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Thursday, September 16, 2010

र्ष 2001 में आकाशवाणी अल्मोड़ा में पढ़ी गई गिर्दा को समर्पित यह कविता उन्हें सुनाई भी गयी थी।


मास्साब

(वर्ष 2001 में आकाशवाणी अल्मोड़ा में पढ़ी गई गिर्दा को समर्पित यह कविता उन्हें सुनाई भी गयी थी। इसे उन्होंने पसंद किया। -सम्पादक)

मास्साब !
नहीं ठहरा आपके बस का
न आप जी ही पाये ढंग सेgirda-dancing
ना ही मरने दिया आपको
अपने खूबसूरत सपनों ने
आप तो जुगाली कर सकते थे
करते भी रहे अपने फलसफों की
बेहतर से बेहतरोत्तर की
पर, किन्तु, परन्तु
के मुद्दे !
ऐसे ही नहीं होने वाले ठैरे हो
मास्साब !
अब समझ में आयी
यह बात
तुम्हारी जुगाली की
आद्र खुशबू भरी घास से
सपने,
वास्तव में सपने ही
होने वाले ठैरे हो मास्साब !
वरना हम
ठीक ठाक से
बिना सपनों के
मजे मार ही तो रहे थे ?
पर, किन्तु, परन्तु !
कुछ और, और ;
और के चक्कर में
बिखरते से, बिसुरते से
मायावी चक्करों का
यह जाल
समझ ही नहीं पाये
हो मास्साब !

हरीश पन्त
30-04-2001

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