By hastakshep | April 29, 2012 at 7:15 pm | No comments | हस्तक्षेप
घिर गई है भारत माता -2
प्रेम सिंह
कपूतों की करतूत
हमारे गांव के पंडित लिखी राम अब दुनिया में नहीं हैं। वे एक स्वरचित गीत गाते थे। गीत के बोल बड़े मार्मिक और रोमांच पैदा करने वाले थे। गीत की टेक थी – 'भारत माता रोती जाती निकल हजारों कोस गया'। हजारों कोस का बीहड़ रास्ता हमारी नजरों के सामने खिंच जाता था जिस पर रोती-बिलखती भारत माता नंगे पांव चली जाती थी। गीत सुखांत नहीं था। भगत सिंह और उनके पहले के क्रांतिकारियों की शहादत, सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज और गांधी जी की हत्या पर गीत समाप्त होता था। तब हमें राष्ट्रवाद, उसकी विचारधारा और वर्ग चरित्र के बारे में जानकारी नहीं थी। हम अपनी जन्म देने वाली मां के अलावा एक और मां – भारत माता – से जुड़ाव का अनुभव करते थे और पाते थे कि वह कष्ट में है। भावना होती थी कि भारत माता के कष्ट का निवारण होना चाहिए। तब हमें भारत माता साड़ी, मुकुट और गहनों में सजी-धजी नहीं दिखाई देती थी। उसके हाथ में तिरंगा भी नहीं होता था। वह गांव की औरतों के वेश में उन्हीं जैसी लगती थी।
बड़े होकर भी हम पंडित लिखी राम का गीत सुनते रहे। भारत माता की विशिष्ट छवि, उससे संबंधित साहित्य और बहसों के बीच बचपन में पंडित लिखी राम द्वारा खींची गई भारत माता की तस्वीर मौजूद रहती रही है। 'मैला आंचल' में तैवारी जी का गीत – 'गंगा रे जमुनवा की धार नवनवा से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारत माता रोई रही।'' पढ़ा तो उसकी टान (लय) लिखी राम के गीत की टान के साथ खट से जुड़ गई। तैवारी जी के गीत की टान को सुन कर बावनदास आजादी के आंदोलन में खिंचा चला आया था। उस टान पर वह अपना जीवन आजादी के संघर्ष में बिता देता है। अंत में माफिया द्वारा निर्ममता पूर्वक मारा भी जाता है। उसे मारा ही जाना था, क्योंकि वह यह सच्चाई जान लेता है कि आजादी के बावजूद भारत माता को स्वार्थी तत्वों ने कब्जे में ले लिया है और वह जार-जार रो रही है। बावनदास गांधी का अंधभक्त है। भारत माता अंग्रेजों की कैद से छूट कर कपूतों के हाथ में पड़ गई है – इस सच्चाई पर वह कोई 'निगोसिएशन' करने को तैयार नहीं था। उसकी वैसी तैयारी ही नहीं थी। वह राजनैतिक से अधिक नैतिक धरातल पर था। भला भारत माता को लेकर सौदेबाजी की जा सकती है? वह अहिंसक क्रातिकारी था।
हमारे मित्र चमनलाल ने भगत सिंह पर काम किया है। काम को और बढ़ाने के लिए उन्होंने भारत में नवउदारवाद के प्रतिष्ठापक मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था। पता नहीं मनमोहन सिंह ने उनकी बात सुनी या नहीं। एक बार वे कह रहे थे कि भगत सिंह जिंदा रहते तो भारत के लेनिन होते। उनसे कोई पूछ सकता है कि नवउदारवादी मनमोहन सिंह से भगत सिंह पर काम के लिए मदद मांगने का क्या तर्क बनता है; और भगत सिंह लेनिन क्यों होते, भगत सिंह क्यों नहीं होते? किन्हीं रूपकिशोर कपूर द्वारा 1930 के दशक में बनाए गये एक चित्र की प्रतिलिपि मिलती है। उसमें भगत सिंह तलवार से अपना सिर काट कर दोनों हाथों से भारत माता को अर्पित कर रहा है। भारत माता भगत सिंह को हाथ उठा कर रोते हुए आशीर्वाद दे रही है। (संदर्भ: 'मैप्स, मदर/गोडेस, मार्टिर्डम इन माॅडर्न इंडिया)।
नवजागरणकालीन चिंतकों, क्रांतिकारियों, कवियों-लेखकों, चित्रकारों ने विविध प्रसंगों में भारत माता की छवि का अंकन किया है। 'भारत माता ग्रामवासिनी' से लेकर 'हिमाद्रि तुंग श्रृग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती' के रूप में उसके गुण गाए गए हैं। भारत माता की छवि की राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में भूमिका की सीमाएं और अंतर्विरोध आज हम जानते हैं। विद्वानों के लिए शोध का यह एक प्रमुख विषय है। लेकिन हम यह भूल गए हैं कि क्रांतिकारियों का आंदोलन हो या गांधी के नेतृत्व में चलने वाला आंदोलन या इन दोनों से पहले आदिवासियों और किसानों का आंदोलन – उनमें भारत माता को पूंजीवादी बेडि़यों से मुक्त करने की मंशा थी। आजादी के बाद समाजवादी और कम्युनिस्ट आंदोलन की तो टेक ही पूंजीवाद विरोध थी। तो फिर यह कैसे हुआ कि देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, हथियारों से लेकर हर तरह की दलाली करने वालों, बिल्डरों, माफियाओं, नेताओं, बुद्धिजीवियों ने एका बना कर भारत माता को घेर लिया है। सब मिल कर उसे नवउदारवादी हमाम में धकेल रहे हैं। निर्लज्जों ने भारत माता की लाज बचाने का ठेका उठा लिया है!
हम यहां टीम अन्ना और उसके आंदोलन पर इसलिए चर्चा करना चाहेंगे क्योंकि वे भारत माता का नाम बढ़-चढ़ कर लेने वालों में हैं। इस विषय में ज्यादातर जो आलोचना या विरोध हुआ वह यह कि टीम अन्ना ने जंतर-मंतर पर भारत माता की जो तस्वीर लगाई वह आरएसएस लगाता है। यह बहुत ही सतही आलोचना या विरोध है। हमने आलोचकों से पूछा था कि जो आरएसएस की भारत माता से खफा हैं वे बताएं कि उनकी अपनी भारत माता कौन-सी है? दूसरे, आरएसएस की भारत माता की तस्वीर से क्या परहेज हो सकता है जब पूरा आरएसएस ही आंदोलन में मौजूद है। भारत माता के घिराव में टीम अन्ना की सहभागिता पर थोड़ा विचार करते हैं।
अन्ना आंदोलन के दौरान सबसे ज्यादा अवमूल्यन भाषा का हुआ है। इस आंदोलन की बाबत यह गंभीर मसला है। कहीं से कोई वाकया उठा लीजिए, उसमें बड़बोलापन और खोखलापन एक साथ दिखाई देगा। आंदोलन में कई गंभीर लोग शामिल हुए। कुछ बाहर आ गए, कुछ अभी वहीं हैं। ऐसे लोगों की भाषा पर भी असर आया है। उनकी भाषा पिछली ताकत खो बैठी। जब विरोधी पृष्ठभूमियों के और विरोधी लक्ष्य लेकर चलने वाले व्यक्ति या समूह आंदोलन के उद्देश्य से एक सााि आते हैं तो भाषा में छल-कपट और सतहीपन आता ही है। टीम अन्ना के प्रमुख सदस्यों द्वारा भाषा का अवमूल्यन अभी जारी है। उसकी प्रमुख सदस्य किरण बेदी ने हाल में कहा कि अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर तीन फकीर हैं, जो देश का कल्याण करने निकले हैं। हमें 1989 का वह नारा – 'राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है' – याद आ गया जो समर्थकों ने वीपी सिंह के लिए गढ़ा था।
जिनका नाम किरण बेदी ने लिया है उन तीनों को धन से बड़ा प्यार है। इसीलिए वल्र्ड बैंक से लेकर भारत और विदेश के आला अमीरों तक इनके तार जुड़े हैं। बंदा अमीर होना चाहिए, वह कौन है, कैसे अमीर बना है, इसकी तहकीकात का काम बाबाओं का नहीं होता! यह 'फकीरी' खुद किरण बेदी और टीम अन्ना के पीछे मतवाले मीडिया तथा सिविल सोसायटी को भी बड़ी प्यारी है। फकीरी का यह नया अर्थ और ठाठ है, जो नवउदारवाद के पिठ्ठुओं ने गढ़ा है। भारत का भक्ति आंदोलन सर्वव्यापक था, जिसमें अनेक अंतर्धाराएं सक्रिय थीं। फकीर शब्द तभी का है। संत, फकीर, साधु, दरवेश – इनका जनता पर गहरा प्रभाव था। दरअसल, उन्होंने सामंती ठाठ-बाट के बरक्स विशाल श्रमशील जीवन के दर्शन को वाणी दी। ऐसा नहीं है कि उन्हें संसार और बाजार का ज्ञान और सुध नहीं है। 'पदमावत' में ऐसे बाजार का चित्रण है जहां एक-एक वस्तु लाखों-करोड़ों में बिकती है। लेकिन भक्त बाजार से नहीं बंधता। भक्तिकाल में फकीरी भक्त होने की कसौटी है। जो फकीर नहीं है, गरीब नहीं है, वह भक्त नहीं हो सकता। फकीरी महज मंगतई नहीं है। वह एक मानसिक गठन है, जिसे संसार में काम करते हुए उत्तरोत्तर, यानी साधना के जरिए पाया जाता है। वह हद से बेहद में जाने की साधना है, जहां भक्त केवल प्रभु का रह जाता है। जब गरीब ही भक्त हो सकता है तो प्रभु गरीब नेवाज होगा ही। यह साधना बिना सच्चे गुरु के संभव नहीं होती। इसीलिए उसे गोविंद से बड़ा बताने का भी चलन है। जाहिर है, फकीरी गुरु होने की भी कसौटी है। दिन-रात भारी-भरकम अनुदान और दान के फेरे में पड़े तथाकथित गुरुओं और संतों को क्या कहेंगे – फकीर या फ्राड! काफी पहले हमने 'त्याग का भोग' शीर्षक से एक 'समय संवाद' लिखा था। उसमें सोनिया गांधी के त्याग का निरूपण किया था। अन्ना हजारे सरीखों के आरएसएस टाइप त्याग के चैतरफा पूंजीवाद और उपभोक्तवाद चलता और फलता है। त्यागी महापुरुषों को उस व्यवस्था से कोई परेशानी नहीं होती। क्योंकि वहां दान के धन से ही सामाजिक काम किए जाते हैं। दान सामंत देता है या पूंजीपति या दलाल, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
डॉ प्रेम सिंह, लेखक जाने माने राजनीतिक समीक्षक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं
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