बवासीर को तो फूटना ही था।अब चांदसी इलाज से काम नहीं चलेगा आपरेशन जरुरी है
देश को बचाना है तो हिंदी समाज का नवजागरण जरुरी है
इस नवजागरण के लिए,अस्मिताओं की दीवारें ढहाने के लिए आइये सबसे पहले भारतीय भाषाओं के झगड़े निपटायें
पलाश विश्वास
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बवासीर को तो फूटना ही था।अब चांदसी इलाज से काम नहीं चलेगा आपरेशन जरुरी है।
देश को बचाना है तो हिंदी समाज का नवजागरण जरुरी है।
इस नवजागरण के लिए,अस्मिताओं की दीवारें ढहाने के लिए आइये सबसे पहले भारतीय भाषाओं के झगड़े निपटायें।
लाल धागा नीला धागा।
इस बायोमेट्रिक डिजिटल अमेरिकी उपनिवेश के सामंती परिवेश में तिलस्मी अस्मिताओं के चक्रब्यूह में फंसे लाल धागे नीले धागे निकलते रहने का अहसास क्या है,देहात और जनपदो से कटे लोक मुहावरों से अनजान लोगों को समझाना बेहद मुश्किल है।
जिनके निकलते हैं,वे भी इलाज के बजाय टोटका करवाते करवाते आखिरकार कैंसर में मारे जाते हैं।
कुल मिलाकर किस्सा तोता मैना बैलगाड़ी और बुलेट ट्रेन मंगलयान का मुकाबला है।आजका अल्हा उदल भी वही है।
हर लोकथा का सार भी वही है।
उस जमीन पर हमारे पांव हैं नहीं।
दिलोदिमाग में रक्त मांस है ही नहीं,न खून पसीने का अता पता है।
क्लाउड साफ्टवेयर और स्मार्ट ऐप्प्स के जरिये हम सारे लोग अनबने स्मार्ट सिटियों के दूर नियंत्रित नागरिक हैं और कीचड़ से लथपथ जमीनी उबड़ खाबड़ पथरीली पगडंडी जैसे उतारु चढाऊ समस्याओं और मुद्दों से हमारा अब कोई वास्ता है ही नहीं है।
मोबाइल काम नहीं कर रहा था।दुकान पर गया।
एक नौंवीं में पढ़ने वाली बच्ची ने कह दिया कि फेंक दीजिये।
मैंने पूछा कि उसके बाद क्या।
बच्ची ने कहा स्नैप डील फ्लिपकर्ट से सस्ते में इंटेक्स टु ले लीजिये या फिर गुगल एंड्रोय़ड वन।
सारा सामान घर पहुंच रहा है।
आर्डर दीजिये,माल डेलीवरी होने पर भुगतान करिये।कोई लफड़ा है ही नहीं।सारे गेजेट विजेट मोबाइल स्मार्टफोन साड़ी वाड़ी सारे उपभोक्ता सामान ईटेलिंग से उपलब्ध हैं।अब किराना भी मोबाइल जरिये मिलेगा कैश ट्रेंजेक्शन भी मोबाइल से।
अब तक किसानों की खुदकशी पर हम कायदे से बात भी नहीं कर पाये हैं,बिजनेस में इबोला फूटने वाला है और त्योहारी कारोबार में मशगुल खुदरा बाजार में आती हुई मौत की कोई दस्तक किसी को सुनायी ही नहीं पड़ रही है।
अमाजेन आ गया गया है।वालमार्ट छा रहा है।धर्मावतार अलीबाबा के साथ लौटेंगे।
हीरक चतुर्भुज का निर्माण इसीतरह होना है।
अच्छे दिन इसी तरह आयेंगे कि हमारा वजूद तो आधार में दर्ज होगा बाकी हम निराधार होंगे।त्रिशंकु कोई मिथक नहीं,अब समसामयिक समाजवास्तव है।जिससे सत्यमेव कहते हुए हम आँखें चुरा रहे हैं।
यह तो परिवेश है।मुखबंद है।
असली रोजनामचा हिंदी समाज और हिंदी के मुद्दे को लेकर है।
सीसैट तूफान वोटबैंक समीकरण की शाही लव जिहाद इंजीनियरिंग में गुम है मेतो शायद मौका भी है।
जादवपुर में छात्र युवाओं की जो गोलबंदी है,आप के छलावा के बाद यह उम्मीद की नई किरण भी है।सौ देशों में एकमुश्त प्रतिवाद ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु संकट के एनजीओ जमावड़ा से कहीं ज्यादा सकारात्मक है।
सत्ता की राजनीति में फिर बेदखल न हो युवा पीढ़ी,वर्गीय ध्रूवीकरण का रास्ता फिर राजनीतिक चौराहे के अंधेरे में भटक न जाये,इसके लिए हम सबकी जनपक्षधर सक्रियता जरुरी है,जिससे हम बार बार कन्नी काटते रहे हैं।
अब हिंदी समाज को लीजिये।
हमारा अब भी मानना है कि हिंदी में कबीरदास एक अपवाद है ।बाकी जनजागरण हुआ नहीं है। वह त्रिशंकु की तरह अधर में लटक रहा है।
उसे फौरन जमीन पर पटककर हिंदुत्व पुनरूथान के मुकाबले मोर्चाबंद कर सकें शायद हम मुक्तबाजारी तामझाम टोटका ज्योतिष शेयर बाजार सांढ़ संस्कृति कर्मकांड यज्ञ महायज्ञ योगाभ्यास के लव जिहाद से मुक्त होकर सही मायने में मुक्ति कामी जनता का हीरावल दस्ता बना सकते हैं हिंदी समाज को।
हमारा साफ मानना है कि सारी गड़बड़ी जो गायपट्टी और गोबर प्रदेशों से शुरु हुई है,तो इलाज वहां के वनस्पतियों में ही खोजना होगा।
वे वनस्पति हमारे सफाये अभियान से सिरे से गायब हैं,उन्हें नये सिरे से रोपना होगा।सींचना होगा।उनमें औषधिगुण विकसित करना होगा और तब जाकर देश को संजीवनी दी जा सकती है वरना इस मृत्यु उपत्यका में जीवन का कोई अवशेष है ही नहीं।
वाम आंदोलन की त्रासदी है कि हिंदी पट्टी के आधार को खत्म करके पार्टी और आंदोलन को क्षेत्रीय अस्मिताओं का बंधुआ बना दिया गया है।
बंगाल में जो हो रहा है ,केरल और त्रिपुरा में जो हो रहा है,उसके लिए और बाकी भारत में भी जो हो रहा है,उसके लिए वाम विश्वासघात का अपराध असल में किसी युद्ध अपराध से कम नहीं है।
गो पट्टी और गोबर प्रदेशों को बाकी देश से अलग करके अजेय दुर्ग जो तास के महलों के मानिंद बना दिये गये,वह हरहराकर अप्राकृतिक मुक्ताबाजारी पीपीपी आपदा में बह निकले हैं और मुट्ठी में बंद सारे तोते उड़ गये हैं।
लाल धागा का किस्सा कुल मिलाकर यही है।
नीला धागा तो नजर में ही नहीं आ रहा है।
लाल न हुआ तो नीला भी असंभव है जैसे नीला भी लाल न हुआ तो सिरे से असंभव है।
लाल पीले केसरिया न जाने क्या क्या होते रहे और देश भर में बवासीर का नेटवर्क दिनोंदिन दशकों से मजबूत से मजबूत होता रहा।
न लाल को समझ आयी बात और नीले को समझने की तमीज है।
बात सिर्फ अस्मिता की हो रही है।
बात सिर्फ पहचान की हो रही है।
मनुष्यता पर कोई बात नहीं हो रही है और हम अप्राकृतिक मुक्तबाजीरी पीढ़यों के जड़ों से कटे लोग प्रकृति के मध्य तो कही हैं ही नहीं,सीमेंट की गुफाओं में हम तंत्र साधना कर रहे हैं।
बवासीर को तो फूटना ही था।
अब पहल हिंदी समाज को ही करनी है।
हिंदी को शत्रु हिंदी राजनीति ने तैयार किये हैं।
हिंदी के शत्रु सत्ता के केंद्रीयकरण ने किये हैं।बहिस्कार और दमन ,अत्याचार और उत्पीड़न की सत्ता राजनीति ने हिंदी को बाकी भारत में शत्रु बना दिये हैं।
हिंदी का असली दुश्मन है सलवा जुड़ुम।
हिंदी का असली दुश्मन है सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम।
हिंदी का असली दुश्मन है युद्धक अंध राष्ट्रवाद और धर्मोन्मादी युद्धोन्माद।
हिंदी का असली दुश्मन है अस्मिताबद्ध सता की राजनीति।
हिंदी का असली दुश्मन है धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण का यह लव जिहाद।
वरना हमने जन्मजात हिंदी प्रदेशों में आस्था के चरमोत्कर्ष के बावजूद वैसा कट्टरपन देखा नहीं है जो बाकी प्रदेशों में है।दूसरे प्रदेशों के लोगों को हिंदीवाल खदेड़ते नहीं हैं।
तंत्र मंत्र टोटका ताबीच के मिर्चमसाला का असर बाकी भारत में कहीं बहुत ज्यादा है,मसलन प्रगतिशील वाम वैटारिक बंगाल और केरल में भी।ब्राह्मणवाद के खिलाफ जो मुक्ताचंल महाराष्ट्र और तमिलनाडु है,वहां तो सबसे ज्यादा धार्मिक ध्रूवीकरण है।
इसके उलट तो असली प्रगतिशील और धर्मनिपेक्ष लोग तो गोबर प्रदेशों में ही बसते हैं। हिमालय के उत्तुंग शिखरों से लेकर विंध्य और अपरबली के आर पार।
मध्ययुगीन अंधकार को औढ़कर हिंदी वाले खुद ब खुद खुद को पिछड़ा जो साबित कर रहे हैं,वे अपनी लोक परंपराओं और जनपदों की गौरवगाथाओं से अनजान हैं।
वरना हिंदी हमेशा जनता की भाषा रही है वह राष्ट्र के बनने से पहले राष्ट्र भाषा थी।
गांधी, नेहरु,नेताजी,टैगोर,सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय,पटेल,राजगोपालाचारी से लेकर अंबेडकर तक और नवउदारवाद जमाने के पहले प्रधानमंत्री नरसिंहा राव से लेकर देवेगौड़ा,गुजराल, डा. मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक कोई भी हिंदी भाषी नहीं हैं तो मुक्ताबोध और पराड़कर भी हिंदीभाषी नहीं थे।
नेहरु उत्तर प्रदेश के थे लेकिन वे उससे ज्यादा कश्मीर के रहे हैं।
नेहरु को अगर आप हिंदी भाषी मानते हैं उत्तर प्रदेश की वजह से तो पलाश विश्वास तो उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश दोनों राज्यों का है,उसे अबे ओ बंगाली या बांग्लादेशी घुसपैठिया कहकर चालीस साल की हिंदी पत्रकारिता रचनाधर्मिता के बावजूद गाली क्यों देते हैं।
आज रोजनामचे में यह लिखता नहीं था।
जब तकनीक नहीं थी तो हम अंग्रेजी में ही लिखा करते थे। तकनीक आये तो अहिंदी प्रदेशों को संबोधित करने की गरज से ही लिखते हैं।
बांग्ला में लिखने की आदत भी नहीं है।लेकिन बंगाल के जादवपुर विश्वविद्यालय में जो युवाशक्ति गोलबंद हो रही है,वह मूलतः बांग्लाभाषी है और एक नयी सुनामी बन रही है।बदलाव की सुनामी।तो भइये,इस मुद्दे को बांग्ला में संबोधित करने में हर्ज क्या है।
हम करीब एक दशक तक सिर्फ अंग्रेजी में लिखते रहे तो हिंदी के किसी माई के लाल ने ऐतराज नहीं किया,दो चार लेख बांग्ला में लिख दिया तो महाभारत अशुद्ध हो गया।
मजा यह है कि बंगालियों को भी अंग्रेजी से तकलीफ नहीं है लेकिन बाकी भारतीय भाषाओं से उन्हें कोई मतलब है ही नहीं।
अंग्रेजी के वर्चस्व की असली वजह यही है कि बाकी भारतीय भाषाएं एक दूसरे को अपनी सौत से कम नहीं समझतीं।
अंग्रेजी से सही मायने में किसी को तकलीफ नहीं है। हिंदीवालों को भी नहीं।
दो दिन पहले मैंने अमलेंदु से कहा कि हम तो चाहते हैं कि हस्तक्षेप पर हर भारतीय भाषा के पेज हों।बाकी सोशल मीडिया में भी भारतीय भाषाओं की दीवारें तोड़ दी जाये।
हमने कहा तमिल तेलुगु मलयालम कन्नड़ हम नहीं जानते लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं में एक साथ संवाद करें तो शायद हम अस्मिताओं के इस तिलिस्म से बाहर निकल सकते हैं।
आप दिल्ली में हैं और गुरमुखी में संवाद करने में आपको ऐतराज हो,इससे बड़ी शर्म कोई दूसरी है नहीं।अंग्रेजी जो न भी जनता हो अपनी हिंग्लिश से वह धाक जमाने से लेकिन बाज नहीं आता।
हमने अमलेंदु को कहा था कि मैं तो आजकल बांग्ला में नियमित लिख ही रहा हूं तो हम हस्तक्षेप में बांंग्ला पेज से एक पहल तो अभी शुरु कर सकते हैं। फिर आहिस्ते आहिस्ते सहयोगी साथ आयेंगे तो मराठी,गुरमुखी,असमिया,गुजराती वगैरह वगैरह में एक साथ संवाद की शुरुआत कर सकते हैं।पेज बन गया तो लोग जुड़ते रहेंगे।
मैं आभारी हूं कि हस्तक्षेप पर अमलेंदु ने बांग्ला पेज शुरु कर दिया है और इसका असर पूरे बंगाल में हो रहा है।मैं कोई स्थापित बांगाल लेखक हूं नहीं।बांग्ला में तो क्या हिंदा या अंग्रेजी में भी बंगाल में किसी ने आजतक नहीं छापा।शुरु से लेकर आखिर तक मैं हिंदी का लेखक हूं और हिंदी समाज से अलग मेरा कोई वजूद है ही नहीं।चाहे तमिल तेलुगु मराठी बांग्ला या अंग्रेजी में लिखता रहूं।
अब अमलेंदु के कलेजे की दाद दीजिये कि एक मामूली हिंदी लेखक के बांग्ला लेखन के भरोसे उसने यह महाप्रयत्न कर डाला।
हमें तो बाकी लोगों को जल्द से जल्द इस मुहिम में जोड़ना चाहिए क्योंकि यह तो कुल मिलाकर हिंदी समाज की तरफ से बाकी भारतीय भाषाओं के साथ सेतुबंधन का प्रयत्न है।
हम चाहेंगे कि बाकी भारतीय भाषाओं में हिंदी के साथ साथ हिंदी के सेतुबंधन महाप्रयास के तहत हम एकसाथ संवाद शुरु करें।जो जिस भी भारतीय भाषा में संवाद कर सकता हो वह हिंदी के साथ साथ चलें तो अंग्रेजी की तो बाट लग ही गयी समझो।
जनपक्षधर मोर्चे का काम भाषा बंधन है और हमारे अति प्रिय कवि नवारुणदा आजीवन बंगाल से यह काम करते रहे हैं।हिंदी के अद्यतन साहित्य और दूसरी भाषाओं केनवतम संयोजन को वे बांग्ला में छापते रहे हैं।
बतौर नवारुण दा को श्रद्धाजलि हम इस एजंडा के एपिसेंटर बतौर हिंदी जनता को नेतृत्वकारी भूमिका में ला सकें तो बवासीर का इलाज संभव है वरना कैंसर बन रहा यह बवासीर तो प्राण लेकर ही रहेंगा।
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