हमने उन्हें जासूस समझा था…
12 फरवरी, 2012 की सुबह चन्द्रशेखर तिवारी ने विद्यासागर नौटियाल के देहान्त की सूचना दी तो लगा, मानो वर्षो की कमाई जमापूँजी लुट गई हो। उस दिन भाई राजेन्द्र टोडरिया की पहल पर नव प्रजामण्डल की बैठक में बार-बार नौटियाल जी चलचित्र की तरह मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहे।
…..बात 1973 की है। पिताजी का काशीपुर से टिहरी ट्रांसफर हुआ। प्रताप कालेज, टिहरी में 10वीं में एडमिशन लिया था। कालेज जाते हुए, पुराने बस अड्डे से बाजार की ओर ढलान पर पुल के पार चकाचक सफेद मकान और उसके ऊपर लगे लाल झण्डे पर निगाह अक्सर रुक जाती । किसका है, साथ के दोस्त से पूछा तो सनसनी भरी जानकारी मिली। टुकड़े-टुकड़ों में कई दिनों तक मिलने वाली सूचना के मुताबिक ''वो मकान वकील विद्यासागर नौटियाल का है। वे पक्के कम्युनिस्ट हैं। रूस एवं चीन सहित कई अन्य कम्युनिस्ट देशों में उनका आना-जाना लगा रहता है।'' एक दोस्त ने राज की बात बड़े धीरे से बताई कि वे जासूस भी हैं। बस फिर क्या था ? उन पर अधिक से अधिक जानकारी जुटाना हमारे प्रमुख कार्यो में शामिल हो गया। नौटियाल जी कहीं दिखे नहीं कि हम उनके आगे-पीछे चलने लगते कि बच्चू हम भी कम जासूस नहीं! गौरवर्ण, दुबला-पतला शरीर, गंभीर मुद्रा, गहन अध्ययन की प्रवृत्ति। उसी मित्र ने बताया कि ये सभी खूबियाँ जासूस होने के लिए बिल्कुल माफिक हैं। परन्तु हम दोस्तों का किशोरावस्था का यह भ्रम बहुत जल्दी दूर हो गया।
सुन्दरलाल बहुगुणा अक्सर कालेज की प्रार्थना सभा में व्याख्यान देने आते थे। उन दिनों उनका नंगे पाँव पैदल यात्रा करना भी टिहरी में चर्चा का विषय था। पर्यावरण संतुलन के लिए वनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन पर वे जोर देते। राष्ट्रीय समाचार पत्रों में उनके अंग्रेजी-हिन्दी में लिखे लेख हमको बहुत प्रभावित करते। नजदीकी पैदल यात्राओं में हम कालेज के छात्र भी शामिल होते रहते। उन्हीं के साथ किसी एक कार्यक्रम में नौटियाल जी से नजदीकी मुलाकात हुई। परन्तु उनका धीर-गंभीर स्वभाव हमसे दूरी बनाये रखता, जबकि सुन्दर लाल जी से हम खूब घुल-मिल गए थे। उन्हीं दिनों पढाई के इतर देश-समाज एवं साहित्य के बारे में कुछ दोस्तों ने पढ़ना शुरू किया था। स्कूल के हॉफ टाइम में सुमन लाइब्रेरी जाना हमारा रोज का काम था। परीक्षा के बाद की छुट्टियों में उपन्यास-कहानियों की किताबों के आदान-प्रदान एवं मिलने-मिलाने का सुमन लाइब्रेरी ही मुख्य ठिया था। अधिकांश लड़के आजाद मैदान के पास वाली किताबों की दुकान से गुलशन नन्दा, रानू, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत के उपन्यास 25 पैसे प्रतिदिन के किराये पर लाते। परन्तु मेरी मित्र मण्डली का शरतचन्द, इलाचन्द्र जोशी, प्रेमचन्द, फिराक और गालिब से पाला पड़ चुका था। मैक्सिम गोर्की की 'मां' उपन्यास का कई बार सामूहिक पाठ हमने किया था। कार्ल मार्क्स का नाम हम सुन चुके थे। इसलिए आजाद मैदान वाली दुकान से हमारा गुजारा नहीं हो सकता था। सुमन लाइब्रेरी में नौटियाल जी भी नियमित आते। हमारे अध्ययन की प्रवृति से वे प्रभावित हुए। उनसे अब दोस्ती सी होने लगी। पर अब भी दूरी बरकरार थी। उनकी 'भैंस का कट्या' कहानी हम दोस्तों ने पढ़ ली थीं। तब जाकर यह धारणा बनी कि जो व्यक्ति 'भैंस का कट्या' जैसी कहानी लिख सकता है वह जासूस तो नहीं ही हो सकता। याद है कि श्रीदेव सुमन लाइब्रेरी में एक बार पेज पलटने के लिए जैसे ही मुँह पर हाथ लगाया, सामने बैठे नौटियाल जी ने इशारे से मना किया। बाद में बाहर आकर कैसे किताब के पन्ने पलटने चाहिए इस पर उन्होंने लंबी हिदायत दी। वह नसीहत आज तक काम आ रही है।
वर्ष 1973 से 1977 तक टिहरी नगर कई ऐतिहासिक घटनाओं एवं परिवर्तनों से गुजरा। इस दौर में टिहरी बाँध बनने के लिए ठक-ठक शुरू हो चुकी थी। विरोध के स्वर के रूप में 'टिहरी बाँध विनाश का प्रतीक है' नारे को पुल के पास लिखा गया था। वहाँ पर कुछ प्रबुद्धजनों की लंबी वार्ता चलती। थोड़ी दूरी के साथ हम भी उनकी बातों को सुनते और समझने की कोशिश करते। घनश्याम सैलानी जी हारमोनियम साथ लेकर चिपको आन्दोलन के गीत गाते-गाते हममें गजब उत्साह भरते। बाँध बनेगा तो टिहरी वालों को नौकरी तुरन्त मिल जायेगी का शोर गर्माया तो मेरे साथ के कई साथी सीधे टाईप सीखने में लग गए। टिहरी बाजार में भट्ट ब्रदर्स के पास ऊपर वाली मंजिल में टाइप सिखाने की दुकान बढि़या चलने लगी। बाँध के नफे-नुकसान का आँकलन लोग अपने-अपने हितों को देख-समझ कर करते। विद्यासागर नौटियाल जी ने तब हम युवाओं को सलाह दी कि टाइप सीखने के बजाय आगे की शिक्षा जारी रखो। विज्ञान पढ़कर तकनीकी दक्षता प्राप्त करके बाँध निर्माण में तकनीकी नौकरी प्राप्त करो। बाबू-चपरासी बनकर कुछ भला नहीं होने वाला। हमारे लोग इस बाँध निर्माण में इंजीनियर के बतौर कार्य करेंगे तो तभी हमारे हित सुरक्षित रहेंगे। आज नौटियाल जी की बात बखूबी समझ में आ रही है।
उस दौर में वामपंथी कार्यक्रमों के साथ आजाद मैदान के पास लगने वाली आर.एस.एस की शाखा 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि' में हमारी उपस्थिति रहती। सर्वोदयी सुन्दर लाल बहुगुणा जी का 'वृक्ष राग' भी हमारे आकर्षण का हिस्सा था। इंद्रमणि बडोनी से हम प्रभावित थे। परंतु इन सबमें अलग साहित्यकार एवं राजनितिज्ञ विद्यासागर नौटियाल जी के बौद्धिक चिंतन के हम सबसे ज्यादा मुरीद थे। उनके भाषणों को सुनते हुए मन ही मन देश-दुनिया के इतिहास की सैर कर आते। टिहरी राजशाही की क्रूरता के इतिहास पर उनसे ज्यादा तीखा एवं सटीक और कोई नहीं बोल पाता था। नेताओं की भीड़ में वे एकला चलो से दिखते। अपने कर्म में दत्तचित्त, विचारों में मगन। कहीं कोई घटना घटी, नौटियाल जी लोगों के कष्टों के निवारण के लिए तुरन्त वहाँ हाजिर हो जाते। विधायक बनने के बाद भी मैंने उनको कई बार अकेले ही आम सवारियों के साथ बस में सफर करते देखा। सुबह की पहली बस में अपनी सीट रिजर्व कराने के लिए वे पहली शाम ही ड्राइवर-कण्डक्टर या टिकट बाबू के पास अपना बैग रख आते। अपने संस्मरणों में इसका उन्होंने जिक्र भी किया है। विधायकी के दिनों को केन्द्र में रख कर लिखा गया उनका आत्मकथात्मक यात्रावृत्त 'भीम अकेला' आज के नए राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए मार्गदर्शक किताब है। तभी वे जान सकते हैं कि पहले के राजनेताओं में समाज सेवा का कितना जज्बा था!
साहित्यकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा का आभास मुझे बाद की दो अप्रत्याशित घटनाओं से हुआ। 1987 में गोण्डा तो 1989 में मैनपुरी के गाँवों में कुछ दिन रहना हुआ। दोनों ही जगहों पर सुनने को मिला, ''अच्छा कथाकार विद्यासागर नौटियाल के इलाके के रहने वाले हो।'' मैं आश्चर्यचकित! गढ़वाल से बाहर अपनी पहचान के लिए अमूमन तब तक मैं कहता था कि बद्रीनाथ का रहने वाला हूँ। बद्रीनाथ जी की कृपा से हमारी इज्जत बढ़ जाती। पर यहाँ दोनों जगहों पर विद्यासागर नौटियाल जी से अपनी पहचान बनने पर सुखद आश्चर्य हुआ। इन दोनों ही जगहों पर उनकी ख्याति बतौर साहित्यकार ही थी। वे विधायक और कम्युनिस्ट हैं, यह बताने के लिये मुझे कोशिश करनी पड़ी।
साहित्य और राजनीति के बीच उनका निजी स्वभाव एक तीसरा कोण बनाता था, नितान्त अलग, अकेला पर अदभुत। उनके निजी व्यवहार में न तो साहित्यकार का अहं था और न राजनीति का दम्भ। निश्छल व्यवहार वाला, सामान्य सी कद काठी का एक सीधा-सपाट इन्सान, इतना नादान कि बोलने से पहले यह भी नहीं सोचता कि दूसरे की क्या प्रतिक्रिया होगी! जो कह दिया सो कह दिया। अब तुम जानों और तुम्हारा काम। वे अकसर चुप रहते, कम बोलते परन्तु जब बोलते तो धाराप्रवाह एवं तथ्यपरक ही बोलते, जिसमें गहन अध्ययन, अनुभव एवं अनुशासन का पुट रहता। साहित्य, राजनीति एवं अपने निजी व्यक्तित्व को बिना एक दूसरे से गडमड किए हुए वे हमेशा अध्ययनशील एवं प्रगतिशील रहे। समय के साथ वे तकनीकी दक्षता को हासिल करते जाते। नौजवानी में हमने उनसे बहुत कुछ सीखा था। अब तो और ज्यादा सीखना-समझना था। परन्तु नियति पर किसका वश चलता है ?
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