मुझे याद आता है, जब कवि गोरख पांडेय ने 1989 में खुदखुशी की थी, तब आलोचक नामवर सिंह ने शोक जताते हुए उन्हें 'हिंदी का लोर्का' कहा था। लेकिन गोरख पांडेय के जीते-जी उनकी कविता के महत्त्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना नामवर सिंह ने जरूरी नहीं समझा (गोरख के मरने के बाद भी यह काम नहीं किया)। और, जहां तक याद पड़ता है, अपनी पत्रिका आलोचना में उन्होंने गोरख की कविताएं कभी नहीं छापीं। जिस हिंदी कवि की तुलना, उसके मरने के बाद, स्पेनी भाषा फासीवाद-विरोधी महान कवि फेदरिको गार्सिया लोर्का से की गई, उसके प्रति एक आलोचक का यह सलूक रहा।
कुछ-कुछ नजरिया कवि अदम गोंडवी के प्रति आलोचक मैनेजर पांडेय का भी दिखाई देता है। त्रैमासिक कल के लिए के अदम गोंडवी स्मृति अंक (दिसंबर 2011-जून 2012) में अदम गोंडवी पर लिखते हुए मैनेजर पांडेय ने उनकी तुलना उर्दू कवि नजीर अकबराबादी से की है। और उन्हें नजीर की परंपरा का बेहतरीन जनोन्मुख कवि बताया है। मैनेजर पांडेय फरमाते हैं: 'अदम गोंडवी की कविता आज की हिंदी कविता की दुनिया में एक अचरज की तरह है।' अफसोस, यह 'अचरज' अदम गोंडवी के मरने के बाद नजर में आया। 1980 से शुरू करके अगले करीब तीस साल तक अदम गोंडवी का कवि कर्म चलता रहा। लेकिन याद नहीं आता कि इसके पहले मैनेजर पांडेय ने हिंदी के इस 'नजीर अकबराबादी' व 'अचरज' पर कभी कुछ लिखा-कहा हो और उसके महत्त्व के बारे में बताया हो।
वैसे भी, आज की हिंदी कविता और कवियों को समझने-परखने का जो पैमाना मैनेजर पांडेय अपने लेख 'अदम की कविता' में बनाते हैं-जो रामविलास शर्मा-मार्का नियमावली वह तैयार करते हैं- अगर उसे हिंदी कविता पर लागू कर दिया जाए, तो नब्बे प्रतिशत कवियों को देश निकाला दे देना होगा। यह अलग बात है कि जब मैनेजर पांडेय को दक्षिणपंथी-प्रतिक्रियावादी कवि-लेखक अज्ञेय की जबर्दस्त तारीफ करनी होती है- उन्हें जब 'विशेष का सर्जक' (!) बताना होता है- तब उनका यह प्रबंधकीय पैमाना सो जाता है।
कल के लिए के अदम गोंडवी स्मृति अंक में इस महत्त्वपूर्ण कवि के बारे में लगभग 45 लेखकों, कवियों और आलोचकों के विचार, छोटे-बड़े लेख, टिप्पणियां, परिचर्चाएं व संस्मरण शामिल हैं। कई जाने-माने रचनाकारों ने अदम पर लिखा या विचार किया है, इनमें रविभूषण, राजेश जोशी, आलोकधन्वा, निदा फाजली, आशुतोष कुमार, शिवमूर्ति, विश्वनाथ त्रिपाठी, मदन कश्यप, गिरिराज किराडू, स्वप्निल श्रीवास्तव आदि शामिल हैं।
यह अंक अदम गोंडवी की कविता के महत्त्व और कला के जीवन व व्यक्तित्व की बनावट-बुनावट को समझने में एक हद तक मदद करता है। इसके लिए पत्रिका के संपादक जयनारायण को उनकी मेहनत के लिए बधाई दी जानी चाहिए। हालांकि यह भी सही है कि ज्यादातर लेखों का स्वर अनालोचनात्मक है और- वे अदम गोंडवी के गंभीर अंतर्विरोधों पर खामोश हैं।
इस अंक में आदियोग का लिखा संस्मरण 'बगावत की शायरी का फनकार' और श्याम अंकुश का लिखा संस्मरण 'अदम गोंडवी- एक स्मृति' खासतौर पर पढ़े जाने चाहिए। ये संस्मरण अदम गोंडवी को समझने के लिए जरूरी हैं। ये दोनों लेखक अदम गोंडवी के बहुत करीबी रहे हैं।
जयनारायण ने अपने संपादकीय के अंत में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की जिस तरह तारीफ की है और उनकी सलामी बजाई है (अदम गोंडवी की बीमारी के दौरान आर्थिक मदद देने के संदर्भ में), उसे चापलूसी और राजनीतिक अवसरवादिता के अलावा और कुछ नहीं कहा जाएगा। इसकी निंदा की जानी चाहिए। अतीत में मुलायम ने कल के लिए को आर्थिक मदद दी थी। शायद जयनारायण फिर उम्मीद लगाए हुए हों!
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