कितने लोगों ने नार्वे का आतंकी ब्रेविक द्वारा पिछले साल अंजाम दिए कतलेआम की बरसी 22 जुलाई पर नार्वे के प्रधानमंत्री लेबर पार्टी से जुड़े जेन्स स्टोलटेनबर्ग के वक्तव्य को पढ़ा है ? याद रहे एन्डर्स बेहरिंग ब्रेविक, जिसने 77 लोगों को मार डाला था, क्योंकि वह अपने देश को ''मुस्लिम आक्रमण'' से बचाना चाहता था और उसने लेबर पार्टी को निशाना इसलिए बनाया क्योंकि वह उसकी आप्रवासी संबंधी नीति और बहुसांस्कृतिक समाज के समर्थन की मुखालिफत करता था, उस प्रसंग को याद करते हुए स्टोलटेनबर्ग ने कहा कि ''ब्रेविक नार्वे के समाज को बदलने में नाकामयाब रहा। वे बम एवं गोलियां नार्वे को बदलने के लिए दागी गई थीं। नार्वे की अवाम ने उन्हीं मूल्यों को अपना कर अपनी राय प्रगट की। हत्यारा हार गया, जनता जीत गई।''
सोचने का सवाल यह है कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में विगत कुछ सालों में बहुसंख्यकवादी आतंकवाद की जिस परिघटना से हम रूबरू हो रहे हैं, फिर चाहे मालेगांव बम धमाके को अंजाम देनेवाले कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा जैसे लोग हो, या गोवा में ट्रक में बम रखनेवाले सनातन संस्था के कारिंदे हों उसके बारे में क्या हम यही बात कह सकते हैं ? निश्चित ही नहीं !
इसकी प्रचीति न केवल कानूनी स्तर पर दिखती है, जहां हम पा रहे हैं कि इन आतंकियों को एक एक करके जमानत मिल रही है बल्कि समाज में इन विचारों की आपराधिकता को कहीं न कहीं वैधता प्रदान करने की मानसिकता में भी टपकती है।
यह अकारण नहीं कि अब दबी जुबान से यही कहा जाने लगा है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अपनी पहली पारी में हिंदुत्व आतंक के खिलाफ जो कदम उठाए थे और संघ से जुड़े आतंकी नेटवर्क का खुलासा किया था, वह सिलसिला अब अंधी गली में पहुंच रहा है।
हाल के समयों में कुछ मामले के अहम अभियुक्तों को मिली जमानत - क्योंकि कथित तौर पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी की उनके खिलाफ तयशुदा समय में आरोपपत्र न कर पाने की विफलता - का मामला सूर्खियों में ही था कि अब मीडिया के एक हिस्से से यह शरारतीपूर्ण खबर आयी है कि हिंदुत्व आतंक का एक मास्टरमाइंड लेफ्टनेंट कर्नल पुरोहित ने दरअसल सेना के जासूसी विभाग (मिलिटरी इंटिलिजेंस) जिससे वह संबधित था उसे अपने कार्यकलापों की जानकारी दी थी। गनीमत है कि मिलिटरी इंटिलिजेंस की तरफ से जारी एक आधिकारिक बयान में इस बात को खारिज किया गया है, मगर इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि एक अहम अखबार ने हिंदुत्व के इस आतंकी की 'सफाई' छापी थी और उसे इस्लामिक आतंकियों के खिलाफ सक्रिय बताया था, उस वजह से तमाम लोगों को दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है। प्रश्न है कि क्या यह सब प्रशासकीय लापरवाहियों का ही मामला है या प्रशासन, गुप्तचर विभाग आदि में प्रविष्ट सांप्रदायिक तत्वों की अतिसक्रियता का परिणाम है, जो किसी भी सूरत में बहुसंख्यकवादी दहशतगर्दी पर परदा डाले रखना चाहते हैं।
दिल्ली की उच्च अदालत के पास, बंबई, बंगलौर में बम विस्फोट हुए हैं। ऐसे बम धमाकों के चंद घंटों के अंदर टीवी चैनलों ने यह समाचार दिखाना शुरू किया कि इंडियन मुजाहिदीन, जैश ए मोहम्मद या हरकतुल-जिहाद इस्लाम ने बम विस्फोटों की जिम्मेदारी लेते हुए ई मेल भेजे हैं या एसएमएस भेजे हैं। इन कथित संगठनों के नाम हमेशा ही मुस्लिम होते हैं। अब एक ईमेल को किसी भी शरारती व्यक्ति द्वारा भेजा जा सकता है, मगर टी वी चैनलों पर इन्हें दिखा कर और अगले दिन अखबारों में प्रकाशित करके, कोशिश यही रहती है कि देश के सभी मुसलमानों को आतंकी और बम फेंकने वाले कहा जाए ...क्या मीडिया को चाहिए कि वह जानबूझकर/गैरजानकारी में बांटो और राज करो की इस नीति का हिस्सा बने?
(न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) मार्कण्डेय काटजू, प्रेस कौन्सिल आफ इंडिया के चेअरमैन, मीडियाकर्मियों के साथ बातचीत के दौरान 10 अक्तूबर 2011)
पिछले दिनों मुंबई की विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी की अदालत ने 2008 मालेगांव बम धमाके के मामले में गिरफ्तार संघ से जुड़े आतंकी लोकेश शर्मा को जमानत दी क्योंकि कथित तौर पर जांच एजेंसी उसके खिलाफ 90 दिनों के अंदर चार्जशीट दाखिल नहीं कर सकी थी। याद रहे कि जांच एजेंसी ने लोकेश को इस साल की शुरुआत में पंचकुला अदालत से गिरफ्तार किया था जहां वह समझौता एक्स्प्रेस बम धमाके के मामले में न्यायिक हिरासत में था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि लोकेश शर्मा, जो हिंदुत्व आतंक का एक मास्टरमाइंड राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक सुनिल जोशी का करीबी सहयोगी था, उस पर यह आरोप है कि समझौता एक्स्प्रेस में उसी ने बम रखवाया। लोकेश शर्मा को जून के प्रथम सप्ताह में मिली जमानत के महज पांच दिन पहले हैद्राबाद की अदालत ने भरत रतेश्वर को, जो मक्का मस्जिद बम धमाके का आरोपी था, उसे इस आधार पर जमानत दी कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी उसके खिलाफ आरोपपत्रा पेश नहीं कर सकी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकेश शर्मा या भरत को मिली जमानत को अपवाद नहीं कहा जा सकता, इसके पहले मालेगांव बम धमाके में गिरफ्तार -शाम साहू, शिव नारायण कलासांगरा और अजय राहिरकर को - अदालतें जमानत दे चुकी हैं। कानून के कुछ जानकारों का तो यहां तक मानना है कि अगर सत्वर कदम नहीं उठाए गए तो यह मुमकिन है कि इन केसों में गिरफ्तार अन्य कई लोग जमानत पर छूट सकते हैं। वैसे राष्ट्रीय जांच एजेंसी इस काम को किस लापरवाही से चला रही है, यह बात इंद्रेश कुमार के उदाहरण से जाहिर होती है।
बहुत कम लोग आज इस बात को मानेंगे कि एक समय था - बमुश्किल चंद माह पहले - जब खबरें आ रही थीं कि भारत में बहुसंख्यकवादी राजनीति के सबसे आपराधिक एवं हत्यारे चरण में -जिसे आम बोलचाल की भाषा में हिंदुत्व आतंक कहा जाता है - अपनी कथित संलिप्तता के चलते उन्हें गिरफ्तार किया जाएगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों के कई सारे कार्यकर्ता जो आतंकी कार्रवाइयों में अपनी भूमिका के चलते इन दिनों सलाखों के पीछे हैं उन्होंने जांच एजेंसियों के साथ यह बात साझा की थी कि इन कार्रवाइयों के विभिन्न चरणों में उन्होंने कथित तौर पर इंद्रेश कुमार से संपर्क रखा था या उन्हें उसी के जरिए निर्देश मिले थे या इन आतंकी कारनामों के लिए धन जुटाने का काम कथित तौर पर उन्होंने ही किया था।
अलग अलग अखबारों एवं मीडिया चैनलों में उन दिनों प्रकाशित रिपोर्टों में इस बात का संकेत मिल सकता है कि किस किस्म का भविष्य इंद्रेश कुमार का इंतजार कर रहा था। ''मस्जिद ब्लास्ट हीट ऑन आर एस एस टॉप मैन'' अर्थात मस्जिद धमाकों की आंच संघ के वरिष्ठ नेता की ओर (मेल टुडे, 23 दिसंबर 2010), 'सी बी आई ग्रिल्स इंद्रेश एण्ड काल्स हिज ब्लफ' अर्थात सीबीआई द्वारा इंद्रेश कुमार से पूछताछ और उसके दावे खारिज (मेल टुडे, 24 दिसंबर 2010), 'इंद्रेश कुमार के पूछताछ से संघ की धडकन तेज' ( भास्कर, 24 दिसंबर 2010) आदि। विगत साल अपनी एक रिपोर्ट में 'सियासत' ने इंद्रेश कुमार को 'आतंकी हमलों का सरगना' कहा था। (10 फरवरी, 2011 http://www.siasat.com/) उसने लिखा था। अब यह सब बीत चुका है !
आज न ही जांच एजेंसियां इंद्रेश कुमार से आगे पूछताछ करना चाह रही हैं और न ही केंद्र में सत्तासीन पार्टी जांच को अपनी तार्किक परिणति तक ले जाना चाहती है भले ही बुरारी में आयोजित अपने अधिवेशन (2010) में कांग्रेस पार्टी ने यह राजनीतिक प्रस्ताव पारित किया हो कि वह 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कथित आतंकी रिश्तों की पूरी जांच करवाएगी।'
एक तरफ हिंदुत्व आतंक के आरोपियों की एक के बाद एक जमानत और दूसरी तरफ इनसे जुड़े अतिवादी तत्वों की आतंकी तैयारियों की आहट दोनों साथ सुनाई दे रही है। उडुपी जिले से पिछले दिनों खबर थी (द हिंदू, 10 मई 2012, एक्स्प्लोसिव्ज सिजड नियर ब्रह्मावर) कि 'पुलिस ने गणेश प्रसाद नामक व्यक्ति से, जो शिरियार ग्राम का रहनेवाला है उसके कार से 16 जिलेटिन स्टिक्स, छह विस्फोटक और एक किलोग्राम गनपावडर बरामद किया। जब येथाडी नामक स्थान पर पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया तब वह बिना परमिटवाली गाड़ी में इन विस्फोटकों को ले जा रहा था, जिसकी कुल कीमत 75, 000 रुपए बताई गई है।' एक अन्य वेबसाइट में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक 'गिरफ्तार आतंकी गणेश प्रसाद एक हिंदुत्ववादी संगठन का कार्यकर्ता' है।
हिंदुत्व आतंक के अधिकतर मामलों में यही देखा जाता है, प्यादे पकड़े जाते हैं, मगर असली मास्टरमाइंड, योजना बनानेवालों को कोई छू नहीं पाता। उडुपी जिले के इस घटनाक्रम के बारे में इस बात की पड़ताल करना समीचीन होगा कि कौन हैं वे लोग जिन्होंने गणेश प्रसाद को इतने सारे विस्फोटकों, बम बनाने की सामग्री के साथ भेजा था। क्या किसी लंबे संघर्ष की तैयारी चल रही है ताकि जब माहौल शांत हो जाए तो उसी किस्म की आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया जाए जिसके लिए हिंदुत्व के आतंकी चर्चित रहे हैं।
मगर आतंक फैलाने का यही एकमात्र तरीका नहीं है, अपने 'दुश्मनों' के प्रार्थनास्थल को अपवित्र करके भी इसे अंजाम दिया जा सकता है। वैसे आंध्र प्रदेश की राजधानी में पनपे सांप्रदायिक तनाव के इस मामले के एक पहलू पर अधिक बात नहीं हो सकी है कि मदनापेट मंदिर अपवित्रकरण की जिस घटना ने तनाव को जनम दिया था, उसके पीछे हिंदू अतिवादियों के हाथ होने के पुलिस पास मजबूत प्रमाण हैं। अग्रणी अंग्रेजी अख़बार (Saffron extremists desecrated temple to trigger riots: Cops टाइम्स आफ इंडिया, 14 अप्रैल 2012) की रिपोर्ट के मुताबिक 'केसरियां अतिवादियों ने मंदिर को अपवित्र करके दंगे को भड़काने' की कोशिश की। रिपोर्ट के मुताबिक शहर की पुलिस हिंदू समुदाय से संबद्ध उन चार युवकों की तलाश कर रही है जिन्होंने मदनापेट के हनुमान मंदिर की दीवार पर निषिद्ध सामग्री फेंक कर माहौल को बिगाड़ा था। यह चारों युवक कूर्मागुड़ा इलाके के ही रहनेवाले हैं। बाद में इन चारों युवकों को गिरफ्तार भी किया गया। जांच में मुब्तिला एक अधिकारी ने सम्वाददाता को यह भी बताया कि अब असली चुनौती उन षडयंत्रकर्ताओं तक पहुंचने की है जिन्होंने इस काम को अंजाम दिलवाया।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब भाजपा शासित कर्नाटक के बिजापुर जिले के सिन्दगी तहसील पर नए साल के अवसर पर पाकिस्तानी झंडा फहराने एवं सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने के आरोप में चंद हिंदू आतंकवादी गिरफ्तार हो चुके हैं। दरअसल 1 जनवरी की सुबह जब लोग घरों से निकले तब यह खबर कानोंकान पहुंच चूकी थी कि तहसील कार्यालय पर पाकिस्तानी झंडा फहराया गया है। इसके पहले कि लोग घटना की बारीकियों पर गौर करते, देखते ही देखते हिंदुत्ववादी संगठनों के कार्यकर्ता सड़कों पर थे और पूरे इलाके में तनाव की स्थिति बनी थी। दो दिन के अंदर ही पूरी घटना से परदा उठ गया। पुलिस ने असली आतंकियों को हिरासत में लिया और उन्हें मीडिया के सामने पेश किया। मुंह पर काला टोप डाले इन आतंकियों के चेहरे से नकाब हटा तो मीडिया वाले कुछ देर के लिए भौचक से रह गए। इसमें वही लोग शामिल थे, जो विरोध प्रदर्शनों की अगुआई कर रहे थे। श्रीराम सेना से संबद्ध कहे जानेवाले अनिलकुमार सोलनकर, अरुण बाघमोरे की अगुआईवाले इस आतंकी मोडयूल के चार अन्य सदस्यों को मीडिया के सामने पेश करते हुए पुलिस अधीक्षक डी सी राजप्पा ने उपपुलिस अधीक्षक एस पी मुत्थुराज के नेतृत्व में बनी पुलिस इंस्पेक्टर सिद्धेश्वर, चिदंबर और बाबागौड़ा पाटील की जांच टीम से भी पत्रकारों को मिलाया।
आतंकवाद फिर चाहे उसे राज्य की दमनात्मक मशीनरी अंजाम दे या गैरराज्य कारकों की तरफ से अंजाम दिया जाए, चाहे बहुसंख्यक समुदाय के लोग अंजाम दें या अल्पसंख्यक समुदाय के लोग, यह समझने की जरूरत है कि सभी मामलों में मासूमो का ही खून बहता है। विडंबना यही कही जा सकती है कि इक्कीसवीं सदी में ऐसे संगठन, जमातें आज भी मौजूद हैं जो आज भी ऐसी ही नापाक हिंसा को अख्तियार किए हुए हैं, किसी का नाम अभिनव भारत है श्रीराम सेना है तो किसी का नाम अल कायदा, लश्कर ए तोइबा है।
No comments:
Post a Comment