हज का रास्ता
सरकारी कर्मचारियों, विशेष कर ऐसे कर्मचारियों के लिए जो जिंदगी भर मलाईदार या ताकत के पदों पर रहे हों, सेवानिवृत्ति ऐसी घटना है जो अच्छे-अच्छों को दार्शनिक बना देती है। आध्यात्म और बोध (बतर्ज गौतम बुद्ध) उसके 'साइड इफैक्ट' कहे जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक रहे विश्वरंजन का साहित्य प्रेम हिंदी जगत में अमर है। इधर सुना वह अपने संस्मरण लिख रहे हैं। किसी पुलिस अफसर के संस्मरणों में क्या होगा, कल्पना की जा सकती है और इंडियन एक्सप्रेस/जनसत्ता में (14 जुलाई) छपा उनका साक्षात्कार इस बात की पुष्टि भी करता है। अगर अखबार के ही शब्दों में कहें तो अपने जमाने यानी नौकरी के दौरान ''माओवादियों के प्रति बेहद सख्त रवैया अपनाने के लिए जाने'' जानेवाले विश्वरंजन को अब इलहाम हुआ है कि ''कोई भी लड़ाई जायज नहीं है। आखिर आप अपने ही लोगों पर जुल्म ढाते हैं।''
यानी उन्होंने माना है कि माओवादियों के खिलाफ की गई कार्यवाहियों में जुल्म ढाए गए। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें यह बात सरकेगुडा की कथित मुठभेड़ में सुरक्षाबलों के हाथों मारे गए 17 निरपराध आदिवासियों, जिनमें आधा दर्जन से ज्यादा बच्चे हैं, की घटना के बाद समझ में आई होगी। यह भुलाया नहीं जा सकता कि उन्हीं के दौरान बिनायक सेन को जेल भेजा गया था और दो साल तक जमानत नहीं होने दी गई। इसके अलावा गांधीवादी हिमांशु कुमार का आश्रम भी उन्हीं के कार्यकाल में तोड़ा गया था। उन्हीं के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ की पुलिस ने अरुंधति रॉय, नंदिनी सुंदर और मेधा पाटकर आदि लेखकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लपेटने की कोशिश की थी। आदिवासी लिंगाराम को दिल्ली के निकट नोएडा से, जहां वह पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे थे, उठाया गया था। उन के दौर के कारनामों की सूची अगर गिनाने लगें तो खासी लंबी होगी, पर उसकी जरूरत नहीं है।
उनकी इस स्वीकारोक्ति से क्या यह प्रश्न नहीं उठता है कि आप आजीवन अपनी नौकरी के दौरान एक अनैतिक लड़ाई का हिस्सा रहे? क्या आपने कभी सोचने की कोशिश की कि आप कर क्या रहे हैं? वह भी किस लिए, सिर्फ एक मलाईदार पद पर बने रहने के लिए ही तो ना? वरना यही तो होता कि आपको किसी और पद पर स्थानांतरित कर दिया जाता? अपनी ही जनता के खिलाफ हर लड़ाई मात्र अनैतिक ही नहीं, बल्कि अवैधानिक भी होती है। मूलत: हर सरकारी कर्मचारी की जवाबदेही संविधान के प्रति होती है, तो क्या उसकी प्रतिबद्धता सत्ताधारियों के प्रति होनी चाहिए? उनकी तनख्वाह और ठाटबाट उसी गरीब जनता के पैसे से चलते हैं जिस पर सरकारी नौकर आज भी औपनिवेशिक कारकुनों की तरह अत्याचार और अन्याय करते हैं। यह चाहे भ्रष्टाचार के रूप में हो, सत्ताधारियों के गलत निर्णयों के पक्ष में हो या उनके इशारे पर जनता के दमन के रूप में हो। माओवाद क्यों है? आदिवासियों के साथ क्या हो रहा है? क्या कभी उन्होंने इन प्रश्नों पर भी सोचा है? ताकतवर और निर्बलों के बीच लड़ाई कब होती है, क्या यह बतलाने की जरूरत है? क्या लड़ाई गरीब और निहत्थों पर थोपी नहीं जाती है? ऐसा नहीं है कि इन सब बातों को विश्वरंजन न जानते हों। उन्हें योजना आयोग द्वारा गठित कमेटी की सिफारिशों को याद दिलाने की जरूरत नहीं है। वह स्वयं कहते हैं: ''नक्सल समस्या का मूल कारण विभिन्न सरकारों की उदासीनता और कोताही है। जब हम किसी इलाके में जाते हैं तो लोगों से वायदे करते हैं कि विकास होगा, उनकी खुशियां लौटेंगी, लेकिन हकीकत में यह... सब नहीं हो पाता...'' गोकि यह भी अधूरे तथ्य हैं। विकास तो छोड़ो, लोगों को उजाड़ा जा रहा है, उनके रहने का अधिकार छीना जा रहा है। आशा करनी चाहिए कि वह अपने संस्मरणों के बहाने इन मुद्दों पर और व्यापक संदर्भ में भी बात करेंगे।
यहां याद किया जा सकता है कि वह अकेले ऐसे उच्च पुलिस अधिकारी नहीं हैं जिनके सामने पद और नैतिकता का द्वंद्व रहा हो। दिनेश जुगरान, विभूति नारायण राय, शैलेंद्र सागर और विकास नारायण राय को इस संदर्भ में याद किया जा सकता है। ये चारों ही भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी थे या हैं। दिनेश जुगरान तो महानिदेशक भी रहे। उन दिनों भी अविभाजित मध्यप्रदेश में नक्सली गतिविधियां थीं, गोकि इतने चरम पर नहीं थीं जितनी की आज हैं, पर तब तक इन क्षेत्रों में आदिवासियों को विस्थापन और बड़ी कंपनियों का ऐसा बोल-बाला भी नहीं था। पर इस तरह के किसी दमन की कोई बात सुनने को नहीं मिली।
अन्य अधिकारियों ने भी अपने-अपने तरीके से इस द्वंद्व को देखा और उसका सामना किया होगा पर जहां तक विभूति नारायण राय का सवाल है उन्हें इस संदर्भ में विशेष रूप से याद किया जा सकता है। आज हर कोई जानता है कि मेरठ के हाशिमपुरा इलाके में पुलिस बर्बरता की कहानी उन्हीं के कारण सामने आई थी। उत्तर प्रदेश का बदनाम सांप्रदायिक पुलिस बल पीएसी एक सांप्रदायिक दंगे के दौरान एक पूरी गाड़ी भर कर मुस्लिम युवाओं को शहर से तीस किलो मीटर दूर ले गया और उन्हें गोली मारकर गंगा नहर में डाल दिया। यह नहर गाजियाबाद और मेरठ जिलों को विभाजित करती है। राय उन दिनों गाजियाबाद के एसएसपी थे। उन्हीं के कारण गोली लगने के बावजूद बच गए युवकों को दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती किया जा सका था और फिर उन्हीं के प्रयत्नों से अखबारों में समाचार छप पाया। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने कितना बड़ा खतरा मोल लिया होगा। यही नहीं अपनी नौकरी के दौरान ही उन्होंने पुलिस और सांप्रदायिकता जैसे विषय पर किताब लिखी।
ऐसा भी नहीं है कि सारे सरकारी कर्मचारी सिर्फ मलाईदार पदों के चक्कर में ही रहते हों। चूंकि पुलिस की बात चली है तो गुजरात के आईपीएस अधिकारी संजय भट्ट के अलावा शरत कुमार जैसे उन कई अफसरों को इस संदर्भ में याद किया जा सकता है जिन्होंने सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी के इशारों पर काम करने से मना किया और अब भी उससे टक्कर ले रहे हैं।
यह अजीब इत्तफाक है कि विश्वरंजन का साक्षात्कार पिछले महीने के मध्य में छपा और उसके एक पखवाड़े के बाद ही 31 जुलाई को प्रेमचंद के जन्म दिवस के अवसर पर हंस अपना वार्षिक उत्सव मनाता है। दो वर्ष पहले इसी उत्सव में माओवादी समस्या पर बात करने के लिए अरुंधति रॉय के साथ उन्हें बुलाये जाने की योजना थी पर समयांतर में इस मसले पर लिखे जाने के बाद हुए विरोध को देखते हुए वह नहीं आए। अरुंधति रॉय ने तो खैर यह सुनते ही आने से ही मना कर दिया था। (विस्तार के लिए देखें: समयांतर, जुलाई से अक्टूबर, 2010 के अंक)। पर पकड़ में विभूति नारायण राय आ गए थे। वह घोषित वक्ताओं की सूची में भी नहीं थे। पर उनके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से विश्वरंजन का या कहिए सरकार का पक्ष लेने के कारण उन्हें युवा पत्रकारों और लेखकों के जबर्दस्त आक्रोश का सामना करना पड़ा था।
पुरस्कारों की प्रौद्योगिकी
पिछले अंक में हमने रेखांकित करने की कोशिश की थी कि अशोक चक्रधर किस तरह से केंद्रीय हिंदी संस्थान का बहुआयामी दोहन कर रहे हैं और उनके नेतृत्व में केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा जून माह में वर्ष 2008 और वर्ष 2009 के पुरस्कार किस तरह से गलत लोगों को दिए गए।
पुरस्कारों की उस कड़ी में गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार भी कुछ कम मजेदार लोगों को नहीं दिए गए हैं। यह पुरस्कार 'हिंदी पत्रकारिता तथा रचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य' के लिए दिया जाता है। पुरस्कार पानेवालों में पंकज पचौरी भी शामिल हैं। पचौरी टीवी पत्रकारिता में रहे हैं। कभी उन्होंने हिंदी में भी जरूर काम किया पर न जाने पिछले कितने वर्षों से वह हिंदी छोड़ अंग्रेजी की सेवा में रत हैं। इस बीच शायद ही किसी ने उनका हिंदी में कोई काम - कोई टिप्पणी, लेख, कविता - देखा हो। वैसे सच यह है कि वह न हिंदी में और न ही अंग्रेजी में कोई छाप छोडऩे में सफल हुए हैं। कुल मिला कर वह एक औसत पत्रकार हैं। पर उनका महत्त्व दो तरह से है। पहला वह इधर प्रधान मंत्री के प्रेस सलाहकार हो गए हैं और दूसरा वह चक्रधर के बाल सखा सुधीश पचौरी के भाई हैं।
पर जिनकी ओर विशेष तौर पर हमारा ध्यान दिलवाया गया है वह हैं वर्ष 2009 के लिए एक लाख रुपए का ''हिंदी पत्रकारिता एवं तकनीकी साहित्य और उपकरण विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए'' प्रदान किए जानेवाले गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित होनेवाले ब्रजमोहन बख्शी। बख्शी दूरदर्शन में निदेशक हैं। पूछा जा सकता है कि वहां उन्होंने ऐसे कौन-से उपकरण का विकास किया जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया गया?
कुछ न कुछ तो किया ही होगा वरना पिछले एक वर्ष में उन्हें दो पुरस्कार यों ही तो नहीं मिल गए। गत वर्ष उन्हें (गोकि वहां उनके नाम को बृज मोहन लिखा गया है) दिल्ली की हिंदी अकादमी ने ''ज्ञान-प्रौद्योगिकी'' के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए पुरस्कृत किया। अब सवाल उठता है कि ज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उन्होंने ऐसा क्या किया? क्या प्रसारण का कोई नया तरीका ढूंढ निकाला था या फिर एलईडी टीवी सेटों की खोज की अथवा डीटीएच जैसी तकनीक उन्हीं की देन है? इसे आप सम्मान के अवसर पर जारी स्मारिका में उनके परिचय के साथ छपी फोटुओं से न भी समझें तो (जिनमें वह अपने कार्य के दौरान प्रधान मंत्री, दिल्ली की मुख्य मंत्री और मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दिखलाई दे रहे हैं) उनकी शैक्षणिक योग्यता से तो जान ही सकते हैं। उन्होंने ''साहित्य में एम.ए.'' किया है। वह दूरदर्शन में निदेशक हैं और निदेशकों का काम कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने से संबंधित होता है न कि प्रसारण की तकनीक से। वह काम इंजीनियर करते हैं। एम.ए. कर के ज्ञान- प्रौद्योगिकी का पुरस्कार पाना अपने आप में प्रतिभा का काम है, इसलिए उन्हें मिले पुरस्कार को गलत कैसे कहा जा सकता है?
यह हिंदी भाषा और साहित्य का सेवा जगत है। एक दफा आप इस सेवा जगत में फिट हो जाइये और फिर देखिये पुरस्कार हर वर्ष तो क्या हर माह आपके कदम चूम रहे होंगे। याद किया जा सकता है कि चक्रधर हिंदी अकादमी के भी उपाध्यक्ष थे और ब्रज मोहन जी ने ज्ञान-प्रौद्योगिकी का जो असली काम किया वह था ऐसे दौर में जब चक्रधर निजी चैनलों से बाहर हो गए हैं। उनके कार्यक्रम 'चले आओ चक्रधर के चमन में' को साल से भी ज्यादा दूरदर्शन पर चलाया। उन्हें हर एपिसोड का कितना पैसा मिला यह गुप्त है।
इसके बाद यह पूछना अनुचित होगा कि ब्रजमोहन जी ने अपनी प्रौद्योगिकी ज्ञान क्षमता से क्या किया। स्पष्ट है कि उन्होंने ऐसा अदृश्य यंत्र विकसित करने में पहल की जो दो तरफा मार करने वाला है। इसका लाभ यह है कि इसमें आपका कुछ नहीं लगता। सरकार के एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर के बीच ही सारा काम हो जाता है। चारों ओर वाह-वाही होती है। सार्वजनिक तौर पर पैसा लिया दिया जाता है और आपकी योग्यता में एक और अध्याय जुड़ जाता है। एक तरफ देने वाले को फायदा होता है और दूसरी तरफ लेनेवाले को। इससे बढ़कर आज के दौर में कोई दूसरा ज्ञान हो सकता है! हमारे पूर्वज इसे ही जंत्र कहते थे। इसके पुन:अनुसंधान और प्रतिस्थापन के लिए आप जिस पक्ष को चाहें श्रेय दे सकते हैं।
... सीना जोरी
अंतत: नकली दरबारी लाल ने प्रतिक्रिया कर ही दी है। प्रतिक्रिया हुई यह प्रसन्नता की बात है, और मजेदार भी कि डेढ़ लाइन (समयांतर, जून अंक) ने उन्हें इतना उद्वेलित किया। संभवत: जब जवाब नहीं होते तो अनर्गल बातें होती हैं। तभी हम अपना संतुलन भी खोते हैं। पर प्रिय भाई, नकली या नकलखोर सिर्फ हलवाई नहीं होते, और लोग भी होते हैं।
इस बात पर बाद में आएंगे। पहले नकली या 'छोटे दरबारी लाल' को देख लें। वह कहते हैं, ''आप बड़े भैया, हम आपके छोटे भैया। वैसे तो हम उमर में आपके बेटे के बराबर हैं...।'' इस के बाद जैसी कि परंपरा है सारी उद्दंडता के बावजूद हमें क्षमा दान करना ही होगा। सो हमने कर दिया है।
पर अब हमारा अधिकार शुरू होता है, थोड़ी-बहुत शिक्षा देने का। बेहतर तो यह होता कि यह काम उनके वे माननीय संपादक गण करते, जिनकी छत्र-छाया में उनकी प्रतिभा का विकास हुआ और हो रहा है और जिनके सानिध्य में वह अब ताल ठोक रहे हैं क्योंकि अगर हम उनके पिता समान हैं तो वे संपादक गण भी उनके पिता समान ही हैं जिनके साथ उन्होंने अपनी पत्रकारिता के चार अमूल्य वर्ष गुजारे (? ) हैं। इसमें डीएनए टेस्ट की जरूरत नहीं है।
छोटे दरबारी लाल ने कई बातें कहीं हैं पर उनमें दो ही मतलब की हैं। कोशिश करते हैं कि इन्हीं का उत्तर देने से इस युवा पत्रकार को कुछ चीजें समझ आ जाएं। गोकि जैसा कि उनका दावा है वह राजनीति पर बात करते हैं जब कि हम साहित्य के कुएं में ही पड़े रहते हैं।
पहली बात: उनका कहना है कि ''इस मुल्क में तो दरबारी लाल लाखों नहीं तो हजारों में तो होंगे ही और ज्यादा नहीं तो उनमें दो-चार-दस तो लिखना भी जानते ही होंगे।''
दूसरा: उनके अनुसार, ''उन दरबारी लाल की (यानी हमारी) नींद चार साल बाद खुली है। उन्हें मालूम नहीं था कि हम यह कालम इस पत्रिका (शुक्रवार) के शुरू होने से लेकर अब तक लिखते आ रहे हैं।''
मतलब की बात पर आने से पहले पत्रकारिता का एक सामान्य नियम बतलाना चाहेंगे: उत्तर देने या कुछ भी लिखने से पहले अपने तथ्यों को जांच लें। साथ में अंदाज जरूर लगा लें कि आप के लिखे पर क्या सवाल उठेंगे। यानी ठीक से होमवर्क कर लें। लफ्फाजी या शोहदापन तथ्यों और तर्कों का विकल्प नहीं है।
वह छोटे हैं इसलिए उन्हें जान लेना चाहिए कि नाम अक्सर एक दौर का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस तरह के नाम पिछली सदी के शुरू में रखे जाते थे - दिल्ली दरबार के बाद - और अब प्रचलन में अपवाद स्वरूप ही हो सकते हैं। हमारी चुनौती है कि वह बतलाएं कि हिंदी में (अपने और हमारे अलावा) कितने दरबारी लाल लिख रहे हैं? असली नाम का कोई एक आदमी बतला दें।
जहां तक उनकी दूसरी बात का सवाल है यह समझ में आता है कि चार साल पहले से अगले दो-तीन साल तक वह जिस संपादक महोदय के साथ काम कर रहे थे, उन्हें पता न हो कि इस नाम से एक स्तंभ है, यह बहुत संभव है। उन संपादक महोदय की सीमा सर्वज्ञात है। अन्यथा आपको ऐसा करने से तभी रोक दिया गया होता। पर आपके जो नए संपादक हैं उन्हें यह बात पता न हो, यह असंभव है।
जहां तक उपनामों का सवाल है उनकी परंपरा पत्रकारिता में आम है। हर उपनाम रजिस्टर नहीं होता। एक उपनाम की देखा-देखी दूसरा नाम रखना या उस जैसा स्तंभ चलाना आम बात है। स्वयं 'दिल्ली मेल' की तर्ज पर दो स्तंभ शुरू किए गए। पर यथावत उसका नाम उठा लेना गैरकानूनी चाहे न हो, अनैतिक जरूर है। वैसे कानूनी तौर पर भी इसे सिद्ध करना कोई बहुत कठिन नहीं होगा। (चाहें तो अपने कानूनी सलाहकारों से पूछ लें।) यह अलिखित नियम है। अच्छे पत्रकार ऐसा कभी नहीं करते। न ही अच्छे संपादक इस तरह के कामों को बढ़ावा देते हैं। अगर शंका हो तो पत्रकार बिरादरी तो है ही।
अब जहां तक विषय का सवाल है वे लोग जिन्हें अपने स्तंभ का नाम या उसके लिए उपनाम रखने के लिए, दिमाग लगाने की जगह, इधर-उधर मुंह मारना पड़े वे चाहे जिस विषय पर लिखेंगे, इसे शुक्रवार के पाठकों से बेहतर कौन जानता होगा? साहित्य में दोस्ती-दुश्मनी से बड़ी नैतिकता नाम की चीज मानी जाती है। जिस पर बात करना जरूरी इसलिए होता है कि अक्सर दूसरों को अपने लेखन और भाषणों से नैतिकता सिखानेवाले खुद कितने अनैतिक होते हैं यह बतलाना कम मजेदार नहीं है। प्रिय भैया जी आप नहीं जानते संपादक बनने के लिए लेखक कहलानेवाले लोग नौकरियां तक खरीद रहे हैं और अपने बॉसों के लिए पुरस्कार हासिल करने के लिए जान भी लगा देते हैं। ऐसे लोग पत्रकारिता और साहित्य में जो खराबी फैलाते हैं वह भी समाज और राजनीति को कम प्रभावित नहीं करती। यह सब जानने के लिए आपको बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। सब आसपास ही मिल जाएगा। पर चूंकि आप साहित्य जैसे क्षुद्र विषयों को छूते नहीं हैं और राजनीति जैसे महान और पवित्र विषयों पर अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं, इसलिए हो सकता है इन गलाजतों पर आपका ध्यान न जाता हो और न ही जाएगा। मौका पडऩे पर इस बारे में बतलाने हम ही आपकी सेवा में हाजिर होंगे।
उनके दूसरे तर्क का जवाब बहुत ही सीधा-सा है। अगर चोरी चार साल बात पकड़ी जाए तो वह चोरी नहीं होगी, क्या ऐसी कोई रूलिंग इधर सुप्रीम कोर्ट ने दी है? आप बता सकते हैं कि 1999 से पहले हिंदी में किसी ने इस नाम से लिखा हो? या 2008 में आपकी पत्रिका के प्रकाशन से पहले हमारे अलावा किसी और पत्रिका में आपने यह नाम देखा हो? इस तरह की चोरी और सीना जोरी आप को प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता नहीं दिलाएगी। आगे बढऩा है तो गलती को जस्टीफाई न करें बल्कि उससे बचें। नैतिकता बड़ी चीज है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि समयांतर के पुनप्र्रकाशन को एक महीने बाद 13 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, और उसके पहले यानी अक्टूबर, 1999 के अंक से दरबारी लाल का स्तंभ चल रहा है। आप के आसपास काफी जानकार व्यक्ति हैं। सब बता सकते हैं। पिछले चार वर्ष में जब से आपने इस नाम का इस्तेमाल किया है कम से कम दो बार समयांतर में इस बारे में लिखा जा चुका है। देखें: (समयांतर, अक्टूबर और दिसंबर 2008) संभव है आपने नहीं पढ़ा होगा क्योंकि समयांतर निश्चय ही शुक्रवार जैसी बड़ी पूंजी की पत्रिका नहीं है जो हर जगह नजर आती हो। फिर हम कोई दरोगा भी नहीं हैं कि दो सिपाही ही भेज देते। कलम घिस्सू क्या कर सकते हैं सिवा लिखने के सो हमने लिख दिया और जरूरत हुई तो भविष्य में भी लिखेंगे। इसलिए भैयाजी हम चार साल बाद नहीं जागे हैं बल्कि आप चार साल से सो रहे थे या सोने का बहाना कर रहे थे।
अब मसला रह गया है असली-नकली के भेद का। नकल करना किस तरह से पत्रकारिता में भी आम है इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं शुक्रवार का ठीक उस अंक के बाद का अंक है जिसमें आपने असली दरबारी लाल की क्या खूब ठुकाई की है! इस अंक (6 से 15 जुलाई) में एक स्टोरी छपी है वह है उत्तराखंड के खानसामाओं पर जिसका शीर्षक है 'जापान में उत्तराखंडी शेफ'। अब इत्तफाक देखिए इसे राजू गुसाईं नाम के देहरादून स्थित पत्रकार ने आप के यहां से यथावत उठाकर 18 दिन पहले ही अंग्रेजी में उल्था करके मेल टुडे नाम के दिल्ली से निकलनेवाले दैनिक में (19 जून को ही) छपवा दिया। यहां तक कि आपकी वेबसाइट से फोटो भी उठा लिया। कंबख्त ने न कोई संदर्भ दिया है और न ही किसी तरह का आभार व्यक्त किया है। और हिम्मत देखिए, अपने नाम के साथ इस तरह छापा है मानो स्पेशल स्टोरी की हो। क्या इसको आप नकलमारी नहीं कहेंगे?
आपने अपने स्तंभ में खूब लिखा है, ''वे (यानी हम) क्या कोई परंपरागत हलवाई हैं कि वे दावा करें कि असली दरबारी लाल की दुकान यही है।''
आशा है आप की समझ में आ गया होगा कि नकल मारने या नकली होने का एकाधिकार सिर्फ हलवाइयों का ही नहीं है पत्रकारों की दुकानों में भी खासा नकली माल मिलता है। यह तो एक छोटा उदाहरण है, गिनने पर आएं तो यह संख्या कहां की कहां पहुंच जाएगी।
हमारी आपको सलाह रहेगी दुकान अवश्य चलाएं, पर ऐसी न चलाएं कि हलवाई पत्रकारों से ज्यादा नैतिक नजर आने लगें। बात छोटे-बड़े धंधे की ब्राह्मणवादी मानसिकता की नहीं है। ईमानदारी की है। और ईमानदारी हमारी परंपरा में जुलाहे और मरघट के चौकीदार से भी सीखी जाती है।
अंत में हार्दिक बधाई और आशीर्वाद!
यौन उत्पीडऩ मामला सर्वोच्च न्यायालय में
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अपनी छात्रा के यौन उत्पीडऩ का मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है। पीडि़ता ने अपील की है कि नौकरी से निकाले गए प्रो. अजय तिवारी को जो दंड दिया गया है वह अपराध को देखते हुए पर्याप्त नहीं है। न्यायालय ने अपील का संज्ञान लेते हुए सभी पार्टियों को इस मामले में नोटिस जारी कर दिया है। यहां बता दें कि अजय तिवारी को नौकरी से तो निकाल दिया गया पर उन्हें रिटायर होने की सुविधाएं मिल रही हैं।
-दरबारी लाल
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