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Monday, April 27, 2015

पेशावर का महानायकः वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली दिनेश ध्यानी

पेशावर का महानायकः वीरचन्द्र

 सिंह गढ़वाली

दिनेश ध्यानी 

आज हम जिस आजादी में संास ले रहे हैं वह हमें ऐसे ही नही मिल गई थी इसके लाखों लोगों को अनेकों कुर्वानिंया दी यातनायें सही। लोगों ने सोचा था कि देश आजाद होगा हम आजाद होगें हमें अपना विकास और अपने तरीके से जीवन जीने के अवसर मिलेंगे लेकिन आजादी के बाद जिस तरह से देश का विभाजन हुआ वह भारतीय इतिहास में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा। देश के विभाजन को दंश आजादी के छः दशक बाद भी लोगों को चैन से नही रहने दे रहा है। आजादी के बाद जो अल्पसंख्यक पाकिस्तान में रह रहे हैं जिन्हौने तब देश की आजादी के लिए जंग लड़ी थी वे अपने ही देश में बंधुवा मजदूरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। जब-जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है उन लोगों का जीवन नरक हो जाता है। हाल ही के दिनों में मुम्बई बम धमाकों के बाद वहां रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को लूटा जा रहा है उनकी बहू बेटियां सुरक्षित नही हैं। उन्हें कहा जा रहा है कि या तो मजहब बदलो या देश बदलो। वे लोग किससे से पूछें कि हमारा क्या कसूर है? क्या यही हमारा दोष है कि हम अपने देश में ही रहे? दिल्ली में बैठकर बंटवारा करने वाले क्या जाने के बलूस्तिान व पेशावर में रह रहे हिन्दू किस हाल में हैं और इस बंटवारे के बाद उनपर क्या कहर बरपेगा। यही हाल हिन्दुस्तान में भी था। बंटवारे के बाद भी कुछ लोग थे जिन्हें अपना वतन प्यारा था और वे अपने ही देश में ही रह गये लेकिन समय के साथ-साथ उनके जीवन और अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है।कश्मीर समस्या हो या पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद हो ये कुछ ऐसे मसले हैं जो आजादी के बाद से हमेशा से हमारे लिए सरदर्द बने हुए हैं। लोगों ने कभी नही सोचा था कि आजादी के बाद हमें इस प्रकार की समस्याओं से दशकांे बाद तक दो-चार होना पडेगा। भारतीय स्वाधीनका संग्राम के स्वतत्रंता सेनानियों ने अपनी सर्वस्व को दंाव पर लगाकर यह आजादी दिलाई थी लेकिन आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने उन क्रान्तिकारियों को भी जलील करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। इसी प्रकार का दंश पेशावर की अमर क्रान्ति के जनक और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को भी आजीवन झेलना पड़ा। लेकिन हिमालय का यह बेटा आजीवन अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ता रहा लेकिन किसी के आगे झुका नही। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जिनका नाम आज देश से अधिक पेशावर और पाकिस्तान में बड़े सम्मान से लिया जाता है। लेकिन आजाद में उनके योगदान को काले शासकों ने अपनी राजनीति में बाधा समझकर हमेशा कम करके आंका और इस जांबाज सिपाही को कभी भी चैनी से नही रहने दिया। आज गढ़वाली जी इस संसार में नही हैं लेकिन आज भी उनके परिजन दर-दर की ठोकर खा रहे हैं किसी को उनकी सुध लेने की फुरसत नही है। उत्तराखण्ड में चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम से अनेकों सरकारी योजनायें चल रही हैं लेकिन गढ़वाली जी की अल्मोड़ा की पुस्तैनी जमीन के बदले कोटद्वार हल्ुदखत्ता में जो 60 बीघा जमीन लीज पर दी गई थी वह आज भी लीज पर है और कोटद्वार में होते हुए भी उसको परिसीमन में उत्तर प्रदेश में दिखाया गया है। उनके परिजनों की इस मांग को कि हमें इस जमीन के बदले में चाहे कम जमीन दे दो लेकिन हमें मालिकाना हक तो दो। इस बात पर किसी के कान पर जंू नही रेंगती है। अपने चेहतों को औने-पौंने दामों पर ऐकड़ों जमीन देने वाले राजनेता जानते हैं कि चन्द्रसिंह गढ़वाली के आज उनके लिए वोट बैंक नही हैं इसलिए उनके परिजनों की हालात को कौन समझे। गढ़वाली जी सहित कई वीर सैनिक हैं जिनके परिजनों को तथा जीवित स्वतत्रता सेनानियो ंको आज कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।लगभग 78 वर्ष पूर्व 23 अपै्रल 1930 को पेशावर में रायल गढवाल राइफल्स के वीर गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के आदेश का उलंघन करते हुए पेशावर में अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से मना कर दिया था। गढ़वाली सैनिकों की अचानक इस बगावत से अंग्रेज शासकों की पांवों तले की जमीन खिसक गई। अंग्रेजी हुकूमत का हुक्म न मानकर गढ़वाली सैनिकों ने सैकड़ों निहत्थे पठानों की जान बचाई ही देश की आजादी के लिए लड़ रहे लोगों को एक दिशा भी दी। पेशावर की यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसी घटना थी जिसके बारे में नेताजी सुभाषचन्द्र वोस ने कहा कि हमें आजाद हिन्द फौज सेना के गठन की प्रेरणा रायल गढ़वाल राईफल्स के जवानों की पेशावर की बगावत से मिला। अब देश को आजाद होने से कोई नही रोक सकता। तब महात्मा गांधी ने कहा था कि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली यदि मुझे पहले मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। यह अलग बात है कि देश के आजाद होन के बाद कहते हैं कि गांधी जी से जब पेशावर की बगावत तथा उसके बन्दियों के बारे में पूछा गया तो तब गांधी जी ने कहा था कि पेशावर में 23 अपै्रल 1930 को गढ़वाली सैनिकों ने सर्वोंच्च सत्ता के खिलाफ बगावत की थी और बगावत बगावत होती है इसलिए हम इस बगावत को मान्यता नही देते हैं। यही कारण रहा कि सन् 1947 में देश आजाद हो गया लेकिन पेशावर के बहादुर सैनिकों को सरकार की तरफ से कुछ भी सहयोग या सम्मान नही मिला। सन् 1974 में जाकर इन वीर सैनिकों को स्वतत्रता सेनानियों का दर्जा दिया गया व 65 रूपये पेंशन तय की गई। तब तक कई वीर सैनिक दिवंगत हो चुके थे। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को जो पेंशन दी गई उन्हौंने उसे लेने से मना कर दिया था। असल में पेशावर में गढ़वाली वीर सैनिकों ने जो बगावत की उसकी योजना एकदम नही बनी। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली 11 सितम्बर 1914 को घर से भागकर लैन्सडौंन में 2/18 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गये थे। अगस्त 1915 ई. में चन्द्र सिंह प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की ओर से लड़ने के लिए फ्रांस गये वहंा जब फ्रांसीसी हिन्दुस्तानी सैनिकों को मिलने लगे पुलिस द्वारा उन्हें रोक दिया। पूछने पर पता चला कि अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को बता दिया था कि हिन्दुस्तानी हमारे गुलाम हैं इसलिए तुम्हारे से ऐसा व्यवहार किया जा रहा है। अंग्रेज सेना में हिन्दुस्तानी सैनिकों को कम वेतन देते थे और अंग्रेज सैनिकों को उनसे पांच गुना वेतन देते थे। हिन्दुस्तानी सैनिकों को गुलाम समझते थे यही कारण था कि हिन्दुस्तानी ओहदेदार मामूली अंग्रेज सैनिकों को सल्यूट मारते थे। 1920 में गढ़वाल में अकाल पडा अंग्रेजों ने सेना में जो ओहदेदार थे उन्हें कहा कि यदि सेना में रहना है तो आम सिपाही बनकर रहो तथा पन्द्रह साल से कम नौकरी जिसकी भी थी सबकों सेना से निकाल दिया। इन सभी बातों का चन्द्र सिंह के मन पर काफी गहरा असर पड़ा और वे अंग्रेजों की सेना में रहते हुए देश की आजादी के लिए सोचने लगे। कहते हैं जहां चाह वहां राह चन्द्र सिंह सेना में जहां भी रहे वे देशकाल की घटनाओं से जुड़े रहे और समय-समय पर वे अखबार और लोगों के माध्यम से देश की आजादी के बारे में जानते सुनते रहे। इस बीच चन्द्र सिंह 1929 में गांधी जी के अल्मोड़ा आगमन पर उनसे भी मिले थे गांधी जी से चन्द्र सिंह ने एक टोपी मांगी और उसे पहनते हुए कहा कि मैं इस टोपी की कीमत चुकाकर रहंूगा। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, पं. गोविन्द बल्लभ पंत, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि नेताओं से मिले थे। 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में एक वहां कांग्रेस के बैनर तले एक जलसे का आयोजन किया गया था जिसमें देश की आजादी के लिए लोग अपने नेताओं को सुनने के लिए हजारों की संख्या मंें उपस्थित थे। अंग्रेज फौजी शासकों ने अपनी पूर्व नियोजित षड़यंत्र के आधार पर पहले पेशावर में तैनात गढ़वाली सैनिकों को भड़काया कि यहां पेशावर में 98 प्रतिशत मुसलमान हैं और मात्र 2 प्रतिशत हिन्दू हैं। हिन्दू चूंकि व्यापारी हैं इसलिए मुसलमान उनकी दुकानें लूट लेते हैं तथा हिन्दुओं पर अत्याचार करते हैं। राम-कृष्ण को गालियां देते हैं गौ हत्या करते हैं।हिन्दुओं की बहू बेटियों को उठा ले जाते हैं गढ़वाली पल्टन को शहर जाकर हिन्दुओं की रक्षा करनी होगी और जरूरी हुआ तो मुसलमानों पर गोलियां भी चलानी पड़ेंगी। अंग्रेज अफसर के चले जाने के पर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अपने साथियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कहा कि यह लड़ाई हिन्दू मुसलमान की नही है बल्कि यह अंग्रेजों और कांग्रेस की लड़ाई है। अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों के नाम पर पेशावर मंे दंगा कराना चाहते हैं। इसलिए चन्द्र सिंह ने अपनी कंम्पनी सहित तमाम गढ़वाली सैनिकों तक यह संन्देश पहुंचा दिया कि जब भी हमें पेशावर में निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने के लिए आदेश दिया जाये हम उसे न मानें। इसके लिए सैनिकों को तैयार करने में चन्द्र सिंह को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जिन अंग्रेजों के अधीन वे नौकरी कर रहे थे उनके आदेश को खुद भी न मानना तथा बटालियनों को इसके लिए संयुक्त रूप से तैयार करना कितना जोखिम भरा काम था। जरा सी चूक होने पर कोर्ट मार्शल की सजा या गोली भी मारी जा सकती थी लेकिन चन्द्र सिंह के अन्दर तो देश की आजादी का जो जुनून उफन रहा था उसके मूल में कई कारण थे।22 अप्रैल को गढ़वाली सैनिकों को आदेश मिला कि उन्हें कल 23 अप्रैल को पेशावर जाना होगा। चन्द्र सिंह ने तत्काल पॉंचों कम्पनियों के पॉंच प्रमुख व्यक्तियों को बुलाया और उनके साथ विचार-विमर्श से गोली न चालने की योजना पास हो गई।23 अप्रैल, 1930 की सुबह कप्तान रिकेट 72 सैनिकों को लेकर पेशावर में किस्साखानी बाजार पहॅंुच गये। किसी व्यक्ति द्वारा शिकायत किये जाने पर चन्द्रसिंह पर सन्देह हो जाने के कारण कप्तान रिकेट उन्हें शहर नही ले गये। चन्द्र सिंह ने दूसरे अधिकारी से पेशावर में पहुॅंची सेना के लिए पानी ले जाने के बहाने पेशावर जाने की इजाजत ले ली और पानी लेकर पेशावर के लिए रवाना हो गये। पेशावर पहुॅंकर चन्द्रसिंह ने देखा कि पेशावर में हजारों की संख्या में लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। कैप्टेन रिकेट उन्हें वहां से हटने के लिए कह रहा है लेकिन कोई भी अपनी जगह से टस से मस नही हुआ। रिकेट चिल्ला रहा था कि हट जाओं नही तो गोलियों से मारे जाओगे। जनता उसकी धमकियों से भड़क गई और अंग्रेजों के ऊपर बोतलें आदि फेंकने लगी। रिकेट ने गढ़वाली सिपाहियों को आदेश देते हुए कहा गढ़वाली थ्री राउंड़ फायर, यानि गढ़वाली सैनिकों तीन राउंड़ गोली चलाओं तो तभी चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा कि गढ़वाली सीज फायर यानि कि गढ़वाली सैनिकों फायर न करो। गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों अफसर के ऑर्डर को न मानते हुए अपने नेता चन्द्र सिंह गढ़वाली की बात को मानते हुए अपनी राइफलें नीचे रख दीं। चन्द्र सिंह ने कहा कि हम निहत्थे पठानों पर गोली नही चलायेंगे। हम देश की सेना में देश की रक्षा के लिए भर्ती हुए हैं न कि किसी निदोंर्ष की जान लेने के लिए। हम अपने पठान भाइयों पर किसी भी कीमत में गोली नही चलायेंगे चाहो तो हमें गोलियां से भून दो। तत्पश्चात गढ़वाली सैनिकों को छावनियों में लाया गया। 24 अप्रैल 1930 को पुनः इन सैनिकों को पेशावर में जाने के लिए कहा गया तो गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के हुक्म को मानने से मना कर दिया था। तब पेशावर में अंग्रेज सैनिकों को बुलाकर निहत्थे प्रदर्शनकारियेां पर गोलियां चलवाई गई। पेशावर की इस बगावत में 67 गढ़वाली सैनिकों पर मुकदमा चलाया गया और उनमें से कईयों को काला पानी की सजा व आजीवन कारावास हुआ। 12 जून 1930 को रात में चन्द्र सिंह को एकटाबाद जेल में भेज दिया गया। चन्द्रसिंह कई जेलों में यातनाएॅं सहते रहे। नैनी जेल में उनकी भंेट क्रान्तिकारी राजबन्दियों से हुई। लखनऊ जेल में उनकी मुलाकात सुभाष चन्द बोस से हुई। चन्द्रसिंह कहते थे कि जेल में जो बेड़ियां हाथ पांवों में लगी हैं वे मर्दों के जेवर होते हैं। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सबसे पहले कालापानी की सजा व कोड़ों की सजा हुई क्योंकि अंग्रेज मानते थे कि पेशावर की बगावत चन्द्र सिंह के ही कहने पर हुई थी। गढ़वाल के प्रसिद्ध वैरिस्टर मुकुन्दीलाल जिन्हौंने गढ़वाली सैनिकांे का केस लड़ा उनका कहना है कि कमांड़र-इन-चीफ स्वंय चाहते थे कि संसार को यह पता न लेगे कि भारतीय सेना अंग्रेजों के विरूद्ध हो गई है इसलिए उन्होंने मेरी ओर ध्यान न देकर चन्द्रसिंह की मौत की सजा को आजन्म कारावास की सजा में बदल दिया। 23 अप्रैल को सैनिक बगावत हुई लेकिन अंग्रेजों ने बगावत का केस दर्ज नही किया वे जानते थे कि यदि बगावत का केस दर्ज होगा तो देश में जो आन्दोलन चल रहा है उसमें यह आग में घी का काम करेगा। इसी आधार पर उन्हें बन्दी बनाया गया। लेकिन देश की जनता 23 अप्रैल 1930 की सैनिक बगावत के बारे में जान चुकी थी कई अखबारों में इस खबर को छापा। यह अलग बात है कि देश के इतिहास में पेशावर की बगावत को उतना महत्व नही दिया गया जिस प्रकार से यह कं्रान्ति हुई थी। पंड़ित जवाहर नेहरू ने अपनी एक पुस्तक मंे लिखा है कि पेशावर में गढ़वाली सैनिकों ने सैनिक बगावत इसलिए की थी कि वे जानते थे कि देश आजाद होने वाला है और उनके खिलाफ किसी प्रकार की कठोर कार्यवाही नही की जायेगी। इससे जाहिर होता है कि देश की लिए अपनी जान को दांव पर लगाने वाले वीर सैनिकांें की उस समय भी नेताओं की नजर में कोई कीमत नही थी। जो सैनिक अंग्रेजों के अधीर नौकारी कर रहे थे उनके खिलाफ सशस्त्र बगावत करना आम बात नही थी। अंग्रेज चाहते तो गढ़वाली सैनिकों को पेशावर में गोलियों से भून देते कोई उस समय पूछने वाला नही था। फिर गढ़वाली सैनिक जानते थे कि इस बगावत का अंजाम कुछ भी हो सकता था। लेकिन नेहरू जी की बातों से लगता है उस समय भी देश की आजादी को नेता राजनीति के चश्मे से देखने लगे थे। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सन् 1945 में जेल से रिहा कर दिया गया लेकिन उनके गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल में क्रान्तिकारी यशपाल से परिचय होने से जेल से बाहर आने के बाद गढ़वाली जी कुछ दिन लखनऊ में उनके साथ रहे। उसके बाद वे हल्द्वानी आ गये।1946 में चन्द्र सिंह ने रानीखेत में भंयकर अकाल से पीड़ित लोगों की मदद से सरकारी गल्ले के भण्डार को जनता में बांट दिया। इससे स्थानीय प्रशासन नाराज हुआ लेकिन गढ़वाली जी ने कहा कि एक तरफ हमारी जनता भूख से मर रही है और तुम हमारे हिस्से के अनाज को ब्लैक में बेच रहे हो। रानीखेत में अंग्रेजों की बटालियनें थी उनके लिए पानी का समुचित प्रबन्ध था लेकिन स्थानीय लोगों को काफी परेशानी होती थी गढ़वाली जी ने लोगों की पानी की समस्या का भी समाधान कराया। दिसम्बर 1946 को चन्द्र सिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया गढ़वाल की जनता ने उन्हें सर ऑंखों पर स्थान दिया और जगह-जगह उनका भव्य स्वागत हुआ। चूंकि गढ़वाली जी 1944 में पक्के कम्युनिस्ट बन गये थे इसलिए गढ़वाल के कांग्रेसी उनके स्वागत सत्कार को पचा नही पाये इसलिए उनका विरोध करना शुरू कर दिया।सन् 1948 में टिहरी में राजशाही के खिलाफ लड़ने वाले अमर वीर नागेन्द्र दत्त सकलानी के शहीद हो जाने के बाद वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जी ने टिहरी आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। सरकार को आशंका हो गई थी कि चन्द्रसिंह जिला बोर्ड के चेयरमैन का चुनाव लड़ना चाहते हैं इसलिए सरकार ने उन्हें पेशावर का सजायाफ्ता बताकर जेल में ड़ाल दिया। कुछ माह बाद जेल से छूटने के बाद गढ़वाली जी ने गढ़वाल में शराब के खिलाफ आन्दोलन भी किया इसमें कोटद्वार की इच्छागिरि मांई जिन्हंे लोग टिंचरी मांई के नाम से जानते थे उनका भी अहम योगदान रहा। और इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली।सन् 1947 में देश आजाद हो गया। नेहरू जी आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बन गये थे, चन्द्र सिंह गढ़वाली उनके पास पेशावर के सैनिकों की पेंशन के बारें में मिलने आये और उनसे पेशावार के स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन के बारे में कुछ करने का आग्रह किया तथा कहा कि पेशावर की क्रान्ति को राष्ट्रीय पर्व समझा जाये जीवित सैनिकों को पेंशन तथा मृत सैनिकों के परिजनों को आर्थिक सहयोग दिया जाय, तो नेहरू जी क्रोध में उबल पड़े और बोले कि मान्यवर तुम यह कैसे भूल जाते हो कि तुम बागी हो। पंड़ित मोतीलाल नेहरू ने अपने अन्तिम दिनों में जवाहर लाल नहेरू से कहा था कि गढ़वाली सैनिको को मत भूलना। जवाहर लाल नेहरू ने जो टिप्पणी गढ़वाली सैनिकों के लिए की थी उसका विरोध वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उनसे किया और उन्हंे बताया कि गढ़वाली सैनिकों ने वही काम किया जो उन्हें देश हित में अपना फर्ज दिखा इसके जो मतलब आप निकाल रहे हैं वह सरासर गलत और पेशावर की बगावत के महत्व को कम करना ही है।देश की अस्मिता और आजादी को नेताओं ने किस कदर अपनी कुंठा का शिकार बनाया इसका जीता जागता उदाहरण हमारे सामने आज कश्मीर है। आजादी के बाद जब देसी रियासतों का भारत में सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा विलय कराया जा रहा था लेकिन कश्मीर को नेहरू जी ने आसानी से भारत में मिलाने नही दिया और कश्मीर का मसला आज भी देश के लिए नासूर बना हुआ है। इस बात को आम हिन्दुस्तानी जानता है कि अगर अन्य रियासतों की तरह उस समय कश्मीर को भी भारत में मिलाने दिया जाता तो आज हजारों निरीह लोगों की जान न गंवानी पड़ती तथा देश के लिए हमेशा का यह सरदर्द नही होता। सन् 1951-52 में देश में नये संविधान के अनुसार चुनाव कराये गये। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने गढ़वाल से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा तो उन्हें पेशावर का बागी होने के दोष में आजाद भारत की सरकार ने बंदी बना दिया तथा महीनों तक जेलों में यातनायें दी। जिस आदमी ने देश की आजादी के लिए अपने सर्वस्व को दॉंव पर लगा दिया उसे देश की आजादी के बाद भी यातनायें दी गईं उनको कई बार बे-वजह गिरफ्तार करके जेल में ड़ाला गया। अपने मित्रों के सहयोग से गढ़वाली जी ने चुनाव लड़ा और बिना संसाधनों के 7714 वोट लिये जबकि विजयी प्रत्याशी को 10000 वोट मिले।पेशावर की सैनिक बगावत को देश की आजादी के बाद भी उतना महत्व नही दिया गया जिस तरह से इसे दिया जाना चाहिए था यही कारण रहा कि अपनी राजनीति चमकाने वाले समय-समय पर वीर चन्द्र सिंह जैसे देश भक्तों के लिए नारे तो लगाते रहे लेकिन देश की आजादी के बाद भी पेशावर के बागी सैनिकों को दोयम दर्जे की जिन्दगी गुजारनी पड़ी। जिन वीरों ने देश की आजादी के लिए एक लौ जलाई और देश की आजादी को एक नई दिशा दी उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया। चन्द्रसिंह गढ़वाली में ऐ सेनानायक के सभी गुण विद्यमान थे। उनका जीवन संर्घषमय रहा। उन्हौंने देश सेवा एंव समाज सेवा का कार्य बड़ी कर्तव्य-परायणता के साथ निभाया। गांधी जी ने उनके बारे मंे कहा कि अगर मुझे एक गढ़वाली और मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। चन्द्रसिंह गढ़वाली के पेशावर सैनिक विद्रोह ने हमें आजाद हिन्दे फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी। वहीं बैरिस्टर मुकुन्दीलाल जी के शब्दों में चन्द्रसिंह गढ़वाली एक महान पुरूष हैं। आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है। पेशावर कांड का नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज समझ गये कि भारतीय सेना में यह विचार गढ़वाली सिपाहियों ने ही पहले पहल पैदा किया कि विदेशियों के लिए अपने खिलाफ नही लड़ना चाहिए। यह बीज जो पेशावर में बोया गया था उसका परिणाम सन् 1942 में सिंगापुर में देशभक्त हजारो गढवाली नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने आ गये थे। प्रसिद्ध विचारक एवं महाने लेखक राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पेशावर का विद्रोह विद्रोहों की एक श्रृंखला को पैदा करता है जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक हैं।वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली आजीवन यायावर की भांति घूमते रहे। आजादी से पहले तो अंग्रेज शासकों ने उन्हें तरह-तरह की यातनायें दी लेकिन आजादी के बाद भी उनका कोई ठिकाना न रहा और वे समाज के कार्यों में सदा ही लगे रहे। देश के आजाद होने के बाद भी गढ़वाली जी कभी कोटद्वार कभी चौथान गढ़वाल में अनेकों योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए लड़ते रहे लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा उन्हें परेशान ही किया। असल में कांग्रेसी चाहते थे कि गढ़वाली जी काग्रेस में रहें लेकिन गढ़वाली जी पहले तो साधारण आर्यसमाजी थे लेकिन बाद में वे पक्के कम्युनिस्ट बन गये। और आजीवन कम्ुयनिस्ट पार्टी के कार्ड़ होल्डर ही रहे। गढ़वाली जी के सामाजिक जीवन का खामियाजा उनके परिवार को उठाना पड़ा। जब जेल में थे देश गुलाम थ तब उनकी पत्नी भागीरथी देवी बच्चों को लिये दर-दर की ठोकरें खाती रहीं और तो और इतने बड़े स्वतत्रता सेनानी की पत्नी को कई बार लोगों के जूठे वर्तन तक साफ करने पड़े और लोगों दया पर आश्रित रहना पड़ा। आजादी के बाद भी गढ़वाली जी दिन रात देश और समाज के बारे मे ंसोचते रहेत थे। उनका सपना था कि कोटद्वार गढ़वाल में जहां कण्वऋर्षि का आश्रम था और जहां महाराजा भरत का जन्म हुआ वहां भरत नगर बसाया जाय और उनके गांव चौथान के गवणी में तहसील बने तथा चन्द्रनगर जिसे आज गैरसैंण कहा जाता है वहां उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी बने। गढ़वाली जी रामनगर से चौथान, दूधातोली रेलमार्ग बनाने के लिए भी प्रयासरत रहे लेकिन सत्ता की राजनीति तथा उनका कम्ुयनिस्ट होना ही उनके लिए एक तरह से अभिषाप रहा। कल तक नेहरू सहित जो नेता उन्हें बड़ा भाई कहते थे वे आज उनकी तरफ देखना भी नही चाहते थे। आज भारत का यह वीर योद्धा किसी के लिए वोट बैंक नही बन सका। यही कारण रहा कि आजादी के बाद भी चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को दर-दर भटकना पड़ा। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म जिला पौड़ी गढ़वाल के चौथान पट्टी के रैणूसेरा गांव में 25 दिसम्बर 1891 में ठाकुर जाथल सिंह के घर हुआ। चन्द्रसिंह बचपन से शरारती तथा तेज स्वभाव के थे इसलिए लोग इन्हें भड़ कहकर पुकारते थे। चन्द्र सिंह ने गांव में ही दर्जा चार तक पढ़ाई की। चन्द्रसिंह गांव में सैनिकों को देखकर सेना में भर्ती होना चाहते थे लेकिन मां-बाप नही चाहते थे कि वे भर्ती हो इसलिए 3 सितम्बर सन् 1914 में घर से भागकर लैन्सड़ौन में सेना में भर्ती हो गये। 15 जून 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चन्द्रसिंह मित्र देशो की सेना के साथ फ्रांस के मोर्चे पर गये थे। 1917 को वे तुर्कों के खिलाफ सीरिया, रमादी तथा तथा बसरा के मोर्चों पर भी लड़ने के लिए गये। सन् 1920 में गढ़वाली जी की कम्पनी को वजीरिस्तान के बार्ड़र पर भी लड़ाई में भेजा गया। देश में तथा देश क बाहर गढ़वाली जी अनेकों बार अपने जौहर दिखा चुके थे। लेकिन इसबीच देश प्रेम का अंकुर भी अन्दर ही अन्दर पलता रहा जो 23 अपै्रल 1930 को पेशावर की सशस्त्र बगावत के रूप में सामने आया। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स से लगभग 13000 जवानों ने अपनी कुर्वानी दी, दो विक्टोरिया क्रास और बाद में फिर कहीं जाकर 1921 में इसे रॉयल गढ़वाल राइफल्स का खिताब मिला। पेशावर की बगावत के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली अपने सिद्धान्त के लिए हिमालय की तरह अटल थे। आजीवन उन्हौंने अपने सिद्धान्तों से समझौता नही किया। हिमालय का यह अटल सिद्धान्तवादी लौह पुरूष अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ते हुए 1 अक्टूबर 1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में मानव देह को त्यागकर परमधाम को चला गया लेकिन उनके विचार और सिद्धान्त हमेशा देश और समाज को आगे बढ़ने तथा गरीब और लाचार लोगोें की आवाज बनने की प्रेरणा देते रहेंगे।

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