदन निलेकणि प्रधानमंत्री बने या नहीं बने, अब कॉरपोरेट राज से मुक्ति असम्भव है और इस भय, आतंक, गृहयुद्ध और युद्ध से भी रिहाई असम्भव है।
मूक भारत है बहुत लेकिन शोर है।
जनादेश जो कॉरपोरेट बनने की इजाजत हम देते रहे हैं, उसकी तार्किक परिणति यही है।
जनादेश का नतीजा जो भी हो, हमेशा अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों की गरदने या हलात होती रहेगी या जिबह। अखिलेश का समाजवादी राज और उत्तर प्रेदेश के बहुप्रचारित सामाजिक बदलाव के चुनावी समीकरण का नतीजा मुजफ्फरनगर है तो नमोमय भारत के बदले केजरीवाल भारत बनाकर भी हम लोग क्या इस हालात को बदल पायेंगे, बुनियादी मसला यही है। इस सिलसिले को तोड़ने के लिये हम शायद कुछ भी नहीं कर रहे हैं। गर्जना, हुंकार और शंखनाद के गगनभेदी महानाद में हमारी इंद्रियों ने काम करना बन्द कर दिया है।
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