मीडिया के समाजशास्त्र और राजनीति पर जब बात होती है तो विश्लेषण का नजरिया तीन स्पष्ट भागों में बंट जाता है। पहला नजरिया मीडिया के काम-काज के मौजूदा तरीके को बेहतरीन करार देता है। तर्क देने वालों का मानना होता है कि मीडिया पर आग्रह-पूर्वाग्रह के जो आरोप लगाए जाते हैं वे लगभग आधारहीन हैं। मीडिया को लेकर जो तस्वीर इनके भीतर होती है वह एडमंड बर्क द्वारा कथित लोकतंत्र के मजबूत चौथे खंभे वाली होती है। दूसरे नजरिए वाले लोग यह मानते हैं कि खबरों के चयन और प्रकाशन/प्रसारण के जरिए मीडिया एक खास राजनीतिक विचारधारा को प्रश्रय देने के साथ-साथ एक विशेष किस्म का जनमत तो तैयार करता है, लेकिन यह किसी निर्धारित योजना के तहत हो रहा हो, ऐसा नहीं है। माध्यम की गति, पुष्टिकरण की सीमा, खबरों तक आसान पहुंच या फिर पत्रकारों की उन्मुखता जैसे कारणों को मीडिया के राजनीतिक और समाजशास्त्रीय असर का इंजन बताया जाता है। तीसरी श्रेणी के लोगों का मानना है कि मीडिया जिस तरह की वैचारिकी हमारे समाज में फैला रहा है और समाज को जो आकार दे रहा है, वह किसी लंबी और निर्धारित योजना का हिस्सा है। चूंकि दुनिया भर में मीडिया को नियंत्रित करने वाले लोगों का हित एक खास खूंटी के साथ नत्थी है इसलिए उस खूंटी को बचाने और उसे मजबूत करने के उपक्रम के बतौर मीडिया काम करता है। सरोकार और आम जनता के सवाल को उसी हद तक तवज्जो दी जाती है, जहां से उस खास खूंटी को कमजोर करने का दायरा शुरू होता है। इस तीसरी श्रेणी के विचारकों पर पहली और दूसरी श्रेणी के विचारक यह आरोप लगाते हैं कि दरअसल ये लोग अकादमिक समाजशास्त्री या राजनीतिशास्त्री या जो कुछ भी होते हों, लेकिन होते हैं मूल रूप से अकादमिक। यानी सैद्धांतिक निरूपण तो दे देते हैं, लेकिन मीडिया की मौजूदा व्यवहारगत सीमाओं और काम-काज के सूक्ष्म तरीकों से वह नावाकिफ होते हैं।
जिन सूक्ष्म तरीकों की बात कही जाती है उसके कई रूप हैं, लेकिन विश्लेषण से जाहिर होता है कि आग्रह-पूर्वाग्रह की बहस में मीडिया जिस चलताऊ तरीके का इस्तेमाल करके इसे माध्यम की सीमा करार देता है, असल में वह है नहीं। मीडिया की जो गति है, खासकर टीवी चैनलों की, वह एक तरह से आपाधापी जैसी है। हर चैनल को दूसरे चैनलों से 10 सेकेंड पहले विजुअल्स चाहिए ताकि एक्सक्लूसिव का पट्टा चिपकाया जा सके। हालांकि एक्सक्लूसिव बैंड चलाने के लिए ऐसा नहीं है कि चैनल इस शर्त का पालन करते ही हों, चलाने को तो जब मर्जी तब चला सकते हैं और चलाते भी हैं, लेकिन विजुअल्स यदि 10 सेकेंड पहले आ जाए तो एंकर को 'सबसे पहले हमारे चैनल पर' जैसे जुमले उछालने का शानदार मौका मिल जाता है। इस पूरी संरचना का रिपोर्टर के ऊपर भारी दबाव होता है। अगर गलती होती है तो चैनल यह तर्क देता है कि जल्दबाजी से हुई यह मानवीय भूल थी, गोया मिनट भर की देरी से खबर बासी हो जाती! जल्दबाजी के तर्क का इस्तेमाल सिर्फ रिपोर्टिंग तक सीमित नहीं है, बल्कि पैनल में बुलाए जाने वाले लोगों के चयन में भी इसका सहारा लिया जाता है। खगोलीय घटनाओं पर हिंदी में वैज्ञानिक व्याख्या पेश करने वाले खगोलविद् नहीं मिलने की वजह से भविष्यवक्ताओं को बुलाने की बात कही जाती है। क्या हिंदी पट्टी में समाजशास्त्रीय या फिर वैज्ञानिक चेतना वाले लोगों की सचमुच कमी है कि उनकी जगह को ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं से भरना पड़ता है? ज्योतिषियों वाले इस 'औचक शो' पर सेट और ग्राफिक्स की जो तैयारी होती है वह जल्दबाजी वाले तर्क को सिरे से खारिज करती दिखती है।
टीवी मीडिया में कार्यक्रम बंद करने का आधार कम लोकप्रियता नहीं है। अगर कार्यक्रम बंद होते हैं तो इसकी कुछ ठोस आर्थिक और सामाजिक वजहें हैं। बीते कुछ दिनों में हिंदी समाचार चैनलों पर कुछ ऐसे कार्यक्रम बंद हुए जो न सिर्फ दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय थे, बल्कि उनकी टीआरपी भी अच्छी थी। उनमें से एक के बंद होने से क्षुब्ध दर्शकों ने तो इंटरनेट मीडिया पर मनुहार के साथ-साथ काफी नाराजगी भी जाहिर की। कार्यक्रम बंद करने के लिए चैनल के पास सिर्फ एक ही कारण था कि जो रिपोर्टर हफ्ते में आधे घंटे की सामग्री तैयार कर रहा है और जिसे दोहराने से भी हफ्ते में सिर्फ एक घंटे का ही एयर टाइम भर रहा है, उसके बदले रिपोर्टर से रोज-रोज घंटे-दो घंटे की एंकरिंग कराई जाए। इस तरह चैनल एक मानव संसाधन से आधे घंटे की बजाय हफ्ते में कम से कम 7-10 घंटे की सामग्री तैयार करवा रहा है। कम लागत पर ज्यादा उत्पादन। टीआरपी की वजह से बाजार में कोई कार्यक्रम टिकेगा यह जरूरी नहीं है। कई समाचार चैनल बीते कुछ महीनों से एक एंकर को चार से पांच घंटे तक ऑन एयर रख रहे हैं। एक ही एंकर क्रिकेट और बॉलीवुड पर भी बहस करते हैं और अगले घंटे चरमराती अर्थव्यवस्था पर भी। अंतहीन बहस का सिलसिला चलता रहता है। सार यह कि कम लागत पर खबरें तैयार की जा रही हैं। मीडिया में सामग्री चयन के वास्ते दूसरी श्रेणी के विचारक इसे मजबूत तर्क के तौर पर पेश करते हैं।
अब इन दोनों तर्कों को पलटने वाला एक उदाहरण लेते हैं। बीते दिनों दो-तीन ऐसी घटनाएं घटीं जो भारतीय मुस्लिम समुदाय से संबंधित थीं। पहला मामला पुणे की जेल में आतंकवाद के आरोप में बंद कतील सिद्दीकी की जेल के भीतर की गई हत्या, दूसरे और तीसरे मामले के तहत क्रमश: सऊदी अरब से फसीह महमूद का अपहरण और एटीएस द्वारा उत्तर प्रदेश और बिहार से कुछ मुस्लिम नवयुवकों को हिरासत में लिया जाना शामिल है। खबरों को कितनी प्रमुखता दी गई और खबरों का नजरिया क्या था यह एक अलग विषय है, लेकिन अखबारों और चैनलों में इन तीनों मामलों का जिक्र आया। घटना के बाद देश में कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भी किए गए। उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हजारों लोगों ने सम्मेलन किया, लेकिन दिल्ली में 15 से ज्यादा संगठनों द्वारा इन घटनाओं के बारे में स्थिति स्पष्ट करने की मांग के साथ गृह मंत्री पी. चिदंबरम के घर के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। पुलिस ने 50 से ज्यादा लोगों को हिरासत में लेकर चाणक्यपुरी थाने में बंद कर दिया। एजेंसी को छोड़ दें, तो भी मामले को कवर करने लगभग 10 राष्ट्रीय-क्षेत्रीय चैनल पहुंचे थे। टीवी चैनलों के नजरिए से देखें तो हर रिपोर्टर ने कम से कम 3-4 घंटे वहां पर खर्च किए, लेकिन उन सारे चैनलों पर खबर नहीं चली। मामले में सब कुछ था। गृहमंत्री के घर पर प्रदर्शन था, 50 से ज्यादा लोग गिरफ्तार हुए थे, रिपोर्टरों के पास फुटेज थी और रिपोर्टर खबर लिखने को तैयार थे, लेकिन कई रिपोर्टरों ने शिकायत की कि उनके चैनल ने वह खबर नहीं चलाई। जिन चैनलों ने यह खबर नहीं चलाई, उनमें से एक ने अपने बुलेटिन में यह दिखाया कि गर्मी की वजह से किस तरह चिडिय़ाघर में जानवर पानी के गड्ढे तलाश रहे हैं। हर चैनल के पास इस तरह की 'सॉफ्ट स्टोरी' थी। इसका मतलब चैनलों के पास उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण खबरों का अंबार लगा हो, ऐसा नहीं था, बल्कि कुछ ऐसा जरूर था जिसके साथ सारे चैनल एक सूत्र में बंधे थे। 17 डॉक्टर और 19 पायलट प्रदर्शन करें तो खबर है, लेकिन गृहमंत्री के निवास के सामने 50-60 लोग इकट्ठे गिरफ्तार किए जाएं, यह खबर नहीं है। इसे तय कौन करता है कि क्या खबर बनेगी, क्या नहीं। यदि चैनलों की मंशा कम लागत पर ज्यादा खबरें दिखाने की है, तो रिपोर्टर और कैमरापर्सन के जाने-आने से लेकर घंटों वहां टिके रहने की लागत क्यों नहीं वसूली गई? जाहिर है कुछ मामलों में जिस तरह टीआरपी से समझौता हो रहा है उसी तरह कुछ मामलों में लागत से भी हो रहा है। असल में ये 'मामले' ही निर्णायक होते हैं। इस खबर को उन चैनलों ने प्रसारित होने से रोका जो अण्णा उभार के बाद से यूपीए के दो मंत्री, पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल पर हमले का हर संभव अवसर तलाशते रहे हैं। इन दोनों मंत्रियों को लेकर टीवी चैनलों और अखबार-पत्रिकाओं में जिस तरह की स्टोरी हुई और जिस तरह इंटरनेट पर कार्टून बनाए गए, उनमें से कुछ को तो आपत्तिजनक तक कहा जा सकता है। लेकिन तमाम अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद यदि विरोध प्रदर्शन वाली खबर नहीं चली, तो कुछ तो वजह होगी! एक सपाट समानता जो मीडिया में देखी जा रही है वह विरोध प्रदर्शन वाली खबरों का ब्लैकआउट है। एक अंग्रेजी अखबार ने नया प्रचलन शुरू किया है, वह ऐसी खबरों की सिर्फ तस्वीर छाप देता है, स्टोरी नहीं करता।
भारतीय मीडिया और समाज के गैर-मुस्लिम समुदायों के भीतर मुसलमानों को लेकर जिस तरह की धारणा है वह अवचेतन तौर पर ही सही, लेकिन बहुत सकारात्मक नहीं है। किन्हीं पांच लोगों के साथ हुई बैठक-मुलाकात के बाद यदि किसी को चार का नाम याद रहता है और पांचवे को याद करते हुए वह कहता है कि 'एक कोई मुस्लिम नाम था', तो इसे किस रूप में लिया जाना चाहिए? क्या गैर-मुस्लिम समुदाय को मुसलमानों का नाम याद करने में परेशानी होती है? क्या मुस्लिम इतने मिलनसार नहीं होते कि बैठक के दो घंटे बाद तक उनके नाम को याद रखा जा सके? नहीं, ऐसा कतई नहीं है। देश के कोने-कोने में लोग शाहरुख खान, आमिर खान, मो. अजहरुद्दीन, अबू सलेम, अजमल कसाब, अफजल गुरू और ओसामा-बिन-लादेन का नाम जानते हैं। लोग भी जानते हैं और मीडिया भी। आखिरकार मीडिया ने ही लोगों के दिमाग में इन नामों को बिठाया है वरना ओसामा-बिन-लादेन याद करने के मामले में दो-तीन अक्षर का छोटा नाम नहीं है। ठीक-ठाक साइज है इसकी। लोग याद रख सकते हैं, लेकिन जब देश में एक मुकम्मल समाज को ही अपवर्जित (एक्सक्लूड) कर दिया जाए तो इस तरह की मुश्किलें आम हो जाती हैं।
मीडिया में जिन खबरों का ब्लैकआउट होता है वह अपनी प्रकृति में खास तरह की होती है-आर्थिक तौर पर मीडिया के मालिकाना ढांचे के विरुद्ध या फिर मीडिया में वर्चस्वशाली सामाजिक तबकों से उलट। प्रोपैगेंडा के कई रूप हैं। आप किसी खबर को बार-बार दिखा रहे हैं यह सीधा तरीका है, लेकिन किसी खबर को आने से रोक रहे हैं, यह एक तरह से अपनी प्रोपैगेंडा सामग्री को मजबूत करने के लिहाज से उठाया गया कदम है, ताकि पक्ष वाली सामग्री के खिलाफ चीजें समाज में न आ जाएं। योजना किसी टेबल पर बैठकर बनाने की चीज नहीं है। खास वैचारिकी, राजनीति और समाजशास्त्र के लोगों द्वारा काम को अंजाम देने का तरीका एक-सा होता है, यह उस खास राजनीति और वैचारिकी की योजना है। मीडिया में खबरों के चयन-प्रकाशन-प्रसारण में योजना का यही रूप काम करता है।
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