Monday, 30 April 2012 11:27 |
अरविंद मोहन नीतीश कुमार की मुंबई यात्रा में भी सुरक्षा के कम इंतजाम नहीं थे, पर वे राहुल की तरह कहीं भी खुले में नहीं गए। खुद मुंबई की सभा में प्रधानमंत्री स्तर की सुरक्षा के बावजूद नीतीश कुमार पर राज की धमकी का प्रभाव साफ दिख रहा था। एक तो महाराष्ट्र-गान हुआ, जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता, पर धमकी के तहत होने के कारण यह काम सामान्य नहीं लग रहा था। फिर नीतीश कुमार के भाषण का शुरुआती हिस्सा मराठी में था, जो और भी अस्वाभाविक लग रहा था। ऊपर से मुख्यमंत्री उसे बार-बार मीठी भाषा बता कर मराठियों की खुशामद करते लग रहे थे। नीतीश कुमार मुंबई जाकर विवाद की भाषा बोलते तो राज ठाकरे का ही हित सधता, पर वहां जाकर मिन्नत की भाषा बोलें यह भी स्वाभाविक नहीं लग रहा था। बहु-स्तरीय सुरक्षा घेरे में भी अगर उन्हें स्वाभाविक बात कहने से परेशानी थी तो वहां रहने वाले आम पुरबिया को वे क्या संदेश देना चाहते थे! इसी बिहार दिवस के आयोजन पर दिल्ली में उनका लहजा एकदम अलग था और उससे तुलना करके वे स्वयं फर्क जान सकते हैं- बाकी लोगों के लिए यह करने की भी जरूरत नहीं। यहां उन्होंने बिहारियों को दिल्ली के विकास का आधार ही घोषित कर दिया और लगभग गरजते हुए उनके बगैर दिल्ली के न चल पाने की चुनौती दी। दिल्ली में एमसीडी चुनाव के मद्देनजर शीला दीक्षित ने बात आगे नहीं बढ़ाई, वरना नीतीश कुमार विवाद छेड़ने वाली बात कर गए थे। और शीला जी ही नहीं खुराना साहब और मल्होत्रा जी भी पर्याप्त बिहारी-विरोधी जहर उगल चुके हैं। बार-बार दिल्ली की सारी समस्याओं का 'श्रेय' बिहारियों को दिया जा चुका है। यहां बिहारी ही नहीं, उनका भोजन 'चावल' भी अपमानजनक शब्द बन गया है। पर चुनाव नजदीक होने से बात बढ़ी नहीं, क्योंकि सबको पहले बिहारी वोट की पड़ी थी। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि जिस आयोजन से बिहारियों और पुरबियों का स्वाभिमान जगने की जगह बुझे, उनमें उत्साह आने की जगह हीन भावना बढेÞ और उनका खुला विरोध करने वाले का कद बढ़े उस आयोजन का क्या मतलब है! एक तो अंग्रेजों द्वारा किए राज्य-निर्माण के सौवें साल का जश्न मनाने क्या औचित्य है? फिर इस दौरान बिहार का इतिहास गौरवान्वित करने वाली चीजों की जगह हताशा और निराशा पैदा करने वाली चीजों से भरा पड़ा है। इस मुद््दे को छोड़ दें, तो आयोजन राज्य के बाहर ले जाने का फैसला भी सवालों से परे नहीं है। अगर अपने सात साल के शासन की उपलब्धियां काफी लगती हैं तो उनका ही प्रदर्शन कीजिए। यहां भी लालू-राबड़ी राज, कांग्रेसी राज की विफलताएं ही आपके चमकने का आधार हैं, जिन्हें दिखाना उचित नहीं है। होना यह चाहिए कि आज की बिहार सरकार सबसे कम फिजूलखर्च करे, सबसे कम दिखावा करे, सबसे कम पैसों में काम चलाना सीखे। नीतीश कुमार के गुरु रहे किशन पटनायक ने कभी लालू जी को सलाह दी थी कि बिहार के पिछडेÞपन का रोना रोने से पहले अपने खर्च कम करने, विधायकों-मंत्रियों की सुविधाएं कम करने, अधिकारियों और कर्मचारियों की तनख्वाह कम करने की सोचें। किशनजी का तर्क था कि सबसे गरीब राज के मंत्री-संत्री को उसी तरह रहना चाहिए और अमीर राज्य के मंत्री-संत्री से होड़ नहीं लगानी चाहिए। अगर नियुक्ति और जरूरत का ध्यान ठीक से रख कर काम किया जाए तो 'शिक्षा मित्र' की तरह दूसरे कामों में भी अंशकालिक और स्थानीय लोगों से काम करा कर खर्च घटाया जा सकता है। सो पूरा आयोजन ही सवालों के घेरे में है। ऐसे में अगर आपके काम से बिहारियों का मान गिरे और राज ठाकरे जैसों का कद बढ़े तो आपकी आलोचना बहुत हद तक उचित है। |
Monday, April 30, 2012
जश्न की सूरत और सीरत
जश्न की सूरत और सीरत
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment