कृष्णा सोबती
लोकतंत्र के चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों की ललकार और प्रपंच किस तरह प्रचंड हथकंडों पर उतरकर एक-दूसरे पर पलटवार कर आक्रामक वाचक सक्रियता से अपने को शाबाशी, मुबारकबाद देने में अपनी ही छाती पीटते हैं- यह नागरिक समाज के मतदाताओं को खूब मालूम है।
हमारे विशाल राष्ट्र का संविधान एक है, हमारे राष्ट्र का कानून एक है, हमारी क्षेत्रीय विभिन्नताओं के बावजूद हमारे राष्ट्र का जनमानस एक है। प्रादेशिक विभिन्नताओं के चलते भी नागरिक समाज के जन-मन का अंतरजगत एक है- भारतीय। भारतीयों की संवैधानिक आकांक्षाएं-महत्त्वाकांक्षाएं लगभग एक दिशा की ओर उन्मुख हैं। वह आने वाली पीढ़ियों के कल्याणकारी भविष्य की ओर देखती है। इसकी यह वैचारिक बुनत संविधान द्वारा पुख्ता करने को बनाई गई थी जो देश के लोकतांत्रिक मूल्यों में प्रतिबिंबित होती है।
तंत्र जनता-जनार्दन के कल्याण के लिए नागरिक हितों में विकासशील योजनाओं का संचार, संवार करता है।
संप्रभुतापूर्ण राष्ट्र में नागरिक परिवारों की मेहनत, परिश्रम न उन्हें मात्र स्वावलंबी बनाता है- राष्ट्र के अपार संपत्ति भंडार भी भरता है। उसके चलते ही सत्ता तंत्र उसे अक्षुण्ण बनाने की भरसक चेष्टाएं करता है। लोकतांत्रिक भारत का नागरिक होने के नाते विशाल देश का कोई भी नागरिक अपने होने में न मात्र हिंदू है, न मुसलमान, न क्रिस्तान, न सिख, न पारसी और यहूदी। इन सबमें अपने-अपने धर्मों, विश्वासों का गहरा निवास होते हुए भी इनकी नागरिक पहचान में, संज्ञा में लोकतांत्रिक मूल्य, कर्त्तव्य और अधिकार जुड़ते हैं। लोकतांत्रिक मूल्य और सिद्धांत भी। लोकतंत्र में जितनी राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, उतनी ही उसके अनुशासनीय पालन की भी।
कोई भी समूह या राजनीतिक दल मनमाने ढंग से अपने कार्यक्रमों को सुनिश्चित कर जबरदस्ती दूसरों पर थोपना चाहे, अनुसरण करवाना चाहे तो वह राष्ट्रीय एकत्व में दरारें पैदा करेगा। अपने देश के इतिहास में गुजरी पिछली शताब्दी का अवलोकन करें तो विभिन्न सांस्कृतिक साक्षात्कारों, संसर्गों ने भारतीय जीवन-शैली और विचार की असंख्य धाराएं और वेग दिए हैं।
भारतीय चेतना ने विश्व परिवार और विश्व बंधुत्व के लोकोत्तर और वैचारिक भाव दिए हैं। विश्व बंधुत्व की कड़ी ने पुराने समयों से भारतीयता को अनोखा व्यक्तित्व प्रदान किया है। कोई भी राजनीतिक दल भारतीय नागरिक समाज की मानसिक जलवायु को तानाशाही ढंग से नियंत्रित नहीं कर सकता। हमारा बौद्धिक दायित्व है कि विभिन्न
जातियों और तथाकथित धार्मिक पंथों का हम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण न होने दें। इस राजनीतिक संस्कृति के अलावा भारत की अलिखित संस्कृति की लंबी कड़ी अभी भी हमसे जुड़ी है। राष्ट्रीयता और भारत की भावनात्मक एकात्मा एक-दूसरे से गहरे तक जुड़ी-बंधी है। उसे किसी भी कीमत पर झनझनाना, उससे टकराना खतरों से खाली नहीं। कोई भी कट्टरपंथी, ऊपर से उदार दिखने वाली राजनीति हमें उस तानाशाही की ओर धकेल सकती है जहां से बिना बरबादी के लौटना मुश्किल होगा।
आज विश्व भर के मानवीय परिवार अपने पुराने रहन-सहन, मूल्यों के पुराने संस्कारी ढांचे के बदलावों में से गुजर रहे हैं। विज्ञान द्वारा दी गई तमाम सुविधाओं के चलते पुरानी जीवन-शैली बदल रही है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप नए-पुराने के मिश्रण से, इसकी गतिशील रफ्तार से बाजार की व्यापार व्यवस्था का विस्तार कर रहे हैं।
ऐसे में हमारे लोकतंत्र में पनपे सामाजिक पर्यावरण को हम किस प्रदूषण से ग्रस्त कर रहे हैं। किन नीतियों की ढिलाई के परिणामस्वरूप हमने अचानक सांप्रदायिकता और पुराने जातिवाद का पलड़ा भारी किया है। अपने-अपने शक्ति गलियारों को अपराधीकरण से लैस कर एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति के मठ बनाए हैं जो लोकतांत्रिक मूल्यों से अलग और आगे अपने-अपने जाति समूह, कुल-गोत्र के संकीर्ण स्वार्थों में अपने महाबली होने के दंभ को डंके की चोट पर बजाते, भुनाते हैं और अपने गुप्त खजानों को भरते हैं।
क्या हमारे लोकतांत्रिक स्थापत्य में राजनैतिक संस्कृति की यही परिभाषा है। क्या हिंसक बिचौलिए ही उनकी सुरक्षा को तैनात रहेंगे। हकीकत यह है कि इन सीमाओं के बाहर भी एक बड़ा नागरिक समाज मौजूद है जो लोकतंत्र के कल्याणकारी नीति-नियमों से जीवन में समृद्धि लाना चाहता है। वह धार्मिक उन्माद में नहीं जीता। वह भारत देश के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक गुथीले धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने का आख्यान जानता है। उसकी पीढ़ियों ने इस विरासत को जिया है।
यह सत्य किसी विचारधारा से आरोपित नहीं, राष्ट्र के नागरिक समाज के यथार्थ से जुड़ा है। लोकतंत्र में अगर हम किसी भी राजनैतिक दल के सत्ता शासन से आतंकित हैं तो उन्हें बदलने का अधिकार हमें है। लोकतंत्र की मर्यादा मतदान में सुरक्षित है और 'लोक' के कल्याण की न्यायपालिका में।
No comments:
Post a Comment