लोक की जड़ें जहां मजबूत नहीं,ऐसा साहित्य न कालजयी बन सकता है और न वैश्विक
कूपमंडुक आलोचक ही शैलेश मटियानी,रेणु और शानी को आंचलिक बताते हैं तो हार्डी,ताराशंकर,शोलोखोव,गोर्की,कामू या मार्क्वेज आंचलिक क्यों नहीं?
'मटियानी' जी की जयंती 14 अक्टूबर को सभी साहित्यप्रेमी अपने-अपने क्षेत्र में परिचर्चा आयोजित करें ...राकेस मटियनी की इच्छा
पलाश विश्वास
सबसे पहले साफ कर दिया जाये कि हम भाषाओं की दीवारें ढहा देने में यकीन करते हैं और विधाओं के व्याकरण सौंदर्यशास्त्र को नहीं मानते।
तो बोलियों को आंचलिक मानने का सवाल ही कहां उठता है?
जनपदों का साहित्य आंचलिक और दिल्ली मुंबई कोलकाता महानगर केंद्रित साहित्य कालातीत वैस्विक ,ऐसा साबित करने वाले लोग हिंदी का कितना सर्वनास कर चुके हैं,उसका मूल्यांकन बेहद जरुरी है।
कबीर दास समेत सूफी संतों ने बोलियों में ही रचनाकर्म किया तो क्या वह हिंदी साहित्य की मुख्यधारा नहीं है?
क्या कबीरदास आंचलिक हैं?
क्या विद्यापति आंचलिक हैं?
क्या जायसी आंचलिक हैं?
क्या हमारे परममित्र गोरख पांडेय आंचलिक है?
क्या लोक से कटे अत्याधुनिक विमर्श के जनपदविरोधी जनविरोधी सांढ़ संस्कृति के धारक वाहक ही हिंदी के झंडेवरदार बने रहेंगे और मठों से माफियाकर्म के जरिये जनपदों और बोलियों को खारिज करते रहेंगे-इन सवालों का जवाब खोजे बिना मान लीजिये कि आपका हिंदी प्रेम हिंदी अधिकारी गोत्र की रजनीति और सरकारी पैसे पर ऐय्याशी की सबसे बढ़िया जुगत के अलावा कुछ भी नहीं है और ऐसे मानस वालों को भाषा और साहित्य से बेदखल करना ही हमारा फौरी कार्यक्रम है।उनके लिए घृणा एककमजोर शब्द है।
जिस कालजयी कथा की वजह से किसो को आत्महत्या करने को मजबूर हो जाना पड़े,उसके रचनाकार को चाहे नोबेल पुरस्कार मिले ,हमारी नजर से वह बेहद टुच्चा है और मनुष्य तो किसी भी मायने में नहीं है।
विचारधारा और पार्टीबद्धता की आड़ में सौदेबाजी की राजनीति के तहत तमाम विश्वविद्यालय,नियुक्तियों और अकादमियों के जरिये जिन महामहिमों ने अपनी पीठ ज्ञान की दिशा में बनायी हो,उनका भंडाफोड़ भी जरुरी है।
ऐसे लोगों की वजह से ही प्रेमचंद,मुक्तिबोद से लेकर शैलेश मटियानी तक को आजीवन पापड़ बेलने पड़े और उन्हें उस प्रतिष्ठा से वंचित किया जाता रहा जिसके वे हकदार थे।
पहले इलाहाबाद से भाई संतोष मिश्र का यह संदेश मिलाः
शैलेश मटियानी के बेटे राकेश मटियानी लगभग एक महीने से महाविद्यालय में रोज़ साथ होते हैं...और कभी-कभी 'हिंदुस्तान' के जहाँगीर राजू जी भी ...
उनकी हार्दिक इच्छा है कि 'मटियानी' जी की जयंती 14 अक्टूबर को सभी साहित्यप्रेमी अपने-अपने क्षेत्र में परिचर्चा आयोजित करें ...
आप चाहे तो बतिया सकते हैं..राकेश -9336664773
— with Deven Mewari and 43 others.
हालांकि परिचर्चाओं से कुछ हासिल होता नहीं है क्योंकि उसमें अक्सर विद्वतजनों की आत्ममुग्ध टोलियां बिना किसी मकसद अपनी अपनी विद्वता की जुगाली करती हैं ।
न हम ऐसी कोई परिचर्चा का आयोजन करते हैं और न उसमें शामिल होते हैं।लेकिन शैलेश जी के साथ संक्षिप्त इलाहाबादी अंतरंगता,उनके साहित्य,उनके संघर्ष और लोक जमीन की सोंधी महक और सरोकार से सराबोर उनके जीवन के अब तक न हुए मूल्यांकन के लिए शायद ऐसी परिचर्चा जरुरी भी है।
फिर राकेश का फोन आया।
मैं 1979 में एमए पाल करने के बाद नैनीताल से सीधे इलाहाबाद कर्नल गंज में उनके घर धमका था।तब राकेश इतने छोटे थे कि न मुझे उनकी याद है और न वे मुझे पहचान सकते हैं।
राकेश ने कहा कि उन्हें शैलेश जी पर मेरा लेख चाहिए रेणु के संदर्भ में।
इस पर मैंने सीधे कहा कि में इसे रेणु और शैलेशजी दोनों का अपमान मानता हूं।
आंचलिक कहकर दरअसल रेणु,शैलेश जी और शानी को महानगरीय साहित्य माफिया ने ऐसे गैस चैंबर में बंद कर रखा है,जहां बाकी दुनिया की हवा पानी लगती नहीं है।
लोक समृद्ध साहित्य तो असली जनसाहित्य है और उसी का वैश्विक शास्त्रीय मूल्य है,हिंदी के कूपमंडुक लोग यह भी नहीं जानते।
बांग्ला के तारासंकर को किसी ने कभी आंचलिक ठहराने की जुर्रत नहीं की जबकि उनका साहित्य राढ़ बांग्ला की माटी की महक में रसा बसा है।
बांग्लादेश का हर साहित्यकार जनपदों की भाषा में लिखता है,जनपजों की कथा लिखता है और उन्हें कोई आंचलिक साहित्यकार नहीं कहता।
शोलोखोव का रचनासंसार दोन नदी को केंद्रित है तो अंग्रेजी के मूर्धन्य उपन्यासकार ठामस हार्डी ने वेसेक्स जनपद को ही कथा भूमि बनाया है।
जिस जादू यथार्थवाद की बात की जाती है या जिस अस्तित्ववाद या स्ट्रीम आफ कंससनेस की खूब चर्चा होती है,जिस यूरोपीय नवजागरण से जनता का साहित्य का आरंभ है,वहा भी मूल में लोक है।
अपने यहां रवींद्र नात टैगोर को जो नोबेल मिला उसमें भी लालन फकीर का लोक आध्यात्म है।
लेकिन हमारी हिंदी के दिग्गज अरबन साहित्यकार और आलोचक लोक को साहित्य का संपद नहीं मानते क्योंकि वे लोक से कटे हैं।
हिंदी जैसी बोलियों के अकूत लोक भंडार दुनिया में किसी भाषा में है या नहीं ,इस पर शोध संभव है।हम उस संपदा को खारिज ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उसके सफाये परआमादा हैं और महानगरीय मुक्तबाजार में ध्वस्त कृषि की तरह अपनी लोक विरासत को यूज किया कंडोम की तरह उतार फेंक रहे हैं।
हमसे बड़ा हिंदी का शत्रु तो अंग्रेजी भी नहीं है।
अपनी बोलियों को खारिज करके हिंदी किसी जनम में धूसरी भारतीय भाषाओं के सात शत्रुता और अंग्रेजीपरस्ती के कारोबार में राष्ट्रभाषा बनेगी ,इसमें शक है लेकिन वह जनभाषा भी बनी रहेगी या नहीं,इसमें घनघोर शक है।
जबकि बांग्ला में लोक आधारित साहित्य ही श्रेष्ठ साहित्य माना जाता रहा है।
बांग्लादेश में अब भी जनपदों का साहित्य लिखा जाता है जनपदों की भाषा में।
कोलकाता में सांढ़ सस्कृति भयावह है तो देहगाथा ही कथावस्तु है और लोक और जनपद गायब है।हिंदी की दशा दिशा भी वही है।
हिंदी के महान साहित्यकार मठाधीश संपादकों ने शहरी भद्र वर्चस्व के तहत अस्मिता विभाजन की सत्ता राजनीति के तहत दशकों से हिंदी और हिंदी साहित्य का बेड़ा गर्क किया है।
अब हिंदी में किसी कबीर दासकी कोई संभवना नहीं है।
जयदेव हिंदी में लिखते तो उन्हें भदेस मान लिया जाता।
शैलेश मटियानी,रणु और शानी जैसे समर्थ रचनाकार को आंचलिक फतवा देकर उनको सीमाबद्ध करके हाशिये पर डालने से न सिर्फ वे बल्कि हिंदी की समूची लोक विरासत और जनपदीय लेखन के बारह बज गये।
इस सिलसिले में फिलहाल इतना ही कहना है।बाकी जब जैसा मौका आयेगा कहा लिखा जायेगा।
अगर शैलेश मटियानी की वैश्विक दृष्टि और लोकसमृद्ध उनकी रचनाधर्मिता पर बहस हो सकती है तभी परिचर्चा का औचित्य है अन्यथा नहीं।
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