'टाइम' से नहीं लगाया जा सकता राजनेता की लोकप्रियता का अंदाजा
सत्ता के उन्माद में ममता रोज-ब-रोज अलोकतांत्रिक फैसले कर रही हैं, जिनका उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ेगा। 'टाइम' जैसी पत्रिकाओं से किसी राजनेता की लोकप्रियता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। राजनीति में नेताओं की लोकप्रियता उनके जनहित में लिए फैसलों से बनती है..दुनिया भर में मशहूर अमेरिकी पत्रिका 'टाइम' ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया है। इसके बावजूद कि इन दिनों ममता अपने तमाम अलोकतांत्रिक फैसलों की वजह से आलोचनाओं के कंेद्र में हैं। उनके सत्ता संभाले एक साल भी नहीं पूरे हुए लेकिन लोगों ने उनके शासन को 'अंधेर' का नाम देना शुरू कर दिया है।
इन दिनों ममता जो कुछ भी कर रही हैं, वो उनके मूल चरित्र के अुनसार ही हैं। जो लोग बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से त्रस्त थे और राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्टों से घोर नफरत करते थे, उन लोगों ने भी ममता को समझने में भूल की है। ममता बनर्जी शुरू से ही ढके-छुपे तौर पर फासीवादी चरित्र की रही हैं। सत्ता संभालने के बाद उनके फैसलों और अब टाइम पत्रिका ने उन्हें 'प्रभावशाली' बताकर इस पर मुहर भी लगा दी। अभी हाल में टाइम ने 'प्रभावशाली' लोगों की सूची में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी जगह दी थी। निश्चित तौर पर वे भी 'प्रभावशाली' थे। उनके शासन काल में हजारों लोगों को नृशंस तरीके से दंगे की आग में झोंक दिया गया, इसके बावजूद उन्हें 'प्रभावशाली' न कहना उनकी तौहीन होगी। दरअसल 'टाइम' जैसी पत्रिकाएं ज्यादातर ऐसे ही लोगों को महिमामंडित करती हैं जो अपने मूल चरित्र में फासीवादी, भ्रष्ट या पूंजीवादी हितों के रक्षक हों। कुछ सालों पहले बिहार के एक अधिकारी संतोष कुमार को भी इस पत्रिका ने ऐसे ही महिमामंडित किया। आज वे बाढ़ घोटाले के आरोप में जेल में हैं।
बहरहाल, राजनीति की भी एक सीमा होती है। राजनीतिक दलों के नेता व्यक्तिगत रूप से अपने और दलगत राजनीति के रिश्ते को घालमेल नहीं करते। यह लोकतांत्रिक राज्य और लोकतांत्रिक राजनीति के विकास के लिए जरूरी भी है। हालांकि ममता बनर्जी लोकतंत्र की उन सभी सीमाओं को तोड़ देना चाहती हैं। उन्होंने अघोषित तौर पर अपनी पार्टी को यह निर्देश दे रखा है कि उनके नेता और समर्थक सीपीएम के कार्यकर्ताओं से किसी भी तरह के रिश्ते न रखें और उनका सामाजिक बहिष्कार करें। दरअसल सामाजिक बहिष्कार अपने आप में अलोकतांत्रिक शब्द है। अभी तक खाप पंचायतों के संदर्भ में हम सामाजिक बहिष्कार या समाज से बाहर किए जाने की बात सुनते रहे हैं, लेकिन अब वही काम ममता राजनीति में भी करने लगी हैं। रिश्ते किसी तरह के फरमान से तय नहीं होते। यह रिश्ते रखने वालों पर होता है कि वो दूसरे व्यक्ति की राजनीतिक सोच-समझ को महत्व देगा या किसी और बात को। लेकिन ममता बनर्जी राज्य की नीतियां तय करने के साथ-साथ लोगों के रिश्ते भी तय करना चाहती हैं। उनके और भी फैसले इसी तरह के हैं। चुनावों से पहले वे जिस तरह से सीपीएम और उसकी औोगिक नीतियों का खिलाफत कर रही थीं, सत्ता संभालते ही वे खुद औोगिक घरानों को आमंत्रित करने लगीं। पहले सिंगूर-नंदीग्राम के लिए जिस तरह से किसान विरोध कर रहे थे, वही माहौल राज्य में फिर से बनने लगा है। गरीबों की झुग्गियां उजाड़ी जा रही हैं और विरोध करने वालों को जेल भेजा जा रहा है। फासीवादी राज्य में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। कई प्रोफेसरों, वैज्ञानिकों और राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तार ने इस बात को सिद्ध किया है।
अपनी छवि को लेकर अत्यधिक सजग रहने वाली ममता बनर्जी को इस बात का अंदाजा नहीं है कि जनता अनाप-शनाप फैसले करने वाले नेताओं को बख्शती नहीं है। इस तरह के फैसले तत्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए किए जाते हैं जिनका दूरगामी परिणाम होता है
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