वीसी शुक्ला के साथ दफन हो गया किस्सा कुर्सी का राज़
♦ अमृत नाहटा
विद्याचरण शुक्ल के साथ ही फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' का किस्सा भी हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया। 25 मई को हुए नक्सली हमले में नक्सलियों की गोली के शिकार हुए विद्याचरण शुक्ल आपातकाल के दौर में सूचना प्रसारण मंत्री थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के सबसे खासम खास। आपातकाल के उसी दौर में इंदिरा गांधी को लेकर सांसद अमृत नाहटा ने एक फिल्म बनायी थी – 'किस्सा कुर्सी का'। इस फिल्म का प्रिंट गायब करने के मामले में इमर्जेंसी के बाद बनी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने सीबीआई जांच के आदेश दिेये थे। सीबीआई की रिपोर्ट के बाद संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। सत्र न्यायालय ने दोनों को जुर्माना एवं सजा सुनायी। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। लेकिन तब तक मोरारजी देसाई पीएम पद को अलविदा कह चुके थे और चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से पीएम के पद पर काबिज थे। दृश्य बदल चुका था और बदले हुए दृश्य में अमृत नाहटा सुप्रीम कोर्ट में अपने आरोपों से ही पलट गये। जाहिर है, संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल दोनों को बाइज्जत बरी कर दिया गया। हालांकि समय-समय पर यह बात उठती रही कि 'किस्सा कुर्सी का' के प्रिंट आज भी कहीं सुरक्षित हैं।
दिल्ली में हमें न तो योग्य अभिनेत्रियां ही मिल पायीं और न ही एक युवा रोमांटिक चेहरा। हम बंबई चले गये। एफटीआईआई से ट्रेनिंग पायी हुई शबाना आजमी और रेहाना सुल्तान फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाने के लिए राजी हो गयीं। एफटीआईआई से ही उसी समय पास होकर आने वाले आदिल में हमें फिल्म के लिए रोमांटिक चेहरा मिल गया। बंबई में ही हमें एक अन्य चरित्र के लिए मनहर देसाई मिल गया और उसने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया।
तकनीशियनों के मामले में हमें परेशानी नहीं थी और हमने तय कर लिया था कि एफटीआईआई से ट्रेनिंग पाये हुए तकनीशियनों को ही हम अपनी फिल्म में लेंगे। लंच करते करते केके महाजन ने कहानी सुनी और तुरंत फिल्म के लिए सिनेमेटोग्राफर बनने को राजी हो गया। देशपांडे, फिल्म का एडिटर, स्क्रिप्ट को आखिरी रूप देने के लिए हमारे साथ बैठा और उसने कुछ उल्लेखनीय सुझाव दिये। चतुर्वेदी ने साउंड इंजीनियर का काम संभाला और बाबा, शिवेंद्र जी का सहायक बनने को राजी हो गया।
बहुत विचार-विमर्श के बाद हमने फिल्म के लिए एक थीम सांग निश्चित किया। फिल्म्स डिवीजन के रघुनाथ सेठ, जिन्होने "फिर भी" में भी संगीत दिया था, हमारी फिल्म के संगीत निर्देशक बने। मैंने गीत के बोल लिखे और आशा भोंसले और महेंद्र कपूर ने गीत को गाया। बहरहाल, सबसे बड़ी चुनौती थी फिल्म का स्तर और प्रभाव बनाये रखने के लिए एक उपयुक्त्त पार्श्व संगीत (बैक-ग्राउंड म्यूजिक) तैयार करने की। रघुनाथ जी ने झिंझोड़ने वाला संगीत तैयार किया।
हमने तय किया था कि फिल्म में वास्तविकता का पुट लाने के लिए दिल्ली में ही शूटिंग की जाएगी। सौभाग्य से फोर्ड फाउंडेशन, कुतुब होटल और विज्ञान भवन की इमारतों में हमें उपयुक्त्त लोकेशंस मिल गयीं और इन स्थलों ने फिल्म को राजनीतिक रूप देने में पूरी सहायता की। दिल्ली में टीवी से जुड़े रावत के रूप में हमें एक बेहद परिश्रमी और कल्पनाशील आर्ट-डायरेक्टर मिल गया। शिवेंद्र जी बहुत बारीकी से सब पहलुओं पर निगाह रखते थे और रावन ने उनकी योजनाओं को मूर्त रूप देने में कसर न छोड़ी।
1974 के जुलाई माह तक धन को छोड़कर सभी कुछ तैयार था। कोई भी ऐसी फिल्म को खरीदने या इसमें निवेश करने आगे नहीं आया। इस फिल्म में न सैक्स था, न क्राइम, न हिंसा, न रोमांस, न हॉरर, न मेलोड्रामा और न ही कोई फॉर्मूला। यह एक अव्यवसायिक किस्म की फिल्म थी जो वितरकों को केवल पूरी होने के पश्चात ही बेची जा सकती थी। न ही यह कला-फिल्म थी, अगर ऐसे शब्द से मतलब ऐसी फिल्म से हो, जिसे इलीट वर्ग के ऊंचे दिमाग वाले चुनिंदा दर्शक देखते हों। मैं इसे ऐसे माध्यम से बनाना चाहता था, जो मैं जानता था कि बहुत शक्तिशाली है।
मैंने दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों से धन उधार लिया। बिल्कुल हैंड-टू-माउथ किस्म की शूटिंग थी हमारी फिल्म की। हालांकि हमारी फिल्म छोटे बजट की फिल्म थी तब भी मैं जितना हो सकता था और कम खर्चे में काम चलाने की कोशिश करता था। सारी यूनिट किराये पर लिये गये एक बंगले में ठहरी और वहीं सबके लिए किचन स्थापित की गयी। ईस्टमैनकलर में फिल्माने के बावजूद निगेटिव की लागत नौ लाख रुपये आयी। यह रकम किसी भी स्तर से बहुत कम थी। सभी ने पूरी तरह से सहयोग दिया। इतनी समर्पित टीम के साथ काम करना एक बहुत अच्छा अनुभव था।
कोई भी फिल्म वास्तव में एडिटिंग टेबल पर बनती है। शूटिंग तो अक्टूबर तक खत्म हो गयी थी लेकिन एडिटिंग, डबिंग, पार्श्व संगीत, मिक्सिंग और स्पेशल इफेक्ट्स आदि ने पांच महीनों से ज्यादा समय लिया।
1974-75 में बनी "किस्सा कुर्सी का" इस थीम पर आधारित थी कि "कैसे अनैतिक राजनीतिज्ञ हमारे देश की गूंगी जनता के साथ बलात्कार करते हैं"। फिल्म सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों के तौर-तरीकों के ऊपर एक तीखा व्यंग्य थी। यह एक अव्यवसायिक श्रेणी की फिल्म थी और इसे बनाने का उद्देश्य मतदाताओं को जागरूक बनाना था। मैं इसे चेतना की फिल्म कहता हूं।
यह "किस्सा कुर्सी का" फिल्म का रीमेक है, जो 1978 में बनाया गया था।
19 अप्रैल 1975 को मैंने केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड, बंबई के समक्ष फिल्म के प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र देने के लिए आवेदन किया। पहले तो बोर्ड के कार्यकारी चेयरमैन ने इसे रिवाइजिंग कमेटी के सुपुर्द कर दिया और जब उसने पाया कि सदस्यों का बहुमत फिल्म को प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र देने के पक्ष में था तो इस निम्न सोच के अधिकारी ने मेरी फिल्म को केंद्रीय सरकार के पास भेज दिया।
ढाई महीनों तक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधिकारी मेरी फिल्म के ऊपर कुंडली मारे बैठे रहे। आखिरकार उन्होने मुझे 40 आपत्तियां बतायीं और मुझसे 11 जुलाई 1975 को उन आपत्तियों के जवाब देने को कहा। उनकी सारी आपत्तियां, अनर्गल, निराधार और बकवास किस्म की थीं। मैंने अपने जवाब 11 जुलाई 1975 को भेज दिये। मेरे जवाबों को बिना देखे ही संयुक्त्त सचिव ने उसी दिन मेरी फिल्म को प्रदशन के लिए प्रमाणपत्र न देने का आदेश जारी कर दिया।
इस बीच इमरजेंसी लग चुकी थी। 14 जुलाई 1975 को मेरी फिल्म को अवांछित फिल्म घोषित कर दिया गया और डीआईआर के अंतर्गत सरकार ने मेरी फिल्म को जब्त करने के आदेश दे दिये। मैं तुरंत सुप्रीम कोर्ट की शरण में गया और निवेदन किया कि सरकार को मेरी फिल्म जब्त करने से रोका जाए क्योंकि मुझे डर था कि मेरी फिल्म को नष्ट कर दिया जाएगा। 18 जुलाई 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने मुझे निर्देश दिये कि मैं फिल्म, निगेटिव, और फिल्म से जुड़ी अन्य सामग्री सरकार को सौंप दूं और कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिये कि मेरी फिल्म, निगेटिव और प्रिंट्स आदि को तब तक सुरक्षित रखा जाए जब तक कि सुनवाई पूरी नहीं हो जाती।
कुछ दिनों के बाद ट्रक में भर कर पुलिस वाले आये और बांबे फिल्म्स लेबोरेटरी प्राइवेट लिमिटेड की इमारत पर रेड डालकर मेरी फिल्म, उसके निगेटिव, साउंड ट्रैक, रशेज प्रिंट्स और यहां तक कि एडिटर द्वारा काटकर कर अलग फेंकी गयी बेकार फिल्म और अन्य सब कुछ अपने साथ ले गये।
29 अक्टूबर 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिये कि उसके सामने फिल्म का प्रदर्शन किया जाए। फिल्म की स्क्रीनिंग के लिए 17 नवंबर 1975 की तारीख दी गयी। इस तारीख से दो हफ़्ते पहले ही सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सरकार के पास मौजूद फिल्म का एकमात्र पॉजीटिव प्रिंट गायब हैं और इसलिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष फिल्म का प्रदर्शन किया जाना संभव नहीं है।
तीन जनवरी 1976 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिये कि प्रिंट की तलाश की जाए और अगर प्रिंट नहीं मिल पाता है तो निगेटिव से प्रिंट बनवा कर कोर्ट के समक्ष फिल्म का प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
22 मार्च 1976 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि फिल्म का निगेटिव भी गायब है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया गया प्रत्येक हलफनामा झूठ का पुलिंदामात्र था। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर फिल्म का प्रिंट और निगेटिव दोनों ही गायब हो गये थे तो यह न केवल सरकार की लापरवाही दिखाता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना की और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना भी की।
यह पूरा ऑपरेशन क्रूरता, जबरदस्ती, और गैरकानूनी गतिविधियों से भरा था और ऐसी ही घटनाओं से इमरजेंसी का पूरा काल सराबोर रहा है। मेरी फिल्म के साथ घटित यह बताता है कि कैसे कला के क्षेत्र में भी रचनात्मक स्वतंत्रता को कुचला गया।
[इस आलेख का स्रोत और संदर्भ तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी को भेजी गयी किस्सा कुर्सी का के निर्देशक अमृत नाहटा की चिट्ठी है।]
सौजन्य: आलोक पुतुल वाया छत्तीसगढ़ खबर ग्रुप
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