राजेश जोशी, कुमार अम्बुज व नीलेश रघुवंशी
पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश के भारत भवन, साहित्य परिषद, उर्दू अकादमी और कला परिषद सहित कुछ संस्थानों से समय-समय पर, पृथक-पृथक कारणों से वामपंथी लेखक संगठनों तथा रचनाकारों द्वारा प्रत्यक्ष दूरी बना कर रखी गई है। कतिपय तात्कालिक कारण दूर हो जाने पर स्थिति यह है कि अनेक लोग जहां इन संस्थाओं, खासकर भारत भवन के आयोजनों में सीधी भागीदारी करने लगे हैं, वहीं गिने-चुने कुछ लेखकों ने इस दूरी को प्रखरता और दृढ़ता से बरकरार रखा है। इन लेखकों में से (भोपाल में रहनेवाले) पहले स्वर्गीय कमला प्रसाद जी के साथ और फिलहाल हम तीन यानी राजेश जोशी, कुमार अम्बुज और नीलेश रघुवंशी, लगातार इस मुद्दे पर विचार करते रहे हैं और अभी भी हमारा निष्कर्ष है कि इन संस्थानों में 'रचनाकार के रूप में भागीदारी' न करने की हमारे पास ठोस वजहें हैं। ये वजहें अनौपचारिक बातचीत में अन्य साथी लेखकों को बताई जाती रही हैं। लेकिन, अब जबकि कुछ महत्त्वपूर्ण, चर्चित वामपंथी लेखक या वामपंथी संगठनों से जुड़े रचनाकारों द्वारा भी इन संस्थाओं के आयोजनों में, बावजूद हमारे प्रदेश के एक प्रमुख लेखक संगठन की इस सलाह के कि इन संस्थाओं में सीधी भागीदारी न की जाए, शिरकत शुरू कर दी है, तब हम अपना सकारण 'स्टैंड' यहां पुनर्विचार के बाद औपचारिक रूप से सार्वजनिक करना उचित समझते हैं।
सबसे प्रमुख और निर्णायक कारण है कि वर्तमान सरकार की अन्यथा स्पष्ट सांस्कृतिक नीतियों के चलते, इन संस्थानों का और साथ ही प्रदेश की मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला सृजनपीठों का, वागर्थ, रंगमंडल आदि विभागों का, पिछले आठ-नौ वर्षों में सुनियोजित रूप से पराभव कर दिया गया है। हद तो यह है कि इन संस्थाओं के न्यासियों, सचिवों, उपसचिव और अध्यक्ष पदों पर, जहां हमेशा ही हिंदी साहित्य के सर्वमान्य और चर्चित लेखकों-कलाकारों की गरिमामय उपस्थिति रही, वहां अधिकांश जगहों पर ऐसे लोगों की स्थापना की जाती रही है जो किसी भी प्रकार से हिंदी साहित्य या कलाजगत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर नहीं हैं। उनका हिंदी साहित्य की प्रखर, तेजस्वी और उस धारा से जो निराला, प्रेमचंद, मुक्तिबोध (जिनके नाम पर सृजनपीठ है) से निसृत होती है, कोई संबंध नहीं बनता है। उनका हिंदी साहित्य की विशाल परंपरा एवं समकालीन कला-साहित्य से गंभीर परिचय तक नहीं है, जिनकी हिंदी साहित्य और वैश्विक साहित्य की समझ स्पष्ट रूप से संदिग्ध है। उनमें से अधिकांश की एकमात्र योग्यता सिर्फ यह है कि उनका वर्तमान सरकार की मूल राजनैतिक पार्टी या उनके तथाकथित सांस्कृतिक अनुषंग संगठनों से लगभग सीधा जुड़ाव, सक्रियता और समर्थन है।
हमारा विरोध किसी राजनैतिक अनुशंसा से उतना नहीं है क्योंकि व्यवस्था में इन पदों पर पहले भी राजनैतिक अनुशंसाओं से लोग नामित किए जाते रहे हैं, लेकिन वे सब असंदिग्ध रूप से हमारे समकालीन साहित्य के मान्य, समादृत हस्ताक्षर रहे हैं। कुछ नाम हम स्मरण कराना चाहते हैं कि इन जगहों पर किस स्तर के सर्जक रहे हैं: सर्वश्री त्रिलोचन शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, स्वामीनाथन, ब.व. कारंत, हरिशंकर परसाई, नरेश मेहता, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, विनोद कुमार शुक्ल, हबीब तनवीर, मंजीत बाबा, शानी, केदारनाथ सिंह, सोमदत्त, निर्मल वर्मा, प्रभाकर श्रोत्रिय, विजय मोहन सिंह, आग्नेय, भगवत रावत, कृष्ण बलदेव वैद, कमलेश, दूधनाथ सिंह, प्रभात त्रिपाठी, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, सुरेंद्र राजन, फजल ताबिश, अशोक वाजपेयी, आफाक अहमद, सुदीप बनर्जी, कमलेशदत्त त्रिपाठी, श्रीनिवास रथ, मंजूर एहतेशाम, रमेशचंद्र शाह, हरिनारायण व्यास, दिलीप चित्रे, नरेश सक्सेना, कमला प्रसाद, मनोहर वर्मा, धु्रव शुक्ल आदि। जाहिर है एवं हमारा स्पष्ट मत है कि यहां प्रश्न राजनैतिक पक्षधरता का न होकर, वामपंथी अथवा दक्षिणपंथी पदावलियों से भी बाहर, व्यापक रूप से उन लोगों की वर्तमान उपस्थिति से है जिनमें से अधिकांश की कोई साहित्यिक पहचान नहीं है, कोई साहित्यिक कद नहीं है। उनका हमारी साहित्यिक परंपरा, लेखकीय अस्मिता और समकालीनता से भी कोई संबंध नहीं बैठाया जा सकता। उन्होंने संस्थाओं से प्रकाशित अनेक, अन्यथा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं की साहित्यिक संभावना, वैभव और प्रतिष्ठा को भी गंभीर क्षति पहुंचा दी है।
वर्तमान में इन संस्थाओं को जिस तरह से पदावनत, पतित और गरिमाहीन कर दिया गया है, वह अस्वीकार्य है। इसके साक्ष्य पिछले कुछ वर्षों में म.प्र. संस्कृति विभाग द्वारा दिए जानेवाले अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर पुरस्कृत लेखकों की सूची तथा कृतियों के स्तर पर भी सहज ही देखे जा सकते हैं।
इसके चलते वे सब लेखक, जो किसी राज्य की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की श्रेष्ठता, सर्जनात्मक हस्तक्षेप और वातावरण निर्मिति में भूमिका देखना चाहते हैं, वर्तमान परिदृश्य के समर्थक, सहयोगी या हिस्सेदार कैसे बने रह सकते हैं। यह इन महत्त्वपूर्ण संस्थाओं का, जो जनता की निधि से ही संचालित हैं। ऐसा अविवेकी लेकिन सजग राजनैतिक रूपांतरण है, दुर्भाग्य से जिसका हिंदी साहित्य और कला की उत्कृष्ट परंपरा से किसी तरह का सरोकार नहीं। यह समूचे साहित्य और सर्जना के उस पर्यावरण को प्रदूषित और न्यून करने की कवायद है जो अन्यथा लोगों को विचारवान, गतिशील, जिज्ञासु और परिवर्तनमूलक बनाती है, उन्हें मनुष्यता के विराट फलक से परिचित कराती है और किसी समाज की सांस्कृतिक विरासत को नया करते हुए, अग्रगामी बनाती है। समूची मानवता के लिए वह दुर्लभ स्वप्न देखती है और वैसा अप्रतिम रचाव करती है जो सर्जनात्मकता के माध्यम से ही संभव है।
हम मानते हैं कि इन चुनौतीपूर्ण और साहित्य-कला की गरिमा को नष्ट करनेवाली परिस्थितियों के बीच उन सब लेखकों को प्रतिरोध की 'पोजीशन' लेनी चाहिए जो इन सार्वजनिक संस्थाओं के इस तरह के अवमूल्यन के प्रति जरा भी चिंतित हैं। हम जानते हैं कि इधर कुछ महत्त्वपूर्ण लेखकों ने अपनी तरह के तर्क प्रस्तुत करते हुए संदर्भित आयोजनों में भागीदारी की है। हमारी निगाह में उन्होंने इन पतनशील संस्थाओं को सुमान्य लेखकों की ओर से वह अवांछित, किंचित और तात्कालिक वैधता दी है जिसे वे अन्यथा अपनी सीमित गतिविधियों, दृष्टि, वैचारिकता और मेधा के कारण अर्जित करने में सक्षम नहीं हैं। इस भागीदारी से इन लेखकों ने प्रदेश के राजनैतिक-सांस्कृतिक कायांतरण में जाने-अनजाने ही अपना सहयोग, अपना तर्क और समर्थन दे दिया। साथ ही, एक दुविधापूर्ण और भ्रामक संदेश भी दिया, जिससे दूसरे लेखक भी प्रेरित हो सकते हैं। उनके उदाहरण की ओट में अपना औचित्य प्रतिपादित कर सकते हैं। एक कहावत का सहारा लेकर कहें तो: 'जब सोने में ही जंग लगने लगेगी तो फिर लोहा क्या करेगा।'
और अंत में हमारे तमाम उन सम्माननीय मित्रों के प्रति कुछ शब्द जो इन संस्थानों में पदों पर आते हैं अथवा नौकरी कर रहे हैं और सुसंयोगवश समकालीन कला-साहित्य संसार में जिनकी उपस्थिति का भी आदर है। हम जानते हैं कि उनका समय-समय पर बुलावा हमारे प्रति प्रेम, सद्भावना और कार्यक्रमों की स्तरीय साहित्यिक चिंता से भरा हो सकता है, किंतु क्या वे इस विराट और प्रत्यक्ष पराभव से निरपेक्ष रह सकते हैं। यदि वे स्वयं लेखक भी हैं तो उनसे अपेक्षा भी कुछ बढ़ जाती है क्योंकि यह दीर्घकालिक, गहरी सांस्कृतिक हानि है। इसके दूरगामी और बहुआयामी दुष्परिणाम हैं। किसी हस्तक्षेप के बजाय, वे इसका बेहद सतही, कामचलाऊ और तात्कालिक आयोजनधर्मी, व्यक्तिगत मैत्रीपूर्ण हल खोजते हैं। तमाम सदासयता और समझ के बावजूद यह विरूपताओं को ढंकने की हास्यास्पद कोशिश है। यहां याद कर सकते हैं कि पहले कुछ पदाधिकारी ऐसा दखल संभव करते रहे हैं कि विभिन्न पदों पर नामित या चयनित लोगों से संस्थाओं का भी स्तर बना रहे, उनका मान सुरक्षित रहे। तंत्र में उनकी सीमाएं और असमर्थताएं अपनी जगह हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश हम नहीं जानते कि इन संस्थाओं में पदस्थ हमारे वर्तमान मित्रों ने अपनी उपस्थिति का लाभ लेकर प्रतिरोध की दिशा में क्या पहल और दखल मुमकिन की है।
मध्य प्रदेश शासन की इन सांस्कृतिक नीतियों और कार्यकलापों के परिप्रेक्ष्य में, इस पूरे परिदृश्य के पतनशील राजनीतिक रूपांतरण को रोकने के लिए एक सामूहिक कोशिश जरूरी है। हम हमारे चेतनासंपन्न वरिष्ठ और युवा लेखकों से अपेक्षा करते हैं कि वे इस पूरे दृश्य पर विचार करें। यद्यपि हमारे अनेक लेखक-संस्कृतिकर्मी भोपाल और भोपाल से बाहर भी, इन परिस्थितियों और पराभव के प्रति सजग हैं और अपनी भूमिका का यथाशक्ति निर्वहन कर रहे हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि साहित्य-कला-संस्कृति में काम कर रहे सभी विवेकवान रचनाकार-कलाकर्मी एक सामूहिक प्रतिरोध की कार्यवाही के लिए न केवल सुझाव दें, बल्कि पहलकदमी भी करें।
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