हेडगेवार-गोलवलकर बनाम अम्बेडकर- 1
शोषित-उत्पीड़ित अवाम के महान सपूत बाबासाहब डा भीमराव अम्बेडकर की 125 जयन्ति मनाने की तैयारियां जगह-जगह शुरू हो चुकी हैं। वक्त़ बीतने के साथ उनका नाम और शोहरत बढ़ती जा रही है और ऐसे तमाम लोग एवं संगठन भी जिन्होंने उनके जीते जी उनके कामों का माखौल उड़ाया, उनसे दूरी बनाए रखी और उनके गुजरने के बाद भी उनके विचारों के प्रतिकूल काम करते रहे, अब उनकी बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने के लिए तथा दलित-शोषित अवाम के बीच नयी पैठ जमाने के लिए उनके मुरीद बनते दिख रहे हैं।
ऐसी ताकतों में सबसे आगे है हिन्दुत्व ब्रिगेड के संगठन, जो पूरी योजना के साथ अपने अनुशासित कहे जानेवाली कार्यकर्ताओं की टीम के साथ उतरे हैं और डा अम्बेडकर – जिन्होंने हिन्दू धर्म की आन्तरिक बर्बरताओं के खिलाफ वैचारिक संघर्ष एवं व्यापक जनान्दोलनों में पहल ली, जिन्होंने 1935 में येवला के सम्मेलन में ऐलान किया कि मैं भले ही हिन्दू पैदा हुआ, मगर हिन्दू के तौर पर मरूंगा नहीं और अपनी मौत के कुछ समय पहले बौद्ध धर्म का स्वीकार किया /1956/ और जो 'हिन्दू राज' के खतरे के प्रति अपने अनुयायियों को एवं अन्य जनता को बार बार आगाह करते रहे, उन्हें हिन्दू समाज सुधारक के रूप में गढ़ने में लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया जनाब मोहन भागवत ने पिछले दिनों कानपुर की एक सभा में यहां तक दावा किया कि वह 'संघ की विचारधारा में यकीन रखते थे' और हिन्दू धर्म को चाहते थे।
इन संगठनों की कोशिश यह भी है कि तमाम दलित जातियां – जिन्हें मनुवाद की व्यवस्था में तमाम मानवीय हकों से भी वंचित रखा गया – उन्हें यह कह कर अपने में मिला लिया जाए कि उनकी मौजूदा स्थितियों के लिए 'बाहरी आक्रमण' अर्थात इस्लाम जिम्मेदार है। दलितों के इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर पिछले दिनों संघ के स्वयंसेवक एवं भाजपा के प्रवक्ता डा विजय सोनकर शास्त्री द्वारा लिखी गयी तीन किताबों का विमोचन भी हुआ।
गौरतलब है कि मई 2014 के चुनावों में भाजपा को मिली 'ऐतिहासिक जीत' के बाद जितनी तेजी के साथ इस मोर्चे पर काम चल रहा है, उस पर बारीकी से नज़र रखने की जरूरत है। प्रस्तुत है दो पुस्तिकाओं का एक सेट: पहली पुस्तिका का शीर्षक है 'हेडगेवार-गोलवलकर बनाम अम्बेडकर' और दूसरी पुस्तिका का शीर्षक है ' हमारे लिए अम्बेडकर'। पहली पुस्तिका में जहां संघ परिवार तथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा डा अम्बेडकर को समाहित करने, दलित जातियों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने, भक्ति आन्दोलन के महान संत रविदास के हिन्दूकरण तथा अस्पश्यता की जड़े आदि मसलों पर चर्चा की गयी है। वहीं दूसरी पुस्तिका में दलित आन्दोलन के अवसरवाद, साम्प्रदायिकता की समस्या की भौतिक जड़ें आदि मसलों पर बात की गयी है। इस पुस्तिका के अन्तिम अध्याय 'डा. अम्बेडकर से नयी मुलाक़ात का वक्त़' में परिवर्तनकामी ताकतों के लिए डा. अम्बेडकर की विरासत के मायनों पर चर्चा की गयी है।
पुस्तिका में अस्पृश्यता के प्रश्न पर विचार करते हुए कई स्थानों पर 'अछूत' शब्द का प्रयोग आया है, जब डा. अंबेडकर की उपरोक्त शीर्षक से प्रकाशित रचना के इर्दगिर्द चर्चा हो रही है। हम इस बात से वाकिफ हैं कि 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में इस शब्द का प्रयोग वर्जित है, इसलिए यथासम्भव हमने उसे उद्धरण चिन्हों के बीच रखने की कोशिश की है।
1.
कौन से अम्बेडकर !
दिसम्बर 2014 के उत्तरार्द्ध में यह एक अलग किस्म का आयोजन था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अग्रणी नेता डाक्टर कृष्ण गोपाल, जो संघ के वरिष्ठता अनुक्रम में सुरेश ''भैयाजी'' जोशी के साथ दूसरे नम्बर पर हैं और संघ सुप्रीमो मोहन भागवत के बाद सरसंघचालक भी बन सकते हैं, उन्होंने 'इंडियन इन्स्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिस्टेशन' में अम्बेडकर स्मृति व्याख्यान में 'अम्बेडकर: बहुआयामी व्यक्तित्व और आख्यान' विषय पर बात की। सभा की अध्यक्षता केन्द्र में सत्तासीन भाजपा सरकार के सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने की।http://timesofindia.indiatimes.com/india/IIPA-invites-RSS-leader-Krishna-Gopal-to-speak-on-Ambedkar/articleshow/45682953.cms
संयोग कह सकते हैं कि आयोजन की अहमियत कई वजहों से बढ़ गयी थी।
कुछ माह पहले सम्पन्न चुनावों में पहली दफा संघ के किसी प्रचारक /पूर्णकालिक कार्यकर्ता/ ने भारत के प्रधानमंत्री के पद की कमान सम्भाली थी जिन्होंने चुनाव प्रचार में अपने आप को भी जातिगत उत्पीड़न का शिकार बताया था, और इसी वजह से सम्भवतः सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित जातियों के एक हिस्से ने प्रचारक के नेतृत्व पर मुहर लगा दी थी।
दूसरी अहम बात थी कि सूबा उत्तर प्रदेश – जहां अम्बेडकर के विचारों पर चलने वाली बहुजन समाज पार्टी, जिसका मजबूत आधार दलित तबकों में ही था, वह लोकसभा के इन बीते चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल सकी थी और वहां पर भी प्रचारक के नाम का जादू चल गया था।
तीसरी बात, स्थान को लेकर थी। 'इंडियन इन्स्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिस्टेशन' अर्थात आई आई पी ए नामक साठ साल पुराने इस संस्थान की नींव भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डाली थी, /1954/ जिसके पीछे उनका सरोकार था कि 'न्याय, नीति और समान व्यवहार के जमीनी नियमों के जरिए राज्य प्रशासन जनता को अपनी सेवाओं को प्रदान करे', तभी से संस्थान सार्वजनिक प्रशासन को जनसुलभ बनाने के लिए – रिसर्च से लेकर अधिकारियों के प्रशिक्षण – जैसी विभिन्न गतिविधियों के जरिए सक्रिय रहता आया है।
जाहिर है कि सभा में जुटे नीतिनिर्धारकों से लेकर अन्य प्रबुद्ध जनों में यह जानने में उत्सुकता थी कि अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन कहलाने वाले 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के कर्णधारों में शुमार एक व्यक्ति, डा अम्बेडकर के बारे मे क्या समझदारी रखता है ? बीसवीं सदी के भारत के इतिहास की इस महान शख्सियत के बारे में – जिसे दलितों-उत्पीड़ितों- शोषितों का 'मसीहा' कहा जाता है और आज़ादी मिलने के बाद जिसकी शोहरत बढ़ती ही जा रही है, क्या बात प्रस्तुत करता है ? उत्सुकता इस वजह से भी थी क्योंकि तथ्य यही बताते हैं कि अम्बेडकर के जीते जी हिन्दुत्ववादी संगठनों से उनके सम्बन्ध कभी सामान्य नहीं थे, यहां तक कि बंटवारे के उन दिनों में जब डा अम्बेडकर बार बार जनता को 'हिन्दू राज के खतरे के बारे में आगाह कर रहे थे', वहीं गोलवलकर-सावरकर एवं उनके अनुयायियों का लक्ष्य भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना था।
यह बात लोकस्मृतियों तक में भी दर्ज है कि कृष्ण गोपाल जिस हिन्दूवादी धारा से ताल्लुक रखते हैं, उसने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान निर्माण की प्रक्रिया जिन दिनों जोरों पर थी, तब डा अम्बेडकर के नेतृत्व में जारी इस प्रक्रिया का विरोध किया था, और अपने मुखपत्रों में मनुस्मति को ही आज़ाद भारत का संविधान बनाने की हिमायत की थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर गुरूजी से लेकर सावरकर, सभी उसी पर जोर दे रहे थे। अपने मुखपत्र 'आर्गेनायजर', (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि
'हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो 'मनुस्मृति' में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम -पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।''
इतना ही नहीं उन दिनों जब डा अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से हिन्दू स्त्रिायों को पहली दफा सम्पत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के अन्दर के रूढिवादी धड़े से लेकर हिन्दूवादी संगठनों ने उनकी मुखालिफत की थी, उसे हिन्दू संस्कति पर हमला बताते हुए उनके घर तक जुलूस निकाले गए थे। उन दिनों स्वामी करपात्री महाराज जैसे तमाम साधु सन्तों ने भी – जो मनु के विधान पर चलने के हिमायती थे – अंबेडकर का जबरदस्त विरोध किया था।
याद रहे इतिहास में पहली बार इस बिल के जरिए विधवा को और बेटी को बेटे के समान ही सम्पत्ति में अधिकार दिलाने, एक जालिम पति को तलाक देने का अधिकार पत्नी को दिलाने, दूसरी शादी करने से पति को रोकने, अलग अलग जातियों के पुरूष और स्त्री को हिन्दू कानून के अन्तर्गत विवाह करने और एक हिन्दू जोड़े के लिए दूसरी जाति में जनमे बच्चे को गोद लेने आदि बातें प्रस्तावित की गयी थीं। इस विरोध की अगुआई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की थी, जिसने इसी मुददे पर अकेले दिल्ली में 79 सभाओं-रैलियों का आयोजन किया था, जिसमें 'हिन्दू संस्कृति और परम्परा पर आघात करने के लिए' नेहरू और अम्बेडकर के पुतले जलाए गए थे।/ देखें, रामचन्द्र गुहा, द हिन्दू, 18 जुलाई 2004/
विदित हो कि यह वही अम्बेडकर थे जिन्होंने नवस्वाधीन भारत की संविधान समिति के प्रमुख के तौर पर संविधान को देश को सौंपते वक्त यह चेतावनी भी दी थी कि हम एक व्यक्ति एक वोट वाले दौर में राजनीतिक जनतंत्रा के युग में प्रवेश कर रहे हैं, मगर एक व्यक्ति एक मूल्य अर्थात सामाजिक जनतंत्रा कायम करने का संघर्ष अभी बचा ही हुआ है। निश्चित ही वह उन चुनौतियों से बावस्ता थे, जो उस रास्ते में खड़ी थी।
लाजिम था आई आई पी ए के सभागार में जुटे लोगों में यह जानने के लिए कुतूहल भी था कि संघ के सह सरकार्यवाह के तौर पर कार्यरत डा कृष्ण गोपाल अम्बेडकर के 'बहुआयामी व्यक्तित्व' के कौनसे पहलुओं पर अधिक गौर करेंगे, किन पहलुओं को अनुल्लेखित रखेंगे, क्या वह अम्बेडकर को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों के रूख को लेकर कोई आत्मालोचन प्रस्तुत करेंगे या इस पूरी प्रस्तुति में ऐसे तमाम मसलों पर सूचक मौन बनाए रखेंगे।
अपने व्याख्यान में जहां संघ के उपरोक्त वरिष्ठ नेता ने अम्बेडकर के तथा उनकी विरासत के 'उचित मूल्यांकन' के लिए उनके 'समग्र' अध्ययन पर जोर दिया, जो बात अपने आप में सही थी, मगर जब विवरण पर बात आयी, तो लगा कि हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा अब तक डा अम्बेडकर का जो मूल्यांकन पेश किया जाता रहा है, उसके अलावा उनकी बातों में नया कुछ नहीं है। कुल मिला कर, कोशिश यही दिख रही थी कि अम्बेडकर को एक हिन्दू समाज सुधारक के तौर पर पेश किया जाए जो समता के बरअक्स 'सामाजिक समरसता के फलसफे में यकीन' करता हो और 'मुसलमानों से नफरत' करता हो। सभी असुविधाजनक सवालों से बचते हुए एक साफसुथराकृत/ सैनिटाइज्ड अम्बेडकर गढ़ने की यही कवायद थी कि सभा की रिपोर्टिंग करने वहां पहुंचे पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख करना जरूरी समझा:
… संघ के इस नेता ने न अम्बेडकर की इस मांग पर गौर किया कि वर्णमानसिकता से लैस हिन्दू समाज की बहिष्करण की राजनीति से तंग आकर अम्बेडकर ने 1932 के दूसरे गोलमेज सम्मेलन में दलितों के लिए अलग मतदाता संघ की बात कही थी, जहां दलित अपने अगुआई में विकसित कर सके, जिस पर बर्तानवी सरकार ने मुहर भी लगायी थी, और मुख्य वक्ता इस बात पर मौन ही ओढ़े रहे कि हिन्दू धर्म को प्रश्नांकित करती उनकी अर्थात अम्बेडकर की किताबों के लिए उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला था।..
व्याख्यान के दौरान डा. कृष्ण गोपाल का कहना था कि भारत का संविधान भले ही मुल्क को 'धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक गणराज्य' बताता हो मगर उसके प्रमुख शिल्पकार डा अम्बेडकर का दावा था कि 'मुसलमान इस मुल्क को अपनी मातृभूमि कभी नहीं मान सकते।' उनके भाषण में यह भी कहा गया कि 'अम्बेडकर 'अस्पृश्यों' के अग्रणी रहे हों, मगर वह सबसे पहले एक राष्ट्रवादी थे, कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी थे और हिन्दू धर्म पर उनका प्रचण्ड विश्वास था। वह ब्राहमणवादी संरचना के खिलाफ थे, मगर उनके कई करीबी दोस्त ऊंची जातियों से थे और उनके जीवन के संघर्ष में उन्हें ब्राहमणों ने अहम मदद पहुंचायी। वर्ष 47-48 में हैदराबाद राज्य में उन दलितों के, जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया था, 'शुद्धिकरण' का वायदा उन्होंने किया। ' अपने भाषण के अन्त में उन्होंने यह भी जोड़ा कि अम्बेडकर एक 'देशभक्त थे और जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने विश्व नज़रिये और फलसफे/दर्शन में हिन्दू रहे'।
जाहिर था कि आन्तरिक समाज सुधार को लेकर हिन्दू वर्चस्वशाली जातियों के अड़ियल रूख को लेकर एक तरह से उद्धिग्न होकर डा अम्बेडकर ने येवला में जो ऐलान किया था ' मैं हिन्दू के तौर पर पैदा अवश्य हुआ था, मगर हिन्दू के तौर पर मरूंगा नहीं' /1935/ या अपनी मौत के कुछ वक्त़ पहले अपने लाखों अनुयायियों के साथ उन्होंने किया बौद्ध धर्म का स्वीकार /1956/ जैसी अहम घटनाओं पर बोलना भी डा. कृष्ण गोपाल ने गंवारा नहीं किया।
गौरतलब था कि व्याख्यान के दौरान डाक्टर कृष्ण गोपाल और श्री प्रकाश द्वारा संकलित एक किताब 'राष्ट्रपुरूष बाबासाहब डा भीमराव अम्बेडकर' /पेज संख्या 52/ का भी वितरण किया गया, जिसको 'सुरूचि प्रकाशन'/ दिसम्बर 2014/ द्वारा मुद्रित किया गया है। प्रस्तावना में अम्बेडकर के बारे में आकलन पेश किया गया है, जिसमें भारत में चली आ रही 'समाज सुधारकों की एक लम्बी श्रंखला' की बात करते हुए उसमें डा अम्बेडकर का जिक्र किया गया हैं, इसमें हिन्दुत्व के विचारों के पायोनियर कहे जा सकने वाले 'सावरकर, हेडगेवार' आदि को भी शामिल किया गया है और एक ही तीर से दो निशाने साधे गये हैं। एक, अम्बेडकर को 'हिन्दू समाज सुधारक' के तौर पर न्यूनीकृत करना और धर्म को ही राष्ट्र का आधार मानने वाले सावरकर, हेडगेवार जैसे हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों को समाज सुधारक के तौर पर प्रमोट करना।
अम्बेडकर के जीवन उददेश्य को उसमें यूं बयान किया गया है:
मेरा उददेश्य केवल यही है कि हिन्दू समाज में फैली हुई जातिवाद की इन कुरीतियों को दूर कर सारे हिन्दू समाज को समरस बनाने के लिए संघर्ष करता रहूं। वे अपने आप को हिन्दू समाज का सुधारक कहते थे। उनका कहना था कि हो सकता है आज मुझसे कुछ लोग नाराज हो गये हों, लेकिन आनेवाले समय में वे स्वयं इस बात का अनुभव करेंगे कि मैंने हिन्दू समाज के उद्धार के लिए कितना बड़ा कार्य किया है।
किताब के 'निवेदन' में यह उल्लेख किया गया है कि 'इस पुस्तक में उनके सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकात्मता से सम्बन्धित विचारों को ध्यान में रखने की कोशिश की है।' और एक तरह से अपने आप को उनके विचारों का वारिस बताने के लिए यह रेखांकित किया गया है कि किस तरह 'सेवा भारती के हजारों कार्यकर्ता देश भर में घूम-घूम कर इसी कार्य में लगे हैं।'
प्रस्तुत संकलन में डा. कृष्ण गोपाल संघ संस्थापक सदस्य हेडगेवार और अम्बेडकर के बीच की 'आपस की घनिष्ठता' और 'हिन्दू समाज की अवस्था को लेकर दोनों के दुःखी' /पेज 32/ होने का भी जिक्र करते हैं।
सोचने की बात यह है कि इस कथन में कितनी सच्चाई है ?
गौरतलब है कि आप हेडगेवार के आधिकारिक कहे जानेवाले चरित्रा 'केशव: संघ निर्माता' /लेखक चं प भिशीकर, सुरूचि प्रकाशन, 2014/ को पलटें या संघ के अन्य कार्यकर्ताओं/हमदर्दों द्वारा लिखे चरित्रों को देखें या मराठी भाषा में ना ह पालकर द्वारा रचित 'डा हेडगेवार' नाम से उनके चरित्र की पड़ताल करें तो आप दोनों में ऐसी किसी घनिष्ठता या मित्राता का जिक्र तक नहीं देखते हैं।
अगर वाकई दोनों में 'घनिष्ठता' होती तो फिर उस कालखण्ड में जबकि संघ की नींव डाली जा रही थी /1925/ और डा अम्बेडकर अपनी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियताओं में एक नया मुक़ाम कायम कर रहे थे, तब हम ऐसे कई मौकों से रूबरू होते जब दोनों साथ होते या 'हिंदू राष्ट्र बनाने के मकसद से प्रेरित हेडगेवार के अनुयायी संघ की शाखाओं से निकल कर अंबेडकर द्वारा शुरू किए आन्दोलनों, मुहिमों के साथ जुडते।
याद है यही वह दौर था जब डा अंबेडकर की अगुआई में महाड के ऐतिहासिक सत्याग्रह के जरिए – चवदार तालाब पर हजारों की तादाद में पहुंच कर लोगों ने पानी पिया था, /19 मार्च 1927/जहां जानवरों के पानी पीने की मनाही नहीं थी, मगर दलितों के लिए दरवाजे बन्द थे या मनुस्मति के दहन/25 दिसम्बर 1927/ – आयोजन हुआ था। अम्बेडकर के करीबी सहयोगियों की पहल पर नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए मार्च 1930 में शुरू हुआ सत्याग्रह 5 साल 11 महिने और सात दिन तक चलता रहा, जब पुलिस प्रशासन की ज्यादतियां या मंदिर के मालिकानों की दहशतगर्दी का मुकाबला करके सत्याग्रह जारी रखा गया था। तत्कालीन मुंबई सूबे के विभिन्न तबकों में जबरदस्त सरगर्मी पैदा करने वाले इन ऐतिहासिक सत्याग्रहों का उल्लेख तक उनके अनुयायियों द्वारा लिखी हेडगेवार की जीवनियों में नहीं मिलता है। तीस के दशक के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन मुंबई प्रांत में जारी खोत प्रथा, एक किस्म की जमींदारी प्रथा, के खिलाफ डा अम्बेडकर की अगुआईवाली 'इंडिपेंडट लेबर पार्टी' तथा कम्युनिस्ट पार्टी की साझा पहल पर मुंबई विधानमंडल पर निकाले गए जुलूस जैसी चर्चित मुहिमों में भी यही स्थिति दिखती है। न उनमें हेडगेवार नज़र आते हैं और न ही उनके अनुयायियों की उपस्थिति कहीं दिखती है।
सुभाष गाताडे
….. जारी…..
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