[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1263-2012-04-29-11-55-22]शिक्षा अधिकार कानून के समझ मुश्किल भरी चुनौतियां [/LINK] [/LARGE]
Written by कैलाश सत्यार्थी Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 29 April 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=6c73628d94334808785ae4847d8668395d1f26d0][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1263-2012-04-29-11-55-22?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
शिक्षा अधिकार कानून को लागू हुए इस अप्रैल में दो साल पूरे हो गए। इस कानून के माध्यम से यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि छह से चौदह साल तक के हर एक बच्चे को पूरी तरह मुफ्त, अनिवार्य और अच्छी शिक्षा मुहैया कराई जाएगी। यहां तक कि कापी-किताब, ड्रेस सब कुछ मुफ्त में बच्चों को सरकार उपलब्ध कराएगी जिससे कि बच्चों और उनके परिवारों को शिक्षा के प्रति आर्किर्षत किया जा सके। हालांकि गांधी और अम्बेडकर के इस सपने को अमली जामा पहनाने में हमारे लोकतंत्र की आधी सदी बीत गई, फिर भी देश के करोड़ों बच्चों का वर्तमान और भविष्य सुनिश्चित करने की दिशा में यह एक क्रांतिकारी कदम है। कानून भले ही बन गया हो लेकिन उसको लागू कराने को लेकर जो चुनौतियां हैं वो भी कम नहीं हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो इस कानून की वैधता को लेकर थी जो, निजी शिक्षण संस्थाओं के मालिकों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका के रूप में थी। हालांकि इस मामले में बचपन बचाओ आन्दोलन और अन्य संस्थाओं की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निजी शिक्षण संस्थाओं के चुनौती को खारिज किया।
इस कानून की घोषणा के वक्त ही शिक्षाविदों और सामाजिक संगठनों ने इसकी खामियों पर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। उनकी कई चिंताएं थीं। एक तो, यह कानून 6 वर्ष से छोटे और 14 साल से बड़े बच्चों के लिए है ही नहीं। दूसरा, यह कानून बाल मजदूरी के मसले पर या स्कूलों से बाहर के बच्चों या स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होने वाले बच्चों की दिक्कतों पर भी मौन है। दूसरी तरफ इस कानून के लागू होने के बाद सरकार ने बड़े जोर-शोर से यह ढिंढोरा पीटा था कि सन् 2015 तक सबके लिए शिक्षा के अन्तर्राष्ट्रीय लक्ष्य को भारत आसानी से पूरा कर लेगा। लेकिन देश की जमीनी हकीकतें खासकर देश में व्याप्त बाल एवं बंधुआ मजदूरी की प्रथा, बाल व्यापार, सरकारी मशीनरी की सक्रियता में कमी, जनजागरूकता एवं मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते इस कानून के ठीक-ठीक लागू हो पाने और अपेक्षित एवं तार्किक परिणाम तक पहुँचने में सन्देह है।
जब यह कानून को लागू किया जा रहा था ठीक उसी समय बचपन बचाओ आन्दोलन ने देश के 9 राज्यों में 125 स्थानों पर शिक्षा के अधिकार पर जनसुनवाइयां आयोजित कर शिक्षा की वर्तमान स्थिति को समझने की कोशिश की थीं। इनसे कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। बिहार, दिल्ली, हरियाणा, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब और उत्तर प्रदेश के गांवों, कस्बों तथा शहरी झुग्गी बस्तियों में रहने वाले मात्र 6 प्रतिशत लोगों को यह जानकारी थी कि ऐसा कोई कानून बनाया गया है। दिल्ली में आकर बसे प्रवासी नागरिकों में से सिर्फ 1 प्रतिशत ने इस कानून के बारे में सुना था। देश में 97 फीसदी लोग यह नहीं जानते कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग किन चिड़ियों का नाम हैं। जिन्होंने इनका नाम सुना भी है उनमें अधिकांश इस बात से अनभिज्ञ हैं कि शिक्षा के अधिकार के कानून की निगरानी एवं लागू कराने का दायित्व अब ऐसे ही आयोगों या आयोगों के अभाव में बनाई जाने वाली राज्य समितियों को सौंपा गया है।
यहां यह बताना उल्लेखनीय है कि शिक्षा ऐसा एकमात्र संवैधानिक मौलिक अधिकार है जिसके हनन व अवहेलना की शिकायत न्यायपालिका में नहीं की जा सकती। आपको इन आयोगों में ही शिकायत करनी पड़ेगी जो संवैधानिक न होकर सरकारी महकमें की तरह हैं। इनके पास सजा देना तो दूर किसी के [IMG]/images/stories/food/kailashji.jpg[/IMG]
कैलाशजी
खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है, यानि वे हाथी के दांतों से ज्यादा कुछ भी नहीं। दूसरा इन आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति का आधार राजनैतिक अथवा प्रशासनिक निहितार्थ ही ज्यादा होते हैं। तीसरी सबसे मजेदार बात यह है कि शिक्षा मुहैया करना शिक्षा मंत्रालय और शिक्षा विभागों का काम है जबकि इस मामले में शिकायत सुनना व निगरानी करना बाल संरक्षण आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है। ये महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन हैं न कि शिक्षा मंत्रालय के। चौथा अब तक केवल 9 राज्यों में ही ऐसे आयोग बन सके हैं। इनमें भी न तो पर्याप्त अधिकारी व कर्मचारी हैं और न ही संसाधन। न ही इनके पास कोई ठोस कार्ययोजना है। यदि राष्ट्रीय आयोग और अधिकांश राज्य आयोगों के अब तक के रिपोर्ट कार्ड देखे जाय तो निराशा ही हाथ लगेगी। शिक्षा का अधिकार मुहैया कराना तो बहुत दूर की बात है बच्चों के किसी भी अधिकार की दिशा में अब तक इनकी कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं हुई है। हां वे मीटिंगों, सेमिनारों, अध्ययनों, जांचों आदि गतिविधियों में ही ज्यादा व्यस्त नजर आते हैं। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि यदि किसी कारण से, किसी बच्चे से उसके शिक्षा का अधिकार छीना जाता है- चाहे स्कूल या शिक्षक का अभाव हो अथवा कागजी खानापूरी में कमी के कारण स्कूल में भर्ती का मामला अथवा ऐसी परिस्थितियां जिनके कारण बच्चे को स्कूल छोड़ने पर मजबूर होना पड़े, कोई माता-पिता अथवा अन्य व्यक्ति इस कानून के अन्तर्गत कचहरी के दरवाजे नहीं खटखटा सकता।
ऐसे बहुत सारे बुनियादी अंर्तविरोध हैं जिनके चलते हर बच्चे को मुफ्त और अच्छी शिक्षा के अधिकार मिलना संदेहास्पद है। पहली गम्भीर समस्या तो शिक्षा से वंचित बच्चों की संख्या के विरोधाभासी आंकड़े हैं। 2001 की जनगणना के मुताबिक साढ़े छह करोड़ बच्चे स्कूल से बाहर थे। इस बीच 2008 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के मुताबिक यह संख्या घटकर 2.1 करोड़ रह गई है। जबकि दूसरी ओर केन्द्रीय सरकार का कहना है कि केवल 75 लाख बच्चे ही शिक्षा से वंचित हैं। अब दूसरा परिदृश्य लीजिए। देश में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की जनसंख्या लगभग 22 करोड़ है। सरकार कहती है कि 18.7 करोड़ बच्चे स्कूलों में दाखिल हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि तीन करोड़ से अधिक बच्चों का अभी भी दाखिला नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही लगभग सवा करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते हैं यानि कि वे स्कूल में न होकर कारखानों, खेत-खलिहानों, खदानों, भटठों, ढाबों, घरों आदि में बाल श्रम करने के लिए अभिशप्त हैं। हालांकि गैर-सरकारी आंकड़ों के हिसाब से यह संख्या पांच करोड़ है। चूंकि सरकार सिर्फ 75 लाख बच्चों को ही स्कूल से बाहर मानती है अतः बजट का निर्धारण, शिक्षकों की नियुक्ति, स्कूलों का निर्माण आदि सब कुछ इसी आंकड़े पर निर्भर है।
इस संदर्भ में यह भी जानना उल्लेखनीय है कि जिन बच्चों के नाम स्कूलों में दाखिल हैं उनकी बड़ी संख्या-या तो पूरी तरह स्कूल छोड़कर मां-बाप या मालिकों के साथ मजदूरी कर रही होती है अथवा गांव में खेती के समय में कम से कम तीन-चार महीने कक्षाओं से अनुपस्थित रहती है। दूसरा बड़ा अवरोध सामाजिक, आर्थिक तथा भौगोलिक रुप से मुश्किल हालातों वाले बच्चों को स्कूल से जोड़ने की दिशा में सरकारी दृष्टि, नीति, नीयत और संसाधनों का अभाव है। पिछले वर्ष बचपन बचाओ आन्दोलन ने सरकार के साथ मिलकर देश की राजधानी से लगभग 1200 बच्चों को बाल बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया। मैंने स्वयं इनमें से सैकड़ों बच्चों से बात की तो यह जानकर कतई हैरानी नहीं हुई कि उनमें से अस्सी प्रतिशत से अधिक बच्चों के नाम बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल आदि राज्यों में स्कूलों में दर्ज थे। बाद में यह भी मालूम हुआ कि उन अधिकांश बच्चों के नाम पर मध्यान्ह भोजन आदि के मद की धनराशि नियमित तौर पर खर्च की जा रही थी। ऐसे करोड़ों बच्चों को बाल मजदूरी से हटाने और पुनः शिक्षा से जोड़ने हेतु श्रम मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय ने मिलकर ऐसी कोई पहल अभी तक नहीं की है। देश के गांवों में शायद ही कोई स्कूल हो जहां विकलांग बच्चों के लिए स्कूलों में विशेष सुविधाएं उपलब्ध होती हों। इस दिशा में शिक्षकों का प्रशिक्षण भी नहीं कराया जाता। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों, कश्मीर के कई जिलों और पूर्वोत्तर प्रांतों में तेजी से हथियारबंद बनाए जा रहे किशोरों के मामले में आश्चर्यजनक उदासीनता बनी हुई है। यही स्थिति दूर-दराज बसने वाले आदिवासी समूहों जैसे नट, बंजारे, भील, गड़रिए आदि तथा विस्थापन के शिकार परिवारों के बच्चों की भी है। न तो इसके लिए शिक्षा के ढांचे में आवश्यक सुधार किए जा रहे हैं और न ही शिक्षकों का शिक्षण-प्रशिक्षण।
तीसरा बड़ा अवरोध शिक्षा के गुणवत्ता के मामले में है। एक महत्वपूर्ण गैर सरकारी रिपोर्ट 'असर' के मुताबिक सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पांचवी कक्षा के 55 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताब तथा तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 65 फीसदी बच्चे पहली कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाते हैं। यहां तक कि स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में भी 3 फीसदी की गिरावट आयी है। चौथा महत्वपूर्ण व्यवधान स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव भी है। बचपन बचाओ आन्दोलन की जनसुनवाइयों के अनुसार लगभग आधे से भी ज्यादा स्कूलों में बच्चों के लिए व्यवस्थित शौचालयों तक का प्रबंध नहीं है। लड़कियों के लिए तो लगभग 30 फीसदी ही स्कूली शौचालय चल रहे थे। साठ प्रतिशत बच्चों को मध्यान्ह भोजन की सुविधा मिल पाती है। एक तिहाई से भी कम को खेलने के मैदान और 10 प्रतिशत से भी कम को खेल सामग्री हासिल होती है।
लगभग 60 फीसदी बच्चों के पीने के लिए साफ पानी का प्रबंध नही है। झारखण्ड, बिहार, राजस्थान में कई स्थानों पर 70 छात्रों के लिए मात्र एक अध्यापक पाया गया। परिणाम स्वरुप 2007 से 2010 के बीच ग्रामीण स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में कोई प्रगति नहीं हुई। नाम दर्ज होने के बावजूद भी लगभग 30 फीसदी बच्चे कक्षाओं में नहीं होते। एक और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि कानूनी तौर पर शिक्षा मुफ्त होने के बावजूद अधिकांश जगहों पर बच्चों या उनके माता-पिता से किसी न किसी बहाने पैसा वसूला जाता है या फिर किताबों, यूनीफार्म, जूतों आदि में गरीब मां-बाप अपनी जेब से पैसा लगाने को मजबूर हैं। यह भी स्कूल छोड़ने की यह एक बड़ी वजह बनी हुई है। गांव में मध्यान्ह भोजन मिलने के कारण बच्चों में स्कूल के प्रति आकर्षण जरुर बढ़ा है किन्तु अनेकों जगहों पर मास्टर जी खानसामा और भोजन व्यवस्थापक में तब्दील हो गए हैं। उनका आधे से ज्यादा वक्त खाना बनवाने, बंटवाने, खिलाने आदि व्यवस्थाओं में लग जाता है। एक ओर तो देश के लगभग सभी राज्यों में अध्यापकों की कमी है वहीं दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद अध्यापकों को अनेकों प्रकार के गैर-शैक्षणिक कार्यों में व्यस्त रखा जाता है।
बच्चा अपने आप में एकांगी नहीं होता, और न ही उसकी शिक्षा को अलग-थलग करके देखा जा सकता है। यदि सचमुच हर एक बच्चे को शिक्षा का हक हासिल कराना है तो ईमानदार राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ उपर्युक्त समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना ही होगा तथा बाल मजदूरी को संज्ञेय और गैर जमानती घोषित कर 14 साल तक बाल मजदूरी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा। इसके लिए विभिन्न मंत्रालयों के बीच ठोस और प्रभावी समन्वय आवश्यक है। श्रम, समाज कल्याण, बाल व महिला कल्याण, स्वास्थ्य गृह, सामाजिक सुरक्षा ग्रामीण विकास आदि मंत्रालयों को मिल-जुलकर तालमेल बैठाते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी बच्चे मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई हासिल कर सकें। इसके लिए बच्चों के अभिभावकों व समाज को भी जागरूक बनाने की जरूरत है। गैर सरकारी संगठन बच्चों की शिक्षा में जुटे यह उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि वे शिक्षा के अधिकार के प्रति जागरूकता पैदा करने, शिक्षा बजट बढ़ाने हेतु सरकार पर दबाव डालने तथा धनराशि का ठीक-ठीक इस्तेमाल किए जाने जैसे मुद्दों पर अपनी भूमिका निभाएं।
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