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Thursday, November 12, 2009

ई-अभिमन्यु


ई-अभिमन्यु 

पलाश विश्वास 

बच्चा अब खुले मैदान में नहीं भागता, भूमंडलीकरण के 
खुले बाजार में चारों तरफ सीमेंट का जंगल, फ्लाईओवर।
स्वर्णिम चतुर्भुज सड़कें। आयातित कारें। शापिंग माल।
सीमाहीन उपभोक्ता सामग्रियां। आदिगन्त कबाड़खाना,
या युध्द विध्वस्त रेडियो एक्टिव रोगग्रस्त जनपद,
बच्चे के लिए कहीं कोई मैदान नहीं है दौड़ने को।

बच्चा किताबें नहीं पढ़ता, मगज नहीं मारता अक्षरों में।
अक्षर की सेनाएं घायल, मरणासन्न। कर्णेद्रिंय भी
हुए इलेक्ट्रानिक मोबाइल। वर्च्युअल पृथ्वी में
यथार्थ का पाठ प्रतिबंधित है और एकान्त भी नहीं,
चैनलों के सुपर सोनिक शोर में कैसे पढ़े कोई।

बच्चा कोई सपना नहीं देखता, बस, कभी-कभी
बन जाता वह हैरी पाटर, सुपरमैन स्पाइडरमैन,
या फिर कृष। इंद्रधनुष कहीं नहीं खिलते इन दिनों
हालांकि राजधानी में होने लगा है हिमपात,
मरुस्थल में बाढ़ें प्रबल, तमाम समुन्दर सुनामी,
रुपकथा की राजकन्याएं फैशन शो में मगन,

नींद या भूख से परेशान नहीं होता बच्चा अब
ब्राण्ड खाता है। पीता है ब्राण्ड जीता है ब्राण्ड॥
ब्राण्ड पहनकर बच्चा अब कामयाब सुपर माडल।
इस पृथ्वी में कहीं नहीं है बच्चों की किलकारियां,
नन्हा फरिश्ता अब कहीं नहीं जनमता इन दिनों

सुबह से शाम तलक तितलियों के डैने
टूटने की मानिन्द बजती मोबाइल घंटियां
पतझड़ जैसे उड़ते तमाम वेबसाइट
मेरे चारों तरफ शेयर सूचकांक की बेइन्तहा
छलांग, अखबारों के रंगीन पन्नों के बीच
शुतुरमुर्ग की तरह सर छुपाये देखता रहता मैं,
मशीन के यन्त्राश में होते उसके सारे
अंग-प्रत्यंग। उसकी कोई मातृभाषा नहीं है,
उसके होंठ फड़कते हैं, जिंगल गूँजता है।

डरता हूं कि शायद किसी दिन बच्चा
समाहित हो जाये किसी कम्प्यूटर में,
या बन जाये महज रोबो कोई।
सत्तर के दशक में विचारधारा में
खपने का डर था। अब विचारधारा
नहीं है। पार्टी है और पार्टीबध्द हैं बच्चे।

इतिहास और भूगोल के दायरे से
बाहर है बच्चा विरासत, परम्परा और
संस्कारों से मुक्त अत्याधुनिक है बच्चा,
क्विज में चाक चौबन्द बच्चा हमें
नहीं पहचानता कतई। हम बेबस देखते
हैं कि तैयार कार्यक्रमों के साफ्टवेअर
से खेलता बच्चा चौबीसों घंटों,
नकली कारें दौड़ाता है तेज, और तेज,
लड़ता है नकली तरह-तरह के युध्द
असली युध्दों से अनजान एकदम,

एक गिलास पानी भरकर पीने
की सक्रियता नहीं उसमें, भोजन की
मेज पर बैठने की फुरसत कहाँ।
चैटिंग के जरिये दुनियाभर में दोस्ती, पर
एक भी दोस्त नहीं है उसका, उसके साथी
बदल जाते हैं रोज-रोज, एकदम नाखुश,
बेहद नाराज आत्मध्वंस में मगन बच्चा,
उसके कमरे का दरवाजा बंद, खिड़कियां बंद,
मन की खिड़कियां भी बंद हमेशा के लिए।

शायद रोशनी से भी डरने लगा है बच्चा,
सूरज का उगना, डूबना उसके लिए निहायत
बेमतलब है इन दिनों, बेमतलब दिनचर्या,
चाँद सितारे नहीं देखता बच्चा आज कल
नदी, पहाड़, समुंदर आकर्षित नहीं करते।
उसका सौंदर्यबोध चकाचौंध रोशनी
और तेज ध्वनि में कैद है हमेशा के लिए।
दिसम्बर 2006
http://www.aksharparv.com/kavita.asp?Details=368

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कमल चंचल अक्षर पर्व के मई अंक का मुखपृष्ठ मुझे मेरी माता की याद दिला गया। मां ऐसे ही मुनगे को छील कर सब्जी बनाने छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा करती थीं। बहरहाल ये चंद टुकड़े अक्षर पर्व पर उत्साह और उमंग से नृत्य करते लगे। प्रस्तावना सटीक और विचारणीय है। कविता और ग़ज़लें अच्छी लगी।  

कमल चंचल

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November Edition

Thursday, November 12, 2009,11:54:45 PM

प्रस्तावना
अक्षर पर्व का यह कविता विशेषांक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होने वाले ऐसे विशेषांकों से किन्हीं मायनों में अलहदा है। सर्वप्रथम इसमें संकलित सारी कविताएं पूर्व प्रकाशित हैं। फिर इनका चयन सिर्फ एक पत्रिका याने अक्षर पर्व में प्रकाशित रचनाओं में से किया गया है। ये एक विशिष्ट कालखण्ड की कविताएं हैं याने इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की। जनवरी-2001 से लेकर दिसम्बर 2008 तक के अंकों से इन्हें चुना गया है। यह कहना भी आवश्यक है कि संकलित कविताओं का चयन इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी निजी रुचि के आधार पर किया है। दूसरे शब्दों में यह एक व्यक्तिपरक चयन है। आगे..
 

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