आपके लिए होगा,हमारे लिए समलैंगिकता का अधिकार न सबसे बड़ा मुद्दा है और न एकमात्र मुद्दा
377 के दुश्मन कौन हैं?
पलाश विश्वास
जनसत्ता में प्रकाशित लेखक चित्रकार प्रभू जोशी के समलैंगिकता पर लिखे आलेख पर मेरी टिप्पणी पर फिल्म विशेषज्ञ प्रकाश के रे की प्रतिक्रिया मिली है। उने मुताबिक प्रभू का लेख बेवकूफाना है।उन्होंने हम दोनों को थोड़ा बहुत पढ़ लेने की सलाह दी है जिसपर आपत्ति हो ही नहीं सकती। अब छात्र जीवन की तरह तो हम पढ़ते ही नहीं हैं।
प्रकाश जी का लिखा हुआ भी अक्सर पढ़ लेता हूं। उनका प्रशंसक भी हूं। मूलतः वैकल्पिक मीडिया के साथियों को संबोधित टिप्पणी पर अभी संबंधित लोगों की प्रतिक्रिया आयी नहीं है।प्रकाश जी ने हमारे तुच्छ लेखन का नोटिस लिया है और प्रतिक्रिया देने की पहल भी कर दी,इसके लिए उनका आभार।
वैसे हम जनसत्ता में होते हुए जनसत्ता में छपने वाले बेवकूफाना आलेखों को सबसे ज्यादा झेलते रहते हैं। लेकिन प्रभू का यह आलेख बेवकूफाना नहीं है।प्रकाश जी प्रभू को नहीं जानते तो हमारी क्या बिसात। लेकिन उम्मीद है कि हिंदी के गंभीर पाठक प्रभूजी को अवश्य जानते होंगे।
प्रकाश जी ने हम दोनों को कम से कम सुप्रीम कोर्ट का फैसला पढ़ लेने की सलाह दी है। अति उत्तम।हालांकि विधि विशेषज्ञ न होने के कारण हम उसका विश्लेषण कर पाने में असमर्थ हैं।
प्रकाश जी, सुप्रीम कोर्ट ने बाकी दूसरे मामलों में हालिया जो आदेश पारित किया है और फैसले दिये हैं,उम्मीद है कि विद्वत जनों ने उन्हें भी पढ़ा होग।
पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के संदर्भ में संवैधानिक रक्षा कवच की पुष्टि करते हुए खनन समेत तमाम विकास परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जन सुनवाई अनिवार्य कर दिया है। लेकिन इस फैसले को और भारतीय संविधान को,कानून का राज लागू करने के मुद्दे पर विमर्श क्यों नहीं हो रहा है,जबकि सारा देश समलैंगिकता पर बहस कर रहा है,हमारा मुद्दा दरअसल यही है।
भारत सरकार ने संसद में बयान देकर साफ कर दिया है कि आधार कार्ड अनिवार्य नहीं है।सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि बुनियादी नागरिक सेवाओं से आधार को नत्थी नहीं किया जाये। लेकिन बेशर्मी से सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना हो रही है।बंगाल विधानसभा ने असंवैधानिक आदार कार्ड के खिलाफ सर्वदलीय प्रस्ताव पारित किया है। फिर नाटो योजना आधार के तथ्य सीआईए के हवाले करने की खब भी आयी है। लेकिन यह सार्वजनिक विमर्श का विषय नहीं है,हमें आपत्ति इस पर है।
जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली के खिलाफ तमाम आदेश और फैसले सुप्रीम कोर्ट ने दिये हैं। मसलन, खनिज उसीका,जमीन जिसका। यह भी कोई मुद्दा नहीं है।
उम्मीद है कि आप उन तमाम आदेशों और फैसलों को पढ़ चुके होंगे और आपकी प्रतिक्रिया की इस सदर्भ में भी प्रतीक्षा रहेगी।
समलैंगिकता के प्रश्न पर पूरा राष्ट्र राष्ट्र एकमत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जाहिर है।आपके लिए और दूसरे विद्वतजनों के लिए यह मुद्दा सबसे बड़ा होगा,हमारे लिए नहीं है। हमारे लिए दूसरे मुद्दे ज्यादा जरुरी हैं,जिनपर कोई चर्चा ही नहीं हो रही है। हमारे लिए सरदर्द यह है कि समलैंगिकता पर खड़ा तूफान की आड़ में तमाम जनविरोधा कानून आर्थिक सुधारों के लिए सर्वदलीय सहति से संसद के भीतर या बाहर गिलोटिन हो जायेंगे।
हमारे लिए वर्ण वर्चस्वी जायनवादी महाविध्वंसक कारपोरेट राज का प्रतिरोध सबसे बड़ा मुद्दा है।लेकिन तमाम अर्थ शास्त्रियों और बहुजन नायकों के लिए यह छनछनाता विकासही स्वर्णकाल है।हमारे मुद्दे उनके मुद्दे नहीं हैं।
आप दुबारा मेरी टिप्पणी को पढ़ लें। हमने एकमात्र मुद्दा बनाने पर आपत्ति की है।इन मुद्दों पर समयानुसार प्रसंगानुसार बहस जारी रखने पर हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जैसा कि प्रभूजी न लिखा है कि किसी दुश्चक्र के जरिये ऐसे मुद्दे की आड़ में बाकी सारे मुद्दे सिरे से गायब करने की बुद्धिमत्ता पर हम सवालिया निशान लगा रहे हैं । मोनिका लिवनेस्की और पामेला बोर्डेस प्रसंगों को भी याद करे लें,ये फर्जी बहुचर्चित मुद्दे एकध्रूवीय कारपोरेट जायनवादी वैश्विक व्यवस्था बनाने में सबसे ज्यादा मददगार रहे हैं। आप इसे कोई समस्या नहीं मानते तो यह आपकी मर्जी।
आपने ध्यान दिया होगा कि हमने फैसलों की टाइमिंग की बात की है। जानबूझकर यह मुद्दा बनाया जा रहा है। इसपर ध्यान जरुर दें। इसपर चर्चा लोकतांत्रिक व्यवस्था में जरुर होनी चाहिए। लेकिन जैसे मीडिया में एकमेव मुद्दे की चर्चा होती है,बाकी मुद्दों को हाशिये पर डालकर,हमारी आपत्ति इसे लेकर है। इसीलिए हमने अपने वैकल्पिक मीडिया और सोशल मीडिया के लोगों को संबोधित किया है। जिनकी आलोचना की है,संजोग से वे सारे लोग मुझे बहुत प्रिय हैं और उनसे हम दूसरे मुद्दों पर भी विमर्श शुरु करने की उम्मीद पालते हैं।हो सकता है कि यह उम्मीद ही नाजायज हो।मुझे अफसोस है कि ऐसे प्रियमित्रों को चेताने के लिए मुझे कारपोरेट जाल में उलझने और उलझाने के यथार्थ का भी उल्लेख करना पड़ा।
जो हमसे असहमत हों,जनसत्ता में प्रभू जोशी का लेख पूरा दोबारा पढ़ लें। हमारे युवा पत्रकार मित्र अभिषेक ने इस प्रकरण में प्रकाश के रे की मांग के मुताबिक शायद बेहतर अध्ययन किया है। हम भले उतने पढ़ाकू न हों,जैसा कि प्रकाश जी के पहले अभिनव सिन्हा ने भी साबित कर दिया है,लेकिन हनुमान संप्रदाय के लोग और भी हैं।प्रकाश जी यह आलेख पढ़कर बताये कि तमाम मुद्दों को हाशिये पर धकेलकर आप लोग संसद के सत्र के दौरान समलैंगिकता को एकमात्र मुद्दा बनाकर किसका एजंडा अमल में ला रहे हैं।
12/16/2013
377 के दुश्मन कौन हैं?
धारा 377 पर आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर जो चीख-पुकार मच रही है, वह इस लिहाज़ से अविवेकपूर्ण, षडयंत्रकारी और एक हद तक सनक भरी है क्योंकि अव्वल तो 377 का अनिवार्यत: समलैंगिकता से कोई लेना-देना नहीं है, दूजे इस धारा के तहत पिछले 150 साल में न्यायपालिका के समक्ष आए कुल 6 मामलों में सिर्फ एक ही में सज़ा तामील हुई है। दिल्ली के उच्च न्यायालय ने जब 377 के खिलाफ़ अपना फैसला दिया था, तो मासिक पत्रिका समयांतर ने एक लंबा शोधपरक लेख प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया था कि धारा 377 को खत्म करने की मांग के पीछे इस देश को सेक्स इंडस्ट्री में तब्दील करने की अंतरराष्ट्रीय साजि़शें शामिल हैं जिसमें सरकार, एनजीओ और विश्व बैंक हमजोली हैं। इस लेख के हिसाब से देखें तो सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला स्वागत योग्य है जिसने एक बड़ी साजि़श को फिलहाल टाल दिया है। यह लेख आज अचानक प्रासंगिक हो गया है। हम दोबारा यहां साभार उसे प्रकाशित कर रहे हैं। (मॉडरेटर)
अभिषेक श्रीवास्तव
(सभी तथ्य मुकदमे में जमा प्रतिवेदनों से उद्धृत)
http://www.junputh.com/2013/12/377.html
फेसबुक में हिमांशु जी ने कुछ अनिवार्य सूचनाएं दी हैं। अविनाश के दोहे हैं।और कुछ जरुरी सूचनाओं के बाद इच्छुक पाठकों के लिए अभिशेक का अध्ययन।पूरा का पूरा।
Himanshu Kumar
मोदी साहेब को प्रधान मंत्री बनाने की योजना के तहत मुज़फ्फर नगर में खामखाँ में दंगे किये गए . हजारों मुसलमानों के घरों पर हमला किया गया . घर जला दिए गए . बेटे क़त्ल किये गए . बेटियां उठा ली गयीं .
हजारों गरीब मुसलमान घर गाँव छोड़ कर शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर कर दिए गए . ये हज़ारों भारतीय आज भी लोग गंदगी में और खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं .
इनके बच्चे ठण्ड से मर रहे हैं . ज्यादातर की मौत की वजह सर्दी और निमोनिया है .
दिल्ली में बच्चों के डाक्टर राजीव उत्तम से बात हुई . वो फ़ौरन मुज़फ्फर नगर आने के लिए तैयार हो गए .
मैंने फेसबुक पर डाक्टर साहब को लाने ले जाने के लिए गाड़ी और दवाइयों की मांग रखी .
तुरंत मेरे पास फोन पर फोन आने लगे .
अगले दिन दो गाडियां और चार पैकेट दवाइयां भी डाक्टर साहब के घर पहुँच गयीं .
मलकपुर के शरणार्थी शिविर में चिकित्सा कैम्प लगा . तीन सौ बच्चों को दवाइयां दी गयीं .
अभी और भी साथियों के फोन आ रहे हैं . दवाइयां और भी साथी देने को इच्छुक हैं .
फेसबुक का इस तरह से सकारात्मक इस्तेमाल भी किया जा सकता है ये इस घटना से पक्का हो गया .
Like · · Share · December 11 at 7:54pm ·
Himanshu Kumar
अभी अभी एम्स से लौटा हूँ .
आज भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में लिंगा कोडोपी का आपरेशन किया गया .
सोनी सोरी के भतीजे लिंगा कोडोपी को भी पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग द्वारा हिरासत में भयंकर यातनाएं दी गयी थीं . लिंगा कोडोपी की गुदा में लाल मिर्चें भर कर डंडे से भीतर तक धकेल दी गयी थीं .
लिंगा कोडोपी के भीतर ज़ख्म हो गए थे . लिंगा कोडोपी का खून लगातार बहता रहता था . इससे लिंगा बहुत कमज़ोर हो गए थे .
आज दिल्ली में डाक्टरों के एक दल ने उनके घाव में टाँके लगाए .
Like · · Share · December 13 at 7:12pm ·
Himanshu Kumar
मुज़फ्फर नगर में सत्ता पाने के लिए भाजपा ने बे वजह दंगे किये गए .
हजारों लोगों के घर जला दिए गए . आज भी ये लोग अलग अलग जगह शिविर में रह रहे हैं .
करीब एक लाख लोग बेघर हुए . लेकिन सरकार ने सिर्फ पौने दो हज़ार परिवारों को मुआवजा देने का फैसला किया .
इसके बाद सरकार ने घोषित कर दिया है कि अब कोई पीड़ित राहत शिविर में नहीं बचा है और सारे राहत शिविर खतम हो चुके हैं .
सरकार ने इन राहत शिविरों को मदद देनी बंद कर दी .
अब पुलिस इन पीड़ितों को अपने शिविर हटाने के लिए धमका रही है .
ये भारत की गायब आबादी है .
आप कभी इनके बीच जाएँ तो लौटने पर आप या तो गुस्से से भर जायेंगे या फिर दुःख से .
इतना साफ़ अन्याय हमारे सामने हमारे ही वख्त में हो रहा है.
उस हिन्दुस्तान की तामीर अभी नहीं हुई है जिसका कि वादा किया गया था .
चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आयी .
Like · · Share · December 13 at 8:52am · Edited ·
Avinash Das
दान दक्षिणा में थोड़ी बर्बादी ले लो
मुफ्त मिले आजादी तो आजादी ले लो
शाम ढले दहशत की गाड़ी चल पड़ती है
आधी हम आधी तुम ये आबादी ले लो
जूते जींस कमीज बहुत काम आये होंगे
बेहतर है कि अब कपड़े कुछ खादी ले लो
उनकी नींद बड़ी गहरी है नहीं जगेंगे
इस जुलूस में कुछ नारे जनवादी ले लो
भूख लगे तो महंगे ढाबे में मत जाओ
दस के दो अमरूद इलाहाबादी ले लो
The Economic Times
Govt to set up Rs 150 cr national job portal. Will it work?
Like · · Share · 33128100 · 18 hours ago ·
Mohan Shrotriya
कल दिलीप खान Dilip Khan ने एक बेहद दिलचस्प वन-लाइनर लिखा था :
***स्टैंड मत बदलिए। जिस स्टैंड से कल बस पकड़ी थी, वहीं से आज भी पकड़िए।***
इस पर शीबा असलम फ़हमी Sheeba Aslam Fehmi ने एक ज़रूरी सवाल उठाया है. देखें...
"2012-13 में गुजरात सरकार का शिक्षा के लिए बजट 2700 करोड़ रुपए का था। ख़र्च कितना हुआ, नहीं मालूम। पटेल की मूर्ति पर ख़र्च कर रहे हैं 2500 करोड़। मूर्ति से ज्यादा मैराथन और विज्ञापन पर तब तक ख़र्च कर देंगे। यानी ताम-झाम के साथ पूरी लागत देखें तो लगभग दोगुना। 5000 करोड़। विकास की बात करने वालों की आंखों में ये आंकड़े नहीं चुभते। मायावती के हाथी पर तो बहुत बवाल था भाई।
[स्टैंड मत बदलिए। जिस स्टैंड से कल बस पकड़ी थी, वहीं से आज भी पकड़िए।]"
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12/16/2013
377 के दुश्मन कौन हैं?
धारा 377 पर आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर जो चीख-पुकार मच रही है, वह इस लिहाज़ से अविवेकपूर्ण, षडयंत्रकारी और एक हद तक सनक भरी है क्योंकि अव्वल तो 377 का अनिवार्यत: समलैंगिकता से कोई लेना-देना नहीं है, दूजे इस धारा के तहत पिछले 150 साल में न्यायपालिका के समक्ष आए कुल 6 मामलों में सिर्फ एक ही में सज़ा तामील हुई है। दिल्ली के उच्च न्यायालय ने जब 377 के खिलाफ़ अपना फैसला दिया था, तो मासिक पत्रिका समयांतर ने एक लंबा शोधपरक लेख प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया था कि धारा 377 को खत्म करने की मांग के पीछे इस देश को सेक्स इंडस्ट्री में तब्दील करने की अंतरराष्ट्रीय साजि़शें शामिल हैं जिसमें सरकार, एनजीओ और विश्व बैंक हमजोली हैं। इस लेख के हिसाब से देखें तो सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला स्वागत योग्य है जिसने एक बड़ी साजि़श को फिलहाल टाल दिया है। यह लेख आज अचानक प्रासंगिक हो गया है। हम दोबारा यहां साभार उसे प्रकाशित कर रहे हैं। (मॉडरेटर)
अभिषेक श्रीवास्तव
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आखिर कौन है धारा 377 का असली दुश्मन? |
पिछले महीने की शुरुआत में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आया। टीवी, अखबार और बुद्धिजीवी सारे काम छोड़ कर इसी खबर पर पिल पड़े। पान की दुकानों से लेकर बौद्धिक परिचर्चाओं तक यह फैसला छाया रहा। हमें देश के विभिन्न हिस्सों में समलैंगिकों की खुशियां मनाती हुई तस्वीरें दिखाई गईं। कुछ ऐसा उत्सव मना कि ऐसा लगा जैसे समूचे देश को समलैंगिक होने की आजादी मिल गई हो। अचानक ही समलैंगिकों के मानवाधिकारों के प्रति देश भर में भावनाएं उमड़ पड़ीं। विदेशी मीडिया ने भी भारतीय न्यायपालिका के इस फैसले को खूब सराहा और प्रगतिशीलता की दिशा में इसे एक लंबी छलांग करार दिया गया। दिलचस्प बात यह रही कि जो इस फैसले का समर्थन कर रहे थे और जो विरोध, दोनों को ही नहीं पता था कि वास्तव में अदालत में चल रहा मामला क्या था, इसके वादी-प्रतिवादी कौन थे और अपने मूल में यह फैसला है क्या। अधिकतर लोगों को यही नहीं पता कि धारा 377 क्या कहती है और इसे समाप्त किए जाने के क्या निहितार्थ और परिणाम होंगे। जाहिर है, जब चारों ओर से यह आवाज आ रही हो कि समलैंगिकता को वैध ठहरा दिया गया है, तो मामले की तह तक जाने में भला कोई क्यों दिलचस्पी लेगा। लेकिन इस मामले की तह तक गए बगैर हम वास्तव में नहीं समझ सकते कि आखिर धारा 377 का महत्व क्या था और समलैंगिकता को मंजूरी दिए जाने के पीछे निहितार्थ क्या हैं।
आईपीसी की धारा 377 कहती है कि किसी वयस्क पुरुष द्वारा पुरुष, स्त्री या पशु के साथ निजी तौर पर परस्पर सहमति से किया गया अप्राकृतिक यौनाचार अपराध है। मामले की तह में जाने से पहले हम यह पूछना चाहेंगे कि कोई भी व्यक्ति निजी स्पेस में परस्पर सहमति से किसी के साथ कुछ भी करता है, तो क्या वहां कोई कानून लागू होता है। जाहिर है, जब तक शिकायत न की जाए, तब तक किसी मामले के दर्ज होने या कानून के लागू होने का कोई अर्थ नहीं बनता, दंड तो दूर की बात रही। यदि धारा 377 को समाप्त कर दिया गया, तो क्या कोई भी व्यक्ति अप्राकृतिक यौनाचार सार्वजनिक स्थल पर करने का अधिकारी हो जाएगा? अव्वल तो ऐसा होगा ही नहीं। यदि धारा 377 के रहते भी अप्राकृतिक यौनाचार बंद कमरे में जारी थे और बाद में भी जारी रहेंगे, तो फिर इस धारा को खत्म करने के लिए इतनी कवायद क्यों की गई?
इसके विवरण में जाने से पहले सिर्फ एक जरूरी बात और। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में धारा 377 के तहत पिछले 150 साल में सिर्फ छह मामले आए हैं और महज एक में ही सज़ा सुनाई गई है। यह बात 1935 की है (डी. पी. मिनवाला बनाम बादशाह, एआईआर सिंध 78)। जो कानून पिछले 150 साल में एक ही बार सजा सुना पाया हो और जिसके तहत सिर्फ छह मामले आए हों, उसके होने और न होने से क्या कोई बुनियादी फर्क पड़ता है? यह सवाल लाजिमी है और पूछा जाना चाहिए।
हमें तो यही लगता है कि ऐसे निष्प्रभावी कानून पर बात करने की ही कोई जरूरत नहीं। दरअसल ब्रिटेन के जिस ''बजरी कानून'' से धारा 377 की प्रेरणा ली गई, उसे बनाते वक्त लॉर्ड मैकाले ने भी तकरीबन यही बात सामुदायिक नैतिकता की दृष्टि से कही थी:
''ऐसे अपराधों का सम्मान करते हुए इनके बारे में जितना संभव हो, कम कहा जाए। हम पाठ में या नोट में ऐसी कोई भी चीज डालने की इच्छा नहीं रखते हैं जो इस भड़काने वाले विषय पर लोगों में बहस को जन्म दे, क्योंकि हम निश्चित तौर पर यह राय रखते हैं कि इस किस्म की बहसों से समुदाय की नैतिकता पर लगने वाली चोट अधिक से अधिक सावधानी के साथ उठाए गए कानूनी कदमों से मिलने वाले लाभ के मुकाबले कहीं ज्यादा होगी।''
लेकिन इसी कानून को हटाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में ''नाज़ फाउंडेशन'' नाम की एक संस्था ने 2001 में मुकदमा किया था जिस पर पिछले महीने फैसला आया। आठ साल तक चली कवायद के बाद आखिरकार इस संस्था ने मुकदमा जीत लिया। इस संस्था का दावा था कि धारा 377 एमएसएम (पुरुषों के साथ यौनाचार करने वाले पुरुष) के बीच एचआईवी/एड्स बचाव कार्यक्रम को लागू करने में बाधा बन रही है। संस्था का दावा था कि वह ऐसे पुरुषों के बीच एचआईवी/एड्स बचाव का काम करती है जो दूसरे पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाते हैं। इन्हें एमएसएम कहा जाता है। (यह रिट याचिका में कहा गया है। इससे एक बात साफ होती है कि हालिया फैसला लेस्बियन संबंधों यानी महिला समलैंगिकों पर लागू नहीं होता)। सवाल उठता है कि आखिर इस संस्था को एमएसएम के प्रति ही विशेष चिंता क्यों थी? एचआईवी/एड्स के क्षेत्र की शब्दावली में एक शब्द होता है ''हाई रिस्क ग्रुप'' (एचआरजी) यानी उच्च जोखिम वाले समूह। संस्था का कहना था कि एमएसएम एचआरजी में आते हैं और इनके लिए एचआईवी बचाव के मामले में ''टार्गेटेड इंटरवेंशन'' यानी लक्षित हस्तक्षेप की जरूरत है। (यह शब्दावली विश्व बैंक की है)।
याचिकाकर्ता नाज़ फाउंडेशन ने अपनी याचिका में धारा 377 को हटाने के लिए जो दलील दी थी, वह कुछ यूं थी (रिट याचिका सं. 7455 वर्ष 2001, पैरा 39):
''क्योंकि धारा 377 प्रकृति के खिलाफ यौन गतिविधियों को आपराधिक मानती है, जो अधिकारियों की नजर में एमएसएम की गतिविधियों से ही जुड़ा है, एमएसएम उन सेवाओं तक पहुंच बनाने से भय खाते हैं जो उनकी यौन गतिविधियों को पहचान लिए जाने और आपराधिक करार दिए जाने का खतरा पैदा करती हैं । उनकी जरूरतें और चिंताएं दूसरों से भिन्न हैं, इसलिए उनके लिए विशिष्ट कार्यक्रम होने चाहिए जो इन चिंताओं को संबोधित कर सकें। इसी बात का पक्षपोषण प्रतिवादी संख्या 4 ने किया है।''
इस मामले में प्रतिवादी संख्या 4 का जो हवाला दिया गया है, वह राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) है। दरअसल, एमएसएम को हाई रिस्क ग्रुप मान कर 377 को हटवाने की कवायद नाको की शह पर ही शुरू हुई थी।
अपनी एचआईवी की ''लक्षित हस्तक्षेप'' की नीति को सही ठहराने के लिए नाको ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि एमएसएम एचआईवी/एड्स के लिए उच्च जोखिम वाले समूह हैं जिसमें 2005 के सर्वेक्षण के हवाले से बताया गया है कि 8 फीसदी से ज्यादा एमएसएम आबादी एचआईवी से संक्रमित है जबकि भारत की आम आबादी में एक फीसदी से कम एचआईवी से संक्रमित हैं। इसके बाद इस मामले के प्रतिवादी संख्या 6 जैक इंडिया ने नाको से सूचना के अधिकार के कानून के तहत आवेदन कर के पूछा कि इन आंकड़ों का स्रोत क्या है। पता चलता है कि ये आंकड़े उन एनजीओ के हैं जो एमएसएम के बीच काम कर रहे हैं। इससे कई सवाल खड़े होते हैं/
1) इन आंकड़ों का स्रोत सरकारी जन स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं बल्कि एनजीओ हैं जिन्हें विशेष तौर पर एमएसएम/हाई रिस्क ग्रुप के बीच काम करने के लिए ही फंड मिल रहा है। यह पूरी तरह अवैज्ञानिक है और ''एचआईवी सर्वेलांस के लिए नाको के दिशानिर्देश'' में नमूना सर्वेक्षण के मानकों का प्रत्यक्ष उल्लंघन है।
2) एमएसएम के बीच एचआईवी पर काम करने के लिए अनुदान प्राप्त एनजीओ को एमएसएम के लिए आंकड़े जुटाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, क्योंकि संभावना यही है कि ऐसे आंकड़े निष्पक्ष नहीं होंगे और उनके काम को ही पुष्ट करेंगे।
3) यह आंकड़ा जो कि 2005 में जारी किया गया, उसका इस्तेमाल याचिकाकर्ता के एमएसएम के बारे में हाई रिस्क ग्रुप होने के दावे का समर्थन करने के लिए किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि 2001 में न्यायालय में याचिका दायर करने के पांच साल बाद नाको ''साक्ष्यों को निर्मित'' कर रहा था।
नाको ने यह नहीं बताया कि किस आधार पर उसने जनता के भारी-भरकम पैसे को बाकी लोगों से अलग एमएसएम की पहचान करने पर खर्च करने के लिए इस्तेमाल किया और उसे सही कैसे ठहराता है? इस मामले में प्रतिवादी संख्या 6 ने सवाल उठाया था कि क्या जनता के लिए दिया गया स्वास्थ्य अनुदान ''पुरुष सेक्स उद्योग'' को संस्थागत रूप देने में काम में लाया जा रहा है?
1992 में अपनी स्थापना से ही नाको एचआईवी/एड्स से जुड़े आंकड़े तैयार करने के लिए आधिकारिक भारतीय एजेंसी है, लेकिन यह समय-समय पर अपने उद्देश्यों के लिए आंकड़ों में हेर-फेर करने की दोषी रही है। इसके इतिहास पर एक नजर डालें:
क) 1998 के आखिर में एक संसदीय स्थायी स्मिति की रिपोर्ट ''खतरनाक बीमारियों पर 73वीं रिपोर्ट'' ने बताया कि भारत में 81.3 लाख एचआईवी के मामले हैं, जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान और यूके में भारतीय उच्चायुक्त ने कहा कि भारत में 85 लाख एचआईवी के मामले हैं।
ख) महामारी की शुरुआत से लेकर 2000 तक नाको नेशनल एचआईवी सेरो-सर्वेलांस प्रणाली का प्रयोग करता था जिसके अंतर्गत यह सालाना एचआईवी आंकड़े इकट्ठा कर के ''कंट्री सिनेरियो'' रिपोर्टों और अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करता रहा है। नाको की ''कंट्री सिनेरियो 1998-99'' के पृष्ठ 15 के मुताबिक भारत में एचआईवी सेरो-मौजूदगी दर 2000 में 2.4 फीसदी थी। इसी आंकड़े को राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के चरण 1 और 2 के ''नियोजन, क्रियान्वयन और निगरानी'' का आधार बनाया गया जिसके लिए बड़े पैमाने पर विश्व बैंक से कर्ज मिला।
ग) जुलाई 2000 में जब इस सेरो-सर्वेलांस आंकड़े में भारी फर्जीवाड़े और हेर-फेर की ओर इशारा किया गया, तो नाको ने काफी जल्द इस समूचे आंकड़े को अगस्त 2000 में वापस ले लिया और ''ज्यादा विश्वसनीय'' आंकड़े जारी किए जो नेशनल सेंटिनेल सर्वेलांस प्रणाली पर आधारित थे। इसके मुताबिक भारत में 1998 में अनुमानतः 35 लाख एचआईवी मामले थे यानी 0.7 फीसदी एचआईवी संक्रमित वयस्क आबादी। (इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन की 31.07.2000 की खबरें देखें और स्वास्थ्य मंत्री की प्रेस विज्ञप्ति दिनांक 7.8.2000)।
घ) 2000 से 2006 के बीच नाको ने सालाना स्तर पर अपना एचआईवी सेंटिनेल सर्वेलांस अनुमान जारी करना चालू रखा और इसी आंकड़े के आधार पर 2006 में भारत में अनुमानित 52 लाख एचआईवी मामले दिखाए गए। (यूएनएड्स की वेबसाइट पर प्रकाशित खबर)।
च) जुलाई 2007 में नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम (एनएसीपी) के तीसरे चरण के लिए विश्व बैंक ने 11,000 करोड़ रुपये का कर्ज मंजूर किया। इसी माह नाको ने 2006 के लिए और ज्यादा विश्वसनीय आंकड़े के सेट की घोषणा की जिसके मुताबिक भारत में वास्तव में एचआईवी मामलों की अनुमानित संख्या 24 लाख थी।
छ) इस तमाम कवायद की निरर्थकता 2006 के एचआईवी अनुमानों की रिपोर्ट से साफ होती है। इसमें पिछले वर्षों के आंकड़ों को इस तरीके से परिवर्तित किया गया है कि एचआईवी संक्रमण में कमी का रुझान दिखाया जा सके जबकि नाको को पता ही नहीं था कि पिछले वर्षों में हो क्या रहा था और पुराने आंकड़ों को इन्होंने खारिज कर दिया था।
यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि भारत में एचआईवी बचाव के प्रयासों का सहयोग व समर्थन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनएड्स ने काफी संदिग्ध भूमिका निभाई है। यूएनएड्स का कहना है कि नाको द्वारा प्रकाशित उच्च एचआईवी अनुमान और काफी कम एड्स के मामलों का अर्थ यह बनता है कि कहीं ज्यादा लोग भारत में एड्स से मर रहे होंगे, लेकिन यह संज्ञान में नहीं आ पाता। जबकि सच्चाई यह है कि एड्स के कम मामलों के बारे में नाको के प्रकाशन का अर्थ यह है कि उसके एचआईवी अनुमान मनमाने और बढ़ाए हुए हैं, क्योंकि तथाकथित एचआईवी की महामारी के दो दशक बाद ऐसे संक्रमण से देश भर में मरने वाले लोगों की संख्या असाधारण होनी चाहिए थी और बिल्कुल साफ दिखाई पड़नी चाहिए थी। अब तक इस बारे में कोई भी दस्तावेज या रिपोर्ट तैयार नहीं की गई है।
यहां यह भी बताना जरूरी है कि अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इस देश के लिए ऐसे फर्जी आंकड़ों के परिणाम क्या हो सकते हैं। अमेरिका में एचआईवी/एड्स को 'राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा' के रूप में सूचीबद्ध किया गया है (आतंकवाद से ज्यादा नहीं, तो उसके बराबर)। इस तरह अमेरिका का वैश्विक एचआईवी/एड्स अभियान उसकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के हाथ में दे दिया गया है। सितम्बर 2002 में सीआईए ने एक रिपोर्ट छापी थी, 'द सेकेंड वेव ऑफ एचआईवी/एड्स' जिसमें 2010 तक भारत में दो से ढाई करोड़ संक्रमण का अनुमान लगाया गया था। इन आंकड़ों के स्रोत के बारे में लगातार मांग करने के बदले में संस्थाओं को सिर्फ चुप्पी हासिल हुई है।
नाको इस फर्जी आंकड़े का प्रयोग आम राय को प्रभावित करने के आधार के रूप में कर रहा था ताकि वह आईपीसी की धारा 377 को समाप्त किए जाने के सम्बन्ध में आदेश प्राप्त कर सके। इस संदर्भ में भारत सरकार के पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. अंबुमणि रामदास द्वारा मेक्सिको में अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन में दिए गए बयान पर भी एक नजर डाल लेनी चाहिए जिससे धारा 377 के खिलाफ चलाए गए अभियान की असलियत उजागर हो सके (पीआईबी की विज्ञप्ति दिनांक 08.08.08) जहां उन्होंने एमएसएम के बीच एचआईवी बचाव के नाम पर आईपीसी की धारा 377 को हटाए जाने पर जोर दिया था। भारत सरकार का प्रतिनिधि होने के बावजूद केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने व्यवहार में दरअसल भारत सरकार के खिलाफ ही बयान दे डाला था कि वह आईपीसी की धारा 377 के रास्ते एचआईवी बचाव के प्रयासों को बाधित कर रही है।
आइए, अब देखते हैं कि जिस संस्था नाज़ फाउंडेशन ने धारा 377 के खिलाफ याचिका दायर की थी, उसका चरित्र क्या है। कुछ वर्षों पहले लखनऊ में एक पुरुष वेश्यावृत्ति रैकेट का भंडाफोड़ हुआ था जिसकी चर्चा टीवी और अखबारों में खूब हुई थी। इलाके में रैकेट की जांच करते वक्त पुलिस नाज फाउंडेशन इंटरनेशनल और भरोसा ट्रस्ट नाम के एनजीओ के परिसर तक पहुंची। एनजीओ के परिसर की जांच की गई और यह तथ्य सामने आया कि उक्त एनजीओ समलैंगिक पुरुषों के क्लब का संचालन करता है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक एनजीओ के परिसर में पुरुष वेश्यावृत्ति के एक मामले में छापा मारा गया तो पाया गया कि एनजीओ इस विशाल भवन से एक गे क्लब चला रहे थे जिसकी सदस्यता 500 से ज्यादा थी, जहां सदस्यों को उनकी गतिविधियों के लिए आरामदेह वातानुकूलित कमरे दिए गए थे और जो सदस्य नहीं थे, उन्हें यहां की सेवा का 'इस्तेमाल करने के लिए' 1000 रुपये प्रतिदिन देने पड़ते थे। उस वक्त की टीवी समाचार रिपोर्ट में कुछ अश्लील सामग्री/ब्लू फिल्मों के कैसेट दिखाए गए थे जो पुलिस ने उस एनजीओ के परिसर से बरामद किए थे। इस मामले में आईपीसी की धारा 377 के तहत गिरफ्तारी की गई, इसके साथ धारा 120बी (षडयंत्र रचना) और धारा 109 (उकसाना) के साथ आईपीसी की धारा 292 (अश्लील किताबों की बिक्री करना), महिलाओं का अश्लील चित्रण (निरोधक) कानून, 1986 की धारा 3 और 4, काॅपीराइट कानून, 1957 की धारा 60 जैसे आरोप लगाए गए। हालांकि, आरोप पत्र में अभियोजन पक्ष ने आईपीसी की धारा 377 को हटा दिया था।
ऐसी ही एक घटना और है जो बताती है कि दरअसल धारा 377 के खिलाफ चले अभियान के पीछे क्या मंसूबे हैं। शुरुआत में धारा 377 के खिलाफ मुकदमा नाज फाउंडेशन के नाम से किया गया था जिसे बाद में बदल कर नाज फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट कर दिया गया। इसके एक ट्रस्टी का नाम था श्री डी.जी. खान। इनके बारे में अदालत में दाखिल जानकारी के मुताबिक इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री डेविड अब्दुल वाहिद खान था और इनका पता था नाज प्रोजेक्ट, पैलिंग्सविक हाउस, 241 लंदन, डब्ल्यू-6, 9एलपी, यूनाइटेड किंगडम। याचिका के पैरा 11.0 में इस नाज प्रोजेक्ट और द नाज फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट के बीच मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन की चर्चा है। 9-10 जुलाई 2001 को आई खबरों के मुताबिक लंदन स्थित एनजीओ नाज फाउंडेशन इंटरनेशनल और अन्य के दफ्तर में छापे के दौरान पुलिस ने अश्लील सामग्री जब्त की और पता चला कि यह एनजीओ गे क्लब चलाता था। यहां से तीन अधिकारियों को भी गिरफ्तार किया गया था।
उपर्युक्त तमाम तथ्यों से यह समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर संविधान की एक निष्क्रिय सी धारा को हटवाने के पीछे किसके हित हैं। जाहिर तौर पर इसके पीछे खरबों डॉलर वाला वह अमेरिकी और यूरोपीय सेक्स उद्योग है जो भारत को अपने मुनाफे का केंद्र बनाना चाहता है। इसमें उसकी मदद एचआईवी/एड्स से बचाव के नाम पर विदेशी अनुदान ले रहे तमाम एनजीओ कर रहे हैं और भारत में इसकी राह सुगम बनाई है खुद सरकारी एजेंसी नाको ने, जिसने आठ साल तक लगातार झूठ बोलने के बाद आखिरकार धारा 377 पर फैसला अपने और याचिकाकर्ता नाज फाउंडेशन के पक्ष में ले ही लिया।
अफसोस की बात यह है कि जिस संस्था ने लगातार इन मंसूबों को उजागर करने की कोशिश की और इस मुकदमे में छठवें नंबर के प्रतिवादी के तौर पर शामिल रही, पिछले आठ साल के दौरान उसके प्रमुख पर तीन बार जानलेवा हमले करवाए गए।
यह अजीब बात है कि दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी बीमारी को एक देश के भीतर दंडात्मक कानून को चुनौती देने के लिए इस्तेमाल में लाया गया और आधार बनाया गया। वो भी तब, जबकि एचआईवी/एड्स के बारे में वैज्ञानिक साक्ष्य बेहद अपुष्ट हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि आठ साल तक चले इस मुकदमे में याचिकाकर्ता की ओर से एक भी मामला ऐसा पेश नहीं किया जा सका जहां धारा 377 की वजह से किसी एमएसएम पर दंडात्मक कार्रवाई हुई हो। यह अद्भुत बात है कि जिसने मुकदमा जीता है, उसने आज तक अपने पक्ष में एक गवाह नहीं पेश किया।
फिलहाल, 377 को संसद की मंजूरी का इंतजार है। हालांकि जिस बड़े पैमाने पर दुनिया भर में भारतीय न्यायपालिका के इस फैसले का उत्सव मनाया गया है, उससे समझ में आता है कि आम जनता की आखिरी उम्मीद इस देश की न्यायपालिका समेत सरकारें, एनजीओ और उद्योग कैसे अपने उद्देश्यों में एकजुट हो चुके हैं। इस फैसले की अगली कड़ी देश में वेश्यावृत्ति को वैध ठहराना होगा, फिर विदेशी काले धन की राह बेहद आसान हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि इस बारे में किसी किस्म का भ्रम है या यह कोई मनगढ़ंत कल्पना है। इस योजना के ठोस सबूत हमें इतिहास के दस्तावेजों में मिलते हैं।
नाको ने 1999 में ही ऐसे उद्योग का समर्थन अपनी सालाना रिपोर्ट ''कंट्री सिनेरियो 1998-99'' में कर दिया था। इस रिपोर्ट के पृष्ठ 67 पर एक शब्द आता है 'सेक्स इंडस्ट्री'। द्विपक्षीय एजेंसियां पहले से ही भारत सरकार की अनुमति से भारत में 'सेक्स इंडस्ट्री' की परियोजनाएं चला रही हैं और अधिकारी व एनजीओ 'सेक्स वर्कर' शब्द का इस्तेमाल बहुत पहले से करते आ रहे हैं। इतना ही नहीं, 'लखनऊ का भरोसा/नाज इंटरनेशनल' वाला मामला भी सवाल उठाता है कि आखिर एचआईवी 'लक्षित हस्तक्षेप' के नाम पर क्या चल रहा है। समलैंगिकों के मानवाधिकार का समर्थन एक अलग बात है और धारा 377 को हटाने का जश्न मनाना बिल्कुल दूसरी बात। उपर्युक्त तमाम तथ्यों से यह बिल्कुल साफ है कि धारा 377 के दुश्मन कौन हैं।
(सभी तथ्य मुकदमे में जमा प्रतिवेदनों से उद्धृत)
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