ये दोनों सिनेमा के सुनहले पर्दे के पीछे की सड़ांध में ले जाते हैं
उपेक्षित हैं मलयाली सिनेमा के ओबीसी पिता जेसी डेनियल
♦ अश्विनी कुमार पंकज
भारतीय सिनेमा के सौ साल में क्या पीके रोजी को याद किया जाएगा? सिनेमा का जो इतिहास अब तक पेश किया जा रहा है, उसके मुताबिक तो नहीं। सुनहले और जादुई पर्दे के इस चमकीले इतिहास में निस्संदेह भारत के उन दलित कलाकारों को कोई फिल्मी इतिहासकार नहीं याद कर रहा है, जिन्होंने सिनेमा को इस मुकाम तक लाने में अविश्वसनीय यातनाएं सहीं। थिकाडु (त्रिवेंद्रम) के पौलुस एवं कुंजी के दलित क्रिश्चियन परिवार में जन्मी रोजम्मा उर्फ पीके रोजी (1903-1975) उनमें से एक है, जिसे मलयालम सिनेमा की पहली अभिनेत्री होने का श्रेय है। यह भी दर्ज कीजिए कि रोजी अभिनीत 'विगाथाकुमरन' (खोया हुआ बच्चा) मलयालम सिनेमा की पहली फिल्म है। 1928 में प्रदर्शित इस मूक फिल्म को लिखा, कैमरे पर उतारा, संपादित और निर्देशित किया था ओबीसी कम्युनिटी 'नाडर' से आने वाले क्रिश्चियन जेसी डेनियल ने।
रोजी के पिता पौलुस पलयम के एलएमएस चर्च में रेव फादर पारकेन के नौकर थे। जबकि वह और उसकी मां कुंजी घर का खर्च चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे। परंपरागत दलित नृत्य-नाट्य में रोजी की रुचि थी और वह उनमें भाग भी लेती थी। लेकिन पेशेवर कलाकार या अभिनेत्री बनने के बारे में उसने कभी सोचा नहीं था। उस जमाने में दरअसल वह क्या, कोई भी औरत फिल्मों में काम करने के बारे में नहीं सोचती थी। सामाजिक रूप से फिल्मों में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था। पर जब उसे जेसी डेनियल का प्रस्ताव मिला तो उसने प्रभु वर्ग के सामाजिक भय को ठेंगे पर रखते हुए पूरी बहादुरी के साथ स्वीकार कर लिया।
मात्र 25 वर्ष की उम्र में जोसेफ चेलैया डेनियल नाडर (28 नवंबर 1900-29 अप्रैल 1975) के मन में फिल्म बनाने का ख्याल आया। नाडर ओबीसी के अंतर्गत आते हैं और आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं। डेनियल का परिवार भी एक समृद्ध क्रिश्चियन नाडर परिवार था और अच्छी खासी संपत्ति का मालिक था। डेनियल त्रावणकोर (तमिलनाडु) के अगस्तीवरम तालुका के बासिंदे थे और त्रिवेंद्रम के महाराजा कॉलेज से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। मार्शल आर्ट 'कलारीपट्टू' में उन्हें काफी दिलचस्पी थी और उसमें उन्होंने विशेषज्ञता भी हासिल की थी। कलारी के पीछे वे इस हद तक पागल थे कि महज 22 वर्ष की उम्र में उस पर 'इंडियन आर्ट ऑफ फेंसिंग एंड स्वोर्ड प्ले' (1915 में प्रकाशित) किताब लिख डाली थी। कलारी मार्शल आर्ट को ही और लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से उन्होंने फिल्म के बारे में सोचा। फिल्म निर्माण के उस शुरुआती दौर में बहुत कम लोग फिल्मों के बारे में सोचते थे। लेकिन पेशे से डेंटिस्ट डेनियल को फिल्म के प्रभाव का अंदाजा लग चुका था और उन्होंने तय कर लिया कि वे फिल्म बनाएंगे।
फिल्म निर्माण के मजबूत इरादे के साथ तकनीक सीखने व उपकरण आदि खरीदने के ख्याल से डेनियल चेन्नई जा पहुंचे। 1918 में तमिल भाषा में पहली मूक फिल्म (कीचका वधम) बन चुकी थी और स्थायी सिनेमा हॉल 'गेइटी' (1917) व अनेक फिल्म स्टूडियो की स्थापना के साथ ही चेन्नई दक्षिण भारत के फिल्म निर्माण केंद्र के रूप में उभर चुका था। परंतु चेन्नई में डेनियल को कोई सहयोग नहीं मिला। कई स्टूडियो में तो उन्हें प्रवेश भी नहीं करने दिया गया। दक्षिण भारत का फिल्मी इतिहास इस बात का खुलासा नहीं करता कि डेनियल को स्टूडियो में नहीं घुसने देने की वजह क्या थी। इसके बारे में हम अंदाजा ही लगा सकते हैं कि शायद उसकी वजह उनका पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से होना हो।
बहरहाल, चेन्नई से निराश डेनियल मुंबई चले गये। मुंबई में अपना परिचय उन्होंने एक शिक्षक के रूप में दिया और कहा कि उनके छात्र सिनेमा के बारे में जानना चाहते हैं, इसीलिए वे मुंबई आये हैं। इस छद्म परिचय के सहारे डेनियल को स्टूडियो में प्रवेश करने, फिल्म तकनीक आदि सीखने-जानने का अवसर मिला। इसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के उपकरण खरीदे और केरल लौट आये।
1926 में डेनियल ने केरल के पहले फिल्म स्टूडियो 'द त्रावणकोर नेशनल पिक्चर्स' की नींव डाली और फिल्म निर्माण में जुट गये। फिल्म उपकरण खरीदने और निर्माण के लिए डेनियल ने अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा बेच डाला। उपलब्ध जानकारी के अनुसार डेनियल की पहली और आखिरी फिल्म की लागत उस समय करीब चार लाख रुपये आयी थी। आखिरी इसलिए क्योंकि उनकी फिल्म 'विगाथाकुमरन' को उच्च जातियों और प्रभु वर्गों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा। फिल्म को सिनेमा घरों में चलने नहीं दिया गया और व्यावसायिक रूप से फिल्म सफल नहीं हो सकी। इस कारण डेनियल भयानक कर्ज में डूब गये और इससे उबरने के लिए उन्हें स्टूडियो सहित अपनी बची-खुची संपत्ति भी बेच देनी पड़ी। हालांकि उन्होंने कलारी पर इसके बाद एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनायी, लेकिन तब तक वे पूरी तरह से कंगाल हो चुके थे।
फिल्म निर्माण के दौर में डेनियल के सामने सबसे बड़ी समस्या स्त्री कलाकार की थी। सामंती परिवेश और उसकी दबंगता के कारण दक्षिण भारत में उन्हें कोई स्त्री मिल नहीं रही थी। थक-हार कर उन्होंने मुंबई की एक अभिनेत्री 'लाना' से अनुबंध किया। पर किसी कारण उसने काम नहीं किया। तब उन्हें रोजी दिखी और बिना आगे-पीछे सोचे उन्होंने उससे फिल्म के लिए हां करवा ली। रोजी ने दैनिक मजदूरी पर 'विगाथाकुमरन' फिल्म में काम किया। फिल्म में उसका चरित्र उच्च जाति की एक नायर लड़की 'सरोजम' का था। मलयालम की इस पहली फिल्म ने जहां इसके लेखक, अभिनेता, संपादक और निर्देशक डेनियल को बरबाद किया, वहीं रोजी को भी इसकी भयानक कीमत चुकानी पड़ी। दबंगों के हमले में बाल-बाल बची रोजी को आजीवन अपनी पहचान छुपाकर गुमनामी में जीना पड़ा।
त्रिवेंद्रम के कैपिटल थिएटर में 7 नवंबर 1928 को जब 'विगाथाकुमरन' प्रदर्शित हुई तो फिल्म को उच्च जातियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उच्च जाति और प्रभु वर्ग के लोग इस बात से बेहद नाराज थे कि दलित क्रिश्चियन रोजी ने फिल्म में उच्च हिंदू जाति नायर की भूमिका की है। हॉल में पत्थर फेंके गये, पर्दे फाड़ डाले। रोजी के घर को घेर कर समूचे परिवार की बेइज्जती की गयी। फिल्म प्रदर्शन की तीसरी रात त्रावणकोर के राजा द्वारा सुरक्षा प्रदान किए जाने के बावजूद रोजी के घर पर हमला हुआ और दबंगों ने उसकी झोपड़ी को जला डाला। चौथे दिन भारी विरोध के कारण फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया गया।
दक्षिण भारत के जानेमाने फिल्म इतिहासकार चेलंगट गोपालकृष्णन के अनुसार जिस रात रोजी के घर पर हमला हुआ और उसे व उसके पूरे परिवार को जला कर मार डालने की कोशिश की गयी, वह किसी तरह से बच कर निकल भागने में कामयाब रही। लगभग अधमरी अवस्था में उसे सड़क पर एक लॉरी मिली। जिसके ड्राईवर ने उसे सहारा दिया और हमलावरों से बचाते हुए उनकी पकड़ से दूर ले गया। उसे बचाने वाले ड्राईवर का नाम केशव पिल्लई था, जिसकी पत्नी बन कर रोजी ने अपनी शेष जिंदगी गुमनामी में, अपनी वास्तविक पहचान छुपा कर गुजारी।
रोजी की यह कहानी फिल्मों में सभ्रांत परिवारों से आयी उन स्त्री अभिनेत्रियों से बिल्कुल उलट है, जिनकी जिंदगियां सुनहले फिल्म इंडस्ट्री ने बदल डाली। फिल्मों ने उन्हें शोहरत, धन और अपार सम्मान दिया। लेकिन रोजी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। उसे लांछन, अपमान व हमले का सामना करना पड़ा। दृश्य माध्यम से प्रेम की कीमत आजीवन अदृश्य रहकर चुकानी पड़ी।
जेसी डेनियल को तो अंत-अंत तक उपेक्षा झेलनी पड़ी। बेहद गरीबी में जीवन जी रहे डेनियल को केरल सरकार मलयाली मानने से ही इंकार करती रही। आर्थिक तंगी झेल रहे कलाकारों को वित्तीय सहायता देने हेतु जब सरकार ने पेंशन देने की योजना बनायी, तो यह कह कर डेनियल का आवेदन खारिज कर दिया गया कि वे मूलतः तमिलनाडु के हैं। डेनियल और रोजी के जीवन पर बायोग्राफिकल फीचर फिल्म 'सेल्युलाइड' (2013) के निर्माता-निर्देशक कमल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि केरल के पूर्व मुख्यमंत्री करुणाकरन और ब्यूरोक्रेट मलयाट्टूर रामकृष्णन नहीं चाहते थे कि नाडर जाति के फिल्ममेकर को 'मलयालम सिनेमा का पिता' होने का श्रेय मिले। हालांकि बाद में, 1992 में केरल सरकार ने डेनियल के नाम पर एक अवार्ड घोषित किया जो मलयाली सिनेमा में लाइफटाईम एचीवमेंट के लिए दिया जाता है।
रोजी और जेसी डेनियल के साहस, रचनात्मकता और बलिदान की यह कहानी न सिर्फ मलयालम सिनेमा बल्कि भारतीय फिल्मोद्योग व फिल्मी इतिहासकारों के भी सामंती चेहरे को उधेड़ती है। रोजी और डेनियल हमें सुनहले पर्दे के पीछे उस सड़ी दुनिया में ले जाते हैं, जहां क्रूर सामंती मूंछे अभी भी ताव दे रही हैं। सिनेमा में वंचित समाजों के अभूतपूर्व योगदान को स्वीकार करने से हिचक रही है। यदि चेलंगट गोपालकृष्णन, वीनू अब्राहम और कुन्नुकुजी एस मनी ने डेनियल व रोजी के बारे में नहीं लिखा होता, तो हम मलयालम सिनेमा के इन नींव के पत्थरों के बारे में जान भी नहीं पाते। न ही जेनी रोविना यह सवाल कर पाती कि क्या आज भी शिक्षा व प्रगतिशीलता का पर्याय बने केरल के मलयाली फिल्मों कोई दलित अभिनेत्री नायर स्त्री की भूमिका अदा कर सकती है?
(हमज़बान से साधिकार उठाया और चिपकाया गया)
(अश्विनी कुमार पंकज। वरिष्ठ पत्रकार। झारखंड के विभिन्न जनांदोलनों से जुड़ाव। रांची से निकलने वाली संताली पत्रिका जोहार सहिया के संपादक। इंटरनेट पत्रिका अखड़ा की टीम के सदस्य। वे रंगमंच पर केंद्रितरंगवार्ता नाम की एक पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं। इन दिनों आलोचना की एक पुस्तक आदिवासी सौंदर्यशास्त्र लिख रहे हैं। उनसे akpankaj@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
http://mohallalive.com/2013/06/10/story-of-jc-daniel-and-pk-rosy/
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