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Tuesday, June 25, 2013

जुर्म और सजा : मामला हंस और शिकारी का


12 JUNE 2013 3 COMMENTS

♦ शालिनी माथुर

प्राक्कथन

प्राचीन संस्कृतियों में अपने प्रति होने वाले अपराध और अपमान का बदला मजलूम खुद लेता था। कहानी चाहे यूलिसीज और इडिपस की हो चाहे रामायण और महाभारत की, बहादुरी की सारी गाथाएं ऐसे लोगों के पराक्रम के विषय में है जिन्होंने अपराधी को दंड दिया, अपने और अपने समाज के अपमान का बदला लिया और समाज में सुरक्षा की भावना लाने का प्रयास किया।

जब आधुनिक व्यवस्था आयी तो संविधान का राज्य हो गया। अब किसी व्यक्ति के प्रति किया गया अपराध राज्य के प्रति किया गया अपराध माना जाने लगा। अब अपराधी को दंड देना राज्य का काम है – समाज को अपराध से मुक्त रखना भी। परंतु क्या राज्य पीड़ित को न्याय दिला पा रहा है। पीड़ित निहत्था है – उसके पास आत्मरक्षा का भी हक नहीं है, अपराधी हथियारबंद है और राज्य के बनाये सारे कानून अभियुक्त के अधिकारों की व्यवस्था कर रहे हैं। पीड़ित के पास कोई हक नहीं – उसे तो उसके मामले में हो रही सुनवाई की सूचना तक दिया जाना जरूरी नहीं। हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, जस्टिस फॉर द क्रिमिनल है, न कि जस्टिस फॉर द विक्टिम आफ क्राइम। क्या पीड़ित को न्याय मिल पाता है?

पिछले कुछ दिनों में भारत के संविधान में प्रदत्त प्रावधानों और न्याय प्रक्रिया के आधार पर उच्चतम न्यायालय द्वारा अपराधी पाये गये जिन अपराधियों को फांसी की सजा सुनायी गयी थी, उनमें दो को वास्तव में फांसी दे दी गयी। वे दोनों आतंकवाद से जुड़े थे अत: उनकी सजा से उठे विवाद ने एक और रंग ले लिया, जो राजनीतिक था। कसाब के पक्ष में कविताएं लिख कर ई मेल द्वारा वितरित की गयीं, अफजल गुरु की माता, पत्नी तथा पुत्र का चित्र छापते हुए शोक व्यक्त किया गया। हममें से किसी ने भी इन हत्याकांडों में मारे गये दो सौ से भी अधिक पीड़ितों के शोक संतप्त परिवार वालों के चित्र नहीं देखे, न ही उनकी व्यथा प्रसारित की गयी। जिन्होंने अपराधी को फांसी की सजा का समर्थन किया, वे प्रतिक्रियावादी ठहराये गये और अपराधी के अधिकारों का समर्थन करने वाले प्रगतिशील कहलाये।

इसी प्रकार वर्ष 2012 के अंतिम माह में 16 तारीख को हुए बर्बरता पूर्ण, नृशंस और क्रूर कृत्य को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ गयी। दस अप्रैल 2013 को दिये वक्तव्य में हमारे प्रधानमंत्री ने कहा कि 16 दिसंबर की घटना ने हमें नया कानून बनाने और संशोधित करने पर मजबूर किया। द्रष्टव्य है कि हमारा देश स्त्री के लिए बनाये गये हर कानून के लिए हादसे का इंतजार करता रहा है। रेप के विरुद्ध बनाये गये नियम में गवाही का नियम तब बदला गया, जब 1979 में मथुरा बलात्कार कांड हुआ और कार्यस्थल पर यौन शोषण रोकने का विशाखा दिशा निर्देश (जो फरवरी 2013 में कानून बन गया) तब जारी हुआ, जब 1997 में राजस्थान में भंवरी देवी का बलात्कार हुआ।

मगर इस बार इंटरनेट पर अधिक सक्रिय रहने वाले नारीवादी संगठनों ने वर्ष 2013 में जस्टिस एससी वर्मा कमेटी को सिफारिशें भेजने में आश्चर्यजनक भूमिका निभायी। वे घूरने और पीछा करने (स्टॉकिंग) के अपराधों को गैरजमानती बनाना चाहती हैं, ताकि इन अपराधों की गंभीरता को समझा जाए और न्यायोचित सजा मिले जो सही भी है, परंतु नाबालिग, पांच छह वर्ष की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले अपराधियों को कठोरतम दंड देने के वे सख्‍त खिलाफ हैं। गैंगरेप यानी सामूहिक बलात्कार के अपराधी को फांसी न दिये जाने के पक्ष में उन्होंने हस्ताक्षर अभियान चलाया। अपराधी को क्या सजा हो इस बात पर सारा बुद्धिजीवी वर्ग साफतौर पर वामपंथ और दक्षिणपंथ के आधार पर बंटा दिखाई दिया – इनमें कुछ नारीवादी संगठन भी थे।

प्रस्तुत आलेख मैंने अगस्त सन 2004 में लिखा था, जब धनंजय चटर्जी को फांसी दी गयी थी, और अपने संगठन के सहयोगियों के साथ साझा किया था। वह आलेख ज्यों का त्यों अपनी सारी दुविधाओं के साथ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रही हूं। देखें इन नौ वर्षों में क्या बदला – सरकार, न्यायव्यवस्था, सत्ता पक्ष, विपक्ष, वामपंथी, मानवाधिकारवादी, मुजरिम, हत्यारे, या पीड़ित और उनके रिश्तेदार, बेकसूर मजलूम। देखें, कुछ बदला भी है या नहीं?

जुर्म और सजा : मामला हंस और शिकारी का

क्राइम एंड पनिशमेंट यानी जुर्म और सजा पर लेखनी उठाने वालों में मैं पहली नहीं हूं। जबसे सामाजिक व्यवस्था बनी है, यह मुद्दा तभी से चर्चा में रहा है।

चौदह अगस्त 2004 को धनंजय चटर्जी नाम के व्यक्ति को फांसी पर लटका कर सजा दी गयी। उसने एक दसवीं कक्षा में पढ़ती हुई बच्ची का कत्ल किया था, और कत्ल से पहले बलात्कार। फांसी उसे कत्ल का जुर्म करने के लिए दी गयी। फांसी उसे जुर्म के चौदह साल बाद दी गयी। राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका खारिज कर दी। उसके बाद पुन: उसने सर्वोच्च न्यायालय से इस आधार पर मुक्ति की याचना की कि वह चौदह वर्ष जेल में काट चुका है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक ही दिन में यह कह कर मामला खारिज कर दिया कि यह विलंब अपराधी ने जानबूझ कर स्वयं अपने ऊपर कई स्थानों से मुकदमे चलवा कर करवाया है, कत्ल की सजा फांसी है।

जब से ओपेन स्काइ पॉलिसी के तहत अनेक टीवी चैनल आये हैं, तब से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनर्गल प्रलाप करने की एक अद्भुत परम्परा प्रारंभ हो गयी है। कातिल के मां बाप कितने शोक संतप्त हैं यह सभी चैनल दिखाने लगे। स्टार न्यूज ने बताया कि हत्यारे की तीन नंबर पर अटूट आस्था है। वह जेल की तीन नंबर कोठरी में रहता है। उसके लिए ट्रे में नाश्ता आता है। वह नाश्ते में एक अंडा, छह टोस्ट, एक फल और एक गिलास दूध पीता है। वह खाने में तली हुई मछली, दाल, चावल, रोटी और सब्जी खाता है। वह रेडियो से मनोरंजन करता है। (बेचारा टीवी नहीं देख पाता)। उसकी बहन अनब्याही है। कातिल के प्रति दया की याचना करते हुए कुछ मानवाधिकारवादी भी दिखाये जाते रहे।

इस बीच उस मासूम बच्ची के माता पिता जो कलकत्ता छोड़ कर मुंबई में बस गये थे, वे अपने घर से भाग कर कहीं और जा छिपे ताकि मीडिया पीछा न करे। हममें से कोई नहीं जानता कि इन चौदह वर्षों तक उस बच्ची के मां बाप ने यह मुकदमा कैसे लड़ा, वकीलों को कितनी फीस दी, कितना पैसा खर्च किया और अपनी मासूस बच्ची की हत्या के सदमे को बर्दाश्त करते हुए यह चौदह वर्ष कैसे काटे।

जिस बात ने मुझे बहुत द्रवित किया, वह थी एक व्यक्ति, जो मृत बच्ची का पड़ोसी रहा था तथा जिसकी बेटी उस बच्ची के साथ पढ़ती थी, हत्यारे की फांसी वाले दिन जेल तक आया। वह चाहता था कि फांसी जरूर हो। हत्यारा उस बिल्डिंग में लिफ्टमैन था, बिल्डिंग के बच्चों के स्कूल से घर लौटने पर उन्हें घर पहुंचाने की जिम्मेदारी उसकी थी। जाहिर है वह चौदह वर्ष की बच्ची भी उस पर यकीन करती रही होगी। सर्वोच्च न्यायालय के वकील ने भी कहा कि अस्सी प्रतिशत से भी अधिक जनता हत्यारे को फांसी चाहती है। हम जानते हैं कि फांसी की सजा जनमत के आधार पर नहीं दी जाती। पर यह दोनों हृदयस्पर्शी बातें यह द्योतित करती है कि मानव हृदय आज भी पोएटिक जस्टिस चाहता है – मुजरिम को सजा, निर्दोष को माफी।

लेकिन जुर्म और सजा के इस मुद्दे पर लेखनी उठाना मेरे लिए उतना सहज नहीं है, जितना किसी अन्य के लिए होता। आज से छह वर्ष पूर्व मैंने स्वयं अपने इन्हीं हाथों से लेखनी उठाकर, अपनी ओर से हस्ताक्षर करके एक दया याचिका राज्यपाल और राष्ट्रपति को सौंपी थी, जिसमें बंदिनी रामश्री के प्राणों की भीख मांगी थी। मेरी उस दया याचिका पर उसकी फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी गयी और आज वह औरत लखनऊ जेल में है। वह अक्सर जेल से मुझे पत्र भिजवाती रहती है। यह बात और है जिस समय मैंने वह दया याचिका लिखी थी, उस समय तक मैंने उसे देखा तक नहीं था। इस प्रकरण में प्रतिष्ठित वकील आईबी सिंह मेरे सहयोगी थे।

एक औरत को हत्या के लिए माफी और एक आदमी को हत्या के लिए फांसी, कहीं यह मानदंड दोहरे तो नहीं? आज पुनरावलोकन करना होगा।

मैंने पुरानी फाइलो में से निकाल कर वह दया याचिका पुन: पढ़ी। यह याचिका मैंने अखबार में 16 मार्च 1998 को छपी रिपोर्ट के आधार पर 17 मार्च 1998 को लिखी थी और 18 मार्च 1998 को राज्यपाल को सौंप दी थी और राष्ट्रपति को फैक्स द्वारा प्रेषित कर दी थी। दया याचिका के आधार पर क्षमादान का अधिकार राष्ट्रपति तथा राज्यपाल दोनों के पास समान रूप से होता है। दया के लिए हमने एक व्यक्ति की निजी एवं विशेष सामाजिक परिस्थिति को आधार बनाया था। हमने कहा था कि बंदिनी ने जेल में ही एक बच्ची को जन्म दिया जो तीन वर्ष की हो गयी पर उससे मिलने कोई नहीं आया। पति तक नहीं, क्‍योंकि बंदिनी के साथ उसके पिता तथा भाई भी फांसी पाने वाले हैं और बंदिनी की फांसी के बाद उसकी पुत्री अनाथ हो जाएगी। कि जिस समाज में माता पिता के जीवित होते हुए भी पुत्री बराबरी का दर्जा नहीं पा पाती, वहां निर्धन वर्ग की अनाथ तीन वर्ष की बच्ची का क्या होगा। कि बंदिनी अपने पिता व भाई के साथ सह अपराधिनी है मुख्य अभियुक्त नहीं। कि न्यायालय में सत्र परीक्षण के दौरान या अपील के दौरान किसी ने उसकी ओर से उचित बचाव या पैरोकारी नहीं की। कि बंदिनी का मामला उच्च अदालतों तक गया ही नहीं… और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि हम नहीं चाहते कि एक व्यक्ति को केवल इसलिए क्षमा कर दिया जाए कि वह स्त्री है। हमारी दया याचिका के विषय में अनेक अखबारों ने प्रमुखता से छापा था।

महामहिम को दया याचिका सौंपने जब मैं और गीता कुमार गये तो इस बात पर बार बार जोर दिया कि फांसी का मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जाना ही चाहिए। रामश्री निपट निरक्षर और इतनी निर्धन थी कि उसकी अपील उच्चतम न्यायालय तक पहुंची ही नहीं थी। उसे उच्च न्यायालय के आदेश से ही फांसी होने वाली थी। इसके बरक्स धनंजय चटर्जी का मामला सर्वोच्च न्यायालय तक दो बार गया और राष्ट्रपति तक भी। उसने देर करने के सारे हथकंडे अपनाये और फांसी की पूर्व संध्या पर भी उसने यही कहा कि वह स्वयं को दोषी नहीं समझता।

Capital Punishment

मेरा मन बार बार अपनी दया याचिका पर लौट जाता है। वह औरत निचली अदालत से सजा पाकर अपील के बिना 6 अप्रैल 1998 को फांसी चढ़ जाती, अपने फैसले की कॉपी पाये बिना। दया याचिका देने के कई महीने बाद हम लोगों ने उच्च न्यायालय में फीस के पैसे जमा करके बड़ी कठिनाई से फैसले की नकल फैक्स द्वारा इलाहाबाद से मंगवाई थी। फैसला पढ़ कर हम स्तब्ध रह गये थे। माननीय न्यायाधीशों ने रामश्री के विषय में लिखा था कि उसके वकील ने एक बार भी उसे निर्दोष सिद्ध करने की कोशिश ही नहीं की थी, केवल उसकी सजा कम करने का अनुरोध किया था, अत: न्‍यायाधीश के पास फांसी देने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। फैसले के अनुसार उसके पूरे परिवार को फांसी होनी थी।

एक निर्धन निरक्षर औरत के मामूली वकील ने मुवक्किल को निर्दोष साबित करना जरूरी नहीं समझा, तो जज फांसी के अलावा क्या सजा देता। हमारी पूरी न्याय प्रणाली आमूल चूल परिवर्तन चाहती है। आज से छह साल पूर्व रामश्री के लिए दी गयी दया याचिका का मुझे कोई मलाल नहीं।

मामला रामश्री की माफी का हो या धनंजय की फांसी का एक बहुत बड़ा सवाल जो हमारे सामने खड़ा है, वह यह कि हर जुर्म की सजा पाने के लिए सिर्फ गरीब लोग ही जेल में क्यों है?

जुर्म और सजा का मसला जटिल होता है और नाजुक भी। हर मसला दूसरे से अलग होता है और विशिष्ट। इसलिए हर मामले को उसकी विशिष्टता में सुलझाने का प्रावधान है। न तो हर हत्या की सजा फांसी है और न हर चोरी की सजा जेल। मै मानती हूं कि फांसी की सजा या तो हो ही न, और यदि हो तो न्याय प्रणाली की सारी राहों को पार करके सर्वोच्च स्तर पर तय की जाए। परंतु जघन्य अपराधों के क्रूर अपराधियों को कड़ी सजा तो मिलनी ही चाहिए।

हमारी न्यायप्रणाली के अनुसार सजा के चार मकसद होते हैं : रिफॉर्मेटिव – यानी सुधार के लिए, रेस्ट्रिक्टिव यानी अपराधी को बंद करके समाज को उससे बचाने के लिए, डिमास्ट्रेटिव – यानी समाज के अन्य अपराधियों को आगाह कर देने के लिए और रेट्रिब्यूटिव यानी जिसके प्रति अपराध हुआ है उसकी ओर से प्रतिशोध लेने के लिए।

बच्ची के साथ बलात्कार उसके बाद हत्या करने वाले जघन्य अपराधी को सजा देकर समाज को आगाह भी किया गया है और उनके माता पिता के मन को ठंडक भी पहुंचायी गयी है जिन्होंने यह चौदह लंबे वर्ष मुकदमा लड़ते हुए बिताए होंगे। जघन्य हत्या के दोषी के लिए जीवन मांगने वालों ने कहा कि वह चौदह वर्ष जेल में रहा, यह सजा काफी है। उन्होंने यह क्यों नहीं पूछा कि हत्या जैसे स्पष्ट मामले की सुनवाई में चौदह वर्ष क्‍यों लगाये गये। देरी करने के लिए अपराधी दोषी था, यह सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया। आमतौर पर ऐसे सभी मामलों में मैंने अपराधियों को तारीख बढ़वाते ही देखा है, और इस आधार पर मुक्त होते भी कि मामले में बहुत देर हो रही है सो बेल दे दो, और एक बार बेल हो जाए, तो समझो मुक्ति।

जरा मुड़ कर देखें, तो पाएंगे कि मथुरा बलात्कार के मामले में सारे स्त्री संगठन अपराधियों को सजा दिलवाने के लिए उठ खड़े हुए थे और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सजा घटा दिये जाने का स्त्री संगठनों ने कड़ा विरोध किया था। इसी प्रकार भंवरी देवी के प्रति अपराध करने वालों को सजा न दिये जाने के मामले में सभी स्त्री संगठन न्यायपालिका से नाराज हैं और अपना विरोध दर्ज कराते रहे हैं। देश में स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं, यह चर्चा जारी है। बलात्कारों और हत्याकांडों का ब्यौरा रखना, मेरी रुचि का विषय नहीं है, इसलिए मैं यह गिनाना नहीं चाहती कि कितने हत्यारे छूट गये। मैं तो यह जानना चाहती हूं कि आखिर हम चाहते क्या है? कभी अपराधी को मुक्त कर दिये जाने का विरोध करना और कभी अपराधी को सजा दिये जाने का विरोध करना एक अंतर्विरोधी दृष्टि का प्रतीक है। स्त्री संगठनों, मानवाधिकार संगठनो और बुद्धिजीवियों को अपने विचारों में स्पष्टता तो लानी ही होगी।

देश में बढ़ते हुए अपराध और असुरक्षा की भावना का कारण यह नहीं है कि जुर्म की कठोर सजा दी जाती है, यहां तो समस्या यह है कि असली मुजरिम को सजा दी ही नहीं जा पाती। जेलों में बंद कैदियों में से केवल 10 प्रतिशत ही सजायाफ्ता मुजरिम हैं। शेष 90 प्रतिशत हैं बदनसीब विचाराधीन कैदी, जिनका एक निर्णय लेने में अदालत दस से पंद्रह वर्ष लगाती है। तिहाड़ जेल में एक समय में बंद 8500 कैदियों में से 7114 विचारधीन कैदी थे। असली अपराधी या तो स्वेच्छा से तारीख बढ़वाते रहते हैं, या खुले छूट जाते हैं।

भारत में, आज तक ब्रिटिश सरकार द्वारा सन 1860 में बनायी गयी क्रूर तथा रूढ़िवादी दंड प्रणाली लागू है, जो वकीलों और जजों के लिए लाभदायक है, मुजरिमों और मजलूमों के लिए नहीं। ये व्यवस्था निरक्षर निर्धन और कमजोर मुजरिम, तथा बदनसीब बेगुनाह मजलूम (विक्टिम) को, चाहे वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो, न्याय नहीं दिला सकती। हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम क्रिमिनल के अधिकारों की रक्षा करता है, पीड़ित को कोई हक नहीं देता।

मैंने अपने संगठन की ओर से एक युवा लड़की रोमिल वाही का केस लड़ा था, जिसके सिर में कई गोलियां मार कर उसके ससुर और पति ने उसकी हत्या कर डाली थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लिखा था कि उसकी हत्या से पहले उसे चार दिन तक भूखा रखा गया था। उसकी रिपोर्ट लिखने स्वयं मजिस्‍ट्रेट को बुलवाना पड़ा था। पुलिस ने रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दिया था, क्योंकि ससुर ज्वांइट डायटेक्टर प्रॉसीक्यूशन थे। वे अपनी बड़ी मूंछों के कारण खुद को कर्नल वाही कहलवाना पसंद करते थे। आज वे दोनों बाप बेटे जेल में हैं। वे हर चार महीने बाद जमानत की अर्जी लगाते हैं और उनकी अर्जी का विरोध करने में मृत लड़की के पिता का हर बार चालीस से साठ हजार रुपये खर्च होता है। तीन चार वर्ष तक लाखों रुपये खर्च करके वे थक गये हैं, और अब यदि वे खूब पैसे लगा कर बेल का विरोध नहीं कर सकेंगे तो अपराधी इस आधार पर जमानत पा लेंगे कि वे काफी समय से जेल में हैं और निर्णय नहीं हो सका है इसलिए उन्हें कब तक जेल में रख जाए। मृत लड़की के पिता यदि निर्धन होते तो अपराधी शायद एक क्षण भी जेल में नहीं रहते। अपने इन अट्ठारह साल के अनुभव में मैंने दहेज उत्पीड़न और हत्या की बीसियों मामलों में से किसी एक को भी पूरी सजा होते नहीं देखा। यह व्यवस्था अपराधी को शक का लाभ (बेनिफिट ऑफ डाउट देती है, अपराध का शिकार तो शिकार होने को अभिशप्त है, पहले शिकारी का, फिर व्यवस्था का।

जो लोग फांसी की सजा का विरोध करना चाहते हैं, वे दंड विधान में परिवर्तन लाने के लिए संविधान में संशोधन का प्रयास किसी और समय क्यों नहीं करते? दसवीं में पढ़ती हुई मासूम बच्ची का बलात्कार और क्रूरता से हत्या करने वाले अपराधी को मृत्युदंड मिलते ही उसके पक्ष में रैली निकालना, बयानबाजी करना और फांसी हो जाने के बाद हाथों में दीपक लेकर उसका महिमामंडन करते हुए यात्रा निकालना कितना अशोभनीय है, कितना असामयिक और कितना क्रूर यह समझना क्या उसी का काम है जिसने अपनी बच्ची खोयी है? मानवता के पक्षधर क्या इतना भी नहीं समझ सकते?

इस बीच नागपुर में एक सनसनीखेज घटना हुई, जिसमें 13 अगस्त 2004 को कचहरी के अंदर ही औरतों के समूह ने अक्कू यादव नाम के एक अपराधी को जूते चप्पलों से पीट पीट कर मार डाला। उन्होंने उस पर लाल मिर्च और छोटे चाकुओं से हमला किया। च औरतें अपराध में पकड़ी गयीं। चार सौ अन्य औरतें सामने आ गयी और बोलीं कि अपराध में वे भी शामिल हैं। पांचो औरतों को तत्काल जमानत मिल गयी। यह अपनी तरह का अनूठा उदाहरण है, जहां अपनी सुरक्षा, अपने सम्मान और संवेदनाओं के लिए समाज स्वयं उठ खड़ा हुआ। अक्कू यादव 12 बार हत्या और बलात्कार के जुर्म में पकड़ा गया, र हर बार जमानत पर छोड़ दिया गया। दस वर्ष से आतंक फैलाने वाला मुजरिम समाज के हाथ मारा गया। यह समाज का स्वायत्त निर्णय था, जहां पीड़ित औरतों के समूह ने तय किया कि वह अपराधी को प्रश्रय देने वाली न्यायप्रणाली का मोहताज नहीं रहेगा। भावना इसके पीछे भी उसी पोएटिक जस्टिस की है – अपराधी को सजा और निर्दोष को माफी। ऐसी घटनाएं भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी हैं।

आज धनंजय चटर्जी को मासूम बच्ची की हत्या और बलात्कार के अपराध पर होने वाली फांसी से सहमत होने का भी मुझे मलाल नहीं। यह सजाएं अमानवीय भले ही लगें पर सिद्ध करती हैं कि समाज क्रूर और जघन्य अपराधों को सहन नहीं करेगा। हमें वह समाज बनाना है जहां निर्दोष निरपराध लोग भी चैन से जी सकें, जहां बच्चियां स्कूल जा सकें, पार्कों में खेल सकें, जहां मां बाप और बच्चों को हर समय बलात्कार और हत्या के खौफ के साये में न जीना पड़े, जहां न्याय प्रणाली का एकमात्र ध्येय केवल 99 फीसदी अपराधियों को इसलिए बचाना न हो कि कहीं एक निरपराध को सजा न हो जाए, बल्कि जन सामान्य को सहज सुरक्षित जीवन जीने में मदद करना हो।

इस प्रकरण में एक अहम मुद्दा है, मीडिया की भूमिका का। मीडिया गणतंत्र का चौथा स्तम्भ है। नयी तकनीक के कारण टीवी और अखबार बहुत त्वरित गति से समाचार प्राप्त करके लोगों तक पहुंचाने लगे हैं। नयी तकनीक ने उन्हें ताकत दी है, पर क्या उन्होंने इसका सही इस्तेमाल किया है? पत्रकार अपनी ताकत और लोकप्रियता के गर्व में इतने उन्मत्त हैं कि ये वे तय करेंगे कि न्यायवेत्ता न्याय कैसे करें, प्राध्यापक कैसे पढ़ाएं, डाक्टर के इलाज में क्या गलती है, सिपाही सरहद पर किस प्रकार लड़े और वैज्ञानिक किस विषय पर शोध करें। यह स्थिति इसलिए पैदा हो गयी क्‍योंकि जनता तक समाचार पहुंचाने का काम पत्रकारों के पास है, वैज्ञानिक शिक्षक, समाज सेवक, न्यायवेत्ता, सिपाही की सीधी पहुंच जनता तक नहीं, वे तो अपने क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, डिया एक्सपर्ट कमेंट कर रहा है।

मीडिया न्यूज की जगह व्यूज दे रहा है। वह समाचार की जगह विचार दे रहा है : एक पत्रकार के अपने निजी विचार। सारे पत्रकार समाज के सबसे महान सामाजिक चिंतक नहीं है, यह बात स्पष्ट कर दी जानी चाहिए। उनका दायित्व है समाचार दे कर जनता के मन में विचारों को जगाना न कि उनके मन में अपने निजी विचार ठूंसना।

इस बीच ऐसी दो गैरजिम्मेदार बातें मीडिया धनंजय चटर्जी के मामले में उठाता रहा, और समाज दोहराता रहा, वह ये कि चौदह साल की उम्रकैद वह काट चुका और बलात्कार के लिए यह सजा काफी है।

वास्तविकता यह है कि उम्रकैद का अर्थ है मृत्युपर्यंत टिल द लास्ट ब्रेथ जेल में रहना। चौदह वर्ष की उम्रकैद केवल हिंदी फिल्मों में दिखायी जाती है, असली उम्रकैद में सारी उम्र जेल में ही रहना पड़ता है। दूसरी बात यह कि धनंजय को हत्या के अपराध की सजा मिली है, न कि बलात्कार की। बलात्कार से जुड़ी मेडिकल टेस्ट आदि की प्रक्रिया इतनी जटिल अपमानजनक तथा अपर्याप्त है कि यह मामला यदि हत्या का न होता, तो बच्ची के माता-पिता बलात्कार का अपराध सिद्ध ही न कर पाते और यदि कर भी लेते तो धनंजय केवल सात वर्ष तक जेल की कोठरी नंबर तीन में उबले अंडे, छह टोस्ट, दूध, तली मछली और दाल चावल खाकर रेडियो सुनते हुए समय बिताता और उसके बाद ऐसे ही अन्य अपराध करने के लिए स्वतंत्र हो जाता।

अब दो शब्द बुद्धिजीवियों के विषय में। भारतीय गणतंत्र में एक है पक्ष और एक है विपक्ष। अक्सर देखा गया है कि शासन जो भी निर्णय ले, उसके विरोध में आवाज उठाना जरूरी समझा जाता है, और अनेक बुद्धिजीवी विरोधी पक्ष में जा खड़े होना बेहद जरूरी समझते हैं। यह सच है कि सत्ता के मद में चूर होते प्रशासन के सामने न्याय की बात रखना बुद्धिजीवियों का दायित्व है, पर हमेशा ही विरोध का स्वर उठाते रहना इस वर्ग को अप्रांसगिक बना देगा।

अहिंसा में विश्वास करने वाले गांधीवादी विचारक यदि फांसी का विरोध करें तो यह उनकी धारणा के अनुरूप है। पर स्वयं को वामपंथी बताने वाले कम्युनिस्ट संगठनों से जुड़े तथाकथित जनवादी अपने अति बौद्धिक लेखों में लोकतंत्र के विरुद्ध हथियारबंद आंदोलनों को सही ठहराते हैं, भले ही इनमें होने वाली हिंसा का शिकार हो कर मरने वालों में वे सब आम नागरिक हों, जिनका कोई कसूर नहीं। खेद है कि इन तथाकथित जनवादियों द्वारा उकसाये गये लोगों द्वारा की गयी बेकसूरों की हत्या को जो लोग जायज मानते हैं वे ही लोग न्याय की पूरी प्रक्रिया से गुजर कर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी उस सजा-ए-मौत को हिंसक बता कर उसके खिलाफ खड़े हैं, जो उस बलात्कारी तथा हत्यारे को सुनायी गयी, जिसे कसूरवार पाया गया।

फांसी की सजा किसी को भी होनी ही नहीं चाहिए, यह बात अहिंसा में विश्वास करने वाले गांधीवादी विचारक मानें तो ठीक हैं, परंतु महाश्वेता देवी जैसी विदुषी लेखिका तो अपने अनेक लेखों कहानियों और उपन्यासों में ऐसी असहनीय परिस्थितियों में जीते हुए लोगों को चित्रित करती रही हैं, जिनके आगे नक्सली हिंसा में शामिल होने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। वे शोषण दमन और अन्याय के विरुद्ध हिंसात्मक प्रतिरोध को गलत नहीं मानती। 'हजार चौरासी की मां' हो या 'नीलछवि', या 'मास्टर साहब' या 'घहराती घटाएं', हिंसात्मक प्रतिरोध का चित्रण महाश्वेता देवी सहानुभूति से ही करती रही हैं, भले ही एक निरुपाय, दमित, शोषित विकल्पहीन व्यक्ति के अंतिम विकल्प के रूप में।

मासूम बच्ची के बलात्कार और हत्या के अपराधी से निबटने का और क्या विकल्प था? अपराधी की हिमायत में खड़े अनेक आदतन विरोधी पक्ष रखने वाले बुद्धिजीवियों की पंक्ति में महाश्वेता देवी का खड़ा होना, मुझे अचभ्मित करता है और विचलित भी। उनके प्रति असीम सम्मान और श्रद्धा रखने के बावजूद इस विषय पर मैं उनसे अपनी असहमति दर्ज कराती हूं।

'मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है' और 'जो जीवन हम दे नहीं सकते उसे हम ले भी नहीं सकते' यह वाक्य कह कर तथागत सिद्धार्थ ने एक सुकोमल निर्दोष हंस का जीवन शिकारी देवव्रत से बचा लिया था। सिद्धार्थ ने यह बात निर्दोष हंस का जीवन बचाने के लिए कही थी। बचपन में पढ़ी इस कहानी का असली अर्थ भूलकर, अपने अति उत्साह में मानवाधिकार के नाम पर बुद्धिजीवी यह वाक्य हंस के स्थान पर शिकारी को बचाने के लिए इस्तेमाल करने लगे। पीड़ित की पीड़ा को पूरी तरह नजरअंदाज करके इस बार ये लोग निर्ममता से अभियुक्त की नहीं एक निर्मम अपराधी के पक्ष में खड़े हैं।

गणतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सही इस्तेमाल हमारी बहुत बडी जिम्मेदारी है। हमें मुंह खोलने से पहले सोचना है कि हम निर्दोष हंस को बचाएंगे या नृशंस शिकारी को।

(शालिनी माथुर, 15 अगस्त 2004 लखनऊ)

ज लगभग नौ साल बाद भी मामला ज्यों का त्यों है। 16 दिसंबर 2012 की खौफनाक घटना के बाद जब पूरा देश सड़कों पर उतर कर बलात्कार व हत्या के लिए कठोरतम सजा की मांग कर रहा था, तब यह बात फिर से चर्चा में आयी कि देश की भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह विभाग की संस्तुति पर तीस लोगों की फांसी की सजा माफ कर दी थी, जिनमें 22 ऐसे लोगों की सजा माफ की गयी, जिन्होंने बच्चियों का बलात्कार किया था, सामूहिक हत्याकांडों को अंजाम दिया था और छोटे बच्चों को बर्बरतापूर्वक मार डाला था। इंडिया टुडे (22 दिसंबर 2012) में छपी सूचना के अनुसार मोतीराम तथा संतोष यादव बलात्कार के जुर्म में जेल में रह रहे थे, उन्हें सुधारने के लिए उन्हें जेलर के बगीचे का बागवान नियुक्त किया गया। उन्होंने जेलर की दस वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करके उसे मार डाला। प्रतिभा पाटिल ने उसे क्षमादान दिया। सुशील मुर्मू ने एक नौ वर्षीय बच्चे का गला काट डाला, इससे पहले वह अपने छोटे भाई की बलि चढ़ा चुका था, वह भी पाटिल की दया का पात्र बना। धर्मेंद्र और नरेंद्र यादव ने नाबालिग बच्ची का बलात्कार का प्रयास किया था और उनका प्रतिरोध करने पर उसके परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी थी और एक दस साल के लड़के की गरदन काट कर उसका शरीर आग में झोंक दिया था। मोहन और गोपी ने एक पांच वर्ष के बच्चे का अपहरण करके उसे यातनाएं देकर मार डाला और पांच लाख की फिरौती मांगी।

हम सब जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केसेज में ही मृत्युदंड सुनाता है। हमारे देश में खास कर हमारे उत्तर प्रदेश में पिछले एक वर्ष से सामूहिक बलात्कार के बाद छोटी बच्चियों की हत्या अखबार में प्रतिदिन छपने वाली खबर है। यह रेयर नहीं रह गयी है, पर सजा रेयरली ही सुनायी जाती है।

भेरूसिंह बनाम राजस्थान सरकार के मामले में, जिसमें अपराधी ने अपनी पत्नी तथा पांच बच्चों की नृशंस हत्या की थी, न्यायालय ने कहा "सजा देने का उद्देश्य है कि अपराध बिना सजा के न छूट जाए, पीड़ित तथा समाज को यह संतोष हो कि इंसाफ किया गया है। हमारी राय में सजा का परिमाण अपराध की क्रूरता पर निर्भर होना चाहिए, अपराधी के आचरण पर भी और असहाय तथा असुरक्षित पीड़ित की अवस्था पर भी। न्याय की मांग है कि सजा अपराध के अनुरूप हो और न्यायालय के न्याय में समाज की उस अपराध के प्रति वितृष्णा परिलक्षित हो। न्यायालय को केवल अपराधी के अधिकारों को ही नहीं, पीड़ित के अधिकारों को भी ध्यान में रखना चाहिए और समाज को भी।'' (एससीसी पृ 481 पृ 28)

आज हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथाकथित बुद्धिजीवियों के उपहास व निंदा के पात्र हैं कि उन्होंने प्रतिभा पाटिल की राह नहीं अपनायी। अखबार में कार्टून है कि कहीं फांसी के फंदे चीन से आयात न करने पड़ें। पत्रकार भूल रहे हैं कि यह सजाएं 20-30 वर्ष पहले दी गयी थीं, यदि तभी तामील हो जातीं तो शायद सजा का डिमान्स्ट्रेटिव तथा डिटेरेंट होने का लक्ष्य पूरा कर कर पातीं।

प्रणव मुखर्जी ने जिन्हें दया के योग्य नहीं समझा, उनमें धरमपाल था, जो बलात्कार के अपराध में जेल गया था। बीमारी के नाम पर पैरोल पर छूटा और बलात्कार की शिकार के परिवार के पांच लोगों को मार डाला। प्रवीन कुमार ने चार लोगों की हत्या की, रामजी और सुरेश जी चौहान ने बड़े भाई की पत्नी की चार बच्चों समेत कुल्हाड़ी से काट कर हत्या की, गुरमीत ने तीन सगे भाइयों की, उनकी पत्नियों बच्चों समेत तेरह लोगों को तलवार से काट डाला, जाफर अली ने अपनी पत्नी व पांच बच्चियों को मार डाला। (हिंदुस्तान 5 अप्रैल 2013)

राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जिनको क्षमादान नहीं दिया, उनमें वीरप्पन के चार साथी भी शामिल हैं। पाठकों को शायद स्मरण हो कि जब सैकड़ों हाथियों और पुलिसकर्मियों की हत्या करने वाले तस्कर वीरप्पन को पूर्ण क्षमादान का आश्वासन देकर उससे आत्मसर्मपण करवाने की बात सरकार चला रही थी, तब एक शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने याचिका दी थी कि यदि अपराधी से समझौता ही करना या तो क्यों जंगलों की रक्षा करते हुए उसके पति को, वीरप्पन के हाथों मारे जाने दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी की याचिका पर सरकार द्वारा वीरप्पन से समझौते पर रोक लगा दी थी।

जेल में रहकर अपराधी को अनेक अधिकार हैं। पैरोल पर छूटकर बाहर आकर अपराधों को अंजाम देने और पीड़ित के परिवार को नेस्तनाबूत करने और गवाहों को धमकाने के उदाहरण असंख्य हैं। हमारे प्रयासों से जो कर्नल वाही पिता पुत्र जेल गये थे, वे भी अक्सर लखनऊ की जेल रोड पर घूमते और फल सब्जी खरीदते देखे जाते थे। हम सबने नीतीश कटारा के हत्यारे विकास यादव, कार से लोगों को कुचलने वाले नंदा और अपराधी मनु शर्मा को पैरोल पर छूट कर मयखानों में डिस्को डांस करते हुए दिखाई देने के समाचार पढ़े हैं। अपराधी स्वयं अपनी सुविधा के अनुसार समर्पण करते हैं। हम लोग यह सब संजय दत्त के मामले में देख ही रहे हैं, कि वे जेल में जाने के लिए छह महीने की मोहलत मांग रहे हैं, और उनके साथ के अन्य अपराधी भी। मोहलत मांगने का हक मुल्जिम को है, क्या अपराधी अपने शिकार को कोई मोहलत देते हैं?

शिकार के हक की रक्षा तो कानून भी नहीं करता। शिकार और उनके दोस्त अहबाब सिर्फ इंतजार करते हैं। अभी गोंडा में 31 वर्ष पहले हुई पुलिस के एसओ केपी सिंह तथा 12 अन्य निर्दोषों की हत्या के अपराधियों को निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनायी। अखबार में किंजल सिंह की रोते हुए तस्वीर छपी है, पिता की हत्या के समय वे चार माह की थीं, आज वे एक आइएएस अधिकारी हैं। इन 31 वर्षों के बीच उनकी मां भी गुजर गयीं। (दैनिक जागरण 6 अप्रैल 2013) ऐसे अपराधियों के पास सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और वहां भी अपराधी पाये जाने के बाद भी दया पाने का हक है। पीड़ितों के पास शीघ्र इंसाफ पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं।

सर्वोच्च न्यायालय के न्‍यायाधीश डॉ एएस आनंद ने 'विक्टिम ऑफ क्राइम – अनसीन साइड' में लिखा है, ''विक्टिम (मजलूम) दुर्भाग्य से दंड प्रक्रिया का सर्वाधिक विस्मृत और तिरस्कृत प्राणी है। एंग्लो सेक्‍शन प्रणाली पर आधारित अन्य प्रणालियों की भांति हमारी दंड प्रक्रिया भी अपराधी पर केंद्रित है – उसके कृत्य, उसके अधिकार और उसका सुधार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकसित देशों जैसे ब्रिटेन, आस्‍ट्रेलिया, न्यूजीलैंड अमरीका आदि ने अभागे पीड़ितों पर भी ध्यान देना शुरू किया है, जो दरअसल अपराध के सबसे बड़े शिकार होते हैं और जिनकी क्षति पूर्ति किया ही जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा (1985) के बाद अमरीका ने भी विक्टिम ऑफ क्राइम एक्ट बनाया। मुजरिम को जमानत का अधिकार एक अधिकार स्वरूप मिला है, पर पीड़ित को जमानत का विरोध करने का यह अधिकार नहीं। राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह चाहे तो विरोध करे चाहे न करे। पूरी दंड प्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका सिवा एक गवाह के कुछ नहीं, वह भी तब, यदि सरकारी वकील चाहे।''

मेरा यह आलेख फांसी की सजा के पक्ष में लिखा गया आलेख नहीं है। यह मजलूम के हकों के पक्ष में लिखा गया लेख है। यह आवाज पीड़ित के अधिकार के पक्ष में उठी आवाज है। हमारी दंड प्रक्रिया क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम कहलाती है, जो क्रिमिनल को केंद्र में रखती है – उसके अधिकार, उसकी सुविधा, उसकी सुरक्षा, उसकी खुराक, उसका परिवार, उसके परिवार का दुख, दंड का विरोध करने का उसका हक, उसका सुधार। निर्भया कांड के अभियुक्त विनय शर्मा ने अदालत के माध्यम से अपने लिए तिहाड़ जेल में फलों अंडे और दूध से युक्त बेहतर खुराक की मांग की है कि वह परीक्षा में बैठेगा। जिन्होंने बेटी खोयी है वे क्या खा रहे होंगे, क्या उन्हें भी ऐसी मांगें रखने का कानूनी हक है? जो अपराध का शिकार हुए, उस पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा न हमारे कानून की जिज्ञासा का विषय है, न हमारी।

आज जब मैं अपने इस पुराने आलेख को पुन: आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूं, हमारे आदरणीय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन चौदह अप्रैल है। अखबार में उनके संविधानसभा में दिये गये भाषण का मुख्य अंश छपा है, ''संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए नौ दिसंबर 1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष ग्यारह महीने और सात दिन हो जाएंगे। संविधान सभा में मेरे आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया, तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। इतना विश्वास करने और सेवा का अवसर देने के लिए मैं अनुग्रहीत हूं। मैं मानता हूं कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे कितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। ''(दैनिक हिंदुस्तान, रविवार, 14 अप्रैल 2013, पृ 16)

हमारे संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर की कही हुई उक्त अंतिम पंक्ति कितनी सरल और कितनी साधारण है, पर कितनी सारगर्भित। अच्छे लोग पीड़ित की पीड़ा को देखकर पीड़ित के अधिकार की रक्षा के लिए संविधान का इस्तेमाल करेंगे या संविधान में दी गयी भांति भांति की न्यायिक प्रक्रियाओं का आश्रय लेकर अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करते हुए अपराधियों के पक्ष में जुलूस निकालते रहेंगे। हमारा समाज और संविधान भोले बेकसूर हंस की रक्षा करेगा या कुसूरवार बेरहम शिकारी की?

(शालिनी माथुर से उनके डाक पते ए 5/6, कारपोरेशन फ्लैट्स, निराला नगर, लखनऊ पर, साथ ही उनके फोन नंबर 9839014660 और उनके ई-पते shalinilucknow@yahoo.com पर संपर्क कर सकते हैं। यह आलेख कथादेश के मई अंक में छपा है।)

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